31. ‘सत्संग में जाने से बड़ी आपत्ति टल जाती है’ | जीने की राह


satsang-big-crisis-averted-hindi-photo

कबीर, संत शरण में आने से, आई टलै बला।
जै भाग्य में सूली हो, कांटे में टल जाय।।

 

भावार्थ:- समर्थ कबीर परमेश्वर के कृपा पात्र सच्चे गुरू (सतगुरू) से दीक्षा लेने वाले भक्त/भक्तमति की परमात्मा रक्षा करता है। यदि पूर्व जन्म के पाप के कारण साधक को मौत की सजा सूली यंत्र के द्वारा मिलनी भाग्य में लिखी हो जो अत्यधिक पीड़ादायक होती है तो परमात्मा उस साधक के उस मृत्युदंड को समाप्त करके कुछ छोटा-मोटा दण्ड जैसे पैर में काँटा लगना देकर टाल देता है। भयंकर दण्ड को नाममात्र के दण्ड में बदल देता है जो बहुत बड़ी बला यानि परेशानी थी।

एक गाँव में संत का आश्रम था जो गाँव से लगभग दो किलोमीटर दूर बना था। उस गाँव के कई परिवार संत जी के शिष्य थे। संत जी वर्ष में केवल दो बार उस आश्रम में आते थे। उसके साथ कुछ स्थाई शिष्य भी आते थे। वह संत अपनी मण्डली के साथ प्रत्येक बार दो महीने उस आश्रम में रहता। फिर अन्य आश्रमों में जाता था। संत जी अपने कार्यक्रम के अनुसार दो महीने के लिए आया हुआ था। उस गाँव के भक्तों के भोजन की व्यवस्था अपने-अपने घरों से कर रखी थी। एक परिवार एक दिन का भोजन आश्रम वालों को घर बनाकर लाकर खिलाता था। प्रत्येक भक्त की इच्छा रहती थी कि अपने गुरू जी को उत्तम भोजन खीर व सब्जी-रोटी खिलाऐं। एक परिवार का भोजन का दिन था। उस दिन दूध खराब हो गया। उस माई का नाम कस्तूरी था। उसी के पड़ोस में एक परिवार था जिसमें केवल दो माँ-बेटा थे। कारण यह था कि उस बहन रामों के पति की मृत्यु उस समय हो गई जब लड़का दो वर्ष का था। उस बहन ने एक घटना देखी थी कि उसके परिवार में दूसरे दादसरे की संतान में एक बहू विधवा हो गई थी। एक पुत्र तीन वर्ष का था। उसने अपने देवर से शादी कर ली। देवर भी शादीशुदा था। देवर से भी उसको एक पुत्र प्राप्त हो गया। देवर-देवरानी उससे मजदूर के समान बर्ताव करते थे। रूखा-सूखा-झूठा टुकड़ा पहले बेटे तथा माता को देते थे। जिस कारण से लड़के ने बड़ा होने पर आत्महत्या करनी पड़ी। वह भी पागल होकर कहीं चली गई। (सब देवर-जेठ बुरे नहीं होते।) इस घटना को याद करके उस रामों बहन ने जेठ-देवर से विवाह नहीं किया। (लत्ता नहीं ओढ़ा।) अपने बेटे कर्मपाल को पाला-पोसा। मेहनत-मजदूरी की। कुछ जमीन भी थी। उसी में मेहनत करके गाय-भैंस को पालती थी। अपने बेटे को अच्छा घी-दूध पिलाती-खिलाती थी। विचार करती थी कि बेटा शीघ्र जवान हो जाएगा। इसका विवाह करूंगी। यह अपने कार्य को संभाल लेगा। मैं सुख का जीवन जीऊँगी। परंतु सत्संग बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान सतगुरू देता है। भक्ति बिना जीव सुखी नहीं हो सकता चाहे कितना ही धनी क्यों न हो। सिर पर पिता का साया नहीं था। बेटा माँ के लाड से बिगड़ता ही है। माँ का स्वभाव अपनी संतान को सर्व संभव सुख देना होता है। कहावत है कि रांड (विधवा) का बेटा तथा रंडुए (विधुर) की बेटी बिगड़ती (आवारा होती) है। कारण पिता कार्यवश बेटी की गतिविधि पर ध्यान नहीं रख पाता। माँ बेटे की गतिविधि पर ध्यान नहीं दे पाती। बेटी को तो अपने साथ रखती है। जिस कारण से कर्मपाल नशा करने लगा। माता से झगड़ा करके रूपये या बाजरा-ज्वार, चना ले जाता, उसे बेचकर नशा करता था। माँ सारा दिन रोती रहती थी कि सोचा क्या था, यह कैसी कर्मगति? आगे से आगे सब उल्टा हो रहा है। जिस चिंता के कारण दुबली-पतली हो गई थी। भक्तमति कस्तूरी अपनी पड़ोसन रामों (रामप्यारी) के घर गई। पहले कुशल-मंगल की औपचारिकता करते हुए पूछा कि बेटा क्या कर रहा है? कैसे हो माँ-बेटा? यह बात सुनकर बहन रामों रोने लगी और बोली कि बहन! कैसे भी नहीं हैं। लड़का बिगड़ गया है। नशा करता है। कहना नहीं मानता है। झगड़ा करता है। गाली-गलौच पर उतर आता है। आपको तो पता है परिवार तथा गाँव वालों ने मेरे ऊपर कितना दबाव डाला था जेठ का लत्ता ओढ़ने (पति के बड़े भाई से पुनः विवाह करने) के लिए। मैंने राजवंती की घटना से डरकर जेठ से विवाह नहीं किया अपने बेटे को सुखी देखने के लिए। आज इसने उससे भी अधिक दुःख दे दिया। मन करता है कि कहीं चली जाऊँ या आत्महत्या कर लूँ। भक्तमति कस्तूरी ने कहा कि बहन! गलत बात नहीं सोचा करते। बड़ा होकर सुधर जाएगा। आप मर गई तो तेरे को पता है चाचे-ताऊ सारी जमीन हड़प लेंगे। लड़के को अधिक नशा कराकर मार डालेंगे। ऐसा विचार न कर। एक काम करो, मेरे साथ सत्संग में चला करो। यहाँ अकेली के मन में ऐसे विचार आते रहेंगे। सूखकर काँटा हो गई हो। रामों बोली, ना बहन ना। मेरे को तो नगर के लोग वैसे ही शक की नजर से देखते हैं। कोई व्यक्ति किसी कार्यवश घर आ जाता है तो छतों पर चढ़कर एक आँख से देखते हैं। आपके तो सिर पर धनी (पति) है। मैं सत्संग में चली गई तो जीना हराम कर देंगे। मुझे मरना ही पड़ेगा। बहन यूं बता, आज सुबह-सुबह कैसे आना हुआ? कस्तूरी ने कहा कि बहन आपको तो पता ही है कि हमारे गुरूजी आश्रम में ठहरे हैं। आज भोजन कराने की बारी मेरी है। बहन खीर बनानी थी। दूध खराब हो गया। कुछ दूध उधारा दे दे, कल लौटा दूँगी। यह बात सुनकर बहन रामों में करंट-सा आया और दूध निकालकर बाल्टी खूंटी (Hanger) से लटका रखी थी, उठकर सारा का सारा दूध कस्तूरी की बाल्टी में डाल दिया। कस्तूरी ने कहा कि बहन! कुछ तो रख ले। रामों बोली, बहन! ना जाने कौन-से जन्म का पुण्य उदय हुआ है, मुझ निर्भाग का दूध पुण्य में लगेगा। बस बहन ले जा, संतों-भक्तों को भोजन करा। कस्तूरी बहन आश्चर्यचकित थी कि सारा का सारा दूध तो मैं सत्संगी होते हुए भी नहीं दे सकती थी। किलो-दो किलो तो रखती। बहन रामों को तो सत्संग की प्रेरणा की आवश्यकता है। उस दिन तो कस्तूरी को समय नहीं मिला। अगले दिन के 11-12 बजे रामों के घर गई। गाँव में 12 से 2 तक दिन का समय महिलाओं को बातें करने का मिल जाता है। दो घण्टे तक सत्संग की बातें जो गुरू जी से सुनी थी, सारी बताई। परंतु लोकलाज के कारण रामों मानने को तैयार नहीं थी। बहन कस्तूरी ने बताया कि हे बहन! आप ने मीराबाई का नाम सुना है। रामों बोली कि हाँ, कृष्ण जी की भक्तिन थी। कस्तूरी बोली कि वह मंदिर में जाती थी। ठाकुर परिवार में जन्म था। महिलाओं को घर से बाहर जाने पर प्रतिबंध था, परंतु मीराबाई ने किसी की प्रवाह नहीं की। फिर उसका विवाह राजा से हो गया। राणा जी धार्मिक विचार के थे। उसने मीरा को मंदिरों में जाने से नहीं रोका, अपितु लोक चर्चा से बचने के लिए मीरा जी के साथ तीन-चार महिला नौकरानी भेजने लगा। जिस कारण से सब ठीक चलता रहा। कुछ वर्ष पश्चात् मीरा जी के पति की मृत्यु हो गई। देवर राजगद्दी पर बैठ गया। उसने कुल के लोगों के कहने से मीरा को मंदिर में जाने से मना किया, परंतु मीराबाई जी नहीं मानी। जिस कारण से राजा ने मीरा को मारने का षड़यंत्र रचा। विचार किया कि ऐसी युक्ति बनाई जाए कि यह भी मर जाए और बदनामी भी न हो। राजा ने विचार किया कि इसे कैसे मारें? राजा ने कहा कि सपेरे एक ऐसा सर्प ला दे कि डिब्बे को खोलते ही खोलने वाले को डंक मारे और व्यक्ति मर जाए। ऐसा ही किया गया। राणा जी ने अपने लड़के का जन्मदिन मनाया। उसमें रिश्तेदार तथा अन्य गणमान्य व्यक्ति आमंत्रित किये। राजा ने मीरा जी की बांदी (नौकरानी) से कहा कि ले यह बेशकीमती हार है। मेरे बेटे का जन्मदिन है। दूर-दूर से रिश्तेदार आये हैं। मीरा को कह दे कि सुंदर कपड़े पहनकर इस हार को गले में पहन ले, नहीं तो रिश्तेदार कहेंगे कि अपनी भाभी जी को अच्छी तरह नहीं रखता। मेरी इज्जत-बेइज्जती का सवाल है। बांदी ने उस आभूषण के डिब्बे को मीराबाई को दे दिया और राजा का आदेश सुना दिया। उस आभूषण के डिब्बे में विषैला काले-सफेद रंग का सर्प था। मीरा ने बांदी के सामने ही उस डिब्बे को खोला। उसमें हीरे-मोतियों से बना हार था। मीराबाई ने विचार किया कि यदि मैं हार नहीं पहनूंगी तो व्यर्थ का झगड़ा होगा। मेरे लिए तो यह मिट्टी है। यह विचार करके मीरा जी ने वह हार गले में डाल लिया। राजा का उद्देश्य था कि आज सर्प डंक से मीरा की मृत्यु हो जाएगी तो सबको विश्वास हो जाएगा कि राजा का कोई हाथ नहीं है। हमारे सामने सर्प डसने से मीरा की मृत्यु हुई है। कुछ समय उपरांत राजा मंत्रियों सहित तथा कुछ रिश्तेदारों सहित मीरा के महल में गया तो मीरा बाई जी के गले में सुंदर मंहगा हार देखकर राणा बौखला गया और बोला, बदचलन! यह हार किस यार से लाई है? मीरा बाई जी के आँखों में आँसू थे। बोली कि आपने ही तो बांदी के द्वारा भिजवाया था, वही तो है। बांदी को बुलाया तथा पूछा कि वह डिब्बा कहाँ है? बांदी ने पलंग के नीचे से निकालकर दिखाया। यह रहा राजा जी जो आपने भेजा था। राजा वापिस आ गया। राजा ने सोचा कि अब की बार इसको विष मैं अपने सामने पिलाऊँगा, नहीं पीएगी तो सिर काट दूँगा।