60. अध्याय "हनुमान बोध" का सारांश | जीने की राह


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श्री हनुमान जी के गुरू जी कौन थे?

आप जी पढ़ें ‘‘कबीर सागर’’ से अध्याय ‘‘हनुमान बोध’’ का सारांश:-

कबीर सागर के पृष्ठ 113 पर 12वां अध्याय ‘‘हनुमान बोध‘‘ है।कबीर सागर के इस अध्याय में पवन सुत हनुमान जी को शरण में लेने का प्रकरण है।

धर्मदास जी ने प्रश्न किया कि हे परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी! क्या आप अच्छी आत्मा पवन पुत्र हनुमान जी को भी मिले हो।

उत्तर (परमेश्वर कबीर जी का)= हाँ।

प्रश्न (धर्मदास जी का):- हे प्रभु! क्या उन्होंने भी आपके ज्ञान को स्वीकारा? वे तो मेरे की तरह श्री राम उर्फ विष्णु जी में अटूट श्रद्धा रखते थे। उनको आपकी शरण में लेना तो सूर्य पश्चिम से उदय करने के समान है।

उत्तर (परमेश्वर कबीर जी का):- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास को पवन तनय हनुमान जी को शरण में लेने का वृतांत बताया। आप जी पढ़ें सरलार्थकर्ता (रामपाल दास) द्वारा हनुमान जी को कैसे परमेश्वर कबीर जी ने शरण में लिया तथा रामायण का संक्षिप्त वर्णन:-

रामायण ग्रन्थ में प्रकरण आता है कि एक बाली नाम का राजा था। उसका भाई सुग्रीव था। किसी कारण से बाली ने अपने भाई सुग्रीव को अपने राज्य से निकाल दिया। उसकी पत्नी को अपने कब्जे में पत्नी बनाकर रखा। सुग्रीव दूर देश में मायूस भ्रमण कर रहा था। हनुमान जी राम-राम करते हुए एक पहाड़ पर बैठे दिखाई दिए। दोनों की मित्रता हो गई। सुग्रीव ने अपना दुःख हनुमान जी से साझा किया। हनुमान जी ने शरणागत सुग्रीव की सहायता करने का वचन दिया। सुग्रीव ने हनुमान जी को बताया कि बाली में ऐसी सिद्धि है कि कोई उससे युद्ध करता है तो सामने वाले की आधी शक्ति बाली में प्रवेश कर जाती है। यह बात जानकर हनुमान जी भी शान्त रहे। युद्ध करने का इरादा त्याग दिया। उस समय रामचन्द्र पुत्र राजा दशरथ जी को बनवास हुआ था। उनकी पत्नी सीता जी तथा भाई लक्ष्मण भी वन में साथ गए थे। श्रीलंका के राजा रावण की बहन स्वरूपणखां ने लक्ष्मण को देखा तो उससे विवाह करने का प्रस्ताव रखा। लक्ष्मण ने कहा कि मेरा विवाह हो चुका है। (लक्ष्मण की पत्नी का नाम उर्मिला था।) शुर्पणखा ने बार-बार विवाह करने का आग्रह किया तो शेषनाग अवतार लक्ष्मण ने क्रोधवश उसका नाक काट दिया। शुर्पणखा ने अपनी दुर्दशा की दास्तां अपने भाई रावण से सुनाई और पूरा पता बताया। रावण ने प्रतिशोध लेने के लिए राम की पत्नी सीता का अपहरण करने की योजना बनाई। साधु वेश बनाकर अपने मामा मारीच के सहयोग से रावण ने सीता जी का अपहरण कर लिया।

सीता जी की खोज में श्री राम जी तथा श्री लक्ष्मण जी वन-वन भटक रहे थे। उसी समय उनको श्री हनुमान जी तथा श्री सुग्रीव जी मिले। आपस में परिचय हुआ। सुग्रीव ने श्री राम से अपना कष्ट बताया। श्री राम चन्द्र जी ने शर्त रखी कि यदि मैं आपका राज्य आपको दिला दूँ तो आपको सीता की खोज तथा वापसी के लिए मेरा सहयोग करना होगा। बात पक्की हो गई। श्री रामचन्द्र जी ने वृक्ष की ओट लेकर बाली को युद्ध करके मारकर सुग्रीव को राज तिलक कर दिया। सुग्रीव ने अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया। सीता जी की खोज के लिए चारों दिशा में खोजी भेजे गए। जटायु पक्षी ने श्री राम को बताया कि सीता माता को लंकेश्वर रावण उठा ले गया। उससे मैंने माता को छुड़वाने की चेष्टा की तो मेरे पँख काट दिए। रावण से बातचीत करके सीता को लौटाने के लिए श्री राम जी ने हनुमान को राजदूत बनाया। श्री रामचन्द्र जी ने श्री हनुमान जी को सीता को विश्वास दिलाने के लिए अपनी अँगूठी दी जिस पर श्री राम लिखा था। सीता उस अँगूठी से हनुमान पर विश्वास कर सकती थी कि जो मुझसे मिलने आया है, वह श्री राम का भेजा हुआ है। हनुमान जी श्री राम की मुंद्री लेकर आकाश मार्ग से उड़कर श्रीलंका में गए। रावण का एक नौ लखा बाग था। उसमें सीता जी को रावण राक्षस ने कैद कर रखा था। हनुमान जी ने सीता माता को अँगूठी देकर अपना विश्वास दिलाया। सीता जी ने अपना सर्व कष्ट जो राक्षस रावण दे रहा था, हनुमान जी को बताया। सीता जी ने अपना कंगन (सुहाग का कड़ा) हाथ से निकालकर हनुमान जी को दिया। कहा कि भाई! आप यह कंगन श्री राम जी को दिखाओगे, तब उनको विश्वास होगा कि तुम सीता की खोज करके आए हो। हनुमान जी के साथ सीता जी ने आने से इंकार कर दिया कि मैं तेरे साथ नहीं चलूँगी। हनुमान जी ने फल खाने की इच्छा व्यक्त की तो सीता ने कहा, भाई! कोई फल झड़कर गिरा हो, वह फल खा सकते हो। फल तोड़कर खाने का मुझे भी आदेश नहीं है। इस बात से क्षुब्ध होकर हनुमान जी ने पहले तो पेड़ को गिराया। फिर पके हुए फल खाये। फिर उस वृक्ष को समुद्र में फैंक दिया। ऐसे हनुमान जी ने रावण का नौ लखा बाग उजाड़कर वृक्ष समुद्र में फैंक दिए। लंका के राजा रावण ने हनुमान की पूँछ पर कपड़े-रूई बाँधकर आग लगा दी थी। हनुमान ने अपनी दुम की अग्नि से रावण की लंका को आग के हवाले कर दिया।

इसके पश्चात् आकाश मार्ग से उड़कर समुद्र पार करके एक पहाड़ी पर उतरे। सुबह का समय था। पहाड़ पर जलाशय पवित्र जल से भरा था। पास ही बाग था जिसमें फलदार वृक्ष थे। हनुमान जी को भूख लगी थी। स्नान करने का विचार किया। कंगन को एक पत्थर पर रख दिया। स्नान करते समय भी हनुमान की एक आँख कंगन पर लगी थी। लंगूर बंदर आया। उसने कंगन उठाया और चल पड़ा। हनुमान जी को चिंता बनी कि कहीं बंदर इस कंगन को समुद्र में न फैंक दे, मेर परिश्रम पर पानी न फिर जाए। अब लंका में जाने का रास्ता भी बंद हो गया है। अजीब परेशानी में हनुमान बंदर के पीछे-पीछे चला। देखते-देखते बंदर ने वह कंगन एक ऋषि की कुटिया के बाहर रखे एक घड़े में डाल दिया और आगे दौड़ गया। हनुमान जी ने राहत की श्वांस ली। कलश में झांककर कंगन निकालना चाहा तो देखा घड़े में एक जैसे अनेकों कंगन थे। हनुमान जी को फिर समस्या हुई। कंगन उठा-उठाकर देखे, कोई अंतर नहीं पाया। अपना कंगन कौन-सा है? कहीं मैं गलत कंगन ले जाऊँ और श्री राम कहे, यह कंगन सीता का नहीं है, मेरा प्रयत्न व्यर्थ हो जाएगा। सामने एक ऋषि हनुमान जी की परेशानी को देखकर मुस्करा रहा था। कुटिया के बाहर बैठा था। ऋषि जी बोले, आओ पवन पुत्र! किस समस्या में हो? हनुमान जी ने कहा कि ऋषि जी! श्री रामचन्द्र जी की पत्नी को लंका का राजा रावण अपहरण करके ले गया है। मैं पता करके आया हूँ। ऋषि जी ने कहा कि कौन-से नम्बर वाले रामचन्द्र की बात कर रहे हो? हनुमान जी को आश्चर्य हुआ कि ऋषि अपने होश-हवास में है या भाँग पी रखी है? हनुमान जी ने पूछा, हे ऋषि जी! क्या राम कई हैं? ऋषि जी ने कहा, हाँ, कई हो चुके हैं और आगे भी जन्मते-मरते रहेंगे। हनुमान जी को ऋषि का व्यवहार उचित नहीं लगा, परंतु ऋषि जी से विवाद करना भी हित में नहीं जाना। ऋषि जी ने पूछा, आप फल खाओ। खाना बनाता हूँ, भोजन खाओ। थके हो, विश्राम करो। हनुमान जी ने कहा, ऋषि जी! मेरी तो चैन-अमन ही समाप्त हो गई है। मेरे को सीता माता ने कंगन दिया था। उस कंगन के बिना श्री रामचन्द्र जी को विश्वास नहीं होना कि सीता की खोज हो चुकी है। उस कंगन को पत्थर पर रखकर मैं स्नान कर रहा था। बंदर ने उठाकर घड़े में डाल दिया। मेरी पहचान में नहीं आ रहा कि वास्तविक कंगन कौन-सा है। मेरे को तो सब एक जैसे लग रहे हैं। ऋषि रूप में बैठे परमेश्वर कबीर जी ने कहा, हे पवन के लाडले! आप कोई एक कंगन उठा ले जाओ, कोई अंतर नहीं है और कहा कि जितने कंगन इसमें पड़े हैं। इतनी बार श्री राम पुत्र दशरथ को बनवास तथा सीता हरण और हनुमान द्वारा खोज हो चुकी है। हनुमान जी ने कहा, ऋषि जी! यह बताओ, आपकी बात मानता हूँ। पूछता हूँ कि प्रत्येक बार सीता हरण, हनुमान का खोज करके कंगन लाना और बंदर द्वारा घड़े में डालना होता है तो कंगन तो यहाँ रह गया, हनुमान लेकर क्या जाता है? ऋषि मुनीन्द्र जी ने कहा कि मैंने इस घड़े को आशीर्वाद दे रखा है कि जो वस्तु इसमें गिरे, वह दो एक समान हो जाऐं। यह कहकर ऋषि जी ने एक मिट्टी का कटोरा घड़े में डाला तो एक और कटोरा वैसा ही बन गया। ऋषि मुनीन्द्र जी ने कहा, हे हनुमान! आप एक कंगन ले जाओ, कोई परेशानी नहीं होगी। हनुमान जी के पास कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था। उस घड़े से एक कंगन निकालकर उड़ चले।

श्री रामचन्द्र जी को हनुमान जी ने सीता जी की निशानी कंगन दिया तथा जो-जो बातें माता सीता ने कही थी, वे सब बताई। श्री रामचन्द्र जी कंगन देखकर भावुक हो गए। हनुमान जी को सीने से लगाया। कहा, हे संतजन! मैं आपका अहसान कैसे चुका पाऊँगा? आपने अपना जीवन जोखिम में डालकर मेरा महा कठिन कार्य किया है। यह कंगन सीता का ही है। अब सभा बुलाता हूँ। आगे का कार्यक्रम तैयार करते हैं। समुद्र पर पुल बनाने का विचार किया गया। नल-नील के हाथों में ऋषि मुनीन्द्र के आशीर्वाद से शक्ति थी कि वे अपने हाथों से जल में कोई वस्तु डाल देते तो वह डूबती नहीं थी। पत्थर, कांसी के बर्तन आदि जो भी वस्तु वे डालते, वह जल पर तैरती थी। उस समय नल-नील ने अभिमान करके अपनी महिमा की इच्छा से अपने गुरू ऋषि मुनीन्द्र का नाम नहीं लिया। जिस कारण से उनकी वह शक्ति समाप्त हो गई। रामचन्द्र जी तथा सर्व उपस्थित योद्धा हनुमान सहित महादुःखी हुए। तीन दिन तक श्री राम घुटनों पानी में खड़ा रहा। रास्ता देने की प्रार्थना करता रहा, परंतु समुद्र टस से मस नहीं हुआ। तब श्री राम ने लक्ष्मण से कहा कि मेरा अग्नि बाण निकाल, समुद्र को फूँक देता हूँ। लातों के भूत बातों से नहीं मानते। उसी समय समुद्र विप्र रूप धारकर श्री राम के सामने करबद्ध होकर खड़ा हो गया तथा कहा कि भगवन! मेरे अंदर संसार बसा है। आप पाप के भागी मत बनो। आप ऐसा करो कि सर्प भी मर जाए और लाठी भी न टूटे। आपकी सेना में नल-नील नाम के दो सैनिक हैं। उनको उनके गुरू जी का आशीर्वाद है। उनके हाथों से पत्थर भी मेरे ऊपर तैर सकते हैं। तब नल-नील से पत्थर डालकर दिखाने को कहा तो नल-नील ने अपनी महिमा चाही और गुरू को याद नहीं किया। जिस कारण से ऋषि मुनीन्द्र जी ने उनकी शक्ति छीन ली, पत्थर डूब गए। समुद्र ने उनकी गलती बताई। तब नल-नील जी ने अपने गुरू जी को याद किया। श्री रामचन्द्र जी को भी महसूस हुआ कि जब गुरू अपने शिष्यों को शक्ति दे सकता है तो मेरे कार्य को भी कर सकते हैं। श्री रामचन्द्र जी विष्णु जी के अवतार थे। श्री विष्णु काल निरंजन के पुत्र हैं। जिस समय परमेश्वर कबीर जी प्रथम बार काल के लोक में आए थे तो ज्योति निरंजन ने पहले तो परमेश्वर के साथ झगड़ा किया था, जब वश नहीं चला तो चरणों में गिरकर क्षमा याचना की और कुछ आशीर्वाद भी लिए। उनमें से एक यह भी था कि मेरा अंश विष्णु त्रेतायुग में रामचन्द्र नाम से राजा दशरथ के घर जन्म लेगा, उसको बनवास होगा। उसके साथ उसकी पत्नी सीता भी होगी। उसे एक राक्षस लंका नगरी में उठाकर ले जाएगा। तब रामचन्द्र समुद्र के ऊपर पुल बनाना चाहेगा, वह नहीं बना पाएगा। आप वह पुल बनवाना। दूसरा आशीर्वाद लिया था कि द्वापर युग में वही कृष्ण रूप में जन्मेगा। मृत्यु उपरांत वह जगन्नाथ नाम से पुरी नगर में समुद्र के किनारे मन्दिर बनवाएगा। समुद्र उसको बनने नहीं देगा। आप उस मंदिर की समुद्र से रक्षा करना। परमेश्वर कबीर जी ने कहा था कि मैं वह कार्य करूँगा। उसी वचन का पालन करने के लिए ऋषि मुनीन्द्र रूप में परमेश्वर कबीर जी सेतुबन्द पर प्रकट हो गए और आते-आते पर्वत के चारों ओर अपनी सोटी (डण्डी) से रेखा अंकित कर आए। नल-नील ने दूर से अपने गुरू जी को पहचान लिया और कहा, हमारे गुरू जी आ गए हैं। श्री रामचन्द्र जी ने अपनी समस्या बताई तथा विनम्र भाव से अपने कार्य की सिद्धि के लिए आशीर्वाद माँगा। परमेश्वर ने कहा, नल-नील ने गलती की। जिस कारण से इनकी शक्ति क्षीण हो गई है। मैंने सामने वाले पर्वत के चारों ओर रेखा लगाई है। उसके अंदर-अंदर के पत्थर लकड़ी से भी हल्के कर दिए हैं, वे डूबेंगे नहीं। हनुमान जी राम भक्त थे। उन्होंने उन पत्थरों पर राम-राम लिखा और उठाकर चले और रखा तो पत्थर डूबे नहीं। नल-नील शिल्पकार यानि निपुण राज-मिस्त्री भी थे। जिस कारण से नल तथा नील ने पत्थरों को तरासकर एक-दूसरे में फँसाकर जोड़ा था। पहले श्री राम से पत्थर तिरे नहीं, नल-नील भी असफल हुए। हनुमान खड़ा-खड़ा राम-राम ही कर रहा था। चाहता भी था कि पत्थर तैरें, परंतु सब व्यर्थ हुआ। ऋषि मुनीन्द्र जी (कबीर जी) ने पत्थर हल्के किए थे। जिस कारण से पत्थर समुद्र में डूबे नहीं थे। हनुमान जी तो अपना राम-राम का पाठ करने के लिए श्रद्धा से राम-राम पत्थरों पर लिख रहे थे। वे तो जहाँ भी बैठते थे, वहीं पेड़-पौधों पर राम-राम लिखते रहते थे। हनुमान जी तो श्री रामचन्द्र जी पुत्र दशरथ को जानते भी नहीं थे। उससे पहले भी राम-राम का जाप किया करते थे। जैसा कि लोकवेद (दन्त कथा) सुनते आए हैं कि नल-नील ने पत्थर तैराए थे, तब पुल बना। कोई कहता था कि हनुमान जी ने पत्थरों पर राम-राम लिखा। जिस कारण से पत्थर तैरे थे। यह भी सुनते थे कि श्री राम ने पत्थर तैराए थे। कारण यह रहा है कि जो बातें पत्थर तैराने की हुई थी और मुनीन्द्र ऋषि जी ने कहा था कि मैंने पर्वत का पत्थर हल्का कर दिया है। यह वार्ता 20-30 व्यक्तियों के समक्ष हुई थी। शेष करोड़ों व्यक्ति युद्ध के लिए आए थे, वे तो आज्ञा मिलते ही पत्थर लाने लगे। उन्होंने देखा कि हनुमान जी राम-राम लिख रहे थे। अन्य उन पत्थरों को उठा-उठाकर ला रहे थे। आगे नल-नील पत्थरों से पुल बना रहे थे। श्री रामचन्द्र जी नल-नील को शाबाशी दे रहे थे। अन्य उपस्थित व्यक्तियों ने एक-दूसरे को बताया कि हनुमान जी ने पत्थरों के ऊपर राम-राम लिख दिया। जिस कारण से पत्थर जल पर तैर रहे हैं। कुछ को लगा कि नल-नील के हाथों में करामात है। जिस कारण से पत्थर तैर रहे हैं। इस प्रकार यह गलतफहमी यानि भ्रमणा फैल गई। पुल बनाकर युद्ध में लग गए। अधिकतर मर गए, कुछ बचे वे अपने-अपने घर चले गए। उन्होंने अपने-अपने नगर-गाँव में यह गलत सूचना फैला दी जो आज तक निर्विवाद चल रही है। सच्चाई यह है जो इस दास (रामपाल दास) ने बताई है। युद्ध हुआ। श्री राम की सेना पर नाग फांस शस्त्र छोड़ा गया। जिस कारण से श्री राम, हनुमान, जाम्बवंत, सुग्रीव, अंगद सहित सर्व सेना नागों (सर्पों) द्वारा बाँध दी गई। सर्प लिपट गए। हाथों को भी शरीर के साथ जकड़ दिया। जैसे ईखों को किसान बाँध देता है, ऐसे निष्क्रिय हो गए। तब गरूड़ को बुलाया गया। गरूड़ ने सर्व नाग काटे। तब सर्व सेना तथा श्री राम बँधन मुक्त हुए। लक्ष्मण को तीर लगने से मूर्छा आ गई थी।(कोमा में चला गया था।) तब हनुमान जी लंका से वैद्य को उठाकर लाए। वैद्य ने कहा कि द्रोणागिरी पर्वत पर संजीवनी बूटी है। उसकी पहचान है कि वह रात्रि में जुगनू की तरह जगती है। सूर्योदय से पहले वह जड़ी लाई जाए तो लक्ष्मण जीवित हो सकता है, देर हो गई तो मृत्यु निश्चित है। हनुमान जी को यह कार्य श्री राम जी ने सौंपा कि बजरंग बली! तेरे बिना यह कार्य सम्भव नहीं है। आज्ञा मिलते ही हनुमान जी आकाश मार्ग से उड़ चले। द्रोणागिरी पर राक्षसों ने अपनी माया से सब अन्य नकली जड़ी-बूटियों में भी चमक भर दी। वैद्य ने बताया था कि वे बहुत कम सँख्या में होती हैं। दिन में उनकी पहचान नहीं हो सकती क्योंकि उसके आसपास वैसी ही औषधि के पौधे उगते हैं। हनुमान जी को समझते देर नहीं लगी। उन्होंने द्रोणागिरी पर्वत को ही उठा लिया और आकाश मार्ग से चल पड़े। हनुमान जी ने लक्ष्मण और श्री राम द्वारा अपने भाई भरत के विषय में बताई शक्ति खटक रही थी। वे कहते थे कि यदि आज भरत होते तो अकेले रावण को तथा इसके लाख पुत्रों तथा सवा लाख नातियों (पोतों) को यमलोक भेज देते। हनुमान जी के मन में आया कि चलते-चलते भरत की परीक्षा लेकर चलता हूँ। भरत को पता था कि रावण तथा राम युद्ध चल रहा है। आकाश मार्ग से पर्वत सहित हनुमान जी को जाते देख विचार किया कि कोई राक्षस जा रहा है। वह तो बहुत हानि कर सकता है। भरत जी ने तीर चलाया। हनुमान जी ने तीर लगने का बहाना करके हे राम-हे राम करते हुए धरती पर गिर गए। पर्वत को भी धरती के ऊपर रख दिया। राम शब्द सुनकर भरत को समझते देर नहीं लगी कि यह तो कोई अपने पक्ष का है। निकट जाकर पूछा, आप कौन हो? कहाँ जा रहे हो? पर्वत किसलिए उठाया है? मेरा नाम भरत है। मैं श्री राम व लक्ष्मण का भाई हूँ। हनुमान जी ने बताया कि मेरा नाम हनुमान है। राम-रावण का युद्ध चल रहा है। आपके भाई लक्ष्मण को तीर लगने से मूर्छा आई है। वैद्य ने द्रोणागिरी पर उपचार की औषधि बताई है। मेरी पहचान में नहीं आई, इसलिए पर्वत ही ले जा रहा हूँ। सूर्य उदय होने से पहले पहुँचना है। अन्यथा लक्ष्मण की मृत्यु हो जाएगी। आपने बिना सोचे-समझे तीर मार दिया, अब मैं कैसे समय पर पहुँच पाऊँगा? सूर्योदय के पश्चात् लक्ष्मण संसार में नहीं रहेगा। भरत ने तीर मारने का कारण बताया तथा कहा, हे अंजनी के लाल! चिंता न करो। आप द्रोणागिरी को उठाओ और बाण के अग्र भाग पर बैठो। अपने दोनों पैर आगे-पीछे करके खड़े हो जाओ। मैं तीर द्वारा आपको पर्वत सहित आपसे भी पहले लंका में भेज दूँगा। हनुमान जी को अपनी शक्ति पर अत्यधिक गर्व था। जमीन पर रखे तीर पर दोनों पैर जँचाकर पर्वत को हाथ पर उठाकर हनुमान जी खड़े हो गए। भरत जी ने तीर को हनुमान जी तथा पर्वत सहित धरती से उठाकर धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ाने के लिए अपनी छाती के बराबर लाकर छोड़ने लगे तो हनुमान जी को आश्चर्य हुआ कि मेरे तथा द्रोणागिरी के भार को ऐसे उठा लिया जैसे केवल तीर को ही उठाया है। हनुमान जी ने कहा, हे दशरथ के लाल! मैं तो आपकी परीक्षा ले रहा था। मैं स्वस्थ हूँ। मैं स्वयं उड़कर समय से पहले पहुँच जाऊँगा। आपकी प्रशंसा आपके दोनों भाई किया करते थे। यदि भरत होता तो अकेला ही रावण तथा रावण की सेना के लिए पर्याप्त था। मेरे को उनकी बातों पर विश्वास नहीं हो पा रहा था। आज अपनी आँखों देख रहा हूँ। आप वास्तव में शूरवीर तथा बलवान हो। आपने मेरा भी अभिमान चकनाचूर कर दिया। यह कहकर हनुमान जी उस तीर से ही छलाँग लगाकर उड़ गए। उस समय तीर टस से मस नहीं हुआ।

विचार करने की बात है। यदि कोई भार उठाता है तो दोनों हाथों से या एक हाथ से पकड़कर उठा लेता है, परंतु उसी भार को किसी डण्डे से उठाना चाहे तो कदापि नहीं उठा सकता। थोड़े भार को ही डण्डे से उठा सकता है। भरत जी ने महाबली हनुमान जी तथा द्रोणागिरी को धरती से 50 फुट ऊपर उठा दिया। त्रेतायुग में मनुष्य की ऊँचाई लगभग 70 या 80 फुट होती थी। यह कोई सामान्य बात नहीं है। कोई किसी व्यक्ति को डण्डे से उठाकर देखे, कैसा महसूस होगा? लक्ष्मण को वैद्य ने संजीवनी औषधि पिलाकर स्वस्थ किया। युद्ध हुआ, रावण मारा गया। रावण ने प्रभु शिव की भक्ति की थी। अपने दस बार शीश काटकर शिव जी को भेंट किए थे। दस बार शिव जी ने उसको वापिस कर दिए तथा आशीर्वाद दिया कि तेरी मृत्यु दस बार गर्दन काटने के पश्चात् होगी। रावण के दस बार सिर काटे गए थे। फिर नाभि में तीर लगने से नाभि अमृत नष्ट होने से रावण का वध हुआ था। दस बार सिर कटे, दस बार वापिस सिर धड़ पर लग गए। फिर विभीषण के बताने पर कि रावण की नाभि में अमृत है, रामचन्द्र ने रावण की नाभि में तीर मारने की पूरी कोशिश कर ली थी, परंतु रावण का ध्यान भी वहीं केन्द्रित था कि नाभि पर तीर न लगे। रामचन्द्र जी ने परमेश्वर को याद किया कि इस राक्षस को मारो, मेरी सहायता करो। हे महादेव! हे देवों के देव! हे महाप्रभु! मेरी सहायता करो। आपकी बेटी (सीता) महाकष्ट में है। आपके बच्चे तेतीस करोड़ देवता भी इसी राक्षस ने जेल में डाल रखे हैं। परमेश्वर कबीर जी ने उसी समय गुप्त रूप में रामचन्द्र के हाथों पर अपने सूक्ष्म हाथ रखे और तीर रावण की नाभि में मारा। तब रावण मरा।

{परमेश्वर कबीर जी की प्राप्ति के पश्चात् संत गरीबदास जी (गाँव-छुड़ानी जिला-झज्जर, हरियाणा प्रान्त) ने परमेश्वर कबीर जी की महिमा बताई है। कबीर जी ने बताया है कि:-

कबीर, कह मेरे हंस को, दुःख ना दीजे कोय।
संत दुःखाए मैं दुःखी, मेरा आपा भी दुःखी होय।।
पहुँचुँगा छन एक मैं, जन अपने के हेत।
तेतीस कोटि की बंध छुटाई, रावण मारा खेत।।
जो मेरे संत को दुःखी करैं, वाका खोऊँ वंश।
हिरणाकुश उदर विदारिया, मैं ही मारा कंस।।
राम-कृष्ण कबीर के शहजादे, भक्ति हेत भये प्यादे।।

शब्दार्थ:- संत गरीबदास जी ने बताया है कि श्री रामचन्द्र जी व श्री कृष्ण जी की सहायता उनके शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप कबीर जी ने की थी क्योंकि श्री राम तथा श्री कृष्ण जी भी तो उसी सम्राट कबीर के शहजाहे यानि राजकुमार हैं अर्थात् परमात्मा कबीर जी के सब जीव हैं और राम-कृष्ण यानि विष्णु तो अच्छी आत्मा हैं। उनकी भी रक्षा वही परमेश्वर कबीर जी करते हैं। वे जनता को सावधान करते हैं कि मेरे साधक को कोई कष्ट न देना। भक्त के कष्ट से मैं दुःखी होता हूँ। मैं अपने भक्त की रक्षा करने के लिए एक क्षण यानि सैकिण्ड में पहुँच जाऊँगा। इसी कारण जब श्री रामचन्द्र से रावण नहीं मर रहा था तो गुप्त रूप में मैंने राम का हाथ पकड़कर रावण की नाभि में तीर मारा था जिससे रावण की मृत्यु हुई। राम की सेना को बल दिया, हौंसला दिया। इसी प्रकार कृष्ण की सहायता करके कंस को मैंने ही मारा था। जो मेरे भक्तों को सताएगा, उसका कुल नाश कर दूँगा यानि उसके खानदान को समाप्त कर दूँगा।

लंका का राज्य रावण के छोटे भ्राता विभीषण को दिया। सीता की अग्नि परीक्षा श्री राम ने ली। यदि रावण ने सीता मिलन किया है तो अग्नि में जलकर मर जाएगी। यदि सीता पाक साफ है तो अग्नि में नहीं जलेगी। सीता जी अग्नि में नहीं जली। उपस्थित लाखों व्यक्तियों ने सीता माता की जय बुलाई। सीता सती की पदवी पाई। रावण का वध आसौज मास की शुक्ल पक्ष की दसवीं को हुआ था।

रावण वध के 20 दिन बाद 14 वर्ष की वनवास अवधि पूरी करके श्रीराम, लक्ष्मण और सीता पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या नगरी में आए। उस दिन कार्तिक मास की अमावस्या थी। उस काली अमावस्या को गाय के घी के दीप अपने-अपने घरों के अंदर तथा ऊपर मण्डेरों पर जलाकर श्रीराम, सीता तथा लक्ष्मण के आगमन की खुशी मनाई। भरत ने अपने भाई श्री रामचन्द्र जी को राज्य लौटा दिया। एक दिन श्री रामचन्द्र जी से सीता ने कहा कि मैं युद्ध में लड़ने वाले योद्धाओं को कुछ इनाम देना चाहती हूँ। इनाम में सीता जी ने हनुमान जी को अपने गले से सच्चे मोतियों की माला निकालकर दे दी तथा कहा, हे हनुमान! यह अनमोल उपहार मैं आपको दे रही हूँ, बहुत सम्भाल कर रखना। हनुमान जी ने उस माला का मोती तोड़ा, फिर फोड़ा। फिर दूसरा, देखते-देखते सब मोती फोड़कर जमीन पर फैंक दिए। सीता जी को हनुमान जी का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। क्रोध में भरकर कहने लगी कि हे मूर्ख! यह क्या कर दिया? ऐसी अनमोल माला का सर्वनाश कर दिया। तू वानर का वानर ही रहा। चला जा मेरी आँखों के सामने से। उस समय श्री रामचन्द्र जी भी सीता जी के साथ ही सिंहासन पर विराजमान थे। उन्होंने भी हनुमान के इस व्यवहार को अच्छा नहीं माना और चुप रहे। हनुमान जी ने कहा, माता जी! जिस वस्तु में राम-नाम अंकित नहीं है, वह मेरे किसी काम की नहीं है। मैंने मोती फोड़कर देखे हैं, इनमें राम-नाम नहीं निकला। इसलिए मेरे काम की नहीं है। सीता जी ने कहा, क्या तेरे शरीर में राम-नाम लिखा है? फिर इस शरीर को किसलिए साथ लिए है, इसको फैंक दे फाड़कर। उसी समय हनुमान जी ने अपना सीना चाक (चीर) कर दिखाया। उसमें राम-राम लिखा था। हनुमान जी उसी समय अयोध्या त्यागकर वहाँ से कहीं दूर चले गए।

श्री रामचन्द्र जी अपनी अयोध्या नगरी की जनता के दुःख दर्द जानने के लिए गुप्त रूप से रात्रि के समय वेश बदलकर घूमा करते थे। कुछ वर्ष उपरांत जब राजा रामचन्द्र जी रात्रि में अयोध्या की गलियों में विचरण कर रहे थे। एक घर से ऊँची-ऊँची आवाज आ रही थी। राजा रामचन्द्र जी ने निकट जाकर वार्ता सुनी। एक धोबी की पत्नी झगड़ा करके घर से चली गई थी। वह दो-तीन दिन अपने बहन के घर रही, फिर लौट आई। धोबी उसकी पिटाई कर रहा था। कह रहा था कि निकल जा मेरे घर से, तू दो रात बाहर रहकर आई है। मैं तेरे को घर में नहीं रखूँगा। तू कलंकित है। वह कह रही थी, मुझे सौगंध भगवान की। सौगंध है राजा राम की, मैं पाक साफ हूँ। आपने मारा तो मैं गुस्से से अपनी बहन के घर गई थी, मैं निर्दोष हूँ। धोबी ने कहा कि मैं दशरथ पुत्र रामचन्द्र नहीं हूँ जो अपनी कलंकित पत्नी को घर ले आया है जो वर्षों रावण के साथ रही थी। अयोध्या नगरी के सब लोग-लुगाई चर्चा कर रहे हैं। क्या जीना है ऐसे व्यक्ति का जिसकी पत्नी अपवित्र हो गई हो। राजा राम ने धोबी के मुख से यह बात सुनी तो कानों में मानो गर्म तेल डाल दिया हो।

अगले दिन रामचन्द्र जी ने सभा बुलाई तथा नगरी में चल रही चर्चा के विषय में बताया और कहा कि यह चर्चा तब बंद हो सकती है, जब मैं सीता को घर से निकाल दूँगा। उसी समय सीता जी को सभा में बुलाया गया तथा घर से निकलने का आदेश दे दिया। कारण भी बता दिया। सीता जी ने विनय भी की कि हे स्वामी! आपने मेरी अग्नि परीक्षा भी ली थी। मैं भी आत्मा से कहती हूँ, रावण ने मेरे साथ मिलन नहीं किया। कारण था कि उसको एक ऋषि का शाॅप था कि यदि तू किसी परस्त्री से बलात्कार करेगा तो तेरी उसी समय मृत्यु हो जाएगी। यदि परस्त्री की सहमति से मिलन करेगा तो ऐसा नहीं होगा। जिस कारण से रावण मुझे छू भी नहीं सका मिलन के लिए। हे प्रभु! मैं गर्भवती हूँ। ऐसी स्थिति में कहाँ जाऊँगी? रावण जैसे व्यक्तियों का अभाव नहीं है। रामचन्द्र जी आदेश देकर सभा छोड़कर चले गए। कहते गए कि मैं निंदा का पात्र नहीं बनना चाहता। मेरे कुल को दाग लगेगा। सीता जी को धरती भी पैरों से खिसकती नजर आई। आसमान में अँधेरा छाया दिखाई दिया। संसार में कुछ दिनों का जीवन शेष लगा। 

सीता अयोध्या छोड़कर चल पड़ी। मुड़-मुड़कर अपने राम को तथा उसके महलों को देखने की कोशिश करती रही और दूर जंगल में जाकर ऋषि वाल्मिीकि जी की कुटिया के निकट थककर गिर गई, अचेत हो गई। ऋषि वाल्मिीकि स्नान करने के लिए आश्रम से निकले। सामने एक युवती गर्भावस्था में अचेत पड़ी देखकर निकट गए। अपने आश्रम से औषधि लाए। सीता जी के मुख में डाली। गर्मी का मौसम था। ठण्डे जल के छींटे मुख पर मारे। उसी समय सीता जी सचेत होकर बैठ गई। ऋषि ने नाम और गाँव पूछा तो बताया कि नीचे पृथ्वी, ऊपर आसमान, आगे कुछ बताने से इंकार कर दिया। ऋषि दयावान होते हैं। कहा, बेटी संसार तो स्वार्थ का है। धन्यवाद कर परमात्मा का, तू मेरे आश्रम में आ गई। बेटी मुझे अपना पिता मान और मेरे पास रहा। सीता जी ऋषि वाल्मिीकि जी के आश्रम में रहने लगी। ऋषि ने भी बात आगे नहीं बढ़ाई। परमेश्वर कबीर जी जो त्रेतायुग में ऋषि मुनीन्द्र जी के रूप में लीला करने आए थे। हनुमान जी से मिले। सत साहेब बोला। हनुमान जी ने राम-राम कहा तथा खड़ा होकर ऋषि जी का सत्कार किया तथा एक पत्थर पर स्वयं बैठ गए, दूसरे पर ऋषि को बैठने के लिए आग्रह किया। दोनों ने स्थान ग्रहण कर लिया। हनुमान जी ऋषि जी को पहचानने की कोशिश करने लगे। ऋषि जी ने कहा, क्या सोच रहे हो हनुमान? मैं वही ऋषि हूँ, मेरे आश्रम में वानर ने सीता जी का कंगन घड़े में डाला था। उसमें अन्य कंगन भी वैसे ही थे। हे हनुमान! वह कंगन कैसा रहा? हनुमान जी को पहचानते देर नहीं लगी और ऋषि जी को प्रणाम फिर किया। हे ऋषि जी! आपका कैसे आना हुआ? परमेश्वर कबीर जी (मुनीन्द्र ऋषि रूप में) ने कहा, हे पवन पुत्र! मैं आपको भक्ति ज्ञान कराने आया हूँ। आप जिस दशरथ पुत्र रामचन्द्र की पूजा पूर्ण परमात्मा मानकर कर रहे हो। आप धोखे में हो। जो जन्मता-मरता है, वह पूर्ण परमात्मा नहीं हो सकता। पूर्ण परमात्मा तो अविनाशी है। हनुमान जी ने कहा, हे ऋषिवर! मैं आपके वचनों से आहत होता हूँ। मेरी भावनाओं को चोट लगती है। आप अन्य विषय पर चर्चा करें। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि यदि कोई व्यक्ति गलत रास्ते जा रहा हो, वह उस रास्ते को ठीक मानकर चल रहा हो जो डाकुओं के डेरे में जा रहा है। यदि कोई सज्जन पुरूष उसको बताए कि जिस रास्ते पर आप जा रहे हो, आपकी जान तथा माल को खतरा है, आगे डाकुओं का डेरा है। पहले मारते हैं, फिर लूटते हैं। यदि वह व्यक्ति कहे कि आप मेरी भावनाओं को चोटिल कर रहे हो, यह कितना सत्य है? हनुमान जी चुप रहे, पंरतु मुस्कराए मानो कह रहे हों, आप सत्य कहते हो। हनुमान जी के चेहरे पर शान्ति का चिन्ह देखकर परमेश्वर ने बताया कि श्री रामचन्द्र जी, श्री विष्णु जी के अवतार हैं। श्री विष्णु जी, श्री ब्रह्मा जी तथा श्री शिव जी का पिता काल ब्रह्म है। इसी को ज्योति निरंजन भी कहते हैं। काल को इसकी गलती के कारण शाॅप लगा है कि एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों को प्रतिदिन खाया करेगा। सवा लाख प्रतिदिन उत्पन्न किया करेगा। जिस कारण से उसने अपने तीनों पुत्रों को एक-एक विभाग का स्वामी बना रखा है। श्री ब्रह्मा जी रजगुण हैं जिसके प्रभाव से सर्व प्राणी प्रेरित होकर संतान उत्पत्ति करते हैं। जिस कारण से ब्रह्मा को भूल से उत्पत्तिकर्ता मान रखा है। उत्पत्तिकर्ता तो पूर्ण परमात्मा है।

काल ने अपने दूसरे पुत्र विष्णु को कर्मानुसार पालन करने का विभाग दिया है, विष्णु सतगुण है। काल ने तीसरे पुत्र शिव तमगुण को इन एक लाख मानव शरीरधारी जीवों को मारकर उसके पास भेजने का विभाग दे रखा है। वह स्वयं अव्यक्त (गुप्त) रहता है। आप देख रहे हो, यहाँ कोई भी जीव अमर नहीं है, देवता भी मरते हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव भी जन्मते-मरते हैं। जो पूरी आयु जीते हैं, वृद्धावस्था भी सब में आती है। एक लोक ऐसा है जहाँ पर वृद्धावस्था तथा मरण नहीं है। वहाँ कोई रावण किसी की पत्नी का अपहरण नहीं करता। आपकी आँखों के सामने लंका में हुए राम-रावण युद्ध में कितने व्यक्ति तथा अन्य प्राणी मारे गए। एक सीता को छुड़ाने के लिए। आपने श्री रामचन्द्र जी के लिए अपने प्राणों की बाजी लगाकर लंका को जलाया। रावण का भाई अहिरावण जो पाताल का राजा था। वह राम तथा लक्ष्मण का अपहरण करके ले गया। उनकी बली देने वाला था। आप वहाँ गए और उन दोनों को जीवित लाए। आप ही बताऐं, वे परमात्मा हैं। जिस समय
नाग फांस शस्त्र के छोड़ने से सर्पों ने श्री राम तथा आप तथा सर्व सेना व लक्ष्मण तक बाँध दिया था। सर्प आप सबको जकड़े हुए थे। आप सब विवश थे। कुछ समय में आप सबको रावण की सेना आसानी से काट डालती। उस समय गरूड़ को पुकारा गया। उसने नागों को काटा। आप तथा रामचन्द्र बंधनमुक्त हुए। यदि परमात्मा इतना विवश है कि अपना बंधन नहीं काट सका तो पुजारियों का क्या होगा? विचार करो।

काटे बंधत विपत में, कठिन कियो संग्राम। चिन्हो रे नर प्राणियो, गरूड़ बड़ो के राम।।

इस वाणी का शब्दार्थ ऊपर किया है।

हनुमान जी ने कहा ऋषि जी! समुद्र पर पुल बनाना क्या आम आदमी का कार्य है? यह परमात्मा बिना नहीं बनाया जा सकता।

समन्दर पांटि लंका गयो, सीता को भरतार। अगस्त ऋषि सातों पीये, इनमें कौन करतार।।

शब्दार्थ: यदि आप समुद्र के ऊपर सेतु बनाने से श्री रामचन्द्र जी को परमात्मा मानते हो तो अगस्त ऋषि ने सातों सागरों को पी लिया था। इनमें कौन है परमात्मा? 

ऋषि मुनीन्द्र जी ने बताया कि आप भूल गए क्या? एक ऋषि आए थे। उन्होंने एक पर्वत के पत्थरों को अपनी डण्डी से रेखा खींचकर हल्का किया था। तब पत्थर तैरे थे, तब पुल बना था। रामचन्द्र तो तीन दिन से रास्ता माँग रहे थे। समुद्र ने ही बताया था नल-नील के विषय में। हनुमान जी ने कहा कि वह तो विश्वकर्मा जी थे जो वेश बदलकर श्री रामचन्द्र जी के बुलाने पर आए थे। परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि विश्वकर्मा जी तो पुल का निर्माण कर सकते हैं, जल के ऊपर पत्थर नहीं तैरा सकते। नल-नील के हाथों में शक्ति थी। उनके हाथों से डाली गई वस्तु जल के ऊपर तैरा करती थी। उस दिन उनमें अभिमान आ गया था। उनकी शक्ति समाप्त हो गई थी। वह आशीर्वाद मेरा ही था। हनुमान जी ने कहा, क्या आप ऋषि मुनीन्द्र जी हैं? परमेश्वर जी ने कहा, हाँ। मुनीन्द्र जी ने कहा कि आपने अपने प्राणों की परवाह न करके राम जी के लिए क्या नहीं किया? जब सीता ने आपको अपशब्द कहे और घर छोड़ने को कहा। उस समय श्रीराम वहीं विराजमान थे। एक शब्द भी नहीं कहा कि सीता ऐसा न कर। पवन सुत अंदर से तो मान रहे थे, परंतु ऊपर से कह रहे थे कि ऋषि जी! किसी की आलोचना नहीं करनी चाहिए। मुनीन्द्र जी ने कहा कि सत्य कहना आलोचना नहीं होती। यदि श्री रामचन्द्र और सीता के अंदर अच्छे इंसान वाले गुण भी होते तो भी आपका आजीवन अहसान मानते और अपने चरणों में रखते। आप तो उनके बिना जीना भी उचित नहीं मानते। और सुनो! आपके साथ जैसा व्यवहार किया, उसका फल भी सीता तथा रामचन्द्र को मिल गया है। कुछ वर्षों के पश्चात् सीता को श्री राम ने घर से निकाल दिया। उस समय वह गर्भवती थी। यह सुनकर हनुमान की आँखों से आँसू निकल आए और ऋषि जी के चरणों में गिर गए। कुछ नहीं बोले। अयोध्यावासियों ने दो वर्ष दिपावली और दशहरा मनाया था। उसके पश्चात् बंद कर दिया था कि जिस देवी के लिए रावण मारा, आज वह फिर कितने रावणों का कष्ट झेलेगी। दीपमाला खुशी का प्रतीक है। जब राजा और रानी भिन्न-भिन्न हो गए तो न दीपावली राजा को अच्छी लगे और न प्रजा को। इसलिए दीपावली का पर्व उसी समय से बंद हो गया था। जो दो वर्ष मनाया था, उसी के आधार से भोली जनता यह पर्व मना रही है।

इसी प्रकार दशहरा तथा रावण दहन की परंपरा चली आ रही है। यदि किसी के घर पर किसी जवान की मृत्यु हो जाती है तो वह परिवार तथा रिश्तेदार कोई त्यौहार नहीं मनाते।

हनुमान जी ने कहा, प्रभु! परमेश्वर की चर्चा करो। कबीर परमेश्वर जी ने सृष्टि रचना सुनाई। सत्यकथा सुनकर हनुमान जी गदगद हुए। सत्यलोक देखने की प्रार्थना की। परमेश्वर आकाश में उड़ गए। हनुमान जी देख रहे थे। कुछ देर अंतध्र्यान हो गए। हनुमान जी चिंतित हो गए कि अब ये ऋषि कैसे मिलेंगे? इतने में आकाश में विशेष प्रकाश दिखाई दिया। हनुमान जी को दिव्य दृष्टि देकर सतलोक दिखाया। ऋषि मुनीन्द्र जी सिंहासन पर बैठे दिखाई दिए। उनके शरीर का प्रकाश अत्यधिक था। सिर पर मुकुट तथा राजाओं की तरह छत्र था। कुछ देर वह दृश्य दिखाकर दिव्य दृष्टि समाप्त कर दी। मुनीन्द्र जी नीचे आए। हनुमान जी को विश्वास हुआ कि ये परमेश्वर हैं। सत्यलोक सुख का स्थान है। परमेश्वर कबीर जी से दीक्षा ली। अपना जीवन धन्य किया। मुक्ति के अधिकारी हुए। इस प्रकार पवित्र आत्मा परमार्थी स्वभाव हनुमान जी को परमेश्वर कबीर जी ने अपनी शरण में लिया। परमार्थी आत्मा को संसार तथा काल के स्वामी भले ही परोपकार का फल नहीं देते, परंतु परमेश्वर ऐसी आत्माओं को शरण में अवश्य लेते हैं क्योंकि ऐसी आत्मा ही परम भक्त बनकर भक्ति करते हैं और मोक्ष प्राप्त करते हैं। संसारिक व्यक्ति जो परमार्थी को धोखा देते हैं, वे आजीवन कष्टमय जीवन व्यतीत करते हैं।

श्री रामचन्द्र जी को अंत समय में अपने ही पुत्रों लव तथा कुश से पराजय का मुँह देखना पड़ा। सीता जी ने उनके दर्शन करना भी उचित नहीं समझा। देखते-देखते पृथ्वी में समा गई। इस ग्लानि से श्री रामचन्द्र जी ने अयोध्या के पास बह रही सरयु नदी में छलांग लगाकर अपनी जीवन लीला जल समाधि लेकर समाप्त की। परमार्थी हनुमान जी को निस्वार्थ दुःखियों की सहायता करने का फल मिला। परमात्मा स्वयं आए, मोक्ष मार्ग बताया। जीव का कल्याण हुआ। हनुमान जी फिर मानव जीवन प्राप्त करेंगे। तब परमेश्वर कबीर जी उनको शरण में लेकर मुक्त करेंगे। उस आत्मा में सत्य भक्ति बीज डल चुका है।