श्री ब्रह्मा पुराण


श्री ब्रह्मा पुराण

इस पुराण के वक्ता श्री लोमहर्षण ऋषि जी हैं। जो श्री व्यास ऋषि के शिष्य हुए हैं जिन्हें सूत जी भी कहा जाता है। श्री लोमहर्षण जी (सूत जी) ने बताया कि यह ज्ञान पहले श्री ब्रह्मा जी ने दक्षादि श्रेष्ठ मुनियों को सुनाया था। वही मैं सुनाता हूँ। इस पुराण के सृष्टी के वर्णन नामक अध्याय में (पृष्ठ 277 से 279 तक) कहा है कि श्री विष्णु जी सर्व विश्व के आधार हैं जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव रूप से जगत की उत्पत्ति तथा पालन तथा संहार करते हैं। उस भगवान विष्णु को मेरा नमस्कार है।

जो नित्य सद्सत स्वरूप तथा कारणभूत अव्यक्त प्रकृति है उसी को प्रधान कहते हैं। उसी से पुरुष ने इस विश्व का निर्माण किया है। अमित तेजस्वी ब्रह्मा जी को ही पुरुष समझो। वे समस्त प्राणियों की सृष्टी करने वाले तथा भगवान नारायण के आश्रित हैं।

स्वयंभू भगवान नारायण ने जल की सृष्टी की। नारायण से उत्पन्न होने के कारण जल को नार कहा जाने लगा। भगवान ने सर्व प्रथम जल पर विश्राम किया। इसलिए भगवान को नारायण कहा जाता है। भगवान ने जल में अपनी शक्ति छोड़ी उससे एक सुवर्णमय अण्ड प्रकट हुआ। उसी में स्वयंभू ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई ऐसा सुना जाता है। एक वर्ष तक अण्डे में निवास करके श्री ब्रह्मा जी ने उसके दो टुकड़े कर दिए। एक से धूलोक बन गया और दूसरे से भूलोक।

तत्पश्चात् ब्रह्मा जी ने अपने रोष से रूद्र को प्रकट किया। उपरोक्त ज्ञान ऋषि लोमहर्षण (सूत जी) का कहा हुआ है जो सुना सुनाया (लोक वेद) है जो पूर्ण नहीं है। क्योंकि वक्ता कह रहा है कि ऐसा सुना है। इसलिए पूर्ण जानकारी के लिए श्री देवीमहापुराण, श्री शिवमहापुराण, श्रीमद् भगवद् गीता तथा चारों वेद और पूर्ण परमात्मा द्वारा तत्व ज्ञान जो स्वसम वेद अर्थात् कविर्वाणी (कबीर वाणी) कहा जाता है। उसके लिए कृप्या पढ़ें ‘गहरी नजर गीता में‘, परमेश्वर का सार संदेश‘, परिभाषा प्रभु की तथा पुस्तक ‘यथार्थ ज्ञान प्रकाश में‘।

(वास्तविक ज्ञान को स्वयं कलयुग में प्रकट होकर कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने अपने खास सेवक श्री धर्मदास साहेब जी (बांधवगढ़ वाले) को पुनर् ठीक-ठीक बताया। जो इसी पुस्तक में सृष्टी रचना में वर्णित है, कृप्या वहाँ पढ़ें।)।

श्री पारासर जी ने काल ब्रह्म को परब्रह्म भी कहा है तथा ब्रह्म भी तथा विष्णु भी कहा है तथा इसी को अनादि अर्थात् अमर भी कहा है। इस ब्रह्म अर्थात् काल का जन्म - मृत्यु नहीं होती। इसी से ऋषि की बाल बुद्धि सिद्ध होती है।

विचार करें - विष्णु पुराण का ज्ञान एक ऋषि द्वारा कहा है जिसने लोकवेद (सुने सुनाऐं ज्ञान अर्थात् दंत कथा) के आधार से कहा है तथा ब्रह्मा पुराण का ज्ञान श्री लोमहर्षण ऋषि ने दक्षादि ऋषियों से सुना था, वह लिखा है। इसलिए उपरोक्त दोनों (विष्णु पुराण व ब्रह्मा पुराण) को समझने के लिए श्री देवी पुराण तथा श्री शिव पुराण का सहयोग लिया जाएगा, जो स्वयं श्री ब्रह्मा जी ने अपने पुत्र नारद जी को सुनाया, जो श्री व्यास ऋषि के द्वारा ग्रहण हुआ तथा लिखा गया। अन्य पुराणों का ज्ञान श्री ब्रह्मा जी के ज्ञान के समान नहीं हो सकता। इसलिए अन्य पुराणों को समझने के लिए देवी पुराण तथा श्री शिव पुराण का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान दक्षादि ऋषियों के पिता श्री ब्रह्मा जी का दिया हुआ है। श्री देवी पुराण तथा श्री शिवपुराण को समझने के लिए श्रीमद् भगवद् गीता तथा चारों वेदों का सहयोग लिया जाएगा। क्योंकि यह ज्ञान स्वयं भगवान काल रूपी ब्रह्म द्वारा दिया गया है। जो ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी का उत्पन्न कर्ता अर्थात् पिता है। पवित्र वेदों तथा पवित्र श्रीमद् भगवद् गीता जी के ज्ञान को समझने के लिए स्वसम वेद अर्थात् सूक्ष्म वेद का सहयोग लेना होगा जो काल रूपी ब्रह्म के उत्पत्ति कर्ता अर्थात् पिता परम अक्षर ब्रह्म (कविर्देव) का दिया हुआ है। जो (कविर्गीभिः) कविर्वाणी द्वारा स्वयं सतपुरुष ने प्रकट हो कर बोला था। (ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 96 मंत्र 16 से 20 तक प्रमाण है।) तथा श्रीमद् भगवत गीता में भगवान काल अर्थात् ब्रह्म ने अपनी स्थिति स्वयं बताई है जो सत है।

गीता अध्याय 15 श्लोक 18 में कहा है कि मैं (काल रूपी ब्रह्म) अपने इक्कीस ब्रह्मण्डों में जितने भी प्राणी हैं उनसे श्रेष्ठ हूँ। वे चाहे स्थूल शरीर में नाशवान हैं, चाहे आत्मा रूप में अविनाशी हैं। इसलिए लोकवेद (सुने सुनाए ज्ञान) के आधार से मुझे पुरुषोत्तम मानते हैं। वास्तव में पुरुषोत्तम तो मुझ (क्षर पुरुष अर्थात् काल) से तथा अक्षर पुरुष (परब्रह्म) से भी अन्य है। वही वास्तव में परमात्मा अर्थात् भगवान कहा जाता है। तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है, वही वास्तव में अविनाशी परमेश्वर है (गीता अध्याय 15 श्लोक 16.17)। गीता ज्ञान दाता ब्रह्म स्वयं कह रहा है कि हे अर्जुन ! तेरे तथा मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। श्रीमद् भगवद् गीता अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 2 श्लोक 12 में प्रमाण है तथा अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी साधना को भी (अनुत्तमाम्) अति अश्रेष्ठ कहा है। इसलिए अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि हे अर्जुन ! सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा जिसकी कृपा से ही तू परमशांति को प्राप्त होगा तथा कभी न नष्ट होने वाले लोक अर्थात् सतलोक को प्राप्त होगा। अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि  जब तुझे तत्वदर्शी प्राप्त हो जाए (जो गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में तथा अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित है) उसके पश्चात् उस परम पद परमेश्वर की खोज करनी चाहिए जिसमें गए साधक फिर लौट कर संसार में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। जिस

परमेश्वर से यह सर्व संसार उत्पन्न हुआ तथा वही सर्व का धारण-पोषण करने वाला है। मैं (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म रूपी काल) भी उसी आदि पुरुष परमेश्वर की शरण में हूँ। पूर्ण विश्वास के साथ उसी की भक्ति साधना अर्थात् पूजा करनी चाहिए।