40. कबीर जी द्वारा शिष्यों की परीक्षा लेना | जीने की राह


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बन्दी छोड़ कबीर परमेश्वर जी द्वारा अनेकों अनहोनी लीलाऐं करने से प्रभावित होकर चौंसठ लाख शिष्य बने थे। परमेश्वर तो भूत-भविष्य तथा वर्तमान की जानते हैं। उनको पता था कि ये सब चमत्कार देखकर तथा इनको मेरे आशीर्वाद से हुए भौतिक लाभों के कारण मेरी जय-जयकार कर रहे हैं। इनको मुझ पर विश्वास नहीं है कि मैं परमात्मा हूँ। परंतु देखा-देखी कहते अवश्य हैं कि कबीर जी हमारे सद्गुरू जी तो स्वयं परमात्मा आए हैं। अपने लाभ भी बताते थे। एक दिन परमेश्वर कबीर जी ने शिष्यों की परीक्षा लेनी चाही कि देखूं तो कितने ज्ञान को समझे हैं। यदि इनको विश्वास ही नहीं है तो ये मोक्ष के अधिकारी नहीं हैं। ये तो मेरे सिर पर व्यर्थ का भार हैं। यह विचार करके एक योजना बनाई। अपने परम शिष्य रविदास से कहा कि एक हाथी किराए पर लाओ।

काशी नगर में एक सुंदर वैश्या थी। उसके मकान से थोड़ी दूरी पर किसी कबीर जी के भक्त का मकान था। कबीर जी उसके आँगन में रात्रि के समय सत्संग कर रहे थे। उस दिन उस वैश्या के पास भी ग्राहक नहीं थे। सत्संग के वचन सुनने के लिए वह अपने मकान की छत पर कुर्सी लेकर बैठ गई। पूर्ण रात्रि सत्संग सुना और उठकर सत्संग स्थल पर गई तथा परमात्मा कबीर जी को अपना परिचय दिया तथा कहा कि गुरू जी! क्या मेरे जैसी पापिनी का भी उद्धार हो सकता है। मैंने अपने जीवन में प्रथम बार आत्म कल्याण की बातें सुनी हैं। अब मेरे पास दो ही विकल्प हैं कि या तो मेरा कल्याण हो, या मैं आत्महत्या करके पापों का प्रायश्चित करूँ। परमात्मा कबीर जी ने कहा, बेटी! आत्महत्या करना महापाप है। भक्ति करने से सर्व पाप परमात्मा नष्ट कर देता है। आप मेरे से उपदेश लेकर साधना करो और भविष्य में पापों से बचकर रहना। उस बहन ने प्रतिज्ञा की और परमात्मा कबीर जी से दीक्षा लेकर भक्ति करने लगी तथा जहाँ भी प्रभु कबीर जी सत्संग करते, वहीं सत्संग सुनने जाने लगी। जिस कारण से कबीर जी के भक्तों को उसका सत्संग में आना अच्छा नहीं लगता था। वे उस लड़की को कहते थे कि तेरे कारण गुरू जी की बदनामी होती है। तू सत्संग में मत आया कर। तू सबसे आगे गुरू जी के पास बैठती है, वहाँ ना बैठा कर। लड़की ने ये बातें गुरू कबीर जी को बताई और फूट-फूटकर रोने लगी। परमेश्वर जी ने कहा कि बेटी! आप सत्संग में आया करो। कबीर जी ने सत्संग वचनों द्वारा स्पष्ट किया कि मैला कपड़ा साबुन और पानी से दूर रहकर निर्मल कैसे हो सकता है? इसी प्रकार पापी व्यक्ति सत्संग से तथा गुरू से दूर रहकर आत्म कल्याण कैसे करा सकता है? भक्त वैश्या तथा रोगी से नफरत नहीं करते, सम्मान करते हैं। उसको ज्ञान चर्चा द्वारा मोक्ष प्राप्ति की प्रेरणा करते हैं। परमात्मा कबीर जी के बार-बार समझाने पर भी भक्तजन उस लड़की को सत्संग से मना करते रहे तथा बहाना करते थे कि तेरे कारण गुरू जी काशी में बदनाम हो गए हैं। काशी के व्यक्ति हमें बार-बार कहते हैं कि तुम्हारे गुरू जी के पास वैश्या भी जाती है। वह काहे का गुरू है।

उस लड़की से कहा कि बेटी! आप मेरे साथ हाथी पर बैठकर चलोगी। लड़की ने कहा, जो आज्ञा गुरूदेव! अगले दिन सुबह लगभग 10:00 बजे हाथी के ऊपर तीनों सवार होकर काशी नगर के मुख्य बाजार में से गुजरने लगे। संत रविदास जी हाथी को चला रहे थे। लड़की रविदास जी के पीछे कबीर जी के आगे यानि दोनों के बीच में बैठी थी। कबीर जी ने एक बोतल में गंगा का पानी भर लिया। उस बोतल को मुख से लगाकर घूंट-घूंटकर पी रहे थे। लोगों को लगा कि कबीर जी शराब पी रहे हैं। शराब के नशे में वैश्या को सरेआम बाजार में लिये घूम रहे हैं। काशी के व्यक्ति एक-दूसरे को बता रहे हैं कि देखो! बड़े-बड़े उपदेश दिया करता कबीर जुलाहा, आज इसकी पोल-पट्टी खुल गई है। ये लोग सत्संग के बहाने ऐसे कर्म करते हैं। काशी के व्यक्ति कबीर जी के शिष्यों को पकड़-पकड़ लाकर दिखा रहे थे कि देख तुम्हारे परमात्मा की करतूत। शराब पी रहे हैं, वैश्या को लिए सरेआम घूम रहा है। यह लीला देखकर वे चौंसठ लाख नकली शिष्य कबीर जी को त्यागकर चले गए। पहले वाली साधना करने लगे। लोक-लाज में फँसकर गुरू विमुख हो गए।

परमात्मा कबीर जी विशेषकर ऐसी लीला उस समय किया करते जिस समय दिल्ली का सम्राट सिकंदर लोधी काशी नगरी में आया हो। उस समय सिकंदर लोधी राजा काशी में उपस्थित था। काजी-पंडितों ने राजा को शिकायत कर दी कि कबीर जुलाहे ने जुल्म कर दिया। शर्म-लाज समाप्त करके सरेआम वैश्या के साथ हाथी के ऊपर गलत कार्य कर रहा था। शराब पी रहा है। राजा ने तुरंत पकड़कर गंगा में डुबोकर मारने का आदेश दिया। अपने हाथों से राजा सिकंदर ने हाथों में हथकड़ी तथा पैरों में बेड़ी तथा गले में तोक लगाई। नौका में बैठाकर गंगा दरिया के मध्य में ले जाकर दरिया में सिपाहियों ने पटक दिया। हथकड़ी, बेड़ी तथा तोक अपने आप टूटकर जल में गिर गई। परमात्मा जल पर पद्म आसन लगाकर बैठ गए। नीचे से गंगा जल चक्कर काटता हुआ बह रहा था। परमात्मा जल के ऊपर आराम से बैठे थे। कुछ समय उपरांत परमात्मा कबीर जी गंगा के किनारे आ गए। सिपाहियों ने शेखतकी के आदेश से कबीर जी को पकड़कर नौका में बैठाकर कबीर परमात्मा के पैरों तथा कमर पर भारी पत्थर बाँधकर हाथ पीछे को रस्सी से बाँधकर गंगा दरिया के मध्य में फैंक दिया। रस्से टूट गए। पत्थर जल में डूब गए। परमेश्वर कबीर जी जल के ऊपर बैठे रह गए। जब देखा कि कबीर गंगा दरिया में डूबा नहीं तो क्रोधित होकर शेखतकी ने राजा से कहकर तोब के गोले मारने का आदेश दे दिया। पहले कबीर जी को पत्थर मारे, गोली मारी, तीर मारे। अंत में तोब के गोले चार पहर यानि बारह घण्टे तक कबीर जी के ऊपर चलाए। कोई तो वहीं किनारे पर गिर जाता, कोई दूसरे किनारे पर जाकर गिरता, कोई दूर तालाब में जाकर गिरता। एक भी गोला, पत्थर, बंदूक की गोली या तीर परमेश्वर कबीर जी के आसपास भी नहीं गया। इतना कुछ देखकर भी काशी के व्यक्ति परमेश्वर को नहीं पहचान पाए। तब परमेश्वर कबीर जी ने देखा कि ये तो अक्ल के अँधे हैं। उसी समय गंगा के जल में समा गए और अपने भक्त रविदास जी के घर प्रकट हो गए। दर्शकों को विश्वास हो गया कि कबीर जुलाहा गंगा जल में डूबकर मर गया है। उसके ऊपर रेत व रेग (गारा) जम गई होगी। सब खुशी मनाते हुए नाचते-कूदते हुए नगर को चल पड़े। शेखतकी अपनी मण्डली के साथ संत रविदास जी के घर यह बताने के लिए गया कि जिस कबीर जी को तुम परमात्मा कहते थे, वह डूब गया है, मर गया है। संत रविदास जी के घर पर जाकर देखा तो कबीर जी इकतारा (वाद्य यंत्र) बजा-बजाकर शब्द गा रहे थे। शेखतकी की तो माँ सी मर गई। राजा सिकंदर के पास जाकर बताया कि वह आँखें बचाकर भाग गया है। रविदास के घर बैठा है। यह सुनकर बादशाह सिंकदर लोधी संत रविदास जी की कुटी पर गया। परमात्मा कबीर जी वहाँ से अंतर्ध्यान होकर गंगा दरिया के मध्य में जल के ऊपर समाधि लगाकर जैसे जमीन पर बैठते हैं, ऐसे बैठ गए। रविदास से पूछा कि कबीर जी कहाँ पर हैं? संत रविदास जी ने कहा कि हे बादशाह जी! वे पूर्ण परमात्मा हैं, वे ही अलख अल्लाह हैं। आप इन्हें पहचानो। वे तो मर्जी के मालिक हैं। जहाँ चाहें चले जाऐं। मुझे कुछ नहीं पता, कहाँ चले गए? वे तो सबके साथ रहते हैं। उसी समय किसी ने बताया कि कबीर जी तो गंगा के बीच में बैठे भक्ति कर रहे हैं। सब व्यक्ति तथा राजा व सिपाही गंगा दरिया के किनारे फिर से गए। राजा ने नौका भेजकर मल्लाहों के द्वारा संदेश भेजा कि बाहर आऐं। मल्लाहों ने नौका कबीर जी के पास ले जाकर राजा का आदेश सुनाया कि आपको सिकंदर बादशाह याद कर रहे हैं। आप चलिए। परमेश्वर कबीर जी उस जहाज (बड़ी नौका) में बैठकर किनारे आए।

राजा सिकंदर ने फिर गिरफ्तार करवाकर हाथ-पैर बाँधकर खूनी हाथी से मरवाने की आज्ञा कर दी। चारों और जनता खड़ी थी। सिकंदर ऊँचे स्थान पर बैठे थे। परमात्मा को बाँध-जूड़कर पृथ्वी पर डाल रखा था। महावत (हाथी के ड्राइवर) ने हाथी को शराब पिलाई और कबीर जी को कुचलकर मरवाने के लिए कबीर जी की ओर बढ़ा। कबीर जी ने अपने पास एक बब्बर सिंह खड़ा दिखा दिया। वह केवल हाथी को दिखा। हाथी चिंघाड़कर डर के मारे वापिस भाग गया। महावत को नौकरी का भय सताने लगा। हाथी को भाले मार-मारकर कबीर जी की ओर ले जाने लगा, परंतु हाथी उल्टा भागे। तब पीलवान (महावत) को भी शेर खड़ा दिखाई दिया तो डर के मारे उसके हाथ से अंकुश गिर गया। हाथी भाग गया। परमेश्वर कबीर जी के बंधन टूट गए। कबीर जी खड़े हुए तथा अंगड़ाई ली तो लंबे बढ़ गए। सिर आसमान को छूआ दिखाई देने लगा। प्रकाशमान शरीर दिखाई देने लगा। सिकंदर राजा भय से काँपता हुआ परमेश्वर कबीर जी के चरणों में गिर गया। क्षमा याचना की तथा कहा कि आप परमेश्वर हैं। मेरी जान बख्शो। मेरे से भारी भूल हुई है। मैं अब आपको पहचान गया हूँ। आप स्वयं अल्लाह पृथ्वी पर आए हो। तब परमेश्वर कबीर जी काशी नगर में आए तथा उसी गणिका के मकान के चौंक कहैंमें बैठ गए। लड़की परमात्मा के चरण दबा रही थी। परमेश्वर कबीर जी के पैर अपनी साथलों (घुटनों से ऊपर की टाँग) पर रख लिए। 

फिर गणिका कै संग चले, शीशी भरी शराब। गरीबदास उस पुरी में, जुलहा भया खराब।।726।।
तारी बाजी पुरी में, भिष्ट जुलहदी नीच। गरीबदास गनिका सजी, दहूं संतौं कै बीच।।727।।
गावत बैंन बिलासपद, गंगाजल पीवंत। गरीबदास विह्नल भये, मतवाले घूमंत।।728।।
भडु.वा भडु.वा सब कहैं, कोई न जानैं खोज। दास गरीब कबीर करम, बांटत शिरका बोझ।।729।।
देखो गनिका संगि लई, कहते कौंम छतीस। गरीबदास इस जुलहदी का, दर्शन आन हदीस।।730।।
शाह सिकंदर कूं सुनी, भिष्ट हुये दो संत। गरीबदास च्यारों वरण, उठि लागे सब पंथ।।731।।
च्यारि वरण षट आश्रम, दोनौं दीन खुशाल। गरीबदास हिंदू तुरक, पड्या शहर गलि जाल।।732।।
शाह सिकंदरकै गये, सुनि कबले अरदास। गरीबदास तलबां हुई, पकरे दोनौं दास।।733।।
कहौ कबीर यौह क्या किया, गनिका लिन्हीं संग। गरीबदास भूले भक्ति, पर्या भजन में भंग।।734।।
सुनौं सिकंदर बादशाह, हमरी अरज अवाज। गरीबदास वह राखिसी, जिन यौह साज्या साज।।735।।
जड़ियां तौंक जंजीर गल, शाह सिकंदर आप। गरीबदास पद लीन है, तारी अजपा जाप।।736।।
हाथौं जड़ी हथकड़ी, पग बेड़ी पहिराय। गरीबदास बीच गंग में, तहां दीन्हा छिटकाय।।737।।
झड़ि गये तौंक जंजीर सब, लगै किनारै आय। गरीबदास देखै खलक, स्यौं काजी बादशाह।।738।।
नीचै नीचै गंगाजल, ऊपर आसन थीर। गरीबदास बूडै़ नहीं, बैठे अधर कबीर।।739।।
योह अचरज कैसा भया, देखैं दोनौं दीन। गरीबदास काजी कहैं, बांधि दिया जल सीन।।740।।
गल में फांसी डारि करि, बांधौ शिला सुधारि। गरीबदास यौह जुलहदी, जब बूडै़ गंगधार।।741।।
शिला धरी जब नाव में, बांधी गलै कबीर। गरीबदास फंद टूटि कै, ना डूबै जलनीर।।742।।
शिला चली शाह और कौं, देखत काशी ख्याल। गरीबदास कबीर का आसन अधर हमाल।।743।।
तीर बाण गोली चलैं, तोप रहकल्यौं शोर। गरीबदास उस जुलहदीकै, गई एक नहीं ओर।।744।।
अधर धार गोले बहैं, जलकै बीच गभाक। गरीबदास उस जुलहदी पर, शस्त्र छूटैं लाख।।745।।
तोप रहकले सब चलैं, तीर बाण कमान। गरीबदास वह जुलहदी, जल पर रहै अमान।।746।।
अधरि धार अपार गति, जल परि लगी समाधि। गरीबदास निज ब्रह्मपद, खेलैं आदि अनादि।।747।।
जुलम हुआ बूडै़ नहीं, शस्त्र लगै न बाण। गरीबदास इब कौंन गति, कैसैं लीजै प्राण।।748।।
लगी समाधी अगाध में, बिचरै काशी गंग। गरीबदास किलोल सर, छूहैं चरण तरंग।।749।।
च्यारि पहर गोले बगे, धमी मुलक मैदान। गरीबदास पोखर सुखैं, रहे कबीर अमान।।750।।
अपनी करनी सब करी, थाके दोनौं दीन। गरीबदास अब जुलहदी, पैठि गये जलमीन।।751।।
डूब्या डूब्या सब कहैं, हो गये गारत गोर। गरीबदास कबले धनी, तुम आगै क्या जोर।।752।।
आनंद मंगल होत है, बटैं बधाई बेग। गरीबदास उस जुलहदी पर फिर गई रेती रेघ।।753।।
हस्ती घोडे़ चढत हैं, पान मिठाई चीर। गरीबदास काशी खुसी, बूडे़ गंग कबीर।।754।।
जावो घरि रैदासकै, हिलकारे हजूर। गरीबदास खुसिया कहौ, कहियो नहीं कसूर।।755।।
झालरि ढोलक बजत हैं, गावैं शब्द कबीर। गरीबदास रैदास संगि, दोनौं एकही तीर।।756।।
काजी पंडित सब गये, शाह सिकंदर उठ। गरीबदास रैदासकै, भेष गये जटजूट।।757।।
कोठी कुठले सब झके, बासन टींडर गोलि। गरीबदास रहदास सुनौं, कहां गये वह बोल।।758।।
वे प्रगट पूरण पुरूष हैं, अबिनाशी अलख अल्लाह। गरीबदास रैहदास कहैं, सुनौं सिकंदर शाह।।759।।
सूरजमुखी सुभांन सर, खिले फूल गुलजार। गरीबदास काजी पंडित करता शाह पुकार।।760।।
शाह सिकंदर फिर गये, उस गंगा कै तीर। दास गरीब कबीर हरी, बैठे ऊपर नीर।।761।।
बैठि मलाह जिहाज में, गये धार कै बीच। गरीबदास हरि हरि करैं, प्रेम फुहारे सीच।।762।।
करी अरज मलाह तहां, दीन दुनी बादशाह। गरीबदास आसन उधर, लगी समाधि जुलाह।।763।।
भंवर फिरत हैं गंग जल, फूल उगानें कोटि। गरीबदास तहां बंदगी, हरिजन हरि की ओट।।764।।
संकल सीढी लाय करि, उतरे तहां मलाह। गरीबदास हम बंदगी, याद किये बादशाह।।765।।
बैठ कबीर जहाज में, आये गंगा घाट। गरीबदास काशी थकी, हांडे बौह बिधि बाट।।766।।

शब्दार्थ:- वाणी नं. 726-730 का शब्दार्थ:- परमात्मा कबीर जी ने शिष्यों की परीक्षा लेने के उद्देश्य से एक शीशी में गंगा दरिया का जल भर लिया। काशी शहर की प्रसिद्ध वैश्या और रविदास संत जी के साथ किराए के हाथी पर चढ़कर काशी शहर के मुख्य बाजार की गलियों में घूमने लगे। शीशी से मुख लगाकर जल पी रहे थे, परंतु अदा कर रहे थे जैसे शराब पी रहे हैं। रविदास जी हाथी को चला रहे थे। पीछे वैश्या बैठी थी। वैश्या के पीछे कबीर जी वैश्या के गले में हाथ डालकर आशिक की तरह अभिनय कर रहे थे। काशी शहर के व्यक्ति यह सब देखकर हाथों से तालियाँ बजाने लगे और कहने लगे कि देखो कबीर नीच जुलाहा वैश्या को साथ लेकर शराब के नशे में वैश्या के गले में हाथ डालकर मतवाला होकर घूम रहा है। परमात्मा कबीर जी भक्ति के शब्द-कविता गा रहे थे और झूम रहे थे। जनता समझ रही थी कि गाने गा रहा है, अभद्र तरीके से वैश्या से लिपटा बैठा है। इसने लोकलाज भी उतार दी है। काशी नगर के सब नागरिक कबीर जी को भड़वा-भड़वा यानि व्यभिचारी-व्यभिचारी कहने लगे, परंतु इस राज को कोई नहीं समझ पा रहा था कि परमात्मा कबीर जी सतगुरू रूप में अनेकों शिष्यों को दीक्षा दे चुके थे। उनके पापों का भार अपने सिर पर ले रखा था। शिष्य गुरू आज्ञा का पालन नहीं कर रहे थे। उनके भार से मुक्त हो रहे थे। शिष्यगण यह लीला देखकर नाम दीक्षा त्यागकर कबीर जी से दूर हो गए। उनके सत्संग विचार भी सुनने के लिए सत्संग जाना भी त्याग दिया। जितने शिष्यों ने नाम त्यागा, उनका भार कबीर जी के सिर से उतर गया। काशी शहर के छत्तीस बिरादरी के व्यक्ति कह रहे थे कि देखो गणिक (वैश्या) को साथ लेकर चल रहा है। इस जुलाहे कबीर के दर्शन से भी पाप लगता है।

वाणी नं. 731-754 का शब्दार्थ:- उन दिनों में दिल्ली का राजा सिकंदर लोधी काशी में ठहरा हुआ था क्योंकि वह पूरे पुराने भारत का सम्राट था। उसके आधीन छोटे राज्य भी थे। काशी नगर का नरेश बीरदेव सिंह बघेल भी सिकंदर के आधीन था। परमात्मा कबीर जी भी अनोखी लीला उसी समय किया करते थे जिस समय दिल्ली का राजा सिकंदर काशी शहर में आया हो। परमेश्वर तो जानते हैं कि जितने भी मानव जिस-जिस धर्म के हैं तथा अन्य जीव सब उसी के अपने बच्चे हैं। उन्हीं के वचन से उत्पन्न हैं। पिता होने के नाते परमेश्वर कबीर जी भी अपने बच्चों को काल ब्रह्म के चंगुल से निकालने के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। परमेश्वर कबीर जी चाहते थे कि किसी तरह सिकंदर को मेरे सामर्थ्य का पता चल जाए और यह अपने राज वाले क्षेत्र में मेरे सत्य ज्ञान के प्रचार में सहयोग करे तथा अपना भी कल्याण करवाए।

भारत में हिन्दू गुरू ब्राह्मणों तथा मुसलमान काजी-मुल्लाओं की आपस में कभी नहीं बनती थी। धर्म के नाम पर झगड़ा खड़ा किए रहते थे। परंतु जब कबीर जी की त्रुटि उन्हें मिल जाती तो सब एक होकर कबीर जी का जोरदार विरोध करते थे। कारण यह था कि परमात्मा कबीर जी दोनों धर्मों के प्रचारकों के ज्ञान को गलत सिद्ध करते थे। कहते थे कि इन धर्म प्रचारकों को अपने धर्मग्रन्थों का भी ज्ञान नहीं है। सबके सब शास्त्रों के विरूद्ध ज्ञान व भक्ति बताते हैं। जिस कारण से साधकों को कोई अध्यात्म लाभ परमात्मा की ओर से नहीं मिल रहा है।

कबीर जी से दीक्षा लेने वालों को तुरंत लाभ मिलता था। यही कारण था कि उस समय परमात्मा कबीर जी के चौंसठ लाख शिष्य हो गए थे। सब महादुःखी थे। दीक्षा व आशीर्वाद से सबका कष्ट नष्ट होकर सब सुखी हो गए थे। कबीर जी के अनुयाई हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही बहुसँख्या में बन रहे थे। जिस कारण से वे धर्म प्रचारक (धर्मगुरू) कबीर जी से घोर ईर्ष्या रखते थे। इस घटना से उनको पंख लग गए। विचार किया कि दिल्ली का सम्राट भी आया है। आज इस जुलाहे को मौत की सजा दिलाऐंगे। यह विचार करके हजारों की सँख्या में दोनों धर्मों के व्यक्ति राजा सिकंदर के पास विश्राम गृह में गए। कारण का पता लगने पर राजा सिकंदर ने जनता को प्रसन्न करने के लिए कहा कि अभी गिरफ्तार करवाकर उस कबीर को मौत के घाट उतारता हूँ। संत रविदास जी तथा परमात्मा कबीर जी दोनों को पुलिस पकड़ लाई। संत रविदास जी को तो छोड़ दिया क्योंकि कबीर जी ने सब अपनी गलती मानी थी। कहा था कि न रविदास का दोष है, न गणिका का, सब कुछ मैंने किया है।

सिकंदर लोधी का असाध्य रोग परमेश्वर कबीर जी के आशीर्वाद से समाप्त हुआ था। कमाल लड़के को तथा कमाली लड़की को तथा स्वामी रामानंद को जिसकी हत्या सिकंदर लोधी राजा ने की थी, राजा के सामने मुर्दों को जीवित किया था। राजा सिकंदर भी कबीर जी को गुरू मानता था, परंतु अधिक जनता को देखकर तथा अक्षम्य अपराध मानकर कानून व्यवस्था राज में बनाए रखने के उद्देश्य से सिकंदर ने कबीर जी को गिरफ्तार करवाया। फिर भी कुछ गुरू मर्यादा का ध्यान रखते हुए प्रश्न किया कि हे कबीर जी! आप इतने नेक विचारों वाले थे। यह क्या कर बैठे? आपने वैश्या को साथ लिया। आप भक्ति भूल गए। आपका भजन यानि नाम खण्ड हो गया। भक्ति का नाश कर लिया। कबीर जी ने उत्तर दिया कि हे सिकंदर बादशाह! आपके प्रश्न का उत्तर सुनो। जिस परमेश्वर ने सब ब्रह्मण्डों को बनाकर सुरक्षित रखा है, वह मेरी भी रक्षा करेगा। सिकंदर लोधी राजा ने जनता को शांत करने के उद्देश्य से अपने हाथों से कबीर परमेश्वर के हाथों में हथकड़ी, पैरों में बेड़ी, गले में तोक पहनाकर गंगा दरिया के मध्य में डालकर मारने का आदेश सुना दिया। राजा के आदेशानुसार कबीर जी को गंगा नदी के मध्य में नौका के द्वारा ले जाकर जल में डाल दिया। परमेश्वर कबीर जी के हाथों की हथकड़ी, पैरों की बेड़ी तथा गले की तोक वाली जंजीर टूटकर जल में गिर गई और परमात्मा कबीर जी जल के ऊपर बैठे रहे। यह देखकर काजियों ने कहा कि इसने जादू-जंत्र करके जल को बाँध दिया है। इस कारण से नहीं डूब रहा। कुछ समय तक जल पर बैठे रहे। फिर गंगा नदी के किनारे की ओर उसी स्थान पर आ गए जिस स्थान से नौका में बैठाकर ले गए थे। उस स्थान पर यानि गंगा दरिया के किनारे पर कई हजार व्यक्ति देखने के लिए उपस्थित थे। राजा सिकंदर भी उपस्थित था। काजी व मुल्ला तथा ब्राह्मणों ने विचार करके राजा से कहा कि इसके गले में पत्थर की भारी वजन वाली शिला बाँधकर दरिया के मध्य डाला जाए, यह तब डूबेगा। नौका में कबीर जी को बैठाकर गले में लोहे की मोटी जंजीर से पत्थर की भारी शिला बाँधकर गंगा नदी के मध्य में जल में पटक दिया। जंजीर टूट गई। पत्थर की शिला जल के ऊपर तैरती हुई तेजी से चलकर सिकंदर राजा की ओर आई। कबीर जी जल के ऊपर पालथी लगाकर सुखासन पर बैठे रहे। अथाह जल नीचे-नीचे बह रहा है। परमात्मा कबीर जी जल में डूबे नहीं। जल की लहरें परमेश्वर जी के चरण छूकर उछल-उछलकर किलोल कर रही थी। राजा ने आदेश दिया कि तीर मारकर इसका अंत कर दो। जब बहुत समय तक तीर-बाणों से कबीर जी नहीं मरे तो तोब यंत्र मंगाया गया। तोब के गोले तथा तीर दोनों ही छोड़े गए, परंतु एक भी परमेश्वर कबीर जी की ओर नहीं गया। कोई गोला उसी किनारे के पास दरिया में गिरे, कोई दूर गिरे। कई तोब के गोले तो दूर तालाबों में गिरे जिनका जल ही सूख गया। तोब के कुछ गोले दांये-बांये गिर रहे थे। परमात्मा कबीर जी के निकट एक भी तीर-बाण व तोब का गोला नहीं गया। यह प्रयत्न चार पहर यानि बारह घण्टे तक चला, परंतु कबीर जी नहीं मरे। पूर्ण परमात्मा कबीर जी अविनाशी हैं। अविनाशी को कौन मार सकता है? वे जनता को लीला के माध्यम से अपना सामर्थ्य दिखा रहे थे, परंतु काल ब्रह्म ने बुद्धि हर रखी थी। किसी के भी विचार में यह बात नहीं आई कि यह सामान्य व्यक्ति नहीं है। जब राजा तथा प्रजा ने सब कोशिश कर ली तो कहने लगे कि इसको कैसे मारा जाए? जब सब जुल्म करके थक लिए, तब परमात्मा कबीर जी गंगा नदी के जल में गोता लगा गए। उपस्थित जनता तथा राजा ने मान लिया कि कबीर जल में डूबकर मर गया। इसके शव पर रेत व गारा फिर गई। कबीर जी के मरने की खुशी में लोग ढ़ोल बजाने लगे, नाचने-गाने लगे और मिठाई बाँटने लगे। राजा विश्राम गृह में चला गया। काजी, मुल्ला व पंडितजन मिलकर रविदास के घर गए। वहाँ पर उनको अंदर से कबीर जी की आवाज सुनाई दी। वे परमात्मा की महिमा के शब्द (कविता) गा रहे थे। रविदास जी को बताने गए थे कि जिसे आप अविनाशी कहते थे, वह कबीर मर गया है। घर के अंदर गए तो कबीर जी रविदास जी के पास बैठे थे। दोनों शब्द गा रहे थे। देखकर वापिस जाकर सिकंदर को बताया कि कबीर मरा नहीं, वह तो रविदास के घर पर बैठा है। हजारों की सँख्या में काशी के काजी-मुल्ला, पंडित तथा जनता रविदास जी के घर गए। वहाँ पर कबीर जी नहीं मिले। रविदास जी से पूछा कि कबीर कहाँ है। वे बोले कि अभी मेरे पास से गए हैं। कह रहे थे कि गंगा में स्नान करके आता हूँ। राजा तथा सब व्यक्ति गंगा के उसी किनारे पर गए तो परमात्मा कबीर जी जल के ऊपर पहले की तरह बैठे मिले। दरिया के मध्य में बैठे थे। छोटा समुद्री जहाज में मल्लाह यानि जहाज चालक व अन्य कुछ व्यक्ति गए और कहा कि आपको राजा सिकंदर बुला रहा है। जहाज से सीढ़ी जंजीरों से बाँधकर जल में लटकाई। कबीर जी सीढ़ी से चढ़कर जहाज में बैठकर गंगा नदी से बाहर आए तो तुरंत पकड़ लिए यानि गिरफ्तार कर लिए।

‘‘खूनी हाथी से कबीर परमेश्वर को मरवाने की कुचेष्टा’’

खूनी हाथी मस्त है, पग बंधे जंजीर। गरीबदास जहां डारिया, मसक बांधि कबीर।।767।।
सिंह रूप साहिब धर्या, भागे उलटे फील। गरीबदास नहीं समझती, याह दुनिया खलील।।768।।
बने केहरी सिंह जित, चौंर शिखर असमांन। गरीबदास हस्ती लख्या, दीखै नहीं जिहांन।।769।।
कूटै शीश महावतं, अंकुश शीर गरगाप। गरीबदास उलटा भगै, तारी दीजैं थाप।।770।।
भाले कोखौं मारिये, चरखी छूटैं पाख। गरीबदास नहीं निकट जाय, किलकी देवैं लाख।।771।।
जैसी भक्ति कबीर की, ऐसी करै न कोय। गरीबदास कुंजर थके, उलटे भागे रोय।।772।।
दुंम गोवैं मूंडी धुनैं, सैंन न समझै एक। गरीबदास दीखै नहीं, आगै खड़ा अलेख।।773।।
पीलवान देख्या तबै, खड़ा केहरी सिंघ। गरीबदास आये तहां, धरि मौला बहु रंग।।774।।
उतरे मौला अरस तैं, भाव भक्ति कै हेत। गरीबदास तब शाह लखे, कबीर पुरूष सहेत।।775।।
लीला की कबीर ने, दो रूप में रहे दीस। दासगरीब कबीर कै, पास खडे़ जगदीश।।776।।
जंभाई अंगडाईयां, लंबे भये दयाल। गरीबदास उस शाह कूं, मानौं दश्र्या काल।।777।।
कोटि चन्द्र शशि भान मुख, गिरद कुंड दुम लील। गरीबदास तहां ना टिके, भागि गये रनफील।।778।।
नयन लाल भौंह पीत हैं, डूंगर नक पहार। गरीबदास उस शाह कूं, सिंह रूप दीदार।।779।।
मस्तक शिखर स्वर्ग लग, दीरघ देह बिलंद। गरीबदास हरि ऊतरे, काटन जम के फंद।।780।
गिरद नाभि निरभै कला, दुदकारै नहीं कोय। गरीबदास त्रिलोकि में, गाज तास की होय।।781।।
ज्यूं नरसिंह प्रहलादकै, यूं वह नरसिंह एक। गरीबदास हरि आईया, राखन जनकी टेक।।782।।
बार-बार सताय कर, मस्तक लीना भार। गरीबदास शाह यौं कहै, बकसौ इबकी बार।।783।।
तहां सिंह ल्यौलीन हुआ, परचा इबकी बार। गरीबदास शाह यौं कहै, अल्लह दिया दीदार।।784।।
सुन काशी के पण्डितौ, काजी मुल्लां पीर। गरीबदास इसके चरण ल्यौह, अलह अलेख कबीर।।785।।
यौह कबीर अल्लाह है, उतरे काशी धाम। गरीबदास शाह यौं कहैं, झगर मूंये बे काम।।786।।
काजी पंडित रूठिया, हम त्याग्या योह देश। गरीबदास षटदल कहैं, जादू सिहर हमेश।।787।।
इन जादू जंतर किया, हस्ती दिया भगाय। गरीबदास इत ना रहैं, काशी बिडरी जाय।।788।।
काशी बिडरी चहौं दिशा, थांभन हारा एक। गरीबदास कैसे थंभै, बिडरे बौहत अनेक।।789।।

शब्दार्थ:- वाणी नं. 767-789:- परमात्मा कबीर जी के हाथ-पैर बाँधकर एक मैदान के अंदर डाल दिया जहाँ पर घोर अपराधियों को कठोर दंड दिया जाता था। वर्तमान के स्टेडियम जैसा वह मैदान होता था। राजा तथा पदाधिकारी स्टेज पर बैठते थे। दर्शक चारों ओर खड़े होते थे। मनुष्यों को मारने के लिए हाथी को प्रशिक्षित किया जाता था। उसे शराब तथा रक्त पीने का चस्का लगाया जाता था। उसे खूनी हाथी कहते थे। राजा सिकंदर तथा अन्य मंत्रीगण बैठे थे। प्रजा चारों ओर खड़ी थी। खूनी हाथी को महावत (हाथी को वश करके चलाने वाला व्यक्ति) कबीर जी की ओर मारने के लिए लाया तो परमेश्वर कबीर जी ने एक सिंह का रूप दिखाया जो केवल हाथी को दिखाई दे रहा था। हाथी ने शराब पी रखी थी। सिंह को देखकर भय के कारण उल्टा भाग लिया। महावत ने हाथी को भालों से मारा, परंतु कबीर जी की ओर हाथी नहीं गया। परमात्मा कबीर जी ने महावत को भी सिंह खड़ा दिखा दिया। महावत भी डरकर हाथी से गिर गया। हाथी भाग गया। परमात्मा कबीर जी के बँधन टूट गए और खड़े हुए। खड़ा होकर अंगड़ाई ली और जम्भाई (ऊबासी) ली। बहुत लंबे हो गए। सिर आकाश को छू रहा था। शरीर से असँख्यों सूर्यों का प्रकाश निकल रहा था। यह केवल राजा सिकंदर को दिखाई दिया। राजा भयभीत होकर खड़ा होकर मैदान में आया और कहा कि मेरी जान बख्श दो, मेरे से बड़ी गलती हुई है। मेरे को परमात्मा का दर्शन हो गया है। जनता से राजा ने कहा कि यह अल्लाहु अकबर है, कबीर रूप में पृथ्वी पर आया है। इसके चरण छूकर अपना कल्याण करवा लो। परंतु कर्महीन काजी-मुल्ला व पंडित कहने लगे कि कबीर ने जादू-जंत्र करके हाथी को भगा दिया। हम जा रहे हैं। यह कहकर वे पाप आत्मा सब चले गए। परमात्मा ने अपना शरीर सामान्य किया और सिंह को अदृश्य कर दिया। अपनी कुटी में चले गए।