47. पंडित की परिभाषा | जीने की राह


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पंडित कहते हैं विद्वान को। मेरे पूज्य गुरू जी ब्राह्मण जाति में गाँव-बड़ा पैंतावास, तहसील-चरखी दादरी, जिला-भिवानी (हरियाणा) में जन्मे थे। वे अपने आपको कभी पंडित नहीं कहते थे।

मेरे दादा गुरूजी (मेरे गुरू जी के गुरू जी) गाँव-छावला (दिल्ली में नजफगढ़ के पास) के जाट थे। वे छोटी आयु में ही संत गंगेश्वरानंद जी के सत्संग से प्रभावित होकर उनके साथ हरिद्वार चले गए थे। संत गंगेश्वरानंद जी ने उनको काशी विद्यापीठ में पढ़ने के लिए छोड़ा। वे तीक्ष्ण बुद्धि के धनी थे। चार विषयों में आचार्य की डिग्री प्राप्त की। जिस कारण से जाट होते हुए भी पंडित चिदानंद जी के नाम से पुकारे जाते थे। गाँव गोपालपुर (तहसील-खरखोदा, जिला-सोनीपत, प्रान्त-हरियाणा) में उनका आश्रम है। उस पर बोर्ड लगा है, ’’पंडित चिदानंद जी (गरीब दासी) आश्रम, गोपालपुर।‘‘ उनका नाम चिदांनद जी था। कोई ब्राह्मण भाई दुःख ना माने, इसलिए पंडित की परिभाषा बताना अनिवार्य था, सो बताई है।

सुदामा जी पंडित थे

सुदामा जी ब्राह्मण कुल में जन्में थे। निर्धनता चरम पर थी। कई बार बच्चे भी भूखे सो जाते थे। सुदामा जी की धर्मपत्नी को पता था कि द्वारिका के राजा श्री कृष्ण जी के साथ सुदामा जी की अच्छी मित्रता रही है। पत्नी ने बहुत बार कहा कि आप अपने राजा मित्र कृष्ण से कुछ धन माँग लाओ। सुदामा जी कहते थे कि पंडित का काम माँगना नहीं होता। परमात्मा के विधान को समझकर उसके अनुकूल जीवन यापन करना होता है। गरीबदास जी ने भी कहा है कि:-

गरीब, नट, पेरणा कांजर सांसी, मांगत हैं भठियारे।
जिनकी भक्ति में लौ लागी, वो मोती देत उधारे।।
गरीब, जो मांगै सो भड़ूवा कहिए, दर-दर फिरै अज्ञानी।
जोगी जोग सम्पूर्ण जाका, मांग ना पीवै पानी।।

शब्दार्थ:- ‘‘नट’’ ये लोग जनता में कुछ खेल दिखाते थे। जैसे लंबे बाँस को बिना पृथ्वी में गाड़े उसके ऊपर चढ़ना जो अनोखा व कठिन कार्य होता था। उस खेल के समापन पर कटोरा लेकर तमासा (खेल) देखने के लिए उपस्थित भीड़ से रूपये-पैसे माँगते थे। इसी प्रकार अन्य जाति के व्यक्ति कंजर, सांसी, भठियारे अपनी कला दिखाकर रूपये या कणक (गेहूँ, बाजरा, चना) माँगते थे। यदि योगी यानि साधक भी ऐसी सिद्धियों का प्रदर्शन करके रूपये व कणक इकट्ठे करता है तो उसकी सत्य साधना नहीं है। यदि सत्य साधक होता, शिष्यों को आशीर्वाद रूपी मोती देकर धनी बनाता है जो साधक के भाग्य से अलग अपनी ओर से उधार रूप में होता है। यदि संत दर-दर पर जाकर माँगता फिरता है तो वह अज्ञानी है। उसके पास शास्त्र अनुसार साधना नहीं, वह संत नहीं भड़वा है। भड़वा का अर्थ यहाँ पर बेशर्म है। जोगी यानि साधक की भक्ति सम्पूर्ण उसकी मानी जाती है जो किसी से कुछ नहीं माँगे। उसके उदाहरण में कहा है कि वह साधक और वस्तु तो छोड़ो, पानी भी माँगकर नहीं पीता।

परंतु पत्नी के बार-बार आग्रह करने पर विप्र सुदामा जी अपने मित्र श्री कृष्ण जी के पास चले गए। श्री कृष्ण जी ने उनका विशेष सत्कार किया। मुठ्ठीभर चावल साथ लेकर गए थे जो श्री कृष्ण जी ने चाव के साथ खाए। चरण तक धोये और कुशल-मंगल पूछा तो पंडित सुदामा जी ने कहा कि हे भगवान! मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता नहीं है। आपकी कृपा से ठीक निर्वाह हो रहा है। एक सप्ताह श्री कृष्ण जी के पास रूककर सुदामा जी घर को चल पड़े। एक बार भी नहीं कहा कि कुछ धन दे दो। वे जानते थे कि:-

कबीर, बिन माँगे मोती मिलें, माँगे मिले न भीख।
माँगन से मरना भला, यह सतगुरू की सीख।।

शब्दार्थ:- कबीर परमात्मा ने भी बताया है कि जो पूर्ण परमात्मा की सत्य साधना करता है, उसे माँगना नहीं चाहिए। माँगने से परमात्मा रूष्ट हो जाता है। उसको भिक्षा भी नहीं मिलती। वह साधक परमात्मा पर विश्वास रखकर नहीं माँगेगा तो परमात्मा उसकी इच्छा पूरी करेगा यानि मोती जैसी बहुमूल्य वस्तु भी दे देगा। पूर्ण सतगुरू यही शिक्षा देता है कि माँगने से तो व्यक्ति जीवित ही मर जाता है। माँगने से तो मरना भला है। भावार्थ आत्महत्या से नहीं है। यहाँ अपनी इच्छाओं का दमन करके मृतक बनकर रहने से है।

श्री कृष्ण जी राजा थे। अपने मित्र की स्थिति को समझकर विश्वकर्मा जी को आदेश देकर एक सप्ताह में सुदामा जी का महल बनवा दिया तथा बहुत सारा धन भी दे दिया। पंडित सुदामा जी अपने धर्म-कर्म पर डटे रहे। जिस कारण से
उनको लाभ हुआ। इसे पंडित कहते हैं। जो माँगे सो भड़ूवा कहलाता है, पंडित की यह परिभाषा है।

प्रसंग चल रहा है:- दीक्षा (नाम लेने) के पश्चात् भक्त की आस्था संसार तथा परमात्मा में कैसी होनी चाहिए। उस प्रसंग में पवित्र कबीर सागर ग्रन्थ के अध्याय ‘‘अनुराग सागर’’ में परमेश्वर कबीर जी ने अपनी प्रिय आत्मा धर्मदास जी को इस प्रकार बताया है:-