7. भक्ति मार्ग पर यात्रा | जीने की राह


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जब तक आध्यात्मिक ज्ञान नहीं, तब तक तो जीव माया के नशे में अपना उद्देश्य भूल चुका था और जैसा ऊपर बताया है कि शराबी नशे में ज्येष्ठ महीने की गर्मी में दिन के दोपहर के समय धूप में पड़ा-पड़ा पसीने व रेत में सना भी कह रहा होता है कि मौज हो रही है। परंतु नशा उतरने के पश्चात् उसे पता चलता है कि तू तो जंगल में पड़ा है, घर तो अभी दूर है।

कबीर जी ने कहा है कि:-

कबीर, यह माया अटपटी, सब घट आन अड़ी।
किस-किस को समझाऊँ, या कूएै भांग पड़ी।।

भावार्थ: अध्यात्म ज्ञान रूपी औषधि सेवन करने से जीव का नशा उतर जाता है। फिर वह भक्ति के सफर पर चलता है क्योंकि उसे परमात्मा के पास पहुँचना है जो उसका अपना पिता है तथा वह सतलोक जीव का अपना घर है।

यात्रा पर चलने वाला व्यक्ति सारे सामान को उठाकर नहीं चल सकता। केवल आवश्यक सामान लेकर यात्रा पर चलता है। इसी प्रकार भक्ति के सफर में अपने को हल्का होकर चलना होगा। तभी मंजिल को प्राप्त कर सकेंगे। भक्ति रूपी राह पर चलने के लिए अपने को मानसिक शांति का होना अनिवार्य है। मानसिक परेशानी का कारण है अपनी परंपराऐं तथा नशा, मान-बड़ाई, लोग-दिखावा, यह भार व्यर्थ के लिए खड़े हैं जैसे बड़ी कोठी-बडी़ मंहगी कार, श्रृंगार करना, मंहगे आभूषण (स्वर्ण के आभूषण), संग्रह करना, विवाह में दहेज लेना-देना, बैंड-बाजे, डीजे बजाना, घुड़चढ़ी के समय पूरे परिवार का बेशर्मों की तरह नाचना, मृत्यु भोज करना, बच्चे के जन्म पर खुशी मनाना, खुशी के अवसर पर पटाखे जलाना, फिजुलखर्ची करना आदि-आदि जीवन के भक्ति सफर में बाधक होने के कारण त्यागने पड़ेंगे।