True-Story-of-Satyavadi-King-Harishchandra-Hindi-photo

राजा हरिश्चंद्र एक प्रसिद्ध राजा हुए है, जिन्होंने जीवन भर सत्य के मार्ग पर चलकर 'सत्यवादी हरिश्चंद्र' के रूप में ख्याति प्राप्त की। उन्हें अनेक लोग एक महान पुरुष और आदर्श स्वरूप मानते हैं। वे उन विचारशील लोगों के लिए प्रेरणा हैं जो अपना पूरा जीवन सत्य और न्याय के मार्ग पर चलते हुए व्यतीत करते हैं।

वहीं दूसरी ओर सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश में राजा हरिश्चंद्र के जीवन से जुड़ी कुछ छिपी हुई सत्य बातें सामने आई हैं, जो अब तक भक्त समाज को ज्ञात नहीं थीं। ये बातें सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में वर्णित हैं और इन्हीं रहस्यों को उजागर करना इस लेख का मुख्य उद्देश्य है।

सबसे प्रमाणिक ग्रंथों में से एक सूक्ष्म वेद के अनुसार, ब्रह्म काल 21 ब्रह्मांडों का स्वामी है। जिस धरती पर हम रहते हैं, यह भी उसी के आधीन है। यह ऐसा लोक है जहाँ जीवों को चाहे वे कितने भी सच्चे और ईमानदार क्यों न हों, धोखा दिया जाता है, सताया जाता है और दंडित किया जाता है। यहाँ सुख की कोई स्थायी अनुभूति नहीं होती और सभी प्राणी अपने कर्मों के अनुसार ही फल पाते हैं, चाहे वह दंड हो या पुरस्कार।

जैसा कि विदित है, काल के लोक में बुराईयों का बोलबाला होता है, जिससे न केवल मनुष्य, बल्कि देवता तक अछूते नहीं रहते। राजा हरिश्चंद्र की सच्ची कहानी यह साबित करती है कि कैसे एक मासूम और सच्ची आत्मा काल का शिकार बनी, जिसने उसके सारे सद्गुण नष्ट कर दिए और उसे अपने जाल में फंसा लिया।

आइए, नीचे दिए गए तथ्यों के आधार पर निष्ठावान राजा हरिश्चंद्र की कहानी का वास्तविक पक्ष जानने का प्रयास करते हैं।

  • राजा हरिश्चंद्र किस बात के लिए प्रसिद्ध थे?
  • काल के देवता हरिश्चंद्र से क्यों जलने लगे?
  • विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र को परेशान करने की साज़िश क्यों रची?
  • राजा हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी और बेटे को क्यों बेचा?
  • भगवान विष्णु ने हरिश्चंद्र को क्या पुरस्कार दिया?
  • राम पहले आए या हरिश्चंद्र?
  • कलियुग में हरिश्चंद्र की आत्मा ही कल्कि अवतार बनेगी।
  • हरिश्चंद्र को मोक्ष कौन देगा?

नोट: सभी संदर्भ आदरनीय संत गरीबदास जी महाराज की अमृत वाणियों से लिए गए हैं।

राजा हरिश्चंद्र किस लिए प्रसिद्ध थे?

हरिश्चंद्र सतयुग अर्थात् स्वर्ण युग में अयोध्या नामक प्राचीन राज्य के एक परम धार्मिक और ईश्वर भक्त राजा थे। वे सूर्यवंश से संबंध रखते थे और अपने जीवन में किसी भी परिस्थिति में सत्य के मार्ग से कभी विचलित नहीं हुए। चाहे कितनी भी कठिनाईयाँ क्यों न आई हों, कोई भी उन्हें ईमानदारी में पराजित नहीं कर सका। वे अपने संकल्पों के प्रति अडिग रहे। वे महान दानी थे और कभी झूठ नहीं बोलते थे।

निम्नलिखित वाणी सूक्ष्म वेद से ली गई है, जो उनके बारे में इसी तथ्य की पुष्टि करती है:

गरीब, हरिचन्द हरि हेत, अयोध्या नगरी रहते।

सतयुग सिंध समाधि, वचन सब सत ही कहते।।295।।

काल के देवता हरिश्चंद्र से क्यों जलने लगे?

ईर्ष्या, प्रसिद्धि की भूख, अहंकार आदि वे अवगुण हैं जो ब्रह्म काल के क्षेत्र में रहने वाले प्राणियों में सामान्य रूप से पाए जाते हैं। यही अवगुण देवताओं में भी होते हैं। राजा हरिश्चंद्र अपनी सत्यनिष्ठा के लिए इतने अधिक प्रसिद्ध हो गए थे कि काल के स्वर्ग में रहने वाले देवता भी उनसे जलने लगे। इन देवताओं ने एक सभा बुलाई, जिसका उद्देश्य था, राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा को नष्ट करना।

गरीब, सुर नर मुनिजन देव, सकल मन नाहीं भाया।

सब मुनि करी फरियाद, सुनो तुम त्रिभुवन राया।।296।।

देवता भगवान विष्णु के पास गए, जो सत्यवादी हरिश्चंद्र के पूज्य देवता थे और अपने उद्देश्य को लेकर उनसे चर्चा की। देवताओं ने कहा कि वे हरिश्चंद्र की परीक्षा लेना चाहते हैं, क्योंकि वह अपनी सत्यनिष्ठा और संकल्प पर अडिग रहते हैं।

गरीब, सत भाखे सत ही कहै, सत ही पूजा ध्यान।

सत ही षाला कर्म है, सत के चलें विमान।।297।।

गरीब, सुर नर मुनिजन देव, फरियाद लगाई भारी।

सुनो विष्णु नाथ, हरीचंद की भई महिमा भारी।।298।।

गरीब, कहैं विष्णु नाथ, सुनो क्या कीजै देवा।

वे हरिचंद सतलीन, करत हैं सब की सेवा।।299।।

गरीब, हरिचन्द का पतिब्रत, टरै नहीं टार्या भाई।

वे सतबादी संत, रहैं हमरी शरनाई।।300।।

श्री विष्णु जी ने कहा कि वह मेरी शरण में है। वह झूठ नहीं बोल सकता।

गरीब, बोलत है ऋषि देव, जात है हमरी पदई।

सुनो चतुर्भुज नाथ, करत हम उनकी बदई।।301।।

स्वर्ग के राजा इन्द्र परेशान हो गए कि कहीं उनका पद न छिन जाए। उन्होंने कहा, "यदि हरिश्चंद्र सत्य पर अडिग रहा, तो हमें उसे अपना देवता का पद देना पड़ेगा। हम उसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे, उसे सताएंगे ताकि उसका सत्य डगमगा जाए।"

गरीब, गण गंधर्व सब देव, सकल में ऊंचा को है।

लीजै तांहि बुलाई, हरीचंद का सत टार जो दे है।।302।।

भगवान विष्णु ने कहा, "वह मेरी शरण में है। वह अपने सत्य से नहीं डिगेगा। तुम प्रयास करके देख लो।"

गरीब, नारद मुनि तूं सोधि, हरिचंद कूँ को टारै।

हरिचंद का सत टार कर, पकड़ ल्यावै दरबारै।।303।।

भगवान ब्रह्मा के पुत्र नारद मुनि को बुलाया गया। वह समझदार थे और अच्छी तरह जानते थे कि हरिश्चंद्र सतोगुणी विष्णु के उपासक हैं। उन्हें पता था कि हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा को कोई भी डिगा नहीं सकता, इसलिए वह लौट गए।

विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को सताने का बीड़ा उठाया

विश्वामित्र, जो सप्तर्षियों / राजर्षियों में से एक थे, को फिर बुलाया गया।

गरीब, विश्वामित्र को लो बूझ, ढ़ील लावै नहीं कोई।

हरिचंद सत डिगाई, पकड़ ल्यावत है सोई।।305।।

गरीब, विश्वामित्र याद किये, आये छिन माहीं।

हरिचंद सत डिगाओ, तुम चलो मृतलोके जाहीं।।306।।

गरीब, विश्वामित्र अर्ज करै, वै काको दुःख दाई।

सुर नर मुनिजन देव, सबन कूँ चुगली खाई।।307।।

यह अमृतवाणी पूज्य संत गरीबदास जी महाराज की है जो, उस काल लोक में देवताओं के नीच स्वभाव को उजागर करती है। यह कहानी बताती है कि कैसे देवता एक सच्चे मनुष्य से ईर्ष्या करने लगे। स्वर्ग को भक्तजन अब तक परम लक्ष्य मानते आए हैं, परंतु सच्चाई यह है कि स्वर्ग में रहने वाले देवता अपने पद छिन जाने के भय से हमेशा डरे रहते हैं, और अपने पद को बचाने के लिए छल-कपट जैसे अनुचित उपाय अपनाते हैं।

पूज्य संत गरीबदास जी, परमात्मा कबीर जी के साक्षी थे। उन्होंने स्वयं सतलोक को देखा था, इसलिए गरीबदास जी कहते हैं कि उन्होंने स्वर्ग को भी देखा है, परंतु उन्हें वह पसंद नहीं आया। स्वर्ग का सुख, सतलोक के सुख के आगे कहीं टिकता ही नहीं।

गरीब, सुन मंडल को किया पियाना, यो काल कर्म सब भाग्या।।

फिर सभी देवताओं ने मिलकर विश्वामित्र से शिकायत की, जिन्होंने हरिश्चंद्र के सत्य को डिगाने और उसे परेशान करने का बीड़ा उठाया। हालांकि, विश्वामित्र ने कारण पूछा, "तुम हरिश्चंद्र को क्यों परेशान करते हो?"

गरीब, सबै कहैं ऋषि देव, हरिचन्द देओ डिगाई।

विश्वामित्र आन, बीड़ा जो लिया उठाई।।308।।

गरीब, आबिया ताबिया त्रास, दीजिये हमरे तांई।

पकड़ ल्याऊँ हरिचंद, पलक वहां ढील न लाई।।309।।

यानी विश्वामित्र स्वर्ग से आए थे, हरिश्चंद्र को परेशान करने के लिए।

हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी और बेटे को क्यों बेचा?

गरीब, विश्वामित्र जबै, किया मृतलोक पियाना।

धारे रूप बाराह, बाग मेल्या धिगताना।।311।।

ऋषि विश्वामित्र ने जंगली सुअर का रूप धारण किया और राजा हरिश्चंद्र के सुंदर बगीचे को उखाड़ डाला। माली ने जंगली सुअर को रोकने की कोशिश की। सैनिकों ने बाण चलाए, लेकिन उनकी सारी कोशिशें व्यर्थ हो गईं। राजा हरिश्चंद्र को सुअर की करतूत की सूचना दी गई। वह अपने सैनिकों के साथ घोड़े पर सवार होकर, आग के धनुष और बाण के साथ वहां पहुंचे। हरिश्चंद्र को आते देख, विश्वामित्र वहॉं से सुअर के रूप में भाग गया। हरिश्चंद्र ने सुअर का पीछा किया, लेकिन विश्वामित्र ने सुअर का रूप बदलकर, ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया। राजा ने पूछा, "यहां एक सुअर आया था, वह कहाँ है?" विश्वामित्र ने यह कहकर इंकार कर दिया कि उसे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है।

विश्वामित्र ने अपनी साधना से, एक लड़का और एक लड़की तैयार की। वह लड़की को राजा के पास लाकर बोला, "हे क्षत्रिय! तुम ब्राह्मण बनो। यह एक गरीब ब्राह्मण लड़की है जिसकी शादी नहीं हो पा रही थी। किसी ने उसकी शादी के खर्चे का इंतजाम नहीं किया। तुम राजा हो, कृपा करो।"

फिर लड़के को बुलाया गया और दोनों की शादी कर दी गई। विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र से 'कन्यादान' करने को कहा। राजा ने सात अशर्फियाँ दीं। विश्वामित्र नाराज़ होकर बोले, "तुम राजा हो और सिर्फ सात अशर्फियाँ दे रहे हो। मैं तुम्हें शाप दूंगा।" हरिश्चंद्र ने कहा, "मैं जल्दी में यहां आया था, इसलिए अभी मेरे पास ज़्यादा नहीं है। मेरे साथ, मेरे राज्य में चलो, मैं तुम्हें जितना चाहोगे उतना दूंगा।" विश्वामित्र ने उससे लिखित रूप में, अपना पूरा राज्य देने का वचन लिखवा लिया। बिना किसी हिचकिचाहट के हरिश्चंद्र ने अपनी पूरी संपत्ति और राज्य ब्राह्मण को लिखकर दे दिया।

दोनों घोड़े पर बैठकर राज्य की ओर बढ़े। विश्वामित्र, हरिश्चन्द्र को पकड़कर उसके पीछे बैठ गया क्योंकि अब राजा उसका दास बन चुका था। सैनिकों ने देखा कि एक ब्राह्मण ने हमारे राजा को पकड़ लिया है। उन्होंने हथियार उठा लिए, लेकिन हरिश्चंद्र के इशारा करने पर वे शांत हो गए।

विश्वामित्र ने कहा, "तुम कैसे दोगे? तुम अपनी प्रतिज्ञा खो दो।" हरिश्चंद्र ने कहा, "मैं तुम्हें कमाकर दूंगा।" विश्वामित्र ने कहा, "तुम दस साल में भी नहीं दे पाओगे।" अंत में, हरिश्चंद्र ने कहा, "मेरी पत्नी और इकलौते बेटे को भी बेच दो। मैं तुम्हें निश्चित रूप से दूंगा।"

विश्वामित्र ने अपनी सभी सीमाएँ पार कर दीं और अहंकार तथा ईर्ष्या के कारण रानी तारावती को उसके बालों से पकड़कर ले आया। उसने अपनी शक्ति से राजा को बहुत परेशान किया, फिर भी हरिश्चंद्र ने हार नहीं मानी और अपनी प्रतिज्ञा पर अडिग रहा। रानी तारावती ने भी अपने पति का समर्थन किया और कहा, "हम मरना पसंद करेंगे, लेकिन अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ेंगे।"

विश्वामित्र ने अयोध्या में अपनी गद्दी स्थापित की। फिर उसने रानी और पुत्र रोहताश को काशी ले जाकर एक ब्राह्मण हरहीरा को 50 अशर्फियों के बदले बेच दिया।

हरिश्चंद्र ने खुद को काशी के शमशान में एक भंगी (स्वीपर) पास बेच दिया। उसका काम मृतकों को साफ करना था और इस काम के लिए वह 1.25 रुपये टैक्स के रूप में लेता था।

हरिश्चंद्र को उनके पूज्य भगवान विष्णु जी द्वारा पुरस्कार देना

एक सप्ताह बीत गया, लेकिन शमशान में कोई मृत शरीर नहीं आया। राजा हरिश्चंद्र को कोई पैसे नहीं मिले और वह भूखे थे। उनके मालिक कालू/ कालिया ने हरिश्चंद्र की ईमानदारी को देखा और उसे पास की एक दुकान से खाना खाने को कहा। उसने कहा कि इसका खर्च वह खुद उठाएगा।

लेकिन विश्वामित्र इससे भी संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने हरिश्चंद्र के सत्य को डिगाने के अपने प्रयास को जारी रखा। उन्होंने एक गरीब भिखारी ब्राह्मण का रूप धारण किया और हरिश्चंद्र से खाना मांगा, जब वह एक सप्ताह बाद भोजन करने बैठे थे। हरिश्चंद्र ने सारा खाना दे दिया। दूसरी बार भी विश्वामित्र ने सारा खाना ले लिया और हरिश्चंद्र को भूखा रहना पड़ा।

यहाँ भगवान कबीर कहते हैं:

वो नर ते मुए जो पर घर मांगन जा |

और उनते पहले वो मरे जा मुख निकसे ना ||

पंद्रह दिन बीत गए, लेकिन हरिश्चंद्र ने रोटी नहीं खाई। उनका शरीर कमज़ोर हो गया।

एक दिन रानी तारावती गंगा घाट पर अपने ब्राह्मण मालिक के लिए पानी लेने आईं। वह बर्तन नहीं उठा पाईं क्योंकि वह बहुत भारी था, इसलिए उन्होंने अपने पति हरिश्चंद्र से मदद मांगी। हरिश्चंद्र ने मना कर दिया और कहा, "मैं ब्राह्मण का बर्तन नहीं छू सकता, क्योंकि मैं अछूत (भंगी) हूं।"

पुत्र रोहताश हर दिन अपने ब्राह्मण मालिक के लिए फूल लाता था, जिन्हें वह अपने पूज्य देवता की पूजा में उपयोग करता था। एक दिन जब रोहताश फूल लाने गया, विश्वामित्र ने सर्प का रूप धारण किया और उसे काट लिया। रोहताश की मृत्यु हो गई। उसके ब्राह्मण मालिक और माँ को माली से जानकारी मिली और दोनों दौड़ते हुए वहां पहुंचे। ब्राह्मण ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा, लेकिन माँ रानी मज़बूत रही और उसने कहा, "यहां हंस आते-जाते रहते हैं। रो मत। हम सभी को एक दिन जाना है। जो होना था, वह हो गया।"

ब्राह्मण हरहीरा और माँ ने मृत शरीर को कपड़े में लपेटा और शमशान की ओर ले गए। हरिश्चंद्र वहां कर्मचारी थे, वह वहां पंहुचे और उनसे टैक्स के रूप में 1.25 रुपये की मांग की, इस बात से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ा कि वह उनकी पत्नी थी या उनका पुत्र रोहताश था, उसने पैसे माफ नहीं किए। रानी ने भुगतान करने में असमर्थता जताई। हरिश्चंद्र ने शव को कपड़े में से निकालकर, पानी में फेंक दिया। रोहताश की माँ पागल सी हो गई, ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और अपने बाल नोंचने लगी।

फिर भी विश्वामित्र ने अपने कपटपूर्ण प्रयासों को जारी रखा। उसने एक भारी तूफान उठाया और अपनी साधना से एक शेर तैयार किया, जिसने रोहताश के शव को उठा लिया और उसे फाड़ दिया। रानी तारावती विलाप करने लगी और पागल हो गई।

विश्वामित्र ने आगे और भी कपट किया और रानी को एक जानवर द्वारा खाए गए, एक खून से सने युवक की लाश दिखा दी। उसने ऐसा रानी को मानसिक रूप से प्रताड़ित करने के लिए किया। विश्वामित्र सैनिकों और नवाब के साथ वहाँ आया और कालिया व हरिश्चंद्र को रानी की गर्दन काटने का आदेश दिया। कालिया जो जल्लाद का काम भी करता था, उसने अपने गुलाम हरिश्चंद्र को आदेश दिया कि वह रानी की गर्दन काट दे, यह कहते हुए कि वह एक डायन है।

जैसे ही हरिश्चंद्र ने तरावती की गर्दन काटने के लिए तलवार हवा में उठाई, उसी क्षण भगवान विष्णु ने पीछे से तलवार को पकड़ लिया और कहा, "हरिश्चंद्र! तुम सफल हुए।" फिर श्री विष्णु जी हरिश्चंद्र के सामने प्रकट हुए और बोले, "मुझसे वर मांगो।" प्रारंभ में हरिश्चंद्र ने कहा कि भगवान का साक्षात दर्शन ही उनके लिए पर्याप्त है, लेकिन जब भगवान ने आग्रह किया तो उन्होंने वरदान माँगा कि "सम्पूर्ण काशी मुक्त हो जाए और मेरी पत्नी तथा पुत्र पुनः जीवित हो जाएं। काशी के सभी प्राणी मनुष्य, पशु, पक्षी स्वर्ग को प्राप्त करें और विमान द्वारा वहां पहुँचें।" भगवान विष्णु ने यही वरदान दिया और सभी स्वर्ग को प्राप्त हुए।

आदरणीय संत गरीबदास जी कहते हैं कि ऐसे दृढ़ भक्त, ऐसे पुण्यात्मा जो अपनी सत्यनिष्ठा और प्रतिबद्धता में अडिग रहते हैं, वे पूरी नगरी की मुक्ति तक का कारण बन जाते हैं।

सूक्ष्म वेद के निम्नलिखित उपदेश हरिश्चंद्र की महान आत्मा की महिमा का गुणगान करते हैं।

वाणी संख्या 70

वशिष्ठ विश्वामित्र आए, दुर्वासा और चुणक बुलाए ||70

 

वाणी संख्या 76

जैदे पायल जंग बजाए। अजामेल और हरिचन्द्र आए।।76

पूज्य संत गरीब दास जी महाराज इन अमृत वाणियों में ऋषि विश्वामित्र और राजा हरिश्चंद्र की महिमा का गुणगान करते हुए कहते हैं कि ये काल ब्रह्म के उपासक वास्तव में महान पुरुष थे, जिन्होंने अपने जीवनकाल में महानता का परिचय दिया और आज भी ये प्रेरणा का स्रोत हैं।

ऋषि विश्वामित्र, हरिश्चंद्र आदि महान भक्त और पराक्रमी पुरुष थे। मैं उन्हें नमन करता हूँ। ये महान आत्माएँ जो भी उनकी शरण में आता, उसके कार्य को सिद्ध कर देती थीं।

पहले कौन आया, राम या हरिश्चंद्र?

प्राचीन अयोध्या के राजा हरिश्चंद्र सतयुग में हुए थे, जो भगवान राम के वंश से संबंध रखते थे। दोनों ही ‘सूर्यवंशी’ कहलाते हैं क्योंकि ये भगवान सूर्य के पुत्र इक्ष्वाकु द्वारा स्थापित इक्ष्वाकु वंश से थे। हरिश्चंद्र, श्रीरामचंद्र के पूर्वज थे, और श्रीरामचंद्र, हरिश्चंद्र के पूज्य देव भगवान विष्णु के सातवें अवतार के रूप में त्रेता युग में राजा दशरथ और रानी कौशल्या के घर अयोध्या में जन्मे थे। अतः यह प्रमाणित होता है कि हरिश्चंद्र, श्रीराम से पूर्व हुए थे।

हरिश्चंद्र की आत्मा कल्कि अवतार के रूप में कलयुग में आएगी

21 ब्रह्मांडों के स्वामी काल ने भगवान कबीर के बच्चों के साथ छल किया है। पहले उसने अपने देवताओं को हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा की परीक्षा लेने के लिए प्रेरित किया और विश्वामित्र के माध्यम से उसकी जिंदगी को नरक बना दिया। अपनी प्रतिबद्धता पर अडिग रहते हुए और अच्छे कार्य करते हुए, हरिश्चंद्र ने पुण्य अर्जित किए, जिसके परिणामस्वरूप उसे स्वर्ग प्राप्त हुआ। स्वर्ग एक अस्थायी निवास स्थान है। वर्तमान में राजा हरिश्चंद्र की आत्मा विष्णु लोक में सुखी जीवन बिता रही है। जब उसका पुण्य समाप्त हो जाएगा, तब काल उसे कलयुग के अंतिम और तीसरे चरण में पृथ्वी पर भेजेगा, जो अत्यंत भयंकर कलयुग होगा। वह उस समय कल्कि के रूप में प्रसिद्ध होंगे।

आदरणीय संत गरीबदास जी महाराज ने अपनी अमृत वाणी में, जो सूक्ष्म वेद में उल्लेखित है, कहा है:

यथार्थ भक्ति बोध पुस्तक, वाणी संख्या 118-119

निहकलंक अंस लीला कालंदर कुं मार सी।

अर्ध लाख वर्ष बाकी दानें और दूतों को सिंघारसी।।119

सरलार्थ:- कलयुग के अंत में मानव भक्तिहीन, चरित्रहीन, कृतघनी हो जाएगा कि निकलंक (कल्की) अवतार रूप में विष्णु जी का अंश आएगा। वह कालंदर नामक दुखदाई राक्षस को मारेगा। फिर 50 हजार वर्ष तक बाकी राक्षसों को तथा दूतों-निंदकों को मारेगा।(119)

वाणी संख्या 125

कील किली किलियं औतार कला, जीतन जंग झुंझमला।

ऐसा पुरूष आया कहता है गरीबदास,

दिल्ली मंडल होय विलास, निहकलंक राया।।125

सरलार्थ:- कलयुग के अंत में निःकलंक (कल्कि) नाम से 10वां अवतार आएगा। वह सम्भल नगरी में विष्णुदत्त शर्मा के घर जन्म लेगा। दिल्ली का राजा बनेगा तथा कृतघ्नी व्यक्तियों को मारेगा। अच्छे नेक व्यक्तियों को नैतिकता सिखाएगा। यह ज्ञान संत गरीबदास जी ने बताया है।(125)

जिन राक्षसों और कृतघ्न लोगों को कल्कि मारेंगे, वे उसके बुरे खाते में जोड़ेंगे यानी इसका पाप भी उन्हें किसी न किसी समय भोगना पड़ेगा। उन्हें आने वाली मानव योनि में उन पापों का सामना करना पड़ेगा। इस प्रकार ब्रह्म काल आत्माओं को छलता है और भगवान के बच्चों को धोखा देता है।

महत्वपूर्ण: स्वर्ग की प्राप्ति अस्थायी है, इसलिए हरिश्चंद्र की आत्मा पुनः जन्म लेगी। यही स्थिति उन आत्माओं के साथ भी होती है जो ब्रह्म लोक प्राप्त करती हैं। ऐसी प्राप्ति अधम (निम्न) होती है। (भगवद गीता 7:18)

अब सवाल यह उठता है:

क्या कोई ऐसा स्थायी स्थान है, जहाँ जाने के बाद आत्माएँ इस नश्वर संसार में फिर कभी वापस नहीं आतीं?

  • क्या सत्यवादी और ईमानदार हरिश्चंद्र जैसे लोग काल के कष्टों और यातनाओं से स्थाई रूप से बच सकते हैं?
  • क्या स्थाई मुक्ति हो सकती है?
  • यदि हाँ, तो मुक्ति कैसे प्राप्त की जा सकती है?
  • पूर्ण मुक्ति कौन देता है?

आइए, हम इसे जानने की कोशिश करें।

हरिश्चंद्र को मुक्ति कौन देगा?

पूर्ण मुक्ति केवल सतगुरु / तत्वदर्शी संत की शरण में जाकर प्राप्त होती है, जो सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं, परमात्मा कबीर साहेब जी सच्ची भक्ति बताते हैं और सच्चे मुक्ति मंत्र प्रदान करते हैं।

हरिश्चंद्र का यह दुर्भाग्य ही था कि इतने योग्य होते हुए भी उन्हें एक सच्चे गुरु का आशीर्वाद नहीं मिला था, जो परमात्मा के तत्व से परिचित हो। उन्होंने अपने पूरे जीवन में मनमानी पूजा की। वह सतोगुणी भगवान विष्णु जी के भक्त थे, जो स्वयं जन्म-मृत्यु और पुनर्जन्म के चक्र में फंसे हुए हैं और जिन्होंने स्वयं मुक्ति प्राप्त नहीं की है, तो उनके भक्तों को मुक्ति कैसे मिल सकती है?

सत्यनिष्ठा पर अडिग रहते हुए, अपनी प्रतिबद्धता का पालन करते हुए और पुण्य कार्य करते हुए भी हरिश्चंद्र काल का शिकार बने रहे। अगर हरिश्चंद्र ने परम अक्षर ब्रह्म/ सतपुरुष की सच्ची भक्ति की होती और भगवद गीता 17:23 (संकेतात्मक) में प्रमाणित सच्चे मुक्ति मंत्र का जाप किया होता, तो वह अस्थाई विष्णु लोक की बजाय स्थाई परम धाम 'सतलोक' को प्राप्त कर सकते थे।

भविष्य में, जब हरिश्चंद्र की आत्मा पुनः मनुष्य के रूप में जन्म लेगी और उसे एक तत्वदर्शी संत की शरण मिल जाएगी तब वह परमात्मा कबीर की सच्ची भक्ति कर सकेगा और एक सच्चे आध्यात्मिक गुरु से दीक्षा प्राप्त करेगा, तभी वह पूर्ण मुक्ति प्राप्त करने योग्य बनेगा।

नोट: केवल भगवान कबीर जी ही पूर्ण मुक्तिदाता हैं और काल के किसी भी देवता में यह शक्ति नहीं है, चाहे वह भगवान विष्णु हों या कोई और।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों से निम्नलिखित निष्कर्ष निकाले जाते हैं:

  • हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा ने स्वर्ग के देवताओं को भी हैरान कर दिया, जिसके कारण उन्होंने उसे परेशान किया।
  • यहां देवताओं का निम्न चरित्र प्रकट होता है, जो काल के लोकों का असली रूप है।
  • विश्वामित्र ने हरिश्चंद्र को कष्ट देकर भारी पाप जमा किए, जिसे वह अगले जन्मों में भुगतेंगे। यह काल के 21 ब्रह्मांडों में सभी जीवों के साथ होता है।
  • काल की दुनिया में विकारों का प्रभुत्व है। सत्य के लिए कोई स्थान नहीं है।
  • हरिश्चंद्र को उसकी ईमानदारी और सत्य के लिए पुरस्कार मिला। उसे विष्णु लोक प्राप्त हुआ, लेकिन पूर्ण मुक्ति नहीं।

भगवान कबीर ही मुक्ति देने वाले दाता हैं

महत्वपूर्ण: भगवान कबीर वर्तमान में पृथ्वी पर अपनी प्रिय आत्माओं को मुक्त करने के लिए अवतार ले चुके हैं। वह जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज के रूप में एक दिव्य लीला कर रहे हैं। आपसे प्रार्थना है कि आप उनसे नाम दीक्षा प्राप्त करें ताकि आप पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर सकें।

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