भगवान इंद्र देव की जीवनी , दुर्वासा और गौतम ऋषि की श्राप कथा सहित


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संत रामपाल जी ने इस लेख में भगवान इंद्र देव की जीवनी के साथ उनके पारिवारिक विवरण पर प्रकाश डाला है। साथ ही, उन्होंने यह बताया है कि ऋषि दुर्वासा और गौतम ऋषि ने इंद्र देव को श्राप क्यों दिया था?

इंद्र देव

देवताओं के राजा, देवराज इंद्र को स्वर्गपति (स्वर्ग के भगवान) के रूप में भी जाना जाता है, वज्रपाणि (जिनके हाथ में वज्र है), सुरेंद्र (देवताओं के प्रमुख), वसावा (वसुओं के भगवान), मेघवाहन (बादलों के सवार) , देवेंद्र (देवताओं के भगवान)। वैदिक धर्म में, भगवान इंद्र एक महत्वपूर्ण भगवान हुआ करते थे जो हिंदू और बौद्ध धर्म में एक प्रमुख पूजनीय देवता बन गए थे। देवताओं के राजा, इंद्र देव को आम तौर पर एक दयालु भगवान के रूप में दर्शाया जाता है, जो अपने उपासकों के लिए उदार होते हैं क्योंकि वे लाभकारी बारिश करते हैं और अकाल को समाप्त करते हैं, जिससे मानव जाति को समृद्धि मिलती है। कई युगों के बाद, देवराज इंद्र एक पूज्य भगवान से केवल एक पौराणिक व्यक्ति के रूप में परिवर्तित हो गए।

इंद्र लोक

देवराज इंद्र का निवास, भक्तों के लिए एक स्वप्न निवास है जिसे हर भक्त मृत्यु के पश्चात प्राप्त करना चाहता है। साधकों का मानना है कि स्वर्ग एक खुशहाल निवास स्थल है जिसे प्राप्त करने से आत्माएं मुक्त हो जाएंगी और शानदार जीवन का आनंद ले सकेंगी जो स्वर्ग के राजा के समान होगा।

हालांकि, पवित्र शास्त्रों में वर्णित तथ्यों में उल्लेख है कि इंद्र देव को हमेशा स्वर्ग के राजा होने के अपने पद को खोने का डर रहता है, इसलिए हिंदू भिक्षुओं को इस विश्वास के साथ हमेशा परेशान करते हैं कि ये आत्म-बोध प्राणी यानी साधु- संत तपस्या करने के कारण कई आध्यात्मिक शक्तियाँ प्राप्त कर लेंगे और उनसे अधिक शक्तिशाली बन जाएंगे जिससे वे देवराज का पद धारण करने के योग्य बन सकते हैं; तब इंद्र को अपने पद का समर्पण करना होगा। 

इससे भक्तों के मन में संदेह पैदा होता है कि:-

  • क्या स्वर्ग का राजा सचमुच खुश और समृद्ध जीवन जी पाता है?
  • क्या भगवान इंद्र अत्यधिक असुरक्षित जीवन जीते हैं?
  • भगवान इंद्र को हमेशा राक्षसों से लड़ने और हिंदू भिक्षुओं को परेशान करने के लिए क्यों चित्रित किया गया है?
  • क्या स्वर्ग वास्तव में एक सुखदायक निवास है?
  • क्या साधकों को स्वर्ग की प्राप्ति के लिए पूजा करनी चाहिए जिसका राजा एक असुरक्षित जीवन जीता है

यह लेखन, भगवान इंद्र की जीवनी की पवित्र ग्रंथों से तथ्यों की व्याख्या करेगा जो भक्तों को सोचने पर मजबूर कर देगा कि

  • क्या स्वर्ग प्राप्ति के लिए पूजा करनी चाहिए?
  • क्या कहीं और एक अनन्त और सुखदायक परम निवास है?

निम्नलिखित इस लेख के मुख्य आकर्षण होंगे-

  • इंद्र देव की जीवनी।
  • अभिमानी इंद्र ने वृंदावन को डुबोने के लिए मूसलाधार बारिश करी ।
  • जब भगवान इंद्र वासना के लिए श्रापित हुए?
  • ऋषि दुर्वासा द्वारा श्राप और स्वर्ग का पतन।
  • भगवान इंद्र को अपने साम्राज्य को खोने का डर रहता है
  • सतलोक अविनाशी निवास है।

इंद्र देव की जीवनी

इंद्र देव को स्वर्ग के राजा का शानदार जीवन जीने के लिए जाना जाता है। यद्यपि वैदिक भारतीय साहित्य उन्हें एक शक्तिशाली नायक के रूप में चित्रित करता है; लेकिन इंद्र को उनके भोगवादी होने के लिए भी जाना जाता है, जो अपने व्यभिचारी, सुखवादी संबंधी और नशे की आदतों के कारण लगातार परेशानी में पड़ जाते हैं क्योंकि वह 'सोम' (मदिरा) के बहुत शौकीन हैं। सीधे शब्दों में, भगवान इंद्र एक शराबी हैं जिसके कारण अधिकांश समय वे इसके दुष्प्रभाव भी भुगतते हैं।

भगवान इंद्र के बारे में अधिक जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि देवराज इंद्र का पद कैसे प्राप्त किया जाता है?

  • देवराज इंद्र का पद कैसे प्राप्त होता है?
  • परिवार, निवास, और इंद्र देव की सवारी?
  • देवराज इंद्र की आयु क्या है?
  • देवराज इंद्र की पत्नी शची की आयु क्या है?

देवराज इंद्र का पद कैसे प्राप्त होता है?

संदर्भ: मुक्ति बोध पुस्तक -अध्याय "पारख का अंग", वाणी सं 200-202, पृष्ठ 244

स्वर्ग के राजा इंद्र का पद दो तरह से प्राप्त होता है-

  • जब कोई साधक हठ योग यानी घोर तपस्या करता है।
  • जब कोई साधक धार्मिक अनुष्ठान के नियमों का पालन करते हुए एक क्विंटल देसी घी के साथ 100 अश्वमेध यज्ञ कर लेता है। यदि अश्वमेध यज्ञ के नियमों का पालन नहीं किया जाता है तो वह धार्मिक अनुष्ठान खंडित हो जाता है।

ऐसे कठोर तप और धार्मिक बलिदान धार्मिक स्वभाव वाले साधकों द्वारा किए जाते हैं। इंद्र एक देवता हैं जो धरती पर वर्षा करते हैं जिसमें लाखों जीव-जंतु मरते हैं तथा समुन्द्र में सीप बनते हैं। इसमें इंद्र दोषी नहीं है। ईश्वर के संविधान के अनुसार; जो प्राणी सत्य साधना नहीं करते वे शुभ कर्मों के कारण प्राप्त किए गए पुण्यों को प्राप्त करने के लिए उत्तरदायी होते हैं और साथ ही उन्हें पापों के कारण दंड भी भुगतना पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप मृत्यु के उपरांत इंद्र देव गधा बनते हैं। वह स्वर्ग का राजा बनकर अपने पुण्यो को नष्ट कर देते हैैं।

टिप्पणी: देवराज इंद्र को हमेशा अपने पद को खोने का डर रहता है क्योंकि योग्य साधक तुरंत स्वर्ग का सिंहासन प्राप्त करता है और वर्तमान इंद्र का पद बीच में ही छीन लिया जाता है, इसलिए, इंद्र हमेशा ध्यान केंद्रित करते हैं कि साधक की तपस्या और धार्मिक अनुष्ठानो को सफल नहीं होने दिया जाए। वह तपस्या भंग करने के सभी कुटिल प्रयास करते हैं, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े। इसलिए असुरक्षित और व्यभिचारी भगवान इंद्र निम्न स्तर का बर्ताव करते है, यहां तक कि अपनी पत्नी अप्सरा और उर्वशी को भी साधकों के साथ अवैध संबंध बनाने हेतु और साधु-संतों की तपस्या भंग करने के लिए भेज देते हैं।

कृपया विचार करें:

  • देवताओं के देवता, इंद्र देव सबसे निम्न स्तर का बर्ताव करते है, यहाँ तक की अपने सिंहासन / पद को बचाने के लिए; वह साधकों की तपस्या भंग करने के लिए अपनी पत्नी का भी इस्तेमाल करते है। इससे स्वर्ग के राजा का चरित्र किस प्रकार का है यह अच्छी तरह से समझा जा सकता है? 
  • इंद्र देव की असुरक्षा की भावना भक्तों द्वारा स्वर्ग प्राप्ति की आकांक्षा को मूर्खतापूर्ण सिद्ध करती है। यहां तक कि स्वर्ग भी एक खुशहाल निवास नहीं है। जब राजा इतना असुरक्षित है तो ‘स्वर्गलोक’ में रहने वाले अन्य देवताओं और प्राणियों की स्थिति क्या होगी? यह स्पष्ट है।
  • घोर तपस्या के बाद स्वर्ग के राजा का पद प्राप्त होता है जो अस्थायी होता है। यह दर्शाता है कि मनमानी पूजा जैसे कि हठ योग एक व्यर्थ प्रथा है जो पवित्र श्रीमद भगवद् गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में पूरी तरह से प्रतिबंधित है।

परिवार, निवास, और इंद्र देव की सवारी?

‘कश्यप’ और ‘अदिति ’ स्वर्गलोक के देवता भगवान इंद्र के माता-पिता हैं। वह अग्नि के जुड़वां भाई हैं; माना जाता है कि इंद्र, आकाश देवता और देवी पृथ्वी से पैदा हुए थे।

शची (इंद्राणी) उनकी धर्म पत्नी है, योद्धा अर्जुन, वली, जयंता, देवसेना, मिधुसा, नीलाम्बरा, आरभ, सित्रगुप्त, रसभा, और जयंती स्वर्ग के राजा के बच्चे हैं। उनके परिचारकों को 'मारुत' कहा जाता है। वह हिंदू, बौद्ध और जैन धर्म के अनुसार देवों से जुड़े हुए है। 'अमरावती' 'इंद्रलोक' की राजधानी है, स्वर्ग भगवान इंद्र का निवास है, जो पवित्र पर्वत के सर्वोच्च शिखर यानी  ‘सुमेरु’ से चारों ओर से घिरा हुआ है। यह स्वर्ग अपने प्रभु की आज्ञा पर किसी भी दिशा में घूम सकता है। कई अप्सराएँ और गन्धर्व नृत्य करते हैं और उन लोगों का मनोरंजन करते हैं जो दरबार में उपस्थित होते हैं, खेलकूद और द्यूत प्रतियोगिता भी 'स्वर्ग' में आयोजित की जाती है।

इंद्र वर्षा के देवता हैं। वह 96 करोड़ मेघमाला के मालिक हैं। वह गर्जन, तूफान, आकाशीय विद्युत के स्वामी है, और युद्ध से सम्बंधित हैं जो आमतौर पर एक वज्र का निर्माण करने में चित्रित किये जाते हैं। उसका हथियार वज्र है। इसके साथ साथ वह अपने साथ ‘चक्र’, ‘कुल्हाड़ी ’और ‘हाथी का अंकुश’ भी रखते हैं।

ऐरावत '(सफेद हाथी) और श्वेत घोड़ा इंद्र देव की सवारी हैं जिन पर उन्हें अक्सर सवारी करते हुए दिखाया जाता है। समुद्र के मंथन के दौरान, देवराज इंद्र द्वारा 'ऐरावत' प्राप्त किया गया था। इंद्र के पास 10,000 घोड़ों द्वारा चालित एक स्वर्ण रथ भी है।

देवराज इंद्र की आयु कितनी है?

एक इंद्र के शासन का काल 72 चतुर्युग है।

एक चतुर्युग में मनुष्यों के 43,20,000 वर्ष हैं।

एक चौकड़ी (चतुर्युग) चार युगों से बना है जो इस प्रकार हैं।

1. सतयुग - 1728000 वर्ष
2. त्रेता युग - 1296000 वर्ष
3. द्वापर युग - 864000 वर्ष
4. कलयुग - 432000 वर्ष।

कुल 4.32 करोड़ मानव वर्ष।

मृत्यु के पश्चात, भगवान इंद्र एक गधा बनता है। तब वह अन्य जीवन रूपों में पीड़ित होता है और जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में रहता है। यह ईश्वर का संविधान है।

देवराज इंद्र की पत्नी शची की आयु कितनी है?

इंद्र देव की रानी का नाम शची (इंद्राणी) है, जिसकी आयु 1008 चतुर्युग है। सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान की कमी के कारण साधक मनमानी पूजा (हठ योग) करते हैं। उसी आधार पर; जो प्राणी इंद्र देव की महारानी (पत्नी) का पद धारण करने के योग्य हो जाता है, वह एक महाकल्प तक के लिए जारी रहता है और अपने स्वर्ग के राजा की पत्नी के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान 14 इंद्र को भोगता है।

इंद्र की आयु 72 चतुर्युग है।

शची की आयु 72 चतुर्युग x14 = 1008 चतुर्युग है।

* (एक कल्प = 1000 चतुर्युग होता है जो ब्रह्मा जी का भी एक दिन है)।

टिप्पणी: मृत्यु के पश्चात शची (उर्वशी) गधी बनती है, जैसे इंद्र देव गधा बन जाता है। फिर दोनों 84 लाख जीवन प्रजातियों में पृथ्वी पर जीवन व्यतीत करते हैं। यह प्रक्रिया तब तक जारी रहती है जब तक कि प्राणी एक तत्त्वदर्शी संत की शरण में नहीं आता है और नियमों में रहकर सत्य साधना नहीं करता है।

गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा गया है कि ‘ब्रह्मलोक की प्राप्ति के बाद भी साधक पुनरावृत्ति में रहते हैं। उन्हें जन्म और पुनर्जन्म के दुष्चक्र से राहत नहीं मिलती अर्थात मोक्ष नहीं मिलता। सर्वशक्तिमान कविर्देव अपनी अमृत वाणी में बताते हैं कि,

इंद्र कुबेर ईश की पदवी ब्रह्मा वरुण धर्मराया।
विष्णु नाथ के पुरखो जाकर तू फिर भी वापिस आया ।।

कृपया विचार करें: स्वर्ग के राजा और रानी जन्म और मृत्यु के चक्र में हैं, इसी तरह स्वर्ग के अन्य देवताओं और सभी प्राणियों की स्थिति है। वे स्वर्ग को प्राप्त करने के बाद भी मुक्त नहीं होते, वह निवास जो गलती से सभी भक्तों का सबसे आकांक्षी निवास है।

इसलिए, सभी साधकों को यह सलाह है कि देवी-देवताओं की पूजा न करें, मनमानी पूजा बंद करें। साधकों को सत्य साधना करनी चाहिए जो जन्म और मृत्यु के दीर्घ रोग को समाप्त करती है और मोक्ष प्राप्त होता है।

आगे बढ़ते हुए हम अपनी पवित्र पुस्तकों में वर्णित कुछ सच्ची कहानियों का अध्ययन करेंगे, जो इंद्र देव के बारे में कुछ विशिष्ट और व्यवहार संबंधी तथ्यों को उजागर करती हैं।

अभिमानी इंद्र ने वृंदावन को डुबोने के लिए मूसलाधार बारिश की थी

द्वापरयुग में भगवान विष्णु ने अवतार लिया था और भगवान कृष्ण के रूप में दिव्य लीला की थी। उन्होंने वृंदावन वासियों को देवताओं की पूजा करने से मना किया था। इससे दुःखी होकर सभी देवता इंद्र देव के पास गए और उनसे इस मुद्दे को हल करने का अनुरोध किया। श्री कृष्ण के इस निर्णय से निराश होकर उन्हें सबक सिखाने के लिए अहंकारी इंद्र ने खुद को गोकुल का एकमात्र रक्षक मानते हुए मूसलाधार बारिश की जिससे वृंदावन में बाढ़ आ गई और इस शहर को भारी नुकसान पहुंचा। जब तक उनकी पूजा की जाती थी तब तक इंद्र सही समय पर पर्याप्त वर्षा करते रहे। जिस क्षण उनकी पूजा रोक दी गई तो वह बदला लेने वाले बन गए।

सभी के एकमात्र रक्षक सर्वशक्तिमान कविर्देव हैं। अपनी प्रिय आत्माओं के संकट में होने पर कविर्देव आशीर्वाद देते हैं। भगवान कबीर अपनी अमृत वाणी में बताते हैं:

करे करावे साइयां मन में लहर उठाए, दादू सृजन जीव के आप बगल हो जाए || 

विष्णु जी भगवान कबीर साहेब के पुत्र हैं जो किसी जन्म में ईश्वर की शरण में आए थे लेकिन मुक्त नहीं हुए और अन्य सभी आत्माओं के समान ब्रह्म-काल के जाल में फँसे रहे। भगवान कबीर साहेब ने संकट के समय श्री कृष्ण को आशीर्वाद दिया और भगवान कबीर साहेब की कृपा से; श्री कृष्ण ने अपनी छोटी उंगली पर गोवर्धन पर्वत को उठाया और सभी गोकुलवासी और उनके मवेशियों को डूबने से बचाया, जिन्होंने सात दिनों तक गोवर्धन पर्वत नुमा विशाल छतरी के नीचे शरण ली थी। कृष्ण को इस दिव्य कृत्य के लिए गोकुलवासियों द्वारा महिमामंडित किया गया, जो अपने प्यारे लाडले कृष्ण से प्रसन्न थे।
घमंडी इंद्र भगवान कबीर की दिव्य लीला से अनभिज्ञ होने के कारण हतप्रभ रह गए और अंत में बारिश रोक दी और श्री कृष्ण से माफी मांगी। अब तक इंद्र का अहंकार नष्ट हो गया था।

टिप्पणी: ये देवी-देवता सराहना के भूखे हैं। इंद्र एक अर्द्ध-देवता हैं और वासना, अभिमान, अहंकार जैसे दोषों से परिपूर्ण हैं। बदला लेने वाला रवैया देवताओं के राजा, इंद्र में अहंकार को उजागर करता है। भगवान कभी भी अपने भक्तों को किसी भी स्थिति में सजा नहीं देते। उपरोक्त विवरण, देवराज इंद्र के व्यवहार संबंधी दोष को उजागर करता है और इस तरह के व्यवहार से इंद्र एक घमंडी और गैर-पूजनीय देवता के रूप में उभरते हैं।

जब भगवान इंद्र वासना के लिए श्रापित हुए?

भगवान इंद्र के चरित्र की कमज़ोरी को एक सच्ची कहानी के माध्यम से दर्शाया गया है, जब इंद्र ने अहिल्या को धोखा दिया। 
ऋषि गौतम इंद्र देव के आध्यात्मिक गुरु थे। अहिल्या के साथ इंद्र की सगाई का समय था। सभा मेहमानों से भरी थी, सभी तैयारियाँ निर्धारित की गई थीं और समारोह शुरू होना था। उसी वक्त गौतम ऋषि ने शाही दरबार में प्रवेश किया। सम्मान के रूप में इंद्र देव अपने सिंहासन से खड़े हुए और अपने गुरु ऋषि गौतम को उस पर विराजमान होने के लिए आग्रह किया और स्वयं अपने गुरु जी के चरणों के पास बैठ गए। इस बीच, कुछ तात्कालिकता के कारण इंद्र कुछ महत्वपूर्ण कार्य के लिए सभा से चले गए।

इस बीच, अहिल्या के पिता अपने पुरोहित के साथ आए जिन्होंने उन्हें बताया कि समारोह के लिए शुभ समय चल रहा है हमें जल्दी तिलक करना चाहिए और अनुष्ठान पूरा करना चाहिए। इसलिए जल्दबाज़ी में गलती से इंद्र देव के बजाय गौतम ऋषि का अभिषेक कर दिया गया। जल्द ही गलती का एहसास भी हुआ लेकिन तब तक देर हो चुकी थी और कुछ भी नहीं किया जा सकता था। ऋषि गौतम और अहिल्या का विवाह हुआ। इंद्र देव ने हालांकि यह दिखाने की कोशिश की कि वह इस प्रकरण से सामान्य हैं लेकिन अहिल्या को अपनी पत्नी बनाने की गहरी इच्छा बरकरार थी, लेकिन वे चुप रहे।

इंद्र भोगविलास और कुख्यात तरीके के लिए जाने जाते है। वे अहिल्या के लिए आसक्त थे। उन्होंने एक कुख्यात योजना बनाई और 'शुक्ल' नाम के एक देवता से सुबह नियत समय से दो घंटे पहले मुर्गे की बांग गौतम ऋषि के निवास के पास लगाने के लिए आदेश दिया। ऐसा ही किया गया, मुर्गे की बांग सुनकर ऋषि गौतम ने सोचा भोर हो गई है। वह शीघ्र ही जाग गए और पास की नदी में स्नान करने के लिए चले गए।

इस बीच, इंद्र देव पृथ्वी पर उतरे और गौतम ऋषि का रूप धारण किया और चुपके से झोपड़ी के उस कमरे में चले गए जहां अहिल्या सोई हुई थी और उनसे शारीरिक सम्बन्ध बनाने की इच्छा ज़ाहिर की। अहिल्या इंद्र को पहचान नहीं पाई और पति गौतम समझकर स्वीकृति दे दी।

उधर, ऋषि गौतम को शंका हुई की आज बहुत जल्दी भोर कैसे हो गई? उन्होंने स्नान के बाद जल्दी से झोपड़ी की तरफ प्रस्थान किया। दूसरी ओर, अपनी वासना पूरी होने के उपरांत इंद्र प्रस्थान करने लगा। उसने बाहर निकलने के लिए जल्दबाजी की लेकिन तभी ऋषि अपनी कुटिया में पहुंच गए और इंद्र को अपनी झोंपड़ी से चुपके से भागते हुए पकड़ लिया। ऋषि में क्रोध उत्पन्न हो गया और एक मिनट भी बर्बाद किए बिना गौतम ऋषि ने इंद्र देव को उनके शर्मनाक कार्य के लिए श्राप दे दिया कि उनकी अश्लीलता उनके अपने शरीर पर एक हज़ार स्त्री योनियों के रूप में उत्पन्न हो जाएगी और देवताओं के राजा के रूप में उनका शासन भी आपदा के कारण विनाश हो जाएगा। नाराज़ ऋषि गौतम ने अपनी पत्नी अहिल्या को भी श्राप दे दिया कि आने वाले कई युगों तक वह एक साधारण चट्टान बन जाएगी।

इंद्र ने अपने शर्मनाक कृत्य के लिए माफी मांगी और बाद में ऋषि गौतम ने अपना श्राप बदल दिया कि एक हज़ार स्त्री योनियों के बदले एक हज़ार आँखे इंद्र के पूरे शरीर में उत्पन्न हो जाएंगी। अहिल्या द्वारा माफी मांगने पर, ऋषि को एहसास हुआ कि अहिल्या की गलती नहीं थी क्योंकि इंद्र ने प्रच्छन्न (रूप बदला हुआ था )किया था । ऋषि ने उसे बताया कि जब त्रेतायुग में भगवान राम ( विष्णु जी ) अपने खड़ाऊं की धूल उस पर झाड़ेंगे तो वह अपना रूप फिर से हासिल कर लेंगी।

टिप्पणी: पुराणों की यह सच्ची कहानी स्वर्ग के राजा इंद्र देव के बेशर्म चरित्र को दर्शाती है।

इसे पढ़कर पाठकों को स्वयं निर्णय कर लेना चाहिए; क्या उन्हें स्वर्ग प्राप्ति का लक्ष्य रखना चाहिए?

ऋषि दुर्वासा द्वारा श्राप और स्वर्ग का पतन

ऋषि दुर्वासा अपने अहंकार और उग्र स्वभाव के लिए जाने जाते हैं। वह 'ब्रह्म-काल' के उपासक थे। 'ओम' मंत्र का जाप करने से उन्हें कई सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। एक दिन जब वह एक रास्ते पर चल रहे थे तो उनकी मुलाकात एक अप्सरा से हुई जो बहुमूल्य मोती का हार पहने हुए थी। ऋषि दुर्वासा ने अप्सरा से वह सुंदर हार माँगा और उसने दे दिया। दुर्वासा ने उस हार को अपने सिर पर बालों के जूडे़ के चारों ओर बाँध दिया और आगे बढ़ गए। उस समय, स्वर्ग के राजा इंद्र देव ‘ऐरावत ’ हाथी पर सवार कई देवी-देवताओं और अप्सराओं और गंधर्वों के गायन और नृत्य के साथ विपरीत दिशा से आ रहे थे।
ऋषि दुर्वासा ने उस हार को अपने सिर से उतारकर इंद्र की ओर फेंक दिया। इंद्र ने वही हार  ‘ऐरावत ’ के गले में डाल दीया। जैसे, एक भक्त एक माला उपहार में देता है उसी तरह हाथी ने उस हार को अपनी सूंड से उठाया और उसे जमीन पर फेंक दिया। इंद्र वापस उस हार को उठाकर हाथी की गर्दन में डाल देते थे। यह कृत्य कुछ समय तक चलता रहा। ऋषि दुर्वासा इस पर गौर कर रहे थे और यह मानते हुए कि इंद्र ने उनके द्वारा दिए गए हार का अनादर किया उन्होंने नाराज़गी में इंद्र को श्राप दे दिया कि “उनका पूरा राज्य नष्ट हो जाएगा”’। इंद्र ने अपने कृत्य के लिए बार-बार माफी मांगी लेकिन ऋषि दुर्वासा ने नहीं सुनी। परिणामस्वरूप, कुछ ही क्षणों में, इंद्र का विनाश हो गया और स्वर्ग नष्ट हो गया।

कृपया विचार करें:

  • स्वर्ग का राजा एक ऋषि द्वारा श्रापित हो जाता है। इंद्र देव श्राप को बेअसर नहीं कर सकते क्योंकि उनकी शक्तियां सीमित हैं। वह विनती करता है लेकिन व्यर्थ। इससे पता चलता है कि वह एक कमज़ोर राजा है।
  • इंद्र देव और उनके स्वर्ग विनाश के अधीन हैं। कोई भी शाश्वत नहीं है।
  • कसाई ब्रह्म-काल की पूजा से साधक शक्तियाँ प्राप्त करते हैं और ऋषि दुर्वासा जैसे परमाणु बम बनते हैं, जो श्राप दे देते हैं और स्वर्ग को भी नष्ट कर सकते हैं। इससे पता चलता है कि मनमानी पूजा व्यर्थ है, स्वर्ग भी एक स्थायी और खुशहाल निवास नहीं है। यह कभी भी समाप्त हो सकता है।

भगवान इंद्र को अपने साम्राज्य को खोने का डर रहता है

भगवान इंद्र को अपने सिंहासन को खोने का डर है इसलिए वह मूर्खतापूर्ण कार्य करता है और पाप का भागी बनता है ।
देवराज इंद्र का 72 चतुर्युग का कार्यकाल निर्धारित है जो ऊपर वर्णित है। इंद्र का स्वर्ग के राजा का पद भी छीन लिया जा सकता है यदि कोई भक्तआत्मा तपस्या या धार्मिक अनुष्ठान को सफलतापूर्वक पूरा करके योग्यता मानदंड को पूरा कर लेती है। इसलिए भगवान इंद्र को कथाओं में ऐसा वर्णित किया जाता है, जो हमेशा स्वर्ग को बचाने के लिए राक्षसों से लड़ता है या हिंदू भिक्षुओं को परेशान करता है ताकि वे अपनी तपस्या पूरी न कर सकें। 

हम पुराणों में वर्णित दो ऐसी सच्ची कहानियों का वर्णन करेंगे जो उनके डर और कुख्यात व्यवहार का वर्णन करती हैं।

  • कैसे इंद्र देव ने राजा सगढ़ के 60 हज़ार पुत्रों को कपिल ऋषि द्वारा मरवाया?
  • इंद्र ने उर्वशी को अपने सिंहासन को बचाने के लिए ऋषि मार्कंडेय की तपस्या भंग करने के लिए भेजा।

कैसे इंद्र देव ने राजा सगढ़ के 60 हज़ार पुत्रों को कपिल ऋषि द्वारा मरवाया?

राजा सगढ़ के 60 हज़ार पुत्र थे, जो अश्वमेघ यज्ञ ’के बराबर पुण्य पाने के लिए जुनूनी थे, इस कारण उन्होंने एक कुआं, एक तालाब, और एक बगीचा बनाना शुरू किया। उन्होंने पूरी धरती को खोदना शुरू कर दिया जिसकी वजह से खेती के लिए भी कोई जमीन नहीं बची थी। अगर कोई उनका विद्रोह करता और उनके काम में बाधा उत्पन्न करता तो वे उससे युद्ध करते। उन्होंने एक पत्र में यह संदेश लिखा और एक घोड़े पर एक पैम्फलेट बाँधा। इससे परेशान होकर, एक गाय का रूप धारण करके एक बार देवी पृथ्वी विष्णु जी के पास मदद मांगने के लिए गई। 

विष्णु जी ने इंद्र देव को बुलाया और उनसे कहा कि वे सावधान रहें; यदि राजा सगढ़ के पुत्रों को ऐसे 100 यज्ञों में सफलता मिलेगी तो इंद्र को अपना सिंहासन गंवाना पड़ेगा। भयभीत इंद्र ने अपने अनुचरों को उनके यज्ञ को भंग करने के लिए भेजा।
रात में कुख्यात परिचारिकाओं ने उस घोड़े को तपस्वी कपिल की जांघ के साथ बांध दिया जो वर्षों से गहन ध्यान में थे जिसके कारण उनकी पलकें बहुत लंबी हो गई थीं जो पृथ्वी को छूती थीं। सुबह जब घोड़े का पता नहीं चला तो साठ हज़ार पुत्र युद्ध के लिए तैयार हो गए और घोड़े को खोजने चले। वे पदचिह्नों पर चलकर ऋषि कपिल के आश्रम में पहुंचे और उन्होंने अपने घोड़े को ऋषि की जांघ से बांधा पाया। युद्ध के इरादे से वे ऋषि की आंख में भाले मारने लगे। जब ऋषि को दर्द महसूस हुआ तो उन्होंने गुस्से में अपनी लंबी पलकों को हाथों से उठा लिया। उनकी आंखों से अग्नि बाण निकले और राजा सगढ़ के सभी 60,000 पुत्र मारे गए।

भयभीत इंद्र ने अपने पद को बचाने के लिए सगढ़ के पुत्रों के यज्ञ को भंग कर दिया और ऋषि कपिल के भी। इस तरह, उनके खाते में पाप इक्कठे हो गए क्योंकि वे 60,000 पुत्रों की मृत्यु का कारण बने। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्वर्ग का राजा एक धोखेबाज है।

ज़रूर पढ़ें Deed of Sage Durvasa

ऋषि मार्कंडेय और इंद्र की कथा

इंद्र ने अपने सिंहासन को बचाने के लिए उर्वशी को ऋषि मार्कंडेय की तपस्या भंग करने के लिए भेजा

एक समय ऋषि मार्कंडेय बंगाल की खाड़ी में तपस्या कर रहे थे। वह ब्रह्म-काल के उपासक थे और 'ओम' मंत्र का जाप करते थे। जैसा की हमने आपको ऊपर बताया है कि साधकों की तपस्या भंग करने और अपने देवराज के पद को बचाने के लिए इन्द्र अपनी पत्नी शची को भी इस्तेमाल करते हैं और साधकों के पास भेजते हैं ताकि वह अपनी सुंदरता से उन्हें आकर्षित करके संबंध बनाए। उर्वशी ने विभिन्न आभूषण धारण किये और अपनी शक्ति से आस-पास के माहौल को खुशनुमा बना दिया और ऋषि मार्कंडेय के सामने नृत्य करना शुरू कर दिया लेकिन ऋषि मार्कंडेय ने उर्वशी पर ध्यान नहीं दिया जिससे उसके सारे प्रयास व्यर्थ गए। अंत में, इंद्र वहां पहुंचे और उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर ली और बताया कि भगवान के संविधान के अनुसार वह अपने पद का समर्पण करने के लिए तैयार हैं जिसके लिए ऋषि मार्कंडेय ने इन्कार कर दिया क्योंकि उनकी पूजा का स्तर स्वर्ग से भी परे था यानी उनकी एकाग्रता ब्रह्मलोक में थी।

इंद्र के इस कुटिल और निम्न दृष्टिकोण से स्वर्ग के राजा के चरित्र का पता चलता है।

एक बार ऋषि मार्कंडेय चींटियों की गतिविधि को देख रहे थे और इंद्र उनके पास बैठे थे। इंद्र ने पूछा कि वह चींटियों की गतिविधि को इतनी गंभीरता से क्यों देख रहे हैं? ऋषि मार्कंडेय ने जवाब दिया कि मैं यह गिन रहा हूँ कि इन चींटियों ने कितनी बार स्वर्ग के राजा का पद प्राप्त किया है। ऋषि मार्कंडेय के इस कथन ने इंद्र को झकझोर दिया। संदेश स्पष्ट था कि स्वर्ग को प्राप्त करने के बाद जीव जन्म और मृत्यु के चक्र में ही रहता है और 84 लाख योनियों (प्रजातियों) में पीड़ित होता है।

कृपया विचार करें:

स्वर्ग के राजा के पद को प्राप्त करने का क्या लाभ है जब कार्यकाल पूरा होने के बाद प्राणी को गधा, चींटी, बनना पड़ता है और नरक में और पृथ्वी पर पीड़ा सहनी पड़ती है? न तो ऋषि मार्कंडेय को हठ योग करने से पूर्ण मुक्ति प्राप्त हुई और न ही इंद्रदेव को। दोनों ब्रह्म-काल के जाल में फंसे रहे और काल के लोक की मनमानी पूजा और नकली भौतिक सुखों में अपना जीवन बर्बाद कर दिया।

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उपरोक्त तथ्य साबित करते है: -

  • भगवान इंद्र एक शराबी हैं।
  • इंद्र को उनके भोग-विलास के लिए जाना जाता है।
  • इंद्र सुखवादी और धोखेबाज़ हैं।
  • युद्ध का देवता बहादुर नहीं है। इंद्र को हमेशा अपने सिंहासन को खोने का डर लगा रहता है।
  • इंद्र देव और उनके स्वर्ग का विनाश होता है।

तथ्यों के उजागर होने के साथ, यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वर्ग एक खुशहाल निवास नहीं है। फिर कौन सा परम सुखदायक निवास है जो साधकों को लक्षित होना चाहिए?

सतलोक अविनाशी निवास है

अब तक इस लेखन को पढ़ने के बाद भक्तों को विश्वास हो गया होगा कि स्वर्ग पाने के लिए पूजा करने का कोई औचित्य नहीं है और मन में एक सवाल उठता है कि क्या कहीं और कोई अविनाशी और परम सुखदायक निवास है?
इसका उत्तर है हां, सतलोक अमर निवास है जो की परम अक्षर ब्रह्म यानि सर्वशक्तिमान कविर्देव का निवास है। जो पृथ्वी पर निवास करने वाली सभी आत्माओं का भी मूल स्थान है। ‘सतलोक” वह सुखदायक निवास है जहाँ न कोई मृत्यु है, न कोई बुढ़ापा है, न कोई दोष है, न कोई दुख है। सतलोक में कोई भी अपमानजनक या अभद्र भाषा का प्रयोग नहीं करता है। वहाँ, सभी आत्माओं के शरीर की चमक सोलह सूर्यों के बराबर है।

तत्वदर्शी संत की शरण ग्रहण करके सर्वशक्तिमान कबीर परमात्मा की सच्ची भक्ति करने से सतलोक की प्राप्ति की जा सकती है। महान तत्त्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ही वह संत हैं जो मोक्ष मंत्रों को प्रदान करते हैं जिनका जाप करके साधक परम निवास ‘सतलोक’को प्राप्त कर सकते हैं जहाँ पहुँचकर आत्मा कभी भी इस मृत संसार में वापस नहीं आती और पूर्ण मोक्ष प्राप्त करती है।

महत्वपूर्ण - सर्वोच्च भगवान कबीर अपनी आत्माओं को कसाई ब्रह्म-काल से मुक्त करने के लिए पृथ्वी पर सभी युगों में आते हैं। वह पुण्य आत्माओं को मिलते हैं, उन्हें सतलोक ले जाते हैं। रास्ते में, वह उन्हें ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्वर्ग, नर्क के लोक दिखाते हैं। चश्मदीद गवाह अपने अनुभव का वर्णन करते हैं। भगवान कबीर भी इंद्र देव से उन आत्माओं का परिचय कराते हैं और इंद्र स्वीकार करते हैं कि वह जन्म और पुनर्जन्म के चक्र में है और अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद वह गधा बन जाते हैं। स्वर्ग का विनाश होता है।

निष्कर्ष

इंद्र एक अर्ध-देवता हैं। वह त्रुटियों और दोषों के संदर्भ में मनुष्यों से ऊपर नहीं है। एक अर्ध-देवता के उच्च आध्यात्मिक स्तर की प्राप्ति के बाद भी अहंकार, और अभिमान उनके अंदर बरकरार है। इंद्र और उनका राज्य राक्षसों के लगातार खतरे में रहता हैं जो स्वर्ग को हमेशा हड़पने की ताक में रहते हैं और इंद्र उनसे निरंतर युद्ध करते रहते हैं। उन्हे कभी शांति नहीं रहती। उनका निवास एक खुशहाल निवास नहीं है।

सर्वशक्तिमान कविर्देव अपनी अमृतवाणी में बताते हैं,

इंद्र दा राज काग की विष्ठा, ना भोगा इंद्राणी नूँ। सुखदेव पास पुरन्दा आई, जाके ध्यान लगे निरबानी नू ।।

इसलिए, सभी पाठकों और भक्तों को सलाह है कि स्वर्ग को प्राप्त करने के लक्ष्य के बजाय उनके जीवन का लक्ष्य शाश्वत स्थान ‘सतलोक’ को प्राप्त करना होना चाहिए।