मीराबाई के गुरु संत रविदास जी की सत्य कथा


संत रविदास जी के चमत्कार

संत रविदास को भगत रैदास, रूहीदास, रोबिदास के नाम से भी जाना जाता है, जिन्हें पारंपरिक रूप से परमेश्वर कबीर का समकालीन माना जाता है। संत रविदास जी काशी, उत्तर प्रदेश के चमड़े का काम करने वाले मोची समुदाय से थे, जो एक अछूत जाति मानी जाती थी। वह जूते बनाते थे और कबीर साहेब के अनुयायी थे जो 625 वर्ष पहले धरती पर अवतरित हुए थे। परमात्मा कबीर के उपदेशों से अत्यधिक प्रभावित भक्त रविदास ने भगवान कबीर द्वारा निर्धारित उन्हीं सिद्धांतों का पालन किया जैसे छुआछूत, जाति, पंथ, लिंग के आधार पर सामाजिक विभाजन, अमीर और गरीब के बीच भेदभाव, लोगों के बीच धार्मिक वर्चस्व और अंधविश्वास जैसी सामाजिक बुराइयों को त्यागना।

भगवान कबीर के उपदेशों के समान भक्त रैदास ने भी व्यक्तिगत आधार पर आध्यात्मिकता की खोज में एकता का उपदेश दिया। उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को केवल एक ईश्वर, जो संपूर्ण ब्रह्मांडों का निर्माता है कि पूजा करने और मनमानी पूजा छोड़ने की शिक्षा दी। यह लेख भक्त रविदास के जीवन में घटी कुछ सच्ची घटनाओं पर प्रकाश डालता है जो उन्हें एक महान समाज सुधारक और आध्यात्मिक नेता साबित करती हैं।

इस लेख के मुख्य अंश निम्नलिखित होंगे

 

  • भक्त संत रविदास के जन्म की कथा।
  • संत रविदास ने लालची ब्राह्मण की बुद्धि ठीक की।
  • रविदास जी ने रानी का असाध्य रोग ठीक किया।
  • रविदास जी ने 700 रूप बनाये और ब्राह्मणों का भ्रम दूर किया।
  • संत रविदास ने मीराबाई को दीक्षा दी।
  • स्वामी रामानंद जी को रविदास जी ने पहला गुरु बनाया।
  • रविदास द्वारा कबीर साहेब को गुरु धारण करना।

संत रविदास जी के जन्म की कथा

सन्दर्भ: आदरणीय संत गरीबदास जी के सद्ग्रन्थ साहिब (अमरग्रन्थ) के अध्याय "सुमिरन का अंग" की वाणी 111 और जगतगुरु संत रामपाल जी महाराज द्वारा अमरग्रन्थ की अनुवादित पुस्तक मुक्तिबोध, अध्याय 'सुमिरन का अंग' की वाणी नं 111, पृष्ठ नं. 94-97

गरीब, रैदास रंगीला रंग है, दिये जनेऊ तोड़ |

जगजौनार चौले धरे, एक रैदास एक गौड || 111 ||

काशी (वाराणसी) नगर में एक ब्राह्मण था जो शुभ विचारों वाला तथा ब्रह्मचर्य का पालन करता था। वह भक्ति कर रहा था। उसने भौतिक सुखों का त्याग कर दिया और घर छोड़ दिया। वह एक ऋषि के आश्रम में रहता था। एक दिन प्रातः काल काशी नगरी के निकट बहने वाली गंगा नदी में स्नान करके वह तपस्वी एक वृक्ष के नीचे बैठकर भगवान का ध्यान कर रहा था। उसी समय एक 15-16 साल की लड़की अपनी मां के साथ मवेशियों का चारा लेकर जंगल की ओर जा रही थी। उसी पेड़ के नीचे दूसरी तरफ छाया देखकर बेटी ने चारे की गठरी जमीन पर रख दी और आराम करने बैठ गई। जब साधक ब्राह्मण ने उस युवती को देखा तो उसके मन में एक सूक्ष्म इच्छा उत्पन्न हुई कि 'लड़की कितनी सुंदर है? उसे पत्नी के रूप में पाना कैसा होगा?' उसी क्षण विद्वान ब्राह्मण को अपने आध्यात्मिक ज्ञान से अपनी साधना की हानि के बारे में पता चला।

जेती नारी देखियाँ मन दोष उपाय |

ताक दोष भी लगत है जैसे भोग कमाय ||

भावार्थ:- जितनी स्त्रियों को संबंध बनाने की दृष्टि से देखा जाता है, उतनी स्त्रियों के साथ सूक्ष्म संबंध बनाने का पाप लगता है। अध्यात्म में यह भी प्रावधान है कि यदि मन में दोष आता है तो इसे एक नेक सोच से ख़त्म किया जा सकता है। जैसे एक युवक साइकिल से अपने गांव आ रहा था। उसने दूर से देखा कि तीन लड़कियाँ सिर पर पशुओं का चारा लेकर उसी गाँव की ओर जा रही थीं। वह साइकिल से उनका पीछा करने लगा और एक लड़की पर मोहित हो गया जो उन तीनों से अधिक आकर्षक थी। उस एक लड़की के प्रति एक विशेष जवानी का दोष उत्पन्न था। मन में दोष लेकर वह साइकिल से उन लड़कियों से आगे निकल गया और पीछे मुड़कर लड़की का चेहरा देखा तो पाया कि वह उसकी सगी बहन थी। उसे देखते ही उसके मन में तुरंत अच्छे विचार आये और बुरे विचार ऐसे चले गये जैसे उठे ही न हों। उसे अपना दोष महसूस हुआ यानि आत्मग्लानि हुई। अच्छे विचार इतने गहरे हो गये कि बुरे विचार पूरी तरह नष्ट हो गये।

वह धर्मनिष्ठ तपस्वी ब्राह्मण जानता था कि अच्छे विचारों की दृढ़ता और शुद्धता से बुरे विचारों का पाप पूरी तरह नष्ट हो सकता है। अत: वह उस कन्या के प्रति उत्पन्न बुरे विचारों का समूल नष्ट करके अपनी भक्ति की रक्षा करना चाहता था। इसलिए उसने मन ही मन सोचा कि 'काश वह मेरी माता होती।' यह विचार वैसा ही था जैसे उस युवक ने अपनी बहन को बहन के रूप में पहचाना। तब गलत विचारों के लिए कोई जगह नहीं रही। वह लड़की मोची जाति से थी। ब्राह्मण की हार्दिक इच्छा थी कि वह उसकी माँ बने। दो वर्ष बाद ब्राह्मण की मृत्यु हो गई। मोची समुदाय की उस लड़की की शादी हो गई। काशी नगरी में एक जूता बनाने वाले के घर उस कन्या से उसी साधक ब्राह्मण का जन्म हुआ। वह बालक संत रविदास जी हुए।  

संत रविदास ने लालची ब्राह्मण की बुद्धि को किया ठीक

दृढ़ भक्त रविदास जी चर्मकार (जूता कारीगर) का काम भी करते थे और कबीर परमेश्वर की भक्ति भी करते थे। एक दिन एक ब्राह्मण रास्ते में संत रविदास जी से मिला और बोला, 'भक्त, क्या तुम पवित्र गंगा नदी में स्नान करने चलोगे?' मैं जा रहा हूँ।  रविदास जी ने कहा - 

'मन चंगा तो कठौती में गंगा'

भावार्थ:- यदि मन पवित्र है तो गंगा में डुबकी लगाने की आवश्यकता नहीं, गंगा तो कठौती में ही होगी। (कठौती आमतौर पर मिट्टी का एक बर्तन होता है जो पानी से भरा होता है जिसमें मोची धागे के साथ-साथ जानवरों की खाल को नरम बनाने के लिए डुबोते थे और फिर इसका उपयोग चमड़े के जूते बनाने के लिए करते थे)

संत रविदास जी ने कहा कि मैं नहीं जा रहा हूँ। पंडित जी ने कहा कि लगता है कि जब से तुम कबीर जी के साथ रहने लगे हो, तब से नास्तिक हो गये हो, तुमने अपना धार्मिक कार्य छोड़ दिया है। यदि तुम कुछ दान करना चाहते हो तो मुझे दे दो, मैं उसे गंगा मैया को दे दूँगा। रविदास जी ने अपनी जेब से एक कौड़ी (रुपया-पैसा) निकालकर ब्राह्मण को दी और कहा 'हे विप्र! यह कौड़ी गंगा जी को दे देना और एक बात सुन लेना, यदि गंगा जी यह कौड़ी हाथ में लें तो देना, नहीं तो वापिस ले आना। गंगा जी से कहना कि 'हे गंगा, काशी नगरी से भक्त रविदास ने यह कौड़ी भेजी है, कृपया इसे स्वीकार करें।'

पंडित जी गंगा नदी के अंदर चले गए और पानी के अंदर खड़े होकर यहीं शब्द बोले। गंगा ने एक हाथ से ब्राह्मण से रविदास जी द्वारा भेजी गई कौड़ी ले ली और दूसरे हाथ से पंडित जी को एक सुंदर और मूल्यवान सोने का कंगन दे दिया। गंगा ने कहा कि "यह कंगन बहुत कीमती है। इसे आप परम संत रविदास जी को दे देना और कहना कि आपने अपने हाथ से प्रसाद चढ़ाकर मुझ गंगा को कृतज्ञ कर दिया है। मैं एक संत को क्या भेंट दे सकती हूँ? कृपया इसे मेरी अल्प भेंट समझकर स्वीकार करें।" पंडित जी ने कंगन लिया और चलने लगे। परन्तु उसके मन में लालच आ गया और उसने सोचा कि वह यह कंगन राजा को दे देगा। राजा मुझे इस अद्भुत कंगन के बदले में बहुत सारा धन देगा। गंगा जी द्वारा दिया गया वह अद्भुत कंगन पंडित ने राजा को दिया। राजा को कंगन पसंद आया और उसने कंगन उससे ले लिया और उसे बहुत सारा धन दिया और उसका नाम-पता लिख करके विदा किया। राजा ने वह कंगन अपनी रानी को दे दिया। रानी ने इतना सुंदर और मूल्यवान कंगन पहले कभी नहीं देखा था। रानी ने कहा कि ऐसा एक और कंगन होना चाहिए, यह एक जोड़ा होना चाहिए।

राजा ने उस पंडित जी को बुलाया और कहा कि वह पहले जैसा कंगन लाया था वैसा ही एक ओर कंगन ले आये। जितना भी पैसा लगेगा मैं दूंगा। अब उस धोखेबाज और लालची ब्राह्मण के सामने पहाड़ जैसी समस्या खड़ी हो गई। बिल्कुल ऐसा कंगन कहां मिलेगा? वह सभी सुनारों के पास गया लेकिन कहीं भी उसे वैसा कंगन नहीं मिला। अंत में वह दु:खी होकर संत रविदास जी के पास गया और अपनी गलती स्वीकार की। उसने गंगा को उनकी दी हुई कौड़ी देने और बदले में कंगन लेने की पूरी घटना बताई, फिर वह कंगन भक्त रविदास जी को न देकर किस प्रकार मुसीबत में पड़ गया और राजा ने उससे क्या कहा? आदि सब बताकर पंडित जी ने रविदास जी से अपने परिवार की जान बचाने की विनती की। रविदास जी ने कहा पंडित जी आप क्षमा के पात्र नहीं हैं, लेकिन आपका परिवार संकट में है इसलिए मैं आपकी मदद करूँगा।

आप इस 'कठौती' (एक बड़ा मिट्टी का बर्तन जिसमें चमड़ा भिगोया जाता था) में अपना हाथ डालें और गंगा से कहें कि 'भक्त रविदास जी की प्रार्थना है कि आप 'कठौती' में आएं और वैसा ही कंगन हमें दें।' यह कहकर, पंडित जी जो रविदास से 5 फीट की दूरी से बात करते थे क्योंकि वह एक अछूत मोची समुदाय से थे, अब उन्होंने चमड़ा भिगोने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले मिट्टी के टब में अपना हाथ डाल दिया। उसमें से उसे एक जैसे चार कंगन मिले। भक्त रविदास जी ने कहा 'पंडित जी केवल एक ले जा और बाकी गंगा जी को लौटा दे, नहीं तो और मुसीबत में फंस जाओगे।' ब्राह्मण ने तुरंत बाकी तीनों कंगन वापस टब में डाल दिए और एक कंगन ले जाकर राजा को दे दिया। रानी ने पूछा 'पंडित जी! यह कंगन तुम्हें कहाँ से मिला, बताओ?' तब ब्राह्मण ने संत रविदास जी का पता बता दिया।

संत रविदास जी द्वारा रानी के असाध्य रोग को ठीक करना

रानी ने सोचा कि रैदास कोई सुनार होगा और वह जाकर उससे मिलेगी और ढेर सारे कीमती कंगन लेकर आयेगी। रानी को एक लाइलाज बीमारी थी और उनके मृत पूर्वज (पितर) भी उन्हें सताते थे, जिसके कारण वह बहुत परेशान रहती थी। हालांकि उसने हर जगह इलाज करवाया और कई संतों का आशीर्वाद भी लिया लेकिन उसे कोई राहत नहीं मिली। रानी दासियों और अंगरक्षकों के साथ लालची ब्राह्मण के बताये पते पर संत रविदास से मिलने गई। उन्होंने उन्हें प्रणाम किया और रविदास जी के आशीर्वाद देते ही रानी के शरीर की पीड़ा समाप्त हो गई। रानी को ऐसा महसूस हुआ मानो उसके सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो। उसने संत रविदास जी के तुरंत चरण छुए। रविदास जी ने कहा, 'महारानी मुझ कंगाल के पास कैसे आ गई?' रानी ने कहा कि 'मैं इस स्थान को सुनार की दुकान समझकर आ गई थी, गुरु जी। स्वास्थ्य समस्याओं के कारण मेरा जीवन नर्क बन गया था, बीमारी ने मेरे जीवन को बदत्तर बना दिया था। लेकिन अब मैं आपके दर्शनों द्वारा स्वस्थ हो गई हूँ। मैंने इसके इलाज में कोई कसर नहीं छोड़ी थी, लेकिन मुझे कोई फायदा नहीं मिल रहा था।

 

संत रविदास जी ने कहा कि 'बहन, तुम्हारे पास पर्याप्त भौतिक संपत्ति है जो तुम्हारे पूर्व जन्म के पुण्यों का फल है। भविष्य में भी सुख पाने के लिए आपको वर्तमान में भी पुण्य करने होंगे। अब आध्यात्मिक धन भी इकट्ठा करो। रानी ने कहा कि 'संत जी, मैं बहुत दान-पुण्य करती हूं, हर महीने की पूर्णिमा को काशी में सामूहिक भोजन का आयोजन करती हूं और आसपास के ब्राह्मणों और संतों को भोजन खिलाती हूं। संत रविदास जी ने कहा:

बिन गुरु भजन दान बिरथ हैं, ज्यूं लूटा चोर |

न मुक्ति न लाभ संसारी, कह समझाऊँ तोर ||

कबीर, गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान |

गुरू बिन दोनों निष्फल हैं, चाहे पूछो बेद पुरान ||

रानी ने कहा, 'हे संत जी, मैंने एक ब्राह्मण को अपना गुरु बनाया है। रविदास जी ने कहा कि नकली गुरु से भी कोई लाभ नहीं होता, तुमने गुरु भी बना लिया, फिर भी कष्ट वैसे ही बने रहे। ऐसे गुरु का क्या लाभ? रानी ने कहा कि आप सच कहते हैं, आप मुझे अपना शिष्या बना लें। रविदास जी ने रानी को पहला मंत्र दिया।

रविदास जी ने बनाये अपने 700 रूप और तोड़ा ब्राह्मणों का भ्रम

रानी ने कहा, 'गुरु जी, इस बार मैं पूर्णिमा के दिन आपके नाम पर सामुदायिक भोजन (भंडारा/लंगर) का आयोजन करूंगी। कृपया इस अवसर पर आकर हमे कृतार्थ करें'। निश्चित तिथि पर रविदास जी राजा के महल में पहुँचे। आमंत्रित 700 ब्राह्मण भी भोजन करने पहुंचे। भण्डारा प्रारम्भ हुआ। रानी ने अपने गुरु रविदास जी को अच्छे आसन पर बिठाया और 700 ब्राह्मणों को पंक्ति में बैठकर भोजन करने का अनुरोध किया। 

उसी समय उन्होंने अछूत जाति के रविदास जी को अपने साथ बैठे हुए देखा। उन्होंने क्रोधित होकर रानी से कहा कि 'यह अछूत रविदास यहाँ क्यों बैठा है? उससे जाने के लिए कहो वरना हम खाना नहीं खाएंगे। रानी इस बात से सहमत नहीं हुई। उन्होंने अपने गुरु जी को बाहर जाने से मना कर दिया। संत रविदास जी ने रानी से कहा कि बेटी मेरी बात सुनो, कोई बड़ी बात नहीं। मैं बाहर बैठूंगा। रविदास जी उठे और ब्राह्मणों के पीछे जहाँ उन्होंने अपने जूते उतारे थे, बैठ गये। ब्राह्मण भोजन करने बैठे। वहीं रविदास जी ने अपने 700 रूप बनाए और हर ब्राह्मण के साथ बैठकर खाना खाते नजर आए। एक ब्राह्मण दूसरे से कहता है कि 'शूद्र (अछूत) रविदास तुम्हारे साथ भोजन कर रहा है, इस भोजन को छोड़ दो'। दूसरा ब्राह्मण कहता है कि रविदास तो आपके साथ भी भोजन कर रहे हैं।

इस प्रकार रविदास जी ने सबके साथ भोजन करके दिखाया। जबकि वे दूर बैठे थे। यह उनकी उन सभी ब्राह्मणों को सबक सिखाने की लीला थी कि किसी को भी जाति के आधार पर लोगों से भेदभाव नहीं करना चाहिए, क्योंकि सभी भगवान की संतान हैं और उनके साथ समान व्यवहार किया जाना चाहिए। तब रविदास जी ने कहा 'हे ब्राह्मणों! तुम मुझे क्यों बदनाम करते हो? देखो, मैं यहाँ बैठा हूँ जहाँ तुम्हारे जूते रखे हुए हैं'। राजा, रानी, मंत्री और उपस्थित सभी गणमान्य व्यक्ति भी यह दृश्य देख रहे थे। तब रविदास जी ने कहा कि ब्राह्मण जाति से नहीं, कर्म से बनता है। तब उन्होंने सोने का जनेऊ अपने शरीर (त्वचा) के अंदर दिखाया और कहा कि मैं वास्तव में ब्राह्मण हूं, मैं जन्म से ब्राह्मण हूं। फिर उन्होंने कुछ समय तक उपदेश दिया। उस समय 700 ब्राह्मणों को ग्लानि हुई और उन्होंने अपना नकली जनेऊ (कच्चे सूती धागे से बना हुआ) तोड़ दिया और संत रविदास जी के शिष्य बन गये और सच्ची भक्ति करके अपना कल्याण कराया। 700 ब्राह्मणों द्वारा उतारी गई जनेऊँ के सूत धागा का वजन सवा मन (50 किलोग्राम) था।

संत रविदास जी द्वारा मीराबाई को नाम दीक्षा देना

भक्त मीराबाई राजस्थान के राजपूत समुदाय से थीं और भगवान श्री कृष्ण की बहुत बड़ी उपासक थीं। वह किसी को भी भगवान श्री कृष्ण/भगवान विष्णु से श्रेष्ठ नहीं मानती थी जो कि उसकी अज्ञानता का परिणाम था। एक दिन परमेश्वर कबीर जी की कृपा से उन्हें परमात्मा कबीर जी द्वारा किए जा रहे आध्यात्मिक प्रवचन को सुनने का अवसर मिला, जो उस समय स्वयं पृथ्वी पर अवतरित थे और एक जुलाहे के रूप में दिव्य लीला कर रहे थे। आध्यात्मिक प्रवचन में, मीराबाई ने सृष्टि रचना के बारे में सुना और उन्हें पता चला कि सर्वोच्च भगवान कोई और है जो यहाँ प्रवेश करके तीन लोकों का पोषण करता है और भगवान श्री कृष्ण सर्वोच्च भगवान नहीं हैं। वह नश्वर हैं और जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में हैं। श्री कृष्ण अपने भक्तों को मुक्ति नहीं दे सकते, क्योंकि वे स्वयं 21 ब्रह्मांड के स्वामी ब्रह्म काल के जाल में फंसे हुए हैं।

 

 

यह सुन मीराबाई संत कबीर साहेब के पास गईं और उन्होंने सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान और सच्चे मोक्ष मंत्र प्राप्त करने की इच्छा व्यक्त की क्योंकि वह मोक्ष प्राप्त करना चाहती थी। उनकी परीक्षा लेने के लिए कबीर साहेब ने उन्हें अपने शिष्य संत रविदास के पास जाकर दीक्षा लेने के लिए कहा। मीराबाई ने वैसा ही किया। रविदास जी ने मीराबाई को बताया कि वह चमड़े का काम करने वाली जाति के एक अछूत समुदाय चमार से है जबकि आप मीरा राजपूत समुदाय से हैं जो एक उच्च जाति है। यदि वह उन्हें अपना गुरु बनाएगी तो उनके समुदाय के लोग नाराज हो जायेंगे। लेकिन भक्तमति मीराबाई ने अनुरोध किया कि वह दीक्षा लेना चाहती है। तब संत रविदास जी ने उन्हें नाम दीक्षा दी और उनके आध्यात्मिक गुरु बन गये।

स्वामी रामानंद जी थे रविदास जी के पहले गुरु

काशी के महर्षि स्वामी रामानंद जी, वैष्णव संप्रदाय से थे। सर्वशक्तिमान कबीर जी ने स्वामी रामानंद जी को भक्ति का सच्चा मार्ग समझाया था और उन्हें अपनी शरण में लिया। उन्हें अपना अविनाशी लोक सतलोक दिखाया और फिर वापस छोड़ दिया था। इसके बाद स्वामी रामानन्द जी ने मनमानी पूजा छोड़कर कबीर परमेश्वर जी द्वारा बताई सच्ची भक्ति की। सांसारिक लोगों की दृष्टि में स्वामी रामानन्द जी ने कबीर साहेब का गुरु बनना स्वीकार किया जो कि गुरु-शिष्य की परम्परा को बनाये रखने के लिये स्वयं परमेश्वर कबीर जी के आदेश पर किया गया कार्य था। पहले स्वामी रामानन्द जी केवल ब्राह्मण जाति के लोगों को ही अपना शिष्य बनाते थे। सतलोक के दर्शन तथा सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के बाद स्वामी रामानन्द जी ने अन्य जातियों के लोगों को भी अपना शिष्य बनाना प्रारम्भ कर दिया। स्वामी रामानन्द जी के विभिन्न शिष्यों में से संत रविदास जी भी थे। रविदास जी को भी उन्होंने वहीं पाँच मंत्र दिये थे जो कबीर परमेश्वर ने दिये थे। 

संत रविदास जी ने कबीर परमेश्वर को बनाया अपना गुरु

लेकिन जब संत रविदास को परमेश्वर कबीर साहेब जी के विषय में वास्तविक जानकारी हो गई कि ये वास्तव में सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं तो उन्होंने बाद में परमेश्वर कबीर जी को अपना गुरु धारण कर लिया था। संत गरीबदास जी महाराज अपनी अमृत वाणी में कहते हैं कि कबीर परमेश्वर ने संत रविदास जी पर कृपा की जिन्होंने उनकी सच्ची भक्ति की और अपना कल्याण करवाया। पूर्ण परमात्मा/परम अक्षर ब्रह्म की लीला के बारे में कोई नहीं जानता।

नामा और रैदास रसीला। कोई न जानै अबिगत लीला।।

निष्कर्ष

वही सतपुरुष/परम अक्षर ब्रह्म/सर्वशक्तिमान कबीर साहेब वर्तमान में पुनः धरती पर अवतरित हुए हैं और संत रामपाल जी महाराज के रूप में दिव्य लीला कर रहे हैं। जिनसे उपदेश लेकर मानव अपने जीवन का कल्याण करवा सकता है। नकली संतों द्वारा बताई गई भक्ति, गंगा आदि स्थान से लाभ नहीं हो सकता है। क्योंकि पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16 श्लोक 23 भी स्पष्ट करता है कि शास्त्रविधि को त्यागकर मनमाना आचरण करने वालों को कोई लाभ नहीं होता।