हम ब्रह्म यानी काल के ब्रह्मांडो में रह रहे है जो कि 21 ब्रह्मांडों का स्वामी है। यह स्वयं अपनी गलती के कारण सतलोक से निष्कासित किए जाने के कारण निर्दोष आत्माओं (हम जीवों) से बदला लेने की भावना से ग्रसित है। यह हम आत्माओं को अपनी माया के जाल में उलझाकर, पहले से लिखी गई स्क्रिप्ट के अनुसार नचाता है। जैसे कोई फिल्म निर्देशक कलाकारों से अभिनय करवाता है, अभिनेता/अभिनेत्रियों की भूमिकाएँ तय करता है, जो सब नकली और बनावटी होती हैं। उसी तरह, ब्रह्म काल ने अपने लोक में पूरी पटकथा तैयार की है और एक निर्देशक की तरह वह आत्माओं से ऐसे किरदार निभवाता है जो वास्तविकता से परे होते हैं।
इसी सत्य को इस लेख में द्वापर युग के पाँच पांडव भाइयों (युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव) के माध्यम से उजागर किया जाएगा, जिसे प्रमाणित पवित्र ग्रंथों के साक्ष्यों द्वारा प्रस्तुत किया जाएगा — ऐसे ग्रंथ जिनकी सच्ची जानकारी आज तक आम जनता से छुपी रही है। यह तथ्य जानकर पाठक दांतों तले उंगलियां दबा लेंगे, क्योंकि पांडवों की असली कहानी शैतान काल का धूर्त चेहरा उजागर करेगी, जो यह दिखाएगी कि उसके लोक की आत्माएं उसके लिए केवल कठपुतलियाँ हैं और वह उन्हें बार-बार छलता है।
द्वापर युग में कौरवों और पांडवों के मध्य महाभारत का युद्ध हुआ, जो सत्ता और संपत्ति को लेकर था। इस युद्ध में लाखों सैनिकों और दोनों कुलों के परिजनों की जान गई। आम धारणा है कि इस युद्ध में श्रीकृष्ण ने योद्धा अर्जुन को श्रीमद्भगवद गीता का ज्ञान दिया था, परंतु यह केवल एक मिथक है। इस लेख में कुछ छिपे हुए सत्य उजागर होंगे, जो जनमानस की सोच को झकझोर देंगे।
पांडवों, कौरवों, महाभारत युद्ध, श्रीकृष्ण आदि विषयों पर भरपूर साहित्य पहले से उपलब्ध है। यह मानते हुए कि अधिकांश लोगों ने इन विषयों पर पुस्तकें पढ़कर, संबंधित वेबसाइटों पर जाकर अथवा अन्य माध्यमों से पहले ही जानकारी प्राप्त कर ली होगी और इन सवालों के उत्तर जान चुके होंगे जैसे—
इसलिए इस लेख में हम कुछ ऐसे प्रश्नों पर प्रकाश डालेंगे जिनके उत्तर आज भी स्पष्ट नहीं हैं — ये सभी उत्तर सूक्ष्म वेद अर्थात् सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी पर आधारित होंगे जैसे
रोज़ 1 लाख मनुष्यधारी प्राणियों को खाने के श्राप के कारण ब्रह्म काल ने यह प्रतिज्ञा की थी कि वह कभी अपने असली रूप में प्रकट नहीं होगा (प्रमाण: श्रीमद्भगवद गीता अध्याय 7, श्लोक 24 व 25)। वही ब्रह्मा, विष्णु और शिव का पिता है (प्रमाण: शिव पुराण, दुर्गा पुराण)। माँ दुर्गा इन तीनों देवताओं की माता हैं। तीनों देवता यह नहीं जानते कि उनके पिता कौन हैं?
सागर मंथन के दौरान वेद प्राप्त होने पर, भगवान ब्रह्मा को संपूर्ण ब्रह्मांडों के सृष्टिकर्ता, पूर्ण परमात्मा/ परम अक्षर ब्रह्म, के बारे में ज्ञान हुआ। उनके विषय में प्रश्न पूछने पर दुर्गा / अष्टंगी ने उन्हें सत्य नहीं बताया।
ब्रह्मा जी ने आगे यह जानना चाहा कि उनके पिता कौन हैं। दुर्गा ने उन्हें काल के बारे में कोई जानकारी नहीं दी। तब श्री ब्रह्मा जी ने स्वयं अपने पिता की खोज का प्रयास किया, परंतु उनकी सारी कोशिशें व्यर्थ रहीं। परन्तु उन्होंने अपनी माता से झूठ कहा कि उन्होंने ब्रह्म काल को देख लिया है। यह सुनकर अष्टंगी/ दुर्गा नाराज़ हो गईं और उन्होंने उनको श्राप दे दिया कि उनकी पूजा संसार में नहीं होगी।
क्षर पुरुष ने इसके बदले दुर्गा को श्राप दिया कि द्वापर युग में वह द्रौपदी के रूप में जन्म लेगी और पृथ्वी पर मानव जीवन में कष्ट भोगेगी तथा उसके पाँच पति होंगे। यही कारण है कि द्रौपदी ने पाँच पांडवों से विवाह किया, जिसकी जानकारी भक्त समाज को नहीं है, जबकि इसका प्रमाण सूक्ष्म वेद में उपलब्ध है।
ब्रह्म काल ने पहले से ही अपने लोक में चल रही इस फिल्म की पटकथा तैयार कर रखी है। सभी पात्र निश्चित हैं। पांडव मात्र कठपुतलियाँ थे जो अपनी भूमिका निभा रहे थे। ब्रह्म काल के लोक में जीवों पर क्रोध, लोभ, अहंकार, काम, मोह, ईर्ष्या आदि विकार हावी रहते हैं। कौरवों और पांडवों के बीच संपत्ति को लेकर विवाद हुआ, जिससे वे एक-दूसरे के दुश्मन बन गए और एक-दूसरे का बार-बार अपमान करने लगे।
पूज्य संत गरीबदास जी महाराज ने कहा हैं:
"मांडी बाजी खेले जुवा, रोटी ही पर कैरों पांडो मूवा।"
कौरवों और पांडवों के बीच चौसर (जुआ) के खेल की अवधि तय थी, जिसमें युधिष्ठिर ने सब कुछ हार दिया — अपना राज्य, अपने चारों भाई, यहां तक कि स्वयं को भी। अंततः युधिष्ठिर ने जुए में अपनी पत्नी द्रौपदी को भी हार दिया।
दुर्योधन और दुःशासन, जो कि कौरवों के पुत्र थे, उन्होंने सभा में द्रौपदी का अपमान किया। उस समय वहाँ भीष्म पितामह, गुरु द्रोणाचार्य, कर्ण जैसे महारथी उपस्थित थे, लेकिन किसी ने भी द्रौपदी की लाज बचाने के लिए आवाज़ नहीं उठाई, न ही दुर्योधन को फटकार लगाई कि वह उनकी बहू का अपमान न करे। बल्कि सभी चुपचाप बैठे रहे और पूरा दृश्य देखते रहे। दुर्योधन के घर का भोजन ग्रहण करने के कारण उनका अंतःकरण दूषित हो चुका था और उनमें दोष उत्पन्न हो गया था।
यहाँ प्रश्न यह उठता है:
क्या ऐसे योद्धा वीर कहलाने योग्य हैं जो अपने ही परिवार की स्त्री की लाज न रख पाए?
विदुर, जो कौरवों और पांडवों दोनों के काका थे और जिन्हें कौरवों ने ‘दासीपुत्र’ कहकर अपमानित किया, वही सभा में एकमात्र साहसी व्यक्ति थे जिन्होंने द्रौपदी की इज्जत की रक्षा के लिए आवाज उठाई। उन्होंने दुर्योधन और दुःशासन को कहा –"तुम क्या कर रहे हो? तुम अपनी इज्जत स्वयं उतार रहे हो।
विदुर कहै ये बंधू थारा, एकै कुल एकै परिवारा।।
लेकिन दुर्योधन ने काका विदुर के साथ दुर्व्यवहार किया।
विदुर के मुख पर लगा थपेड़ा, तूं तो है पांडवों का चेरा।।
तूं तो है बांदी का जाया, भीष्म, द्रौण, कर्ण मुस्काया।।
अत्यधिक अहंकार होने के कारण सत्ता के मद में चूर कौरव इतने अंधे हो गए थे कि विदुर की एक नहीं सुनी। अपितु उनको थप्पड़ मारा और अपमानित किया। अंततः विदुर सभा छोड़कर चले गए लेकिन अन्य सभी चुपचाप कौरवों के इस पापपूर्ण आचरण को देखते रहे।
संदर्भ: संक्षिप्त महाभारत प्रथम भाग। संपादक जयदयाल गोयनका, प्रकाशक एवं संशोधक गीता प्रेस, गोरखपुर हैं। पृष्ठ 543-545
कौरवों और पांडवों के बीच सुलह कराकर युद्ध टालने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण तीन बार शांति दूत बनकर गए। उन्होंने यहां तक कहा कि युद्ध होने पर वे हथियार तक नहीं उठाएंगे, एक ओर वे स्वयं होंगे और दूसरी ओर उनकी सेना। वे नहीं चाहते थे कि दोनों पक्षों में युद्ध हो, लेकिन उनके सभी प्रयास विफल हो गए।
दुर्योधन के दुर्व्यवहार के कारण, श्रीकृष्ण ने कौरवों और पांडवों की सभा में अपना विराट रूप दिखाया, जिससे वहां मौजूद महान योद्धा भयभीत हो गए। द्रोणाचार्य, भीष्म पितामह, विदुर, संजय और ऋषिगण ही उस विराट रूप के दर्शन कर सके क्योंकि श्रीकृष्ण ने उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। इसके पश्चात श्रीकृष्ण सभा से प्रस्थान कर गए।
यह विवरण सिद्ध करता है कि चौसर के खेल की सभा में श्रीकृष्ण ने ही अपना विराट रूप प्रदर्शित किया था।
परमात्मा कबीर जी अपने प्रिय भक्तों को काल के जाल से बचाने के लिए समय-समय पर अनेक चमत्कारी लीलाएं करते हैं। उन्हें पहले से ज्ञात होता है कि उनके प्रिय जीव के भाग्य में काल ने क्या-क्या दुख लिख रखे हैं। इसलिए वे पहले से ही पुण्य बढ़ाने के लिए लीला करते हैं, ताकि सही समय पर वे उनकी दुखी आत्माओं पर कृपा कर सकें।
परमात्मा कबीर जी कहते हैं:
कबीर, दर्शन साध का, परमात्मा आवैं याद।
लेखे में वही घड़ी, बाकी का समय बर्बाद।।
साधु दर्शन राम का, मुख पे बसे सुहाग।
और दर्श उन्हीं को होत हैं, जिनके पूरे भाग।।
राजा द्रुपद की पुत्री पुण्यात्मा द्रौपदी कई जन्मों से कबीर परमेश्वर की भक्ति करती आ रही थी और काल के श्राप के कारण उसका जन्म द्वापरयुग में हुआ।
जब द्रौपदी कुंवारी थी, तब वह एक बार गंगा नदी में स्नान करने गई हुई थी। उसी समय वहाँ एक अंधे ऋषि (जो वास्तव में परमात्मा कबीर संत रूप में थे) भी नदी में स्नान कर रहे थे जिसमे वे निर्वस्त्र हो गए थे। वे वहाँ लीला कर रहे थे जिसमे वे अपने वस्त्र हाथ से पानी में ढूँढ रहे थे। स्त्रियों की आवाज सुनकर वे गहरे पानी की ओर चले गए। वे उनके सामने बाहर आने में संकोच कर रहे थे। द्रौपदी ने यह स्थिति देखी तो उसने अपनी कीमती साड़ी का एक 7-8 इंच का टुकड़ा उस ऋषि को दे दिया जिससे वह अपनी लाज ढंक सकें।
जैसा कि कहा गया है:
लूट सको तो लूट लो, राम नाम की लूट।
पीछे फिर पछताओगे, प्राण जाएँगे छूट।।
साड़ी के टुकड़े से खुद को ढकने के बाद परमात्मा कबीर (संत रूप में) ने कहा:"बेटी! आज तूने मेरी लाज बचाई है, भगवान तेरी लाज बचाएगा। परमात्मा तुझे बहुत कुछ देगा।
जैसा कि कहा गया है
साध वचन पलटे नहीं, पलट जाए ब्रह्मांड।
दान देने वालों के लिए परमात्मा कहते हैं:
देते को हरि देत हैं, जहाँ तहाँ से आन।
ना दिया फिर माँगते फिरियो, साहेब सुने ना कान!
आगे भविष्य में फिर जुए की सभा में दुर्योधन के छोटे भाई, पांडवों के चचेरे भाई दुशासन ने द्रौपदी को निर्वस्त्र करने का प्रयास किया। इसका कारण दुर्योधन की प्रतिशोध की भावना थी क्योंकि द्रौपदी ने शीशमहल में उसका अपमान किया था। उस समय सभा में कोई भी उसकी रक्षा के लिए नहीं उठा। उस पल में द्रौपदी ने भगवान कृष्ण को याद किया, क्योंकि उन्हीं को वह अपना रक्षक मानती थी।
यहां, परमात्मा कबीर कहते हैं:
बंधे से बंधा मिला, छूटै कौन उपाय।
कर सेवा निरबंध की, पल में लेत छुड़ाय।।
ऐसी स्थिति में तो सिर्फ भगवान ही मदद कर सकते है। उस दिन उसकी आत्मा रो रही थी और भगवान को याद कर रही थी। उस समय परमात्मा कबीर श्रीकृष्ण रूप में प्रकट हुए और द्रौपदी को उस कर्म का प्रतिफल दिया, जिसमे उसने साड़ी का टुकड़ा देकर परमात्मा की लाज बचाई थी। श्रीकृष्ण रूप में परमात्मा कबीर ने पांडवों की पत्नी द्रौपदी की साड़ी को अनंत बढ़ा दिया।
दुशासन द्रौपदी की साड़ी को उतार नहीं पाया। परमात्मा कबीर अपने प्रिय भक्तों की गुप्त रूप से ऐसे ही रक्षा करते हैं। परमात्मा कबीर जी के वचन हैं:
लख चौरासी जीव को, और साहिब भोजन देत।
लख चौरासी पोषता, वो अपना नाम नहीं लेत।।
कबीर परमेश्वर सुख के सागर हैं। वे महिमा के भूखे नहीं है, वे चाहते हैं कि भक्तों का श्रद्धा भाव बना रहे। इसलिए आज भी लोगों को भ्रम है कि श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की साड़ी बढ़ाई, जबकि वास्तव में परमात्मा कबीर ने ही उसकी लाज बचाई थी। इसका प्रमाण श्रीकृष्ण की पत्नी रुक्मिणी के शब्दों से भी मिलता है। जब श्रीकृष्ण और रुक्मिणी पासे का खेल खेल रहे थे, तो रुक्मिणी मुस्कराकर बोलीं:
"रुक्मिणी कर पकड़ा मुस्काई, अनंत कहा मोको समझाई।"
इस संदर्भ में, सूक्ष्मवेद में कहा गया है:
दुःशासन को द्रौपदी पकरी, मेरी भक्ति सकल में सिखरी!
जो मेरी भक्ति पछौड़ी होई, हमरा नाम ने लेवै कोई।
तन देही से पासा डारि, पहुँचे सुक्ष्म रूप मुरारी।
खैंचत- खैंचत खैंच कसीशा, सिर पर बैठे हैं जगदीशा।
द्रुपद सुता कुं दीन्हें लीर, जाके अनंत बढ़ाये चीर।
द्रुपद सुता कैं चीर बढाए, संख असंखों पार न पाये।
उपर्युक्त प्रकरण में अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्नों के उत्तर दिए गए हैं जैसे:
अतः सिद्ध है कि श्री कृष्ण ने नहीं बल्कि कबीर परमेश्वर ने द्रौपदी को इस प्रकार अपमानित होने से बचाया था, उसकी लाज बचाई थी।
इस घटना के बाद, जब श्रीकृष्ण द्रौपदी से मिलने आए, तो द्रौपदी ने उन्हें धन्यवाद कहा और पूरी घटना सुनाई। श्रीकृष्ण जानते थे कि उन्होंने ऐसा नहीं किया था। उन्होंने दिव्य दृष्टि से देखा कि एक साधु ने द्रौपदी को आशीर्वाद दिया था और उसकी रक्षा की थी। उन्होंने द्रौपदी को सारी कहानी बताई तब द्रौपदी आश्चर्यचकित रह गई और बोली:
एक लीर के कारने, मेरे हो गए चीर अपार।
जै मैं पहले जानती, तो सर्वस देती वार।।
महत्वपूर्ण: परमात्मा कबीर दयालु हैं। वे अपने बच्चों पर कृपा बरसाते हैं, जबकि कसाई ब्रह्म काल जीवों को सताता है।
अत: पांडव काल के शिकार बने रहे।
महाभारत युद्ध के बाद, आम लोगों के बीच यह धारणा बन गई कि यह एक धर्मयुद्ध था, जिसमें कौरव और पांडव अपने कर्तव्यों की रक्षा के लिए लड़े थे। लेकिन वास्तविकता यह है कि यह एक संपत्ति विवाद था, एक ही परिवार के दो चचेरे भाइयों के बीच अहंकार, सत्ता और राज्य के लिए हुआ संघर्ष था। नकली धर्मगुरुओं और अज्ञानी लोगों ने इसे धर्मयुद्ध कहकर कहानियाँ सुनाईं और भक्त समाज को गुमराह किया।
असल में, यह पूरा युद्ध ब्रह्म काल द्वारा रचित एक पूर्वनियोजित नाटक था। यह एक नियोजित नरसंहार था, जिसमें 18 करोड़ सैनिकों की मृत्यु हुई और असंख्य परिवार उजड़ गए। इसी प्रकार ब्रह्म काल परमात्मा कबीर जी की आत्माओं से विश्वासघात करता है, जो उसके हाथों की कठपुतलियाँ बनी हुई हैं। वह ऐसा इसलिए करता है क्योंकि वह सतलोक में प्राप्त श्राप के कारण प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त है और परमात्मा को कष्ट पहुँचाने के लिए उनकी आत्माओं को पीड़ा देता है।
पूज्य संत गरीबदास जी महाराज ने अपनी अमृतवाणी में यह स्पष्ट किया है कि यह युद्ध क्यों हुआ, कौन-कौन पांडवों के पक्ष में था और कौन-कौन कौरवों के साथ था:
सूरज बंसी पांचों पांडो, काल मीच सिर देवै डांडो।78।
धर्म युधिष्ठिर धरे धियाना, अर्जुन लख संघानी बाना।79।
सहदे भीम नकुल और कौंता, द्रोपदी जंग का दीना न्यौंता।80।
हाथ खप्पर अरु मस्तक बिंदा, ठारह खूहनीं मेलै दुंदा।81।
देवी शिव शिव करे सिंघारै, खड़ग बान चकरों सैं मारैं।82।
चोंसठ जोगनि बावन बीरा, भक्षण बदन करैं तदवीरा।83।
असुर कटक धूमर उड़ जाई, सुरौं रक्षा करै गोसाईं।84।
पचरंग झण्डे लंब लहरिया, दक्खन के दल उतर उतरिया।85।
पचरंग झण्डे लंब चलाये, दक्खन के दल उत्तर धाये।86।
मौहरै हनुमंत गोरख बाला, हरि के हेत हरौल हमाला।87।
चिंहडोल चुणक दुर्वासा देवा। असुर निकंदन बूड़त खेवा।88।
पांडवों की कहानी और महाभारत युद्ध उसमें श्रीकृष्ण की भूमिका को समझे बिना अधूरा है। तो चलिए शुरू करते हैं।
श्रीकृष्ण कभी नहीं चाहते थे कि महाभारत युद्ध हो। उन्होंने युद्ध टालने का भरसक प्रयास किया। लेकिन जब उनके सभी प्रयास विफल हो गए, तब अंत में वह युद्ध भूमि में पहुँचे और अर्जुन के रथ के सारथी बने।
जब ब्रह्म काल ने देखा कि अर्जुन धर्म-संकट में पड़ गया है और अपने ही संबंधियों को सामने देखकर युद्ध से पीछे हट रहा है, तो वह प्रेत की तरह श्रीकृष्ण के शरीर में प्रवेश कर गया और उसे युद्ध के लिए प्रेरित किया (प्रमाण: श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 1-3)।
धूर्त काल किसी का प्रिय नहीं है यहाँ तक की देवताओं का भी नहीं। वह छल करता है। उसने सिर्फ़ श्रीकृष्ण के शरीर का उपयोग किया, अर्जुन को भ्रमित किया और श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान दिया। अंत में उसने अर्जुन के माध्यम से करोड़ों लोगों का वध करवाया, जो उसका भोजन बना। वास्तविक रूप से महाभारत युद्ध का जिम्मेदार ब्रह्म काल है। इसका प्रमाण महाभारत महाकाव्य में मिलता है।
संदर्भ: गीता प्रेस, गोरखपुर से प्रकाशित एक पुरानी पुस्तक के संक्षिप्त महाभारत भाग 2 पृष्ठ 667 और पृष्ठ 1531 के अंश। लेखक वेद व्यास जी, संपादक एवं अनुवादक जयदयाल गोयनका, संशोधक गीता प्रेस, गोरखपुर।
(महाभारत आश्रव 1612-13)
'न शक्यम् तन्म्य भूयस्थ वक्तुमशेषातः
परम हि ब्रह्म कथितम् योगयुक्तेन तन्म्य'
भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा - 'उसी रूप में पुनः वह सब दोहराना अब मेरे लिए संभव नहीं है। उस समय मैंने भगवान से योगयुक्त होकर परमात्मातत्त्व समझाया था।'
आइये महाभारत में वर्णित वार्तालाप का अध्ययन करें
'श्रीकृष्ण का अर्जुन से गीता के बारे में पूछना-सिद्ध महर्षि वैशम्पायन और कश्यप का संवाद'
जन्मेजय ने पूछा - 'ब्रह्म! शत्रुओं के नाश के पश्चात जब दानशील श्रीकृष्ण और अर्जुन राजसभा में विचार-विमर्श कर रहे थे, उस समय उन दोनों में क्या वार्तालाप हुआ?'
वैशम्पायन जी कहते हैं - 'राजन्! जब श्रीकृष्ण और अर्जुन ने अपना सम्पूर्ण राज्य प्राप्त कर लिया, तब वे राजमहल के दिव्य दरबार में आनन्दपूर्वक निवास करने लगे। एक दिन स्वजनों से घिरे हुए दोनों मित्र स्वेच्छा से विचरण करते हुए मंडप के उस भाग में पहुँचे, जो स्वर्ग के समान सुन्दर था।'
पाण्डुनन्दन अर्जुन श्रीकृष्ण के साथ रहकर अत्यन्त प्रसन्न थे। उन्होंने एक बार उस मनोरम सभा की ओर दृष्टि करके भगवान से ये वचन कहे - 'देवकीनन्दन! युद्ध के समय मुझे आपके तेज का भान हुआ था तथा मैंने आपके ईश्वरीय स्वरूप का दर्शन किया था; किन्तु हे केशव! आपने पहले जो ज्ञान मुझे प्रेमपूर्वक सुनाया था, वह सब मैं अब मानसिक विक्षिप्तता के कारण भूल गया हूँ। मेरे हृदय में उन विषयों को सुनने की उत्कट इच्छा हो रही है। अब आप शीघ्र ही द्वारिका को प्रस्थान करने वाले हैं। अतः आप वे सब विषय मुझे पुनः सुनाइये।
वैशम्पायन जी कहते हैं - अर्जुन के ऐसा कहने पर वक्ताओं में श्रेष्ठ, परम यशस्वी भगवान श्री कृष्ण ने उसे गले लगाया और यह उत्तर दिया।
श्रीकृष्ण बोले - अर्जुन! उस समय मैंने तुझे अत्यन्त गोपनीय विषय का श्रवण कराया था तथा अपने स्वरूप भूत धर्म सनातन पुरुषोत्तमत्व का परिचय दिया था और सनातन लोकों का भी वर्णन किया था। किन्तु तूने अपनी मूर्खता के कारण उस उपदेश को स्मरण नहीं किया, यह जानकर मुझे बड़ा दुःख होता है। अब उन सब बातों का पूर्णतः स्मरण करना सम्भव नहीं जान पड़ता। पाण्डुनन्दन! तू निश्चय ही अत्यन्त भक्तिहीन है। तेरी स्मरण शक्ति कुशल नहीं लगती। अब उस उपदेश को पूरा-पूरा कहना मेरे लिए कठिन है, क्योंकि उस समय मैंने योगयुक्त होकर ही परमात्मतत्त्व का वर्णन किया था।
विचार करें: - श्री कृष्ण जी अर्जुन को डांट रहे हैं, धमका रहे हैं कि तू भक्तिहीन है, तेरी स्मरण शक्ति ठीक नहीं लगती, तुझे गीता जी का ज्ञान क्यों याद नहीं रहा तथा स्वयं कह रहे हैं कि अब मुझे पूर्ण रूप से याद करना संभव नहीं है।
इससे सिद्ध होता है कि श्री कृष्ण जी गीता जी की ABC नहीं जानते अर्थात् महाभारत युद्ध के समय उन्होंने कौन सा ज्ञान बोला था? महाभारत के उपरोक्त अंशों से सिद्ध हो गया कि श्री कृष्ण जी ने श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान नहीं सुनाया?
जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा, श्रीकृष्ण ने अपना विराट रूप कौरवों और पांडवों की सभा में दिखाया था। यहाँ हम ये सिद्ध करेगें कि कुरुक्षेत्र युद्ध में जो विराट रूप दिखा, वह गीता ज्ञानदाता ब्रह्म काल का था।
गीता अध्याय 11 श्लोक 31 में अर्जुन काल के उस भयानक रूप को देखकर डरता है और पूछता है—
"हे प्रभु! आप कौन हैं इस भयंकर रूप में? मैं आपको जानना चाहता हूँ।"
गीता अध्याय 11 श्लोक 32 और 47 में काल अर्जुन को अपना परिचय देते हुए कहता है — "मैं बढ़ा हुआ काल हूँ, अब सबको खाने (संहार करने) के लिए प्रकट हुआ हूँ।"
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि श्रीकृष्ण तो पहले से ही अर्जुन के साथ युद्धभूमि में उपस्थित थे।
तो फिर:
निश्चित रूप से, वह शैतान ब्रह्म काल ही था जिसकी भयावह आकृति को देखकर महान योद्धा अर्जुन भी डर गया था। पवित्र गीता में ब्रह्म काल के बारे में कई प्रमाण दिए गए हैं, जैसे अध्याय 10:2, 15:16-17 आदि में। यहाँ तक कि गीता के अध्याय 18 के श्लोक 62 और 64 में वह स्वयं अर्जुन से कहता है—
“तू उस परमेश्वर की शरण में जा, जो सम्पूर्ण सृष्टि का रचयिता है और उसी की भक्ति से तुझे मोक्ष प्राप्त होगा।”
वेदों में भी इस काल के बारे में पर्याप्त प्रमाण हैं। ऋग्वेद मंडल नं. 10 - सूक्त 90 - मंत्र 5 और अथर्ववेद कांड नं. 4 - अनुवाक नं. 1 - मंत्र नं. 3 आदि में इसका उल्लेख स्पष्ट रूप से मिलता है।
यजुर्वेद अध्याय 8 मंत्र 13 में प्रमाण है कि कबीर परमेश्वर अपने भक्तों के भारी से भारी पापों को भी नष्ट कर देते हैं। श्रीकृष्ण परमेश्वर नहीं हैं, वह ऐसा करने में असमर्थ हैं। इसका प्रमाण पांडवों के जीवन में घटी एक सत्य घटना से मिलता है।
परमेश्वर कबीर काल के लोकों में चारों युगों में आते हैं। द्वापर युग में, परमेश्वर कबीर करुणामय ऋषि के रूप में प्रकट हुए थे, जिन्होंने पांडवों के अश्वमेध यज्ञ में अपने एक शिष्य सुपच सुदर्शन (जो कि वाल्मीकि जाति से थे) के रूप में शंखनाद किया। यह यज्ञ श्रीकृष्ण के निर्देश पर आयोजित किया गया था, जब महाभारत युद्ध के पश्चात युधिष्ठिर को युद्ध में किए गए पापों के प्रभाव के कारण भयानक दुःस्वप्न दिखने लगे थे। उन पापों के निवारण हेतु यह यज्ञ सम्पन्न कराया गया।
एक सिंहासन पर एक 'पंच मुखी' (5-मुखी) 'पंचानन' शंख रखा गया था, जिसे यज्ञ में आमंत्रित सभी महान विद्वानों के भोजन करने के बाद बजना था, जो यज्ञ के सफल समापन का संकेत था, जिससे यह प्रमाणित होता कि पांडवों द्वारा युद्ध में किए गए पापों का नाश हो चुका है।
लेकिन जब सभी महान आत्माएँ जैसे कि ब्रह्म के लोक के 33 कोटि देवता, 88,000 ऋषि, 12 करोड़ ब्राह्मण, 9 नाथ, 84 सिद्ध पुरुष और 56 करोड़ यादव, जिनमें स्वयं श्रीकृष्ण भी सम्मिलित थे, भोजन कर चुके थे, तब भी शंख नहीं बजा। क्योंकि उनमें से कोई भी सच्चे परमेश्वर कबीर की भक्ति नहीं करता था और सभी ब्रह्म (काल) की गलत साधना में लिप्त थे।
सूक्ष्म वेद में लिखा है—
गरीब, पंडौं यज्ञ अश्वमेघ में, बालमीक की देह।
संख पंचायन बाजिया, राख्या नहीं संदेह ।
गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सतगुरु पुरुष कबीर।
तीन लोक की मेदनी, सुर नर मुनिजन भीर ।।
जब सुपच सुदर्शन रूप में स्वयं परमेश्वर कबीर ने भोजन किया, तभी पंचमुखी शंख स्वयं बजा।
नोट: परमेश्वर कबीर / परम अक्षर ब्रह्म ही ‘बंदीछोड़’ हैं, केवल वही जीवात्माओं को ब्रह्म काल के जाल से मुक्त कर सकते हैं। देवताओं की पूजा व्यर्थ है, जैसी कि पांडव भी किया करते थे, इसलिए वे भी शैतान काल के इस जन्म मरण के दुष्चक्र में फंसे रहे।
परमेश्वर कबीर जी ने अपने प्रिय शिष्य धर्मदास जी को बताया कि अर्जुन सहित सभी पांडव महाभारत युद्ध में की गई हिंसा के पापों के दोषी थे।
परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी को बताया कि ऋषि दुर्वासा के श्राप के कारण यदुवंश का विनाश हुआ। वे आपस में लड़ते हुए यमुना नदी के किनारे पर मारे गए।
एक बालिया शिकारी ने श्रीकृष्ण के पैर में एक विषाक्त बाण मारा जिससे वे घायल हो गए। उस समय श्रीकृष्ण ने उस शिकारी से कहा:“त्रेता युग में तू बाली था, सुग्रीव का बड़ा भाई और मैं रामचंद्र था। मैंने तुझे छल से पेड़ के पीछे से मार डाला था। आज तूने उसका बदला ले लिया।” जब पाँचों पांडवों को पता चला कि यादव आपस में लड़कर मर गए हैं, तो वे द्वारका पहुँचे जहाँ श्रीकृष्ण बाण से घायल होकर पड़े थे और पीड़ा में थे। श्रीकृष्ण पाँचों पांडवों के आध्यात्मिक गुरु थे (प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 7)। अर्जुन को कुछ निर्देश देने के बाद श्रीकृष्ण ने शरीर छोड़ दिया।
नोट: जहाँ श्रीकृष्ण का अंतिम संस्कार किया गया था, उसी स्थान पर उनकी स्मृति में द्वारका में द्वारकाधीश मंदिर का निर्माण किया गया है।
पांडवों को श्रीकृष्ण द्वारा दिए गए वे निर्देश क्या थे?
पांचों पाण्डवों के घटना स्थल पर पहुंचने पर श्री कृष्ण जी ने कहा कि तुम मेरे शिष्य हो तथा मैं तुम्हारा धर्मगुरु भी हूं। अतः मेरी अन्तिम आज्ञा सुनो। एक तो यह कि अर्जुन, तुम द्वारिका की सब स्त्रियों को लेकर इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) चले जाओ, क्योंकि यहां कोई पुरुष नहीं बचा है; तथा दूसरी यह कि तुम सब पाण्डव अपना राज्य त्यागकर हिमालय में तपस्या करके वहीं अपने शरीरों को दण्डवत कर दो, क्योंकि महाभारत के युद्ध में तुमने जो हत्याएं की थीं, उनका भयंकर पाप तुम्हारे सिर पर है।
युधिष्ठिर ने पूछा — "हे प्रभु! हे गुरुदेव श्रीकृष्ण! क्या हम यह जान सकते हैं कि हमें हिमालय में गलकर नष्ट होने का कारण क्या है?"
श्रीकृष्ण ने कहा — "युधिष्ठिर! महाभारत युद्ध में प्राणियों की हत्या करके जो पाप तुमसे हुए हैं, उनका प्रायश्चित करना अनिवार्य है। इस प्रकार तपस्या करके और अपने प्राणों की आहुति देकर ही उन पापों का नाश संभव है।"
कबीर जी ने कहा, "हे धर्मदास जी! जब श्रीकृष्ण जी के मुख से उपरोक्त वचन सुने, तो अर्जुन चकित रह गया। वह सोचने लगा कि आज फिर श्रीकृष्ण जी कह रहे हैं कि युद्ध में किए गए पाप इस विधि से नष्ट हो जाएंगे। अर्जुन स्वयं को रोक न सका। वह श्रीकृष्ण जी से बोला — 'हे प्रभु! क्या मैं आपसे अपने संदेहों का समाधान प्राप्त कर सकता हूँ? गुरुदेव! यह मेरी धृष्टता है, कृपया मुझे क्षमा करें, क्योंकि आप इस समय जिस स्थिति में हैं, उसमें आपसे ऐसे प्रश्न करना उचित नहीं लगता। हे भगवान! यदि मेरे संदेह दूर नहीं हुए, तो यह संदेह रूपी काँटा मुझे जीवनभर परेशान करेगा। मैं कभी भी शांतिपूर्वक नहीं जी पाऊँगा।'"
श्रीकृष्ण ने कहा, "हे अर्जुन! जो कुछ भी तुम पूछना चाहते हो, नि:संकोच पूछो। मैं अपनी अंतिम साँसें गिन रहा हूँ। अब जो भी मैं कहूँगा, वह सत्य ही होगा।"
अर्जुन ने कहा – "हे श्रीकृष्ण! जब आप श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान दे रहे थे, तब आपने कहा था – ‘अर्जुन, तुम युद्ध करो। तुम्हें युद्ध में मारे गए लोगों का पाप नहीं लगेगा। तुम केवल निमित्त मात्र बनो। ये सभी योद्धा पहले ही मुझसे मारे जा चुके हैं।’ (प्रमाण: श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 11 श्लोक 32-33)। आपने यह भी कहा था – ‘अर्जुन, यदि तुम युद्ध में मरते हो तो स्वर्ग जाओगे, और यदि विजयी होते हो तो पृथ्वी पर राज्य-सुख भोगोगे। तुम्हारे दोनों हाथों में लड्डू हैं।’ (प्रमाण: श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 37)। इसलिए खड़े हो जाओ और युद्ध करो। जीत-हार की चिंता मत करो और युद्ध करो।" "इस प्रकार युद्ध करने पर तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा।" (श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 38)
जब बड़े भाई को डरावने सपने आने लगे और हम समाधान जानने के लिए आपके पास गए, तब आपने बताया कि युद्ध में अपने सगे-संबंधियों (राजा, सैनिक, चाचा, भतीजे आदि) की हत्या का पाप तुम्हें परेशान कर रहा है। उस समय मैं (अर्जुन) बहुत आश्चर्यचकित हुआ, क्योंकि आपने भगवद गीता के ज्ञान में तो कहा था कि युद्ध करो, तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। लेकिन आज आप कह रहे हैं कि युद्ध में किए गए पाप तुम्हें परेशान कर रहे हैं। फिर आपने पापों के नाश का उपाय बताया — "अश्वमेध यज्ञ" करो, जिसमें करोड़ों रुपये का खर्च हुआ।
उस समय मैंने (अर्जुन ने) अपने मन को मारकर चुप्पी साध ली, यह सोचकर कि यदि मैं आपसे (श्रीकृष्ण जी से) तर्क करता कि आप तो कह रहे थे कि युद्ध में किए गए पाप का कोई दोष नहीं लगेगा, और आज आप स्वयं कह रहे हैं कि महाभारत युद्ध के पाप परेशान कर रहे हैं, तो आपकी गीता का ज्ञान कहाँ चला गया? आपने तो हमारे गुरु बनकर हमें धोखा दिया। तो कहीं बड़े भाई (युधिष्ठिर जी) ऐसा न सोचें कि अर्जुन खर्च से बचने के लिए तर्क कर रहा है। अर्जुन इसलिए बहस कर रहा है क्योंकि उसके इलाज में खर्च होगा। ऐसा न समझें कि अर्जुन नहीं चाहता कि मैं (युधिष्ठिर) अपनी परेशानियों से मुक्त हो जाऊँ। या कि अर्जुन को अपने भाई की जान से ज़्यादा धन प्रिय है।"
उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए, मैंने (अर्जुन ने) सोचा कि यदि बड़े भाई युधिष्ठिर को ज़रा भी यह आभास हो जाता कि अर्जुन इस दृष्टिकोण से तर्क कर रहा है, तो भाई अपना इलाज कभी नहीं करवाते। वे जीवन भर कष्ट झेलते रहते। हे कृष्ण! हमने वह यज्ञ किया जैसा आपने हमें बताया था। आज आप फिर कह रहे हैं कि युद्ध में जो हत्याएँ आपने की थीं, उनका दोष आप पर लगा है। उसे नष्ट करने के लिए आप स्वयं को तप में लगाकर, हिमालय में जाकर, राज्य का त्याग करके अपना शरीर गलाकर नष्ट करें। आपने हमें धोखा क्यों दिया? हे श्रीकृष्ण! यदि आपकी तरह रिश्तेदार और गुरु भी धोखा देने वाले हों, तो फिर शत्रुओं की क्या आवश्यकता है? अब हमारे किसी हाथ में लड्डू नहीं है। न तो हम स्वर्ग गए, न ही राज्य का सुख भोग पाए। अब आप कह रहे हैं कि राज्य छोड़ो और हिमालय में जाकर नष्ट हो जाओ।
यह सब सुनकर अर्जुन की आँखों से आँसू बहने लगे। युधिष्ठिर बोले: “हे अर्जुन! श्रीकृष्ण की इस स्थिति में ऐसे शब्द कहना उचित नहीं है।”
श्रीकृष्ण ने पांडवों के सामने यह स्वीकार किया था कि वे गीता के ज्ञानदाता नहीं हैं।
श्रीकृष्ण जी ने कहा – "अर्जुन! सुनो! मैं तुम्हें सच्चाई बताता हूँ। मुझे नहीं पता कि गीता के ज्ञान में मैंने क्या कहा था। जो कुछ भी हुआ, वह होना ही था। उसे टालना मेरे बस में नहीं था। कोई और शक्ति है जो हमें कठपुतलियों की तरह नचा रही है। वह न तो तुम्हारे वश में है और न ही मेरे। लेकिन जो सलाह मैं तुम्हें दे रहा हूँ – कि तुम हिमालय जाकर तप करो और शरीर का अंत करो – वह तुम्हारे लिए हितकारी है। मेरी बात मानना।" यह कहकर श्रीकृष्ण जी ने शरीर छोड़ दिया।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि 56 करोड़ यादव जो आपस में लड़कर मरे, उनके अंतिम संस्कार के बाद चारों भाई अर्जुन को द्वारका में छोड़कर इन्द्रप्रस्थ चले गए। अर्जुन अकेला द्वारका की स्त्रियों और श्रीकृष्ण की गोपियों को लेकर लौट रहा था। रास्ते में जंगली लोग (भील जाति) अर्जुन को पकड़ कर मारने लगे। अर्जुन के पास उसका वही गांडीव धनुष था जिससे उसने महाभारत का युद्ध जीता था। लेकिन इस बार अर्जुन उस धनुष से एक भी बाण नहीं चला पाया।
अपनी शक्ति को समाप्त मानकर अर्जुन कायर की तरह सब देखता रहा। उन जंगली लोगों ने स्त्रियों के गहने लूट लिए और कुछ स्त्रियों को साथ भी ले गए। अर्जुन बाकी बची हुई स्त्रियों के साथ इन्द्रप्रस्थ की ओर चल पड़ा और सोचने लगा कि श्रीकृष्ण बहुत बड़े धोखेबाज़ थे। जब युद्ध के समय मुझसे युद्ध करवाना था, तब मुझे शक्ति दी, मैंने लाखों लोगों को मार डाला उसी धनुष से। आज वही धनुष मेरे हाथ में है, लेकिन शक्ति नहीं रही। मैं कायर की तरह पिटता रहा और कुछ नहीं कर पाया।
परमेश्वर कबीर जी ने कहा: "हे धर्मदास! श्रीकृष्ण धोखेबाज नहीं थे। यह सब छल-प्रपंच काल-ब्रह्म ने किया, जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव का पिता है। उसके सामने श्री विष्णु (यानी श्रीकृष्ण) और श्री शिव भी कुछ नहीं हैं।"
यहाँ समाज में एक ओर भ्रम फैला हुआ है कि हिमालय में तपस्या करने से केवल युधिष्ठिर के एक पैर की एक अँगुली ही बर्फ में गलकर नष्ट हुई और बाकी सबके शरीर वहीं समाप्त हो गए और वे सभी अपने पापों से मुक्त होकर स्वर्ग चले गए।"
परमेश्वर कबीर जी ने बताया है कि पांडवों ने हिमालय में जो तपस्या की, वह शास्त्रविरुद्ध मनमाना आचरण (भक्ति) थी, जो एक निरर्थक प्रयास था। (प्रमाण — श्रीमद्भगवद गीता अध्याय 16 श्लोक 23 तथा अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा गया है कि जो मनुष्यों द्वारा अपने मन से कल्पित करके कठोर तप करते हैं, जो शास्त्रविरुद्ध होते हैं, वे अपने शरीर में स्थित परमात्मा को भी पीड़ा देते हैं। ऐसे अज्ञानी व्यक्तियों को नष्ट हुआ समझो।) क्योंकि जो तपस्या पांडवों ने की, वह गीता जी और वेदों में वर्णित नहीं है, अपितु शरीर को कष्ट देकर इस प्रकार साधना करना व्यर्थ बताया गया है।”
यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 में बताया गया है कि "ॐ" मंत्र का उच्चारण करते हुए कर्म करो, उसे विशेष भावना और मनोयोग से करो, उसे मानव जीवन का परम कर्तव्य समझकर करो। यही प्रमाण श्रीमद्भगवद गीता अध्याय 8 के श्लोक 7 और 13 में भी दिया गया है कि मेरा मंत्र केवल “ॐ” है। इसका लाभ तभी मिलता है जब इसे अंतिम श्वास तक जपा जाए। इसलिए हे अर्जुन! तू युद्ध भी कर और साथ ही भक्ति (जप) भी करता रह।
इसलिए पाण्डवों ने जो तप किया था, वह व्यर्थ सिद्ध हुआ। गीता अध्याय 3 श्लोक 6 से 8 में कहा है कि जो मूर्ख व्यक्ति सब इन्द्रियों को रोककर अर्थात् एक स्थान पर बैठकर या खड़े होकर हठयोग के द्वारा साधना करता है, वह मन से इन्द्रियों का ही चिन्तन करता रहता है।
जैसे ठण्ड लगती है तो शरीर की चिन्ता करता है, ठण्ड का चिन्तन करता है, भूख लगती है तो भूख का चिन्तन करता है, ऐसा होता रहता है। जो हठपूर्वक तप करता है, वह कपटी अर्थात् पाखण्डी कहा गया है। कर्म न करने अर्थात् एक स्थान पर बैठकर या खड़े रहकर साधना करने की अपेक्षा कर्म तथा भक्ति करना श्रेष्ठ है। यदि कर्म नहीं करोगे तो तुम्हारा शरीर निर्वाह भी सफलतापूर्वक नहीं हो सकेगा।
विशेष चिंतन:- श्रीमद्भगवद्गीता में दो प्रकार का ज्ञान है एक वेदों का ज्ञान है और दूसरा लोककथाओं पर आधारित ज्ञान है जो काल ब्रह्म ने सुनाया है। गीता अध्याय 3 के श्लोक 6 से 8 में जो ज्ञान बताया गया है, वह वेदों का ज्ञान है जिसे ब्रह्म (काल) ने बताया। काल ब्रह्म ने ही श्रीकृष्ण के माध्यम से पांडवों को वह लोककथा आधारित ज्ञान बताया जिससे तप (तपस्या) होता है। इस तप से कोई व्यक्ति राजा बन जाता है। कुछ सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं। लेकिन न तो मोक्ष प्राप्त होता है और न ही पाप नष्ट होते हैं.
पांडवों ने विचार करके अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को राज्य सिंहासन पर बैठा दिया। फिर द्रौपदी, कुंती (जो अर्जुन, भीम और युधिष्ठिर की माता थीं) और सभी पाँच पांडव श्रीकृष्ण के आदेश से हिमालय चले गए और तपस्या करने लगे। भोजन की कमी के कारण कुछ ही दिनों में उनके शरीर नष्ट हो गए। सिर्फ युधिष्ठिर का शरीर बचा — उनके पैर का एक अंगूठा हिम में पिघल गया था। युधिष्ठिर ने देखा कि उनके परिवार के सभी सदस्य मर चुके हैं और उनकी आत्माएँ सूक्ष्म रूप में आकाश की ओर चली गईं। फिर युधिष्ठिर ने भी अपना शरीर त्याग दिया और युधिष्ठिर का सूक्ष्म शरीर (अस्थूल रूप) उसके कर्मों के प्रभाव से उसके पिता धर्मराज के लोक में चला गया। धर्मराज ने अपने पुत्र को बहुत स्नेह दिया और उसे रहने के लिए एक गृह (स्थान) बताया।
कुछ समय बाद, काल ब्रह्म ने युधिष्ठिर को प्रेरित किया। उसे अपने भाइयों, पत्नी द्रौपदी और माता कुंती की याद सताने लगी। युधिष्ठिर ने अपने पिता धर्मराज से कहा —“हे धर्मराज! मुझे मेरे परिवारजनों से मिलवा दो। उनकी याद मुझे बहुत पीड़ा दे रही है।” धर्मराज ने कहा —“युधिष्ठिर! वे तुम्हारा परिवार नहीं थे। यह तुम्हारा असली परिवार है। तुम मेरे पुत्र हो। अर्जुन देवराज इन्द्र का पुत्र है, भीम पवनदेव (वायु देवता) का पुत्र है, नकुल नासत्य का पुत्र है और सहदेव दस्तोत्र (दुस्त्र) का पुत्र है। {नासत्य और दस्तोत्र दोनों अश्विनी कुमारों के पुत्र हैं, जो सूर्य के घोड़े रूप और उसकी पत्नी संज्ञा के घोड़ी रूप से मिलन से उत्पन्न हुए थे।} धर्मराज ने अपने पुत्र युधिष्ठिर से कहा —“तुम सबका उस पृथ्वी पर इतना ही संयोग था। वह समाप्त हो गया है। उन सभी को युद्धों और पूर्वजन्मों में किए गए पापों के कारण नरक में डाल दिया गया है। तुम्हारे पुण्य अधिक हैं, इसलिए तुम्हें नरक में नहीं डाला गया। इस कारण तुम उनसे नहीं मिल सकते।”
काल ब्रह्म के प्रबल प्रभाव के कारण, युधिष्ठिर अपने सभी प्रियजनों (भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और कुंती) से मिलने के लिए ज़िद करने लगे। धर्मराज ने एक यमदूत से कहा — “युधिष्ठिर को उसके परिवार से मिला दो, लेकिन उसे शीघ्र वापस ले आना।” यमदूत युधिष्ठिर को लेकर नरक में प्रवेश करता है। वहाँ आत्माएँ चीत्कार कर रही थीं। वे कह रही थीं — “हे युधिष्ठिर! हमें नरक से निकालो। मैं अर्जुन हूँ।” कोई कह रहा था — “मैं भीम हूँ।” “मैं नकुल हूँ।” “मैं सहदेव हूँ।” “मैं कुंती हूँ।” “मैं द्रौपदी हूँ।” इतने में यमदूत ने कहा —“हे युधिष्ठिर! अब तुम वापस चलो।” युधिष्ठिर बोले — "मैं भी अपने परिवार के साथ यहीं नरक में रहूँगा।"तब धर्मराज ने पुकारा —"युधिष्ठिर! इधर आओ, मैं तुम्हें एक उपाय बताता हूँ।" युधिष्ठिर वापस आए।
धर्मराज ने कहा —"बेटा! तुमने एक झूठ बोला था ‘अश्वत्थामा मर गया’। फिर धीरे से कहा — ‘पता नहीं मनुष्य था या हाथी’। जबकि तुम्हें पता था कि हाथी मरा है। इसी कारण से तुम्हें थोड़े समय के लिए नरक में डाला गया। वरना मैं तुम्हें उपाय पहले ही बता देता। युधिष्ठिर बोले "कृपया वह उपाय बताइए जिससे मेरा परिवार नरक से बाहर आ सके।" धर्मराज ने कहा "एक शर्त पर उन्हें नरक से निकाला जा सकता है — यदि तुम अपने पुण्यों का कुछ भाग उन्हें दे दो।" युधिष्ठिर ने कहा —"मैं सहमत हूँ।" युधिष्ठिर ने अपने पुण्यों का आधा भाग अपने परिवार के छह लोगों को दे दिया। सब नरक से बाहर आकर धर्मराज के सामने खड़े हो गए जहां युधिष्ठिर खड़े थे।
उसी समय —इंद्र देव आए और अपने पुत्र अर्जुन को अपने साथ ले गए, पवन देव आए और भीम को अपने साथ ले गए, अश्विनी कुमार (नासत्य व दस्त्र) आए और नकुल-सहदेव को ले गए। कुंती स्वर्ग चली गईं और द्रौपदी ने दुर्गा का रूप धारण किया और आकाश में उड़ गईं। युधिष्ठिर अपने पिता धर्मराज के साथ अकेले रह गए।
यह सम्पूर्ण कथा परमेश्वर कबीर जी ने अपने प्रिय शिष्य धर्मदास जी को सुनाई तथा यह सम्पूर्ण काल जाल समझाया। परमेश्वर कबीर जी ने कहा था, धर्मदास! काल ब्रह्म की प्रेरणा से 21 ब्रह्माण्ड के प्राणी कर्म करते हैं। जैसा कि आपने सुना युधिष्ठिर, धर्मराज के पुत्र थे, अर्जुन इंद्र के पुत्र थे, भीम पवनदेव के पुत्र थे, नकुल नासत्य के पुत्र थे और सहदेव दस्त्र के पुत्र थे। श्राप के कारण द्रौपदी जो दुर्गा का अवतार थीं, अपने कर्म भोगने आई थीं। कुंती भी दुर्गा के राज्य की पुण्यात्मा थीं। यह सब नाटक काल की प्रेरणा से पृथ्वी पर फिल्म के रूप में बनाया गया था। जैसे एक करोड़पति का बेटा एक फिल्म में रिक्शा चालक की भूमिका निभाता है।
फिल्म बनने के बाद वह अपनी 20 लाख की कार में बैठकर आनंद लेता है। फिल्म के भोले-भाले दर्शक उसे रिक्शा चालक समझकर उस पर दया करते हैं। वे उसका बनावटी अभिनय देखने के लिए अपना कीमती समय और पैसा बर्बाद करते हैं।
इसी तरह, महाभारत फिल्म उपरोक्त पात्रों (युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, द्रौपदी और कुंती) द्वारा बनाई गई थी और उस इतिहास को पढ़कर पृथ्वी के लोग अपना समय बर्बाद करते हैं। सत्य आध्यात्मिक ज्ञान को न सुनकर वे अपने मानव शरीर को बर्बाद करते हैं। काल ब्रह्म यही चाहता है कि जो भी प्राणी उसके अधीन हैं वे सत्य आध्यात्म ज्ञान से अनभिज्ञ रहें तथा उसकी प्रेरणा से उसके द्वारा भेजे गए नकली गुरुओं से शास्त्र विरुद्ध साधना प्राप्त करके जन्म-मृत्यु के चक्र में फंसे रहें।
काल ब्रह्म की प्रेरणा से तत्वज्ञान से रहित ऋषि-मुनि भक्तों को वेदों का कम ज्ञान तथा लोककथाओं पर आधारित उपदेश अधिक सुनाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप साधक पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने की बजाय काल के जाल में ही फंसा रहता है। ये सत्यज्ञान बताने के लिए परमात्मा कलयुग में काल के लोक में आते है।
उपरोक्त वर्णन से निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं: