सुपच सुदर्शन जी ने पांडवों के यज्ञ को कैसे सफल बनाया?


supach-sudarshan-hindi-photo

कबीर परमेश्वर स्वयं अपनी जानकारी देने के लिए पृथ्वी पर आते हैं। परमात्मा ने हमें यह बताया है कि:

वेद मेरा भेद है, मैं न वेदन के माही।

और जौन वेद से मैं मिलूं, वो वेद जानते नाहीं।।

परमात्मा कहते हैं मैंने ही सारी सृष्टि रची है। वेद भी मेरी रचना हैं और उनमें मेरी जानकारी है। वेद मेरी महिमा का गुणगान करते हैं। परमात्मा अपनी प्यारी आत्माओं को सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने के लिए शाश्वत निवास सतलोक से काल के लोक में आते हैं और अपनी सुंदर रचना की  जानकारी देते हैं।

परमात्मा धरती पर चारों युगों में आते हैं। सतयुग में परमात्मा का नाम सत सुकृत होता है। त्रेता युग में परमात्मा मुनींद्र नाम से प्रकट होते हैं। द्वापरयुग में परमात्मा करुणामय के रूप में दिव्य लीला करते हैं। वह कमल के फूल पर एक शिशु के रूप में अवतरित होते है जहां से कोई नि:संतान दंपत्ति उन्हें उठाकर ले जाते है और उनका पालन-पोषण करते है। परमात्मा यह दिव्य लीला चारों युगों में करते है। फिर वह बड़े होकर एक सामान्य बालक होने का अभिनय करते है और एक सामान्य व्यक्ति की तरह गतिविधियाँ करते है। वेद भी यही प्रमाणित करते हैं। साथ ही परमात्मा एक प्रबुद्ध संत की भूमिका भी निभाते हैं।

कलयुग में परमात्मा अपने वास्तविक नाम कबीर से प्रकट हुए थे। इस लेख में हम द्वापरयुग के दौरान ऋषि करुणामय के रूप में परमात्मा कबीर जी की दिव्य लीला का अध्ययन करेंगे कि कैसे उन्होंने सुपच सुदर्शन नामक एक पवित्र आत्मा को शरण में लिया और कैसे उन्होंने शंख पंचायन बजाकर अपने दृढ़ भक्त का सम्मान बढ़ाया। साथ ही जानेंगे कैसे उन्होंने पांडवों द्वारा किए गए यज्ञ को सफल बनाया जिसमें पृथ्वी के सभी गणमान्य व्यक्ति, स्वर्ग के देवता, श्री कृष्ण सहित कई सिद्ध पुरुष बुरी तरह विफल रहे थे। इस लेख में निम्नलिखित मुख्य अंश होंगे-

  • सुपच सुदर्शन कौन थे?
  • सुपच सुदर्शन को मोक्ष कैसे प्राप्त हुआ?
  • द्वापर युग में पांडवों द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किया गया
  • पांडवों के यज्ञ में सुपच सुदर्शन द्वारा शंखध्वनि

सुपच सुदर्शन जी कौन थे?

सुपच सुदर्शन द्वापरयुग में वाल्मिकी (शूद्र) जाति में जन्मे पवित्र आत्मा थे, जो कि सर्वशक्तिमान कबीर परमात्मा के आशीर्वाद प्राप्त थे। वह एक दृढ़ भक्त थे जो परमात्मा द्वारा दी गई शास्त्रोक्त पूजा करते थे जिससे उन्हें अविनाशी सनातन परमधाम अर्थात् सतलोक की प्राप्ति हुई।

सुपच सुदर्शन को मोक्ष कैसे प्राप्त हुआ?

जब परमात्मा द्वापरयुग में आये थे तो उन्होंने करुणामय ऋषि के रूप में दिव्य लीला की थी। वह एक शिशु के रूप में एक तालाब पर पूर्ण विकसित कमल के फूल पर अवतरित हुए थे। उस समय वाल्मीकि जाति के एक निःसंतान दम्पति ने उन्हें अपने पास ले गए और उनका पालन-पोषण किया। उनका नाम भीकू था और उनकी पत्नी गोदावरी थी। उसी वाल्मीकि समुदाय में सुपच सुदर्शन नाम का एक धर्मात्मा उनके शिष्य हुए। सुदर्शन जी के माता-पिता ने कबीर परमेश्वर के ज्ञान को स्वीकार नहीं किया था जबकि सुदर्शन जी ने उन्हें कई बार समझाने की बहुत कोशिश की थी। यह कहा जाता है:

'घर का जोगी जोगड़ा, बाहर का जोगी सिद्ध'

क्योंकि परमात्मा वाल्मीकि भी उसी बस्ती में रहते थे इसलिए उन्हें परमात्मा मानना आसान नहीं था। जबकि सुदर्शन जी ने पहचान लिया था कि कबीर जी(करुणामय) ही परमात्मा हैं क्योंकि परमात्मा उन्हें सचखंड में ले गए थे, तथा अपनी स्थिति से उन्हे परिचित कराया था, सभी लोक दिखाए थे। फिर वह परम अक्षर ब्रह्म/सतपुरुष कबीर साहेब के दृढ़ भक्त बन गए थे।

सुदर्शन के माता-पिता की परमात्मा से नाम लिए बिना ही मृत्यु हो गई। जब सुदर्शन जी का अंतिम समय आया तो परमात्मा ने उनसे पूछा 'सुदर्शन, क्या तुम सतलोक जाने के लिए तैयार हो?' उन्होंने उत्तर दिया 'हां, मैं बिल्कुल तैयार हूं।' आपने ऐसा सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया है। अगर हम यहीं उलझे रहेंगे तो दुख उठाते रहेंगे।' परमात्मा ने कहा 'ठीक है बेटा! क्या तुम्हारी यहाँ की कोई इच्छा है क्योंकि अगर तुम्हारी यहाँ की इच्छा रह गई तो तुम्हें मुक्ति नहीं मिलेगी और तुम जन्म मृत्यु में रह जाओगे।’ सुदर्शन जी ने कहा 'नहीं, कोई इच्छा नहीं है लेकिन एक निवेदन है। मेरे माता-पिता पुण्यात्मा थे, विनम्र थे, परन्तु उन्होंने आपकी शरण नहीं ली। वे अभी भी काल के जाल में फंसे हुए हैं। परमात्मा आपसे प्रार्थना है, यदि आप उचित समझें तो स्वीकार करें। कृपया किसी जन्म में इन्हें अपनी शरण में लेकर इनका भी उद्धार करना।' परमात्मा ने सोचा कि यह मोह माया में फंस गया। ये भी एक कमजोरी है, इसमें अभी इच्छा का बीज बाकी है। यह बहुत बड़ा काल का जाल है।’ यहाँ परमात्मा कहते हैं:

इच्छा दासी जम की, या खड़ी रहे दरबार।

और पाप पुण्य दो बीर है, या सतखसमी नार।।

नोट: सबसे पहले वाले सतयुग में, ब्रह्म काल के 21 ब्रह्मांडों की शुरुआत में परमात्मा कबीर अपने पुत्र सहजदास/जोगजीत के रूप में आए थे, जहां दोनों ने लंबी चर्चा की थी और काल ने सहजदास से तीन युगों में कुछ ही आत्माओं को मुक्त करने का अनुरोध किया था। उसने कहा था कि सतयुग, त्रेतायुग और द्वापरयुग में कम जीवों को पार करना और कलयुग में जितनी चाहो उतनी आत्माओं को मुक्ति दिला देना। काल ने कहा था कि

चौथा युग जब कलयुग आवे, तब तब शरण जीव बहु आवे।।

ऐसा वचन हर मोहे दीजे, तब तुम गवन संसार ही कीजे।।

परमात्मा ने स्वीकृति दे दी क्योंकि वह अच्छी तरह जानते थे कि पहले तीन युगों में जीव सुखी रहेंगे। सभी अच्छी आत्माएं होंगी, उनमें बहुत सारे पुण्य होंगे, उनका शरीर स्वस्थ होगा और उन्हें जो भी लाभ मिलेगा वह पिछले मानव जन्मों में अर्जित संस्कारों, पुण्यों के कारण होगा और वे सोचेंगे कि उनकी वर्तमान पूजा उन्हें सभी समृद्धि प्रदान कर रही है। इसलिए परमात्मा ने काल के जाल में फंसी अपनी लाखों प्यारी आत्माओं को मुक्त कराने के लिए चौथे युग यानी कलयुग को चुना। वे भलीभांति जानते थे कि कलयुग में आत्माएं पुण्यों से शून्य हो जाएंगी। वे जो भी पूजा करेंगी, वह शैतान ब्रह्म काल द्वारा निर्मित डुप्लिकेट होगी जिससे उन्हें कोई लाभ नहीं होगा। फिर जब मैं आऊंगा या अपने सेवक, अपने प्रतिनिधि, तत्वदर्शी संत को काल के लोक में भेजूंगा और सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करूंगा तो उन्हें सभी सुख मिलेंगे। सतपुरुष/परम अक्षर ब्रह्म की शक्ति से उनकी समस्याओं का समाधान हो जायेगा। तब वे मान लेंगे कि कबीर परमात्मा, सर्वशक्तिमान सुख के सागर है। वे मनमानी पूजा छोड़ देंगे।

इसी दृष्टिकोण से परमात्मा ने सोचा था, कितनी कठिनाई से एक आत्मा तैयार हुई है और समर्पण भी कर दिया है परन्तु उसके मन में इच्छा बाकी है। सुदर्शन को विश्वास था कि परमात्मा  की कृपा हो जाने पर मेरे माता-पिता अवश्य मुक्त हो जायेंगे। तब कबीर परमेश्वर ने कहा ठीक है बेटा! मैं तुम्हारे माता-पिता को अवश्य मुक्त कराऊंगा, भले ही उन्होंने बड़ी भूल की हो। मैं तुमसे वादा करता हूँ।’ तब सुदर्शन जी ने राहत की सांस ली और परमात्मा की कृपा के लिए उन्हें धन्यवाद दिया। अंततः परमात्मा ने उसे सतलोक भेज दिया।

पवित्र सूक्ष्म वेद में वर्णित प्रमाण बताते हैं कि बाद में कलयुग में परमात्मा ने सुदर्शन जी के माता-पिता को शरण में लिया। उस समय इनका नाम गौरी शंकर और सरस्वती था। वे एक निःसंतान ब्राह्मण दम्पति थे, उन्हें बलपूर्वक मुसलमान बनाया गया। गौरी शंकर का नाम नीरू और सरस्वती का नाम नीमा रखा गया। यह सच्ची घटना आज से लगभग 625 वर्ष पहले की है जब कबीर परमेश्वर ने 1398-1518 तक 120 वर्षों तक भारत के काशी में एक जुलाहे के रूप में दिव्य लीला की थी। परमात्मा ने अपना वचन निभाया और सुपच सुदर्शन के माता-पिता का कल्याण किया।

आइए आगे बढ़ते हैं और जानते हैं कि कैसे एक बार परमात्मा  कबीर ने अपना रूप धारण करके अपनी प्यारी आत्मा और दृढ़ भक्त सुपच सुदर्शन का सम्मान बढ़ाया और असंभव को संभव बना दिया क्योंकि परमात्मा सब कुछ कर सकते हैं।

सूक्ष्मवेद में एक सच्चा वृत्तांत वर्णित है, जहां द्वापरयुग के दौरान करुणामय रूप में परमात्मा ने पांडवों के अश्वमेघ यज्ञ को सफल बनाया था, जिसमें ऋषियों, महर्षियों, संतों, देवताओं, पृथ्वी पर प्रसिद्ध गणमान्य व्यक्तियों, मंडलेश्वरों आदि सहित भगवान कृष्ण भी बुरी तरह विफल रहे थे। उन्होंने सुदर्शन जी के रूप में इस प्रसंग का मंचन किया।

आइये पूरी घटना को विस्तार से पढ़ते हैं।

द्वापरयुग में पांडवों द्वारा किया गया अश्वमेघ यज्ञ

सन्दर्भ निम्नलिखित पुस्तकों से लिए गए हैं:-

  • हिंदू साहिबान नहीं समझे गीता, वेद, पुराण पृष्ठ 304-307, 309-316 पर
  • परिभाषा प्रभु की पृष्ठ 308-314 पर
  • कबीर बड़ा या कृष्ण पृष्ठ 349-351, 353-357 पर
  • कबीर परमेश्वर पृष्ठ 320-322, 325-332 पर
  • कबीर सागर का सरलार्थ पृष्ठ 503-505, 507-511 पर
  • मुक्तिबोध, अध्याय 'पारख का अंग' पृष्ठ संख्या 173-185 पर

ऊपर लिखित सभी पवित्र पुस्तकों के रचयिता जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ही हैं, उपरोक्त पृष्ठ संख्याओं में पांडवों द्वारा किये गये यज्ञ का वर्णन है।

द्वापरयुग में परमात्मा कबीर एक शिशु के रूप में पृथ्वी पर आए थे और एक तालाब में कमल के फूल पर विराजित थे। भीकू नामक वाल्मीकि (शूद्र) जाति का एक निःसंतान व्यक्ति उन्हें अपने घर ले गया और अपनी पत्नी गोदावरी को दे दिया। निःसन्तान वाल्मीकी दम्पति सन्तान पाकर प्रसन्न हो गये क्योंकि अब उन्हे सन्तान की कमी महसूस नहीं हो रही थी। जब कबीर परमेश्वर बालक रूप में 5-7 वर्ष के हुए तो आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार करने लगे परन्तु किसी ने भी उनके ज्ञान को स्वीकार नहीं किया। उसी वाल्मीकि समाज में सुदर्शन नाम का एक व्यक्ति उनका शिष्य बना।

उस समय परमात्मा कबीर का नाम 'करुणामय' था। परमात्मा ने सुदर्शन जी को सतलोक दिखाया। तब उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया कि कबीर परमेश्वर ही 'करुणामय' हैं और उन्हीं की पूजा की जानी चाहिए। भक्त सुदर्शन उस क्षेत्र में काफी लोकप्रिय थे क्योंकि वे बिना किसी कपट के परमेश्वर की साधना करते थे। वह दिन-रात भक्ति में लीन रहते थे। महाभारत युद्ध के उपरांत पांडवों ने श्री कृष्ण के मार्गदर्शन में एक धार्मिक यज्ञ (अश्वमेध यज्ञ) किया था जिसे कबीर परमेश्वर ने सुदर्शन रूप धारण करके पूरा किया था। सम्पूर्ण वर्णन पूज्य संत गरीबदास जी महाराज की अमृत वाणी में लिपिबद्ध है

वाणी क्रमांक 42-47, 63-66, 1197-1202

गरीब, फिर पंडौँ की यज्ञ में संख पचायन टेर। द्वादश कोटि पंडित जिहां, पड़ी सभन की मेर।42 ।।

गरीब, करी कृष्ण भगवान कूं चरणामृत स्यौं प्रीत। संख पचायन जब बज्या, लिया द्रोपदी सीत।।43 ।।

गरीब, द्वादश कोटि पंडित जिहां, और ब्रह्मा बिष्णु महेश। चरण लिये जगदीश कूं जिस कूं रटता शेष ।।44।।

गरीब, बाल्मीक के बाल समि, नाहीं तीनों लोक। सुर नर मुनि जन कृष्ण सुधि पंडौं पाई पोष । ।45 ।।

गरीब, सौ करोरि बानी कही, पहिले चोलै चाव। दूजै चौलै कृष्ण कूं, लिये साध के पाव।।46 ||

 गरीब, कथा रमायण रस भरी, आगम अगम अगाध । बाल्मीक के चरण कूं, सबही चरच साघ ।।47।।

गरीब, बाल्मीक बैकुंठ परि, स्वर्ग लगाई लात। संख पचायन घुरत हैं, गन गंधर्व ऋषि मात। ।63 ।।

गरीब, स्वर्ग लोक के देवता, किन्हें न पूरा नाद। सुपच सिंहासन बैठतै, बाज्या अगम अगाध । ।64 ।।

गरीब, पंडित द्वादश कोटि थे, सहिदे से सुर बीन। सहंस अठासी देव में, कोई न पद में लीन। ।65 ।।

गरीब, बाज्या संख स्वर्ग सुन्या, चौदह भवन उचार। तेतीसौं तत्त ना लह्या, किन्हें न पाया पार।।66 ।।

गरीब, इंद्र भये हैं धर्म सैं, यज्ञ हैं आदि जुगादि। शंख पचायन जदि बजे, पंचगिरासी साध।।1197 ||

गरीब, सुपच शंक सब करत है नीच जाति बिश चूक। पौहमी बिगसी स्वर्ग सब, खिले जा पर्बत रूंख।।1198 ||

गरीब, कंनि कंनि बाजा सब सुन्या, पंच टेर क्यौं दीन। द्रौपदी कै दुर्भाव हैं, तास भये मुसकीन ।।1199 ।।

गरीब, करि द्रौपदी दिलमंजना, सुपच चरण पी धोय। बाजे शंख सर्व कला, रहे अवाजं गोय।।1200 ||

गरीब, द्रौपदी चरणामृत लिये, सुपच शंक नहीं कीन। बाज्या शंख असंख धुनि, गण गंधर्व ल्यौलीन । ।1201।।

गरीब, सुनी शंखकी टेर जिन, हृदय भाव बिश्वास। जोनी संकट ना परै, होसी गर्भ न त्रास ।।1202।।

साच के अंग की वाणी नं 27 :-

गरीब भक्त सिरोमणी बाल्मीकी पूरी पंचायन नाद, पांडव यज्ञ अश्वमेघ में एकै पाया साध।

अचला के अंग की वाणी नं। 97-116

गरीब, पांचौं पंडौँ संग हैं, छठे कृष्ण मुरारि। चलिये हमरी यज्ञ में, समर्थ सिरजनहार। ।97 ||

गरीब, पंडौँ यज्ञ अश्वमेघ में, सतगुरु किया पियान। पांचों पंडौं संग चलें, और छठा भगवान। ।98 ||

गरीब, पंडौं यज्ञ अश्वमेघ में, बालमीक की देह। संख पंचायन बाजिया, राख्या नहीं संदेह । ।99 ।।

गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सतगुरु पुरुष कबीर। तीन लोक की मेदनी, सुर नर मुनिजन भीर ।।100 ।।

गरीब, सुपच रूप धरि आईया, सब देवन का देव। कृष्णचन्द्र पग धोईया, करी तास की सेव ।।101 ।।

गरीब, सहंस अठासी ऋषि जहां, देवा तेतीस कोटि। शंख न बाज्या तास तँ, रहे चरण में लोटि | |102 ।।

गरीब, पंडित द्वादश कोटि हैं, और चौरासी सिद्ध। शंख न बाज्या तास तैं, पिये मान का मध । ।103 ।।

गरीब, सुपच रूप को देखि करि, द्रौपदी मानी शंक। जानि गये जगदीश गुरु, बाजत नाहीं शंख । ।104 ।।

गरीब, छप्पन भोग संजोग करि, कीनें पांच गिरास। द्रौपदी के दिल दुई हैं, नाहीं दृढ़ बिश्वास।।105 ||

गरीब, पांचों पंडौं यज्ञ करी, कल्पवृक्ष की छांहिं। द्रौपदी दिल बंक हैं, कण कण बाज्या नांहि | |106 ||

गरीब, सुर नर मुनि जन यज्ञ में, त्रिलोकी के भूप। सुपच यज्ञ में आईया, नित बेचत है सूप ।।107 ।।

गरीब, छप्पन भोग न भोगिया, कीन्हें पंच गिरास। खड़ी द्रौपदी उनमुनी, हरदम घालत श्वास।।108 ।।

गरीब, बोलै कृष्ण महाबली, क्यूं बाज्या नहीं शंख। जानराय जगदीश गुरु, काढत है मन बंक ।।109।।

गरीब, द्रौपदी दिल कूं साफ करि, चरण कमल ल्यौ लाय। बालमीक के बाल सम, त्रिलोकी नहीं पाय।।110 ||

गरीब, चरण कमल कूं धोय करि, ले द्रौपदी प्रसाद। अंतर सीना साफ होय, जरै सकल अपराध | |111 ||

गरीब, बाज्या शंख सुभान गति, कण कण भई अवाज। स्वर्ग लोक बानी सुनी, त्रिलोकी में गाज।।112 ।।

गरीब, शरण कबीर जो गहे, टुटै जम की बंध। बंदी छोड़ अनादि है, सतगुरु कृपा सिन्धु ।।113 ।।

गरीब, पंडौं यज्ञ अश्वमेघ में, आये नजर निहाल। जम राजा की बंधि में, खल हल पर्या कमाल | |114 ||

गरीब, ब्रह्म परायण परम पद, सुपच रूप धरि आय। बालमीक का नाम धरि, बंधि छुटाई जाय ।।115 ||

गरीब, ये ब्रिदबानें साजहीं, जुगन जुगन कबीर जगदीश। तेतीस कोटि छुटाईया, जदि तोरे भुज बीस।।116 ।।

माया के ग्रन्थ की वाणी नं। 37-42

उलटा बिन्दु चलाऊं पारा, हम को मिले पूर्ण करतारा। यज्ञ रची जदि पंडौँ राजा, नौ नाथौं नहीं नादू बाज्या।।37 ।।

चौरासी सिद्ध रिद्धि सब मोहे, पूरण ब्रह्म ध्यान नहीं जोहे। कोटि तेतीस यज्ञ कै मांही, सुरनर मुनिजन गिनती नांहीं।।38 ।।

छप्पन कोटि जहां थे जादौं। जिनसैं नांही बाजे नादौं।

कोटिक बकता बेद उचारी, ना भई यज्ञ संपूरण सारी।।39 ||

षट् दर्शन की गिनती नांही, अनाथ जीव जीमें बहु मांही। सुरनर मुनिजन तपा सन्यासी, दण्डी बिरक्त बहुत उदासी। ।40 ।। कामधेनु कल्प वृक्ष ही ल्याये, तीन लोक के सुरनर आये। पांचौं पांडव कृष्ण शरीरा, जिनसें यज्ञ भई नहीं थीरा।।41 ।।

एक बालमीक नीचे कुल साधू, जिन शंख पंचायन पूरे नादू।

ये और गिनौ माया के पूता, ब्रह्म जोगनी सबही धूता ।।42 ।।

राग अरील शब्द नं। 35 वाणी नं। 5-15

सहंस अठासी देव कोटि तेतीस रे। ब्रह्मा बिष्णु महेश सुधां जगदीश रे ।।5।।

इन्द्र बरुण कुबेर जहां धर्मराय है। अनंत कोटि सुर संत सु जगि उपाय है। ।6 ।।

पण्डित द्वादश कोटि बिप्र सहदेव से। खेबट बिना जिहाज कहौ कौंन खेबसे ।।7।।

जहां पुंडरीक पारासुर नारद ब्यास रे। गोरख दत्त दिगंबर और दुर्बास रे ।।8।। जहां मारकंडे पिपलादिक रूंमी ऋषि रे। कपिल मुनि जगि मांहि न बाज्या शंख रे।।9।।

नौ जोगेश्वर निर्भय कागभुसंड रे। जहां बावन गादी जनक भक्ति प्रचंड रे । । 10 ||

जहां शुकदेव ध्रु प्रहलाद भक्ति के खंभ रे। जगि रची कृष्ण देव किया आरंभ रे।।11।।

बज्या सुपच का शंख स्वर्ग में धुंनि सुनी। गण गंधर्व गलतान सकल ज्ञानी गुनी।।12||

बालमीक के शंख कूं किये सुरमांत रे। द्रोपद सुता कै दिल में आई भ्रांति रे ।।13।।

कणि कणि बाज्या संख स्वर्ग भई सैल रे। पंडौँ ताप बिधंस भये सब बद फैल रे।।14।।

ऐसा अचरज कीन्ह दीन कै शिर धरी। हरिहां महबूब कहता दास गरीब धनी नर कबीर हरी।।15।।35।।

राग बिलावल शब्द नं। 22 वाणी नं। 2-8 :-

बिंजन छतीसौं परोसिया, वहां द्रोपदि रानी।

बिन आदर सतकार रे, कहीं संख न बानी।।2।।

पंच गिरासी बाल्मीक, पंचै बर बोले।

आगे संख पंचायना, कपाट न खोल्हे ।।3।।

बोलत कृष्ण महाबली, त्रिभुवन के साजा।

बाल्मीक प्रसाद सें, कण कण क्यों न बाजा । |4 ||

प्रेम पंचायन भूख है, अन जग का खाजा।

ऊंच नीच द्रोपदि कहा, कण कण याँ न बाजा । ।5 ।।

द्रोपदि सेती कृष्ण देव, जद ऐसै भाख्या।

बाल्मीक के चरण की, तेरै नहीं अभिलाषा । ।6 ।।

बाल्मीक के चरण की, लई द्रोपदि धारा।

संख पंचायन बाजिया, कण कण झणकारा ।।7।।

सुनत पंचायन संख रे, यज्ञ सम्पूर्ण सारी।

पंड राजा प्रसन्न हुए यह लीला न्यारी।।8।।

राग आसावरी शब्द नं। 13 वाणी नं। 10 :-

उस पुर सेती महरम नांहीं, अनहद नाद घुरांनैं। दास गरीब दुनी गई दोजिख, देवें गारि गुरांनैं ||10 ||

राग बिनोद शब्द नं। 9 वाणी नं। 4-7 :-

कोटि बैषनों गये रे, पण्डित द्वादश कोड़ि। बालमीक के चरण की रे, रही जगि में लोड़ि ।।4।।

कृष्णचंद परमात्मा रे, चरनाबरत लिया ताहि। पांच पण्ड और द्रौपदी रे, लगे सुपच कै पाय । ।5।।

ऐसे महंगे संत हैं रे, साहिब सौंहगा जांनि। पंडौँ जगि असमेद में रे, चरण लिये भगवांन ।।6।।

पांच गिरस उपास था रे, कण कण बाज्या संख। गरीबदास तिहूं लोक में, सुन्या राव और रंक ||7 ||9 ||

उपरोक्त वाणी का अर्थ एवं सार आगे बताया गया है।

पांडवों के यज्ञ में सुपच सुदर्शन द्वारा शंखनाद

सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक ईश्वर की कृपा के बिना मनुष्य का कोई भी कार्य सफल नहीं हो सकता। अधिकृत व्यक्ति ही धार्मिक अनुष्ठान को सफल बना सकता है। आगे बढ़ते हुए, नीचे दिए गए उल्लेखों पर प्रकाश डालते हुए, आइए जानते हैं कि कबीर परमेश्वर ने सुदर्शन रूप में कैसे असंभव को संभव बनाया।

  • सुपच सुदर्शन ने भीम का अभिमान चूर-चूर कर दिया
  • सुपच सुदर्शन ने द्रौपदी की बुद्धि ठीक कर दी

जैसा कि सभी जानते हैं कि योद्धा अर्जुन ने महाभारत युद्ध में लड़ने से इनकार कर दिया था और हथियार त्याग दिए थे। युद्धभूमि में दोनों सेनाओं के बीच में वह रथ के पिछले हिस्से में बैठ गये और रोने लगे। उस समय काल भगवान प्रेत बनकर श्री कृष्ण के शरीर में प्रवेश कर गये और उन्हें युद्ध के लिए प्रेरित करने लगे। तब अर्जुन ने कहा कि भगवन्! मैं यह घोर पाप नहीं करूंगा। इससे तो अच्छा है कि मैं भिक्षा मांगकर जीवित रहूं। तब काल ब्रह्म ने कहा कि 'अर्जुन तुम युद्ध करो, तुम्हें कोई पाप नहीं लगेगा। (अध्याय 2 श्लोक 37,38)।

अंततः अर्जुन युद्ध के लिए तैयार हो गये और भयंकर युद्ध हुआ। सभी कौरवों सहित लाखों लोग मारे गए। युद्ध में पांडवों की विजय हुई। श्री कृष्ण जी ने युधिष्ठिर को राजा के रूप में सिंहासन पर बैठाने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वह पापों से युक्त राज्य पर शासन नहीं करेंगे। इस युद्ध में लाखों लोग मारे गए, उनकी पत्नियाँ विधवा हो गईं और बच्चों ने अपने पिता को खो दिया।' तब श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर को भीष्म जी से सलाह लेने को कहा। युधिष्ठिर सहमत हो गये।

श्री कृष्ण और युधिष्ठिर दोनों श्री भीष्म के पास गये जहाँ वह बाणों की शय्या पर लेटे हुए अपनी अंतिम साँसें गिन रहे थे। भीष्म जी ने अपनी पूरी कोशिश की और युधिष्ठिर को सिंहासन स्वीकार करने और शासन करने की सलाह दी लेकिन सब व्यर्थ रहा। युधिष्ठिर ने यह कहकर मना कर दिया कि 'वह इस रक्तरंजित राज्य पर शासन करते हुए नरक में नहीं जाना चाहता।' तब श्री कृष्ण जी ने युधिष्ठिर को एक धार्मिक यज्ञ (धर्मयज्ञ) करने के लिए कहा, जिसे करने से उन्हें युद्ध में हत्याओं का पाप नहीं लगेगा। युधिष्ठिर सहमत हो गये, वैसा ही किया गया। फिर उन्होंने राजगद्दी स्वीकार कर ली और हस्तिनापुर के राजा बन गये। (प्रमाण सुखसागर, प्रथम स्कंद, अध्याय 8,9 पृष्ठ 48-53 से)

कुछ समय बाद युधिष्ठिर को भयानक सपने आने लगे। जैसे कई औरतें अपनी चूड़ियाँ तोड़ते हुए बुरी तरह रो रही हैं। उनके बच्चे रो-रोकर अपने पिता के बारे में पूछ रहे हैं मानो कह रहे हों 'हे राजा! हमें भी मार डालो और हमारे पिता के पास भेज दो। अधिकांश समय उसे बिना गर्दन का कटा हुआ शरीर दिखाई देता था, कभी-कभी धड़ अलग पड़ा हुआ दिखाई देता था। चारों ओर हाहाकार मचा नज़र आता, भय के कारण युधिष्ठिर को कई रातों तक नींद नहीं आयी। सारी रात यही चलता रहता और युधिष्ठिर बेचैन हो जाता, धीरे धीरे उसकी तबीयत और बिगड़ने लगी।

उनकी पत्नी द्रौपदी ने युधिष्ठिर की दयनीय स्थिति देखी और इसका कारण पूछा लेकिन युधिष्ठिर ने सवाल टाल दिया। फिर एक दिन द्रौपदी ने अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव को युधिष्ठिर की दयनीय स्थिति के बारे में बताया। चारों भाई अपने बड़े भाई युधिष्ठिर के पास गये और उससे अपनी चिंता का कारण बताने का अनुरोध किया। फिर उसने अपने डरावने सपनों के बारे में बताया। सभी श्री कृष्ण जी के पास सहायता मांगने गये। श्री कृष्ण जी ने उन्हें महाभारत युद्ध में किए गए पापों के प्रभाव को बेअसर करने के लिए 'अश्वमेघ यज्ञ' करने की सलाह दी। (गीता अध्याय 3:13) श्री कृष्ण जी की बात मानते हुए एक दिन तय किया गया और एक विशाल यज्ञ की तैयारी शुरू हुई जिसमें पृथ्वी के सभी लोगों, ऋषि-मुनियों, सिद्ध पुरुषों, स्वर्ग के देवी-देवताओं को आमंत्रित किया गया।

उन्हें पता था कि अधिक से अधिक लोगों को भोजन कराने से उनके पुण्यों में वृद्धि होती और इसका विशेष लाभ तब मिलेगा जब ये भोजन साधु-संतों को कराया जाए। उसमे भी वास्तविक लाभ परम संत को तृप्त करने से होगा। यज्ञ के समापन का पता लगाने के लिए ऊंचाई पर सजाए गए आसन पर एक 'पंचमुखी' शंख रखा गया। जब सभी आध्यात्मिक शक्तियों से युक्त परम संत भोजन करेंगे तो शंख से लगातार तेज ध्वनि निकलनी थी जो स्वर्ग सहित सभी लोकों, पूरी पृथ्वी पर सुनाई देगी।

निर्दिष्ट दिन आ गया और यज्ञ शुरू हो गया जिसके बाद एक विशाल सामुदायिक भोजन दिया गया और 88 हजार ऋषियों, 33 कोटि देवताओं, 9 नाथ, 84 सिद्ध पुरुषों, ब्रह्मा, विष्णु और शिव सहित सभी आमंत्रित लोगों ने भोजन किया। भंडारे में श्रीकृष्ण जी ने भी भोजन किया लेकिन शंख नहीं बजा, जो इस बात का प्रतीक था कि यज्ञ पूरा नहीं हुआ। तब युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा 'हे मधुसूदन! आम लोगों सहित सभी गणमान्य व्यक्तियों, सभी अतिथियों ने भोजन कर लिया लेकिन शंख नहीं बजा। हमें कारण बताओ?' श्री कृष्ण जी ने कहा 'इनमें से कोई भी सच्चा संत (सतनाम और सारनाम प्राप्त) नहीं है।'

तब युधिष्ठिर को आश्चर्य हुआ कि ऋषि वशिष्ठ, मार्कंडेय, ऋषि लोमश, 9 नाथ (गोरखनाथ जैसे), 84 सिद्ध पुरुष जैसे मंडलेश्वरों ने (श्रीकृष्ण ने) भी भोजन किया लेकिन शंख की ध्वनि नहीं हुई (शंख नहीं बजा)। श्री कृष्ण जी ने कहा, 'ये सभी प्रसिद्धि के भूखे हैं। कोई भी परमात्मा  (परम अक्षर ब्रह्म) को पाने का इच्छुक नहीं है। सभी धर्मग्रंथों की आज्ञा के विरुद्ध मनमाने ढंग से पूजा करते हैं और अपनी सिद्धियों का दिखावा करके जनता को प्रभावित करते हैं और मूर्ख बनाते हैं। भोले-भाले लोग उनका महिमामंडन करते हैं और उनके इर्द-गिर्द मंडराते रहते हैं। वे स्वयं पशु योनियों में जायेंगे और अपने अनुयायियों को नरक में डलवाएँगे।’

ऐसा सूक्ष्मवेद में कहा गया है

गरीब, साहिब के दरबार में, गाहक कोटि अनन्त। चार चीज चाहै हैं, रिद्धि सिद्धि मान महंत ।।

गरीब, ब्रह्म रन्द्र के घाट को, खोलत है कोई एक। द्वारे से फिर जाते हैं, ऐसे बहुत अनेक ।।

गरीब, बीजक की बातां कहें, बीजक नाहीं हाथ। पृथ्वी डोबन उतरे, कह-कह मीठी बात ।।

गरीब, बीजक की बातां कहैं, बीजक नाहीं पास। ओरों को प्रमोदही, अपन चले निरास ।।

(प्रमाण गीता अध्याय 9:20 व 21, अध्याय 16:17-20, 23)

तब श्रीकृष्ण ने अपनी शक्ति से युधिष्ठिर को उन महामंडलेश्वरों के आगामी जन्म दिखाए जिनमें किसी ने कीड़े का रूप धारण कर लिया था, किसी ने भेड़-बकरी, बैल-शेर आदि का। यह देखकर युधिष्ठिर ने कहा, 'हे परमात्मा ! तब तो इस समय यह पृथ्वी संतों से रहित है। श्री कृष्ण जी ने कहा 'यदि पृथ्वी सच्चे संत से रहित हो जाएगी तो यहां आग लग जाएगी।'

सभी प्राणी आपस में लड़ेंगे और मर जायेंगे। पूर्ण संत की शक्ति से ही यहां संतुलन बना रहता है। तब श्रीकृष्ण जी ने कहा कि दिल्ली के उत्तर में अर्थात काशी (वाराणसी) में एक महान संत हैं। हमें उसे आमंत्रित करने की जरूरत है। युधिष्ठिर ने कहा 'भीमसेन को उस दिशा के सभी संतों और लोगों को आमंत्रित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। आइए हम उनसे पूछें कि क्या उन्होंने उन्हें आमंत्रित किया था या नहीं।'

पूछने पर भीमसेन ने कहा, 'मैं उनसे मिला था। उनका नाम सुपच सुदर्शन है। वह बाल्मीक जाति के एक गृहस्थ संत हैं जो एक झोपड़ी में रहते हैं। उन्होंने यज्ञ में आने से इनकार कर दिया।'

श्रीकृष्ण जी ने भीम से पूछा कि पूरा विवरण बताओ कि क्या हुआ था? भीम ने कहा, संत सुदर्शन ने यह कहकर आने से इनकार कर दिया कि 'तुम्हारे पाप का भोजन खाने से मुझे दोष लगेगा। लाखों सैनिकों को मारकर तुम्हें पाप लगा है। आज आप राज्य का आनंद ले रहे हैं। उन मृत सैनिकों की विधवा पत्नियाँ और बच्चे दिन-रात बुरी तरह रोते रहते हैं। वे जिस दयनीय जीवन को जी रहे हैं उसके लिए आपको कोसते हैं। चाहे आप ऐसे करोड़ों धार्मिक यज्ञ/धर्म यज्ञ कर लें, फिर भी आप शांतिपूर्ण जीवन नहीं जी पाएंगे। ऐसा पाप का भोजन कौन खाएगा? यदि आप मुझे आमंत्रित करना चाहते हैं तो पहले मुझे ऐसी-ऐसी 100 धार्मिक यज्ञों/अश्वमेघ यज्ञों का फल देने का वचन दें, फिर मैं आपका भोजन खाऊंगा।'

सुदर्शन जी की ये बातें सुनकर भीम ने कहा कि मैंने उनसे कहा था कि तुम अजीब आदमी हो। तुम 100 यज्ञों का फल माँग रहे हो। यह हमारा दूसरा यज्ञ है। हम तुम्हें 100 का फल कैसे दे सकते हैं? बेहतर होगा कि तुम न आओ। तुम्हें क्या लगता है कि क्या तुम्हारे बिना धर्म-यज्ञ पूरा नहीं होगा? जब स्वयं श्रीकृष्ण जी हमारे साथ हैं तो क्या तुम्हारे आगमन के बिना यज्ञ पूर्ण नहीं होगा?'

सारा वर्णन सुनकर श्रीकृष्ण जी ने भीमसेन से कहा कि संतों के साथ ऐसा आपत्तिजनक व्यवहार नहीं करना चाहिए। सात समुद्रों का अंत पाया जा सकता है लेकिन संत, सतगुरु अतुलनीय हैं। उन महर्षि सुदर्शन वाल्मीकी के एक बाल के बराबर भी तीन लोक नहीं हैं। कृष्ण जी ने कहा कि परमपिता परमेश्वर के उस प्रिय हंस (पुण्यात्मा) को लाने के लिए मेरे साथ चलो।

तब पांचों पांडव और श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर सुपच सुदर्शन की कुटिया की ओर चल दिए। उनकी झोपड़ी तक पहुंचने से ठीक पहले वे 12 किमी (एक योजन) तक नंगे पैर चले और सारथी उनके पीछे खाली रथ ले कर गया।

उस समय कबीर परमेश्वर स्वयं सुपच सुदर्शन का रूप धारण करके कुटिया में बैठ गए और गुप्त रूप से सुपच सुदर्शन को बाहर कहीं किसी संत/भक्त से मिलने जाने के लिए प्रेरित किया जिसमें कई दिनों तक यात्रा करनी थी।

सतगुरु रूप में सुपच के तेज और शक्ति को देखकर पांडव बहुत प्रभावित हुए। श्रीकृष्ण ने सुपच सुदर्शन को साष्टांग प्रणाम किया और पांचों पांडवों ने भी ऐसा ही किया। सुपच सुदर्शन रूप में कबीर परमेश्वर ने श्री कृष्ण से पूछा कि हे त्रिभुवननाथ! आप गरीब के दरवाजे पर कैसे पहुंचे? यह मेरा सौभाग्य है कि आज स्वयं दीनानाथ विशम्भरनाथ मुझे दर्शन देने आये हैं।' सतगुरु रूप में सुपच द्वारा सभी को सम्मान के साथ बैठाया गया। तब श्रीकृष्ण ने कहा, 'हे सर्वज्ञ! आप सारी स्थिति से परिचित हैं। पाण्डवों ने यज्ञ किया है जो आपके बिना पूर्ण नहीं हो सकता है। कृपया उन पर कृपा करें।’ सुदर्शन जी ने भीम की ओर इशारा करते हुए कहा, 'यह बहादुर योद्धा मेरे पास आया और मैंने उसे अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी थी।' श्री कृष्ण ने कहा, 'हे परमेश्वर! आपने एक वाणी में कहा है:

संत मिलन को चालिए, तज माया अभिमान।

जो-जो पग आगे धरे, सो-सो यज्ञ समान।।

पांचों पांडव आज राजा हैं। मैं द्वारकाधीश हूं और हम सभी आपका आशीर्वाद लेने के लिए नंगे पैर आए हैं। अभिमान हमारे आसपास कहीं नहीं है। साथ ही भीम ने आपके चरणों में लेटकर उस दिन किए अपने दुर्व्यवहार के लिए माफी भी मांगी है। हम सब आपके दर्शनार्थ आये हैं। अपने छह सेवकों के यज्ञ का फल स्वीकार कीजिए, एक सौ अपने पास रख लो और शेष हम भिखारियों को दान कर दीजिए ताकि हमारा भी कल्याण हो सके।’ उन सभी में इतनी आधीनता का भाव देखकर सुदर्शन रूप में जगतगुरु साहेब करुणामय प्रसन्न हो गये

कबीर, साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहिं।

जो कोई धन का भूखा, वो तो साधु नाहिं।।

सुपच सुदर्शन ने भीम का घमंड चकनाचूर कर दिया

इससे पहले जब भीम पहली बार सुपच सुदर्शन को निमंत्रण देने गए तो वह अहंकारी था और अपनी वीरता का खूब घमंड कर रहा था और उसे महाभारत युद्ध जीतने का घमंड था। तब परमात्मा (ऋषि करुणामय) ने भीम को उनकी ताकत की सीमा को बताया और उनके अहंकार को दूर किया। एक हुक पर परमेश्वर कबीर जी (सुदर्शन रूप में) की माला लटक रही थी। परमात्मा ने भीम से कहा 'पहलवान! मेरी सुमरनी ले आओ। फिर मैं तुम्हारे साथ चलूँगा'। अपनी बहादुरी से अति आत्मविश्वास में भीम ने माला को उतारने की पूरी कोशिश की लेकिन सभी प्रयास व्यर्थ गए। परमात्मा  कबीर ने कहा 'भीम, मेरी 'सुमरनी' को उतारने में इतना समय क्यों लग रहा है?' भीम ने ये कहते हुए हार मान ली कि 'मेरे से नहीं हो रहा है'। तब परमात्मा  ने बस अपने हाथ का इशारा किया और माला उनके हाथ में आ गयी। परमात्मा बोले 'भीम! अभी तो तुम अपनी वीरता का बखान कर रहे थे। आपने गदा के एक ही वार से बीस-बीस को मार डाला। तुम्हारी वीरता, तुम्हारी शक्ति कहां चली गई?' भीम को शर्म आई और उसने अपनी गर्दन नीचे कर ली।

अंत में कबीर साहेब राज़ी हुए और उन सभी को भी एहसास हुआ कि सुपच सुदर्शन कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है और दिव्य शक्तियों से सुसज्जित है। तब परमात्मा (ऋषि करुणामय) श्रीकृष्ण और पांडवों के साथ यज्ञ क्षेत्र में गये। यह कहा जाता है:

भक्ति करे बिन भाव रे सो कोन काजा, व्यंजन छतीसों परोसियां।

तन द्रौपदी रानी, बिन आदर सत्कार रे कई संक न बानी।।

अर्थ: उचित आदर और भक्ति भाव के बिना यदि कोई दान या कोई पुण्य कार्य आदि करता है तो वह व्यर्थ है।

सुपच सुदर्शन ने द्रौपदी की बुद्धि स्थिर की

सुदर्शन जी जब यज्ञ में पहुँचे तो वे घुटनों से नीचे साधारण धोती पहने हुए थे, उनकी छोटी दाढ़ी,बिखरे हुए बाल, फटे जूते, मैले-कुचैले कपड़े थे लेकिन शरीर दीप्तिमान था। उन्हें देखकर ऊंचाई पर रखे सुंदर सुसज्जित सिंहासनों पर बैठे महामंडलेश्वरों ने सोचा कि ऐसा अपवित्र व्यक्ति सात जन्मों में भी शंख नहीं बजा सकता। वे सोच रहे थे कि ये व्यक्ति तो हमारे लिए सूर्य के समक्ष दीपक के समान है।

कृष्ण जी ने सुदर्शन जी के लिए स्वयं सिंहासन की व्यवस्था की क्योंकि कृष्ण जी ख़ुद भी एक नेक आत्मा हैं। उन्होंने द्रौपदी से कहा कि महान संत सुदर्शन जी आए हैं, उनके लिए भोजन तैयार करो। द्रौपदी देख रही थी कि सुदर्शन में साधु का एक भी चिन्ह दिखाई नहीं दे रहा है। वह सोच रही थी कि वह एक गरीब गृहस्थ व्यक्ति लग रहे है। न तो उनके कपड़े भगवा हैं, न गले में माला है, यहां तक कि उन्होंने तिलक भी नहीं लगाया है। उनके सिर पर न तो बड़े-बड़े उलझे हुए बाल थे, न सिर मुँडाया हुआ था, न ही उनके पास कोई चिमटा, थैला या कमंडल था।

तब द्रौपदी ने सुदर्शन जी के लिए तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन बनाए और सभी व्यंजन एक बड़ी चाँदी की थाली में रख दिए। उसने सोचा कि आज यह साधु स्वादिष्ट भोजन का स्वाद चखेगा और उंगलियाँ चाटता रह जायेगा। उन्होंने अपने जीवन में इतना स्वादिष्ट खाना कभी नहीं खाया होगा।

सुदर्शन जी ने थाली में सभी प्रकार के व्यंजन (हलवा, मिठाई, दही बड़े, सब्जी, दाल आदि) का एक-एक भाग लिया और उसका चूरा (खिचड़ी) बनाया। द्रौपदी ने द्वेषपूर्वक सोचा कि यह मूर्ख भोजन करना भी नहीं जानता। यह किस प्रकार का संत है? यह शंख कैसे बजाएगा? यह शूद्र का शूद्र ही रहा। क्योंकि खाना बनाने वाले की इच्छा होती कि लोग उसके खाना पकाने की कला की प्रशंसा करें। इसलिए वह घंटों तक पूरे मन से स्वादिष्ट भोजन तैयार करती है। अगर खाने में नमक कम होने जैसी कोई कमी हो और खाने वाला बता दे तो उसे इस बात का भी बुरा लगता है। लेकिन चूँकि संत सरल, जमीन से जुड़े हुए होते हैं, इसलिए जैसा खाना परोसा जाता है, वह बिना शिकायत किए उसे खाते हैं और खाने की हमेशा प्रशंसा ही करते हैं। संतों ने नमक को 'रामरस' नाम दिया है। सुदर्शन जी ने थाली में रखे सारे भोजन को पाँच भागों में बाँट लिया और पाँच बार में खाया। शंख पांच बार बजकर बंद हो गया।

व्यंजन छतीसों परोसिया जहाँ द्रौपदी रानी। बिन आदर सतकार के, कही शंख न बानी।।

पंच गिरासी वाल्मिीकि, पंचै बर बोले। आगे शंख पंचायन, कपाट न खोले ।।

बोले कृष्ण महाबली, त्रिभुवन के साजा। बाल्मिक प्रसाद से, कण कण क्यों न बाजा।।

द्रोपदी सेती कृष्ण देव, जब ऐसे भाखा। बाल्मिक के चरणों की, तेरे न अभिलाषा ।।

प्रेम पंचायन भूख है, अन्न जग का खाजा। ऊँच नीच द्रोपदी कहा, शंख कण कण यूँ नहीं बाजा ।।

बाल्मिक के चरणों की, लई द्रोपदी धारा। शंख पंचायन बाजीया, कण-कण झनकारा।।

युधिष्ठिर जी श्रीकृष्ण के पास आये और बोले 'हे भगवन्! आपकी कृपा से शंख से ध्वनि उत्पन्न हुई है। हमारा काम पूरा हो गया।’ श्रीकृष्ण ने सोचा कि महान संत सुदर्शन जी के भोजन कर लेने के बाद भी लगातार शंख से ध्वनि क्यों नहीं हुई? तब उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा कि द्रौपदी के मन में कोई दोष है जिसके कारण शंख लगातार नहीं बजा बल्कि केवल पांच बार बजा और फिर शांत हो गया।

श्री कृष्ण जी ने कहा कि इस शंख की ध्वनि अधिक देर तक बजनी चाहिए थी तभी यह धार्मिक यज्ञ पूरा होगा। युधिष्ठिर ने पूछा 'भगवन! अब कौन सा संत बचा है, किसे लाना है?' श्रीकृष्ण जी ने कहा, 'भक्ति से परिपूर्ण संत सुदर्शन के समान महान कोई संत नहीं है। उसके एक बाल के बराबर भी तीन लोक नहीं हैं। हमारे अपने घर में ही कोई दोष है हमें उसे ही ठीक करना होगा।

यहाँ परमात्मा कबीर कहते हैं:

सतगुरु के दरबार में, कमी काहे की ना।

हंसा मौज नहीं पावता, तेरी चूक चाकरी माहि।।

श्री कृष्ण जी ने द्रौपदी से कहा कि तुमने तरह-तरह के स्वादिष्ट व्यंजन बनाए लेकिन तुम्हें अहंकार है। उचित सम्मान के बिना धार्मिक अनुष्ठान (यज्ञ, हवन पाठ) सफल नहीं होते हैं। इस साधारण से दिखने वाले आदमी को आपने क्या समझा है? यह पूर्ण परमात्मा है। तीनों लोक इसके एक बाल के बराबर भी नहीं हैं। इस महापुरुष के प्रति तुम्हारे मन में बुरे विचार हैं, जिससे तुम्हारी अन्तःचेतना मलीन हो गई है। उसके खाने से शंख की ध्वनि स्वर्ग तक पहुंच जाती और पूरा ब्रह्मांड गूंज उठता। बस पांच बार आवाज हुई ताकि आपकी शंका दूर हो जाए। ऐसा किसी अन्य संत के भोजन करने से नहीं हुआ। तुम अपने मन को नियंत्रण में रखो और सुदर्शन को परमेश्वर समझो। तुम उनके चरण धोकर वह अमृत जल (चरणामृत) पी लो जिससे तुम्हारा पापयुक्त हृदय पवित्र हो जाये।’

द्रौपदी ने तुरंत संत से माफी मांगी, सुपच सुदर्शन (करुणामय रूप में परमात्मा  कबीर) के पैर धोए, जिसमें मिट्टी लगी थी और चरणामृत पिया। जब उसने आधा पी लिया तो श्रीकृष्ण बोले, 'द्रौपदी, बहन! मुझे भी दीजिए ताकि मेरा भी कल्याण हो सके'। फिर शेष आधा भाग श्रीकृष्ण ने पी लिया। तभी इतने जोर से शंख बजा कि उसकी आवाज स्वर्ग तक सुनाई दी।

यहाँ पूज्य संत गरीबदास जी की अमृतवाणी में बताया गया है

उस बाल्मीक का चरणामृत पिया थारे कृष्णचन्द्र करतारा, तब वो शंख कण कण झनकारा।।

भक्ति करे बिन भाव के सो कोने काजा और विदुर के जीमन चले गए सो दुर्योधन राजा।।

अंततः पांडवों का यज्ञ सफल हुआ।

तेतीस कोटि यज्ञ में आए, सहंस अठासी सारे।

द्वादश कोटि वेद के वक्ता, सुपच का शंख बज्या रे।।

मन तू पावेगा अपना किया रे, भोगेगा अपना किया रे।।

छप्पन करोड़ जहां थे यादव, उनसे संख न बाज्या नादु।।

एक बाल्मीक नीचे कुल साधु, जिन संख पचायन्न पुरा नादु।।

और गीनो ये माया के पूता, वहां सुपच से शंख बजा रे।।

'परख का अंग' से अमृत वाणी में प्रमाण

गरीब, सुपच शंक सब करत हैं, नीच जाति बिश चूक। पौहमी बिगसी स्वर्ग सब, खिले जो पर्वत रूख ।।

गरीब, करि द्रौपदी दिलमंजना, सुपच चरण पी धोय। बाजे शंख सर्व कला, रहे अवाजं गोय।।

गरीब, द्रौपदी चरणामृत लिये, सुपच शंक नहीं कीन। बाज्या शंख अखंड धुनि, गण गंधर्व ल्यौलीन ।।

गरीब, फिर पंडौं की यज्ञ में, शंख पचायन टेर। द्वादश कोटि पंडित जहां, पड़ी समन की मेर।।

गरीब, करी कृष्ण भगवान कूं चरणामृत स्याँ प्रीत। शंख पंचायन जब बज्या, लिया द्रोपदी सीत।।

गरीब, द्वादश कोटि पंडित जहां, और ब्रह्मा विष्णु महेश। चरण लिये जगदीश कूं, जिस कूं रटता शेष ।।

गरीब, वाल्मिीकि के बाल समि, नाहीं तीनों लोक। सुर नर मुनि जन कृष्ण सुधि, पंडौँ पाई पोष ।।

गरीब, वाल्मिीकि बैंकुठ परि, स्वर्ग लगाई लात। शंख पचायन घुरत हैं, गण गंर्धव ऋषि मात।।

गरीब, स्वर्ग लोक के देवता, किन्हें न पूर्या नाद। सुपच सिंहासन बैठतें, बाज्या अगम अगाध ।।

गरीब, पंडित द्वादश कोटि थे, सहिदे से सुर बीन। संहस अठासी देव में, कोई न पद में लीन।

गरीब, बाज्या शंख स्वर्ग सुन्या, चौदह भवन उचार। तेतीसौं तत्त न लह्या, किन्हें न पाया पार ।।

उपरोक्त सत्य प्रसंग से यह सिद्ध हो गया कि ईश्वर की कृपा के बिना कोई भी कार्य सिद्ध नहीं हो सकता।

निष्कर्ष

द्वापरयुग के समान वही परमेश्वर कबीर जी अब अपने द्वारा निर्धारित भक्ति के इस नियत समय में अवतरित हुए हैं और अपनी दिव्य शक्ति से लोगों को आशीर्वाद दे रहे हैं। सुपच सुदर्शन के समान सर्वशक्तिमान कबीर महान संत रामपाल जी महाराज की के रूप में दिव्य लीला कर रहे हैं। वह शास्त्रोक्त भक्ति और सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान कर रहे है। इसलिए सभी से प्रार्थनाहै कि हर किसी को उनकी शरण में जाकर अपना कल्याण कराना चाहिए।