भारत साधु-संतों की भूमि के रूप में तथा अपनी आध्यात्मिकता और दैवी शक्तियों के लिए दुनियाभर में मशहूर है। इसने कई युगों से ईश्वर प्राप्ति की इच्छा रखने वाले लोगों पर जबरदस्त प्रभाव डाला है। भारत के पौराणिक इतिहास में उन महान ऋषियों की कई सच्ची कहानियाँ मिलती हैं, जिन्होंने कठोर तपस्या करके ईश्वर को प्राप्त करने का बहुत प्रयास किया।
लेकिन एसे ही कई ऋषि-मुनियों के चमत्कारी इतिहास से यह पता चलता है कि युगों-युगों तक साधना करने के बावजूद भी वे दृढ़ साधक मानव जीवन के एकमात्र उद्देश्य-पूर्ण परमात्मा कबीर जी की सत भक्ति और मोक्ष प्राप्त करने में विफल रहे तथा जन्म–पुनर्जन्म के दुष्चक्र में फंसे रहे।
इसका कारण यह रहा कि उन ऋषियों/संतों ने जीवन भर मनमानी रीति से पूजा–साधना की, जिसका पवित्र वेदों और श्रीमद्भगवद गीता जैसे प्राचीन और प्रमाणिक पवित्र ग्रंथों में कहीं भी प्रमाण नहीं है। इस कारण वे शैतान काल के जाल में ही बंधे रहे और उसके जाल से मुक्त नहीं हो पाए।
इस लेख में, हम आपके साथ शुकदेव/सुखदेव नाम के एक प्रसिद्ध महान ऋषि की सच्ची कहानी साझा करेंगे, जिन्होंने मुक्ति पाने के उद्देश्य से भक्ति की थी। लेकिन एक सच्चे आध्यात्मिक गुरु /सतगुरु न मिलने से उन्होंने अपना बहुमूल्य मानव जीवन बर्बाद कर दिया। सद्ग्रन्थों के विपरीत भक्ति करने से सिद्धियाँ प्राप्त कर के भी वो शैतान काल के जाल में फँसे रह गए और परमात्मा की प्राप्ति नही कर पाए। उन्होंने साधना की लेकिन उसके बाद भी उन्होंने 84 लाख योनियों में कष्ट सहे।
तो आइए शुरू करते है और सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी (सूक्ष्म वेद) में वर्णित तथ्यों की गहराई से जांच करते है तथा निम्नलिखित बिंदुओ के आधार पर सुखदेव (शुकदेव) ऋषि के बारे में सब कुछ जानने का प्रयास करते है।
शुकदेव त्रेतायुग के एक महान ऋषि और भगवान विष्णु के उपासक थे, जिनका जन्म महान ऋषि वेद व्यास और वटिका के घर पर हुआ था। वेद व्यास जी पवित्र चार वेद और पुराणों के लेखक हैं। ऋषि शुकदेव त्रेता युग में राजा जनक के समकालीन थे। राजा जनक सीता जी के पिता और श्री रामचन्द्र के ससुर थे। ऋषि शुकदेव (तोताराम, शुक का अर्थ है तोता और देव का अर्थ है भगवान/ राम) के नाम रखने के पीछे एक दिलचस्प कहानी है, जिस पर आगे चर्चा की जाएगी। ऋषि सुखदेव/शुकदेव ने ध्यान/हठ योग/कठोर तपस्या द्वारा सिद्धियाँ प्राप्त की। जिसके कारण उन्हें स्वर्ग – अस्थायी निवास स्थान प्राप्त हुआ। लेकिन पूर्ण मुक्ति प्राप्त करने में वो असफल रहे। साथ ही अपनी मनमानी साधना के कारण उन्हें नरक में कष्ट सहन करने के साथ-साथ गधे की योनि में भी जाना पड़ा।
तो सवाल उठता है कि शुकदेव की भक्ति विधि में क्या गलती थी और भक्ति की सच्ची विधि क्या है? जिससे साधक को मोक्ष की प्राप्ति होती है। इससे पहले कि हम इन सबसे विलक्षण प्रश्न का उत्तर देने के लिए आगे बढ़ें, आइए ऋषि शुकदेव की उत्पत्ति की सच्ची कहानी के बारे में जानते है। आइए हम सूक्ष्मवेद से उपरोक्त बात का समर्थन करने वाले तथ्य देखते है।
नोट - इसका संदर्भ जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज द्वारा लिखित पवित्र पुस्तकों से लिया गया है।
संदर्भ: सूक्ष्म वेद, सुमिरन का अंग, वाणी संख्या 70:-
गरीब, सुकदेव सुख में उपजे, राई सींग समोइ |
नवनाथ अरु सिद्ध चौरासी, संगि उपजे थे दोइ ||70||
भावार्थ:- जब भगवान शिव ने देवी पार्वती को अमर मंत्र दिया, उस समय वहाँ एक सूखा पेड़ था। वे उसके नीचे बैठ गये। कारण यह था कि यदि कोई अन्य प्राणी इस अमर मंत्र को सुन लेगा तो वह भी अमर हो जाएगा और यदि कोई दुष्ट प्राणी आध्यात्मिक सिद्धियों से युक्त हो जाएगा तो वह इसका दुरुपयोग करेगा और अच्छे लोगों को परेशान करेगा। इसलिए ही सभी गुरु एकांत स्थान पर केवल योग्य शिष्यों को ही मंत्र देते हैं।
भगवान शिव ने ताली बजाई, जिससे बड़ी भयानक ध्वनि उत्पन्न हुई और आसपास के पशु-पक्षी डरकर दूर चले गए। सूखा पेड़ इसलिये चुना गया था कि यदि कोई पक्षी आए तो तुरन्त दिख जाए। लेकिन मादा तोते ने उसके खोखले तने में अंडे दिये हुए थे। उनमें से एक अंडा अस्वस्थ था, बाकी अंडे स्वस्थ थे। शंकर जी की ताली की ध्वनि मात्र से वे अंडे पक्षी बन गये और उड़ गये। परंतु, वह अस्वस्थ, सड़ा हुआ अंडा रह गया। वह उसके अंदर बैठा था। वह अंडे के परिपक्व होने और खुद को एक नया शरीर प्राप्त होने का इंतजार कर रहा था।
जिस प्रकार गर्भ में आते ही माता-पिता शिशु को अपना मान लेते है, उसी प्रकार प्राणी जिस शरीर अथवा अण्डाणु में प्रवेश करता है, उसे अपना मान लेता है। मृत्यु के बाद परिजन श्मशान में दाह संस्कार करने के बाद मृत शरीर की बची हुई हड्डियों और राख को गहरी नदियों में प्रवाहित कर देते है, जिसे 'अस्थियां उठाना (फूल उठाना)' कहा जाता है। इसका कारण यह है कि उस मानव शरीर में जो भी प्राणी (नर या मादा) रहा हो, उसे शरीर से अधिक स्नेह होता है और वह आत्मा पुनः उसमें अपना अस्तित्व ढूंढने का प्रयास करती है।
जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी असाध्य रोग से पीड़ित हो जाए तो उससे बचाव के लिए वह अपनी सारी संपत्ति भी खर्च कर देता है। क्योंकि शरीर बहुत प्रिय लगता है। मृत्यु के बाद यदि उस प्राणी को शरीर नहीं मिलता तो वह प्रेत योनि में चला जाता है। वह सूक्ष्म शरीर में भूत बनकर रहता है। वो धर्मराज के दरबार में अपना हिसाब-किताब कराता है।
यदि उसे प्रेत का जीवन मिलता है तो वह अपने घर वापस आ जाता है और अपने परिवार के सदस्यों से मिलने और बात करने की कोशिश करता है। वह कहता है ‘तुम क्यों रो रहे हो? मैं आ गया हूँ।’ परंतु सूक्ष्म शरीर में होने के कारण न तो परिवार के सदस्य उसे देख पाते है और न तो उसकी आवाज ही सुन सकते है। तब दूसरे प्रेत उससे कहते है कि वो तुम्हें नहीं देख पाएंगे क्योंकि तुम्हारा हाड़-मांस का शरीर अब नहीं रहा।
फिर वह प्रेत श्मशान में अपने शरीर की तलाश करने के लिए जाता है। वहां उसका शव जला दिया गया होता है और बची हुई राख को वह अपनी मानता है, वह उससे चिपक जाता है। जब वे उन राख/हड्डियों को उठाकर नदी में प्रवाहित करने जाते है तब भी वह जीव उनसे चिपका रहता है। नदी में प्रवाहित करने के बाद वह उससे अलग हो जाता है।
अधिकांश प्रेत वहीं रहते है, और कुछ अपने परिवार के सदस्यों के साथ लौट आते है। यदि राख नहीं उठाई गई तो वह भूत बनकर श्मशान में डेरा डाल देता है। लेकिन जो लोग कबीर परमेश्वर की शरण में आ गए है वे भूत/ प्रेत नहीं बनते। जिन लोगों ने दीक्षा नहीं ली और सतगुरु से दीक्षा लेकर भक्ति नहीं की वे प्रेत बन जाते है और कभी श्मशान में, कभी घर में, कभी खेतों में या जो भी व्यवसाय हो, वहां भटकते रहते है। वो परिवार के सदस्यों या अन्य लोगों को परेशान करते है। इस तरह नकली गुरुओं द्वारा बताई गई भक्ति करने से वह प्रेत बन गया। फिर उसे ठीक करने के लिए उसकी राख/ हड्डियाँ उठाकर नदी में प्रवाहित करने की प्रथा (परंपरा) शुरू हुई।
यदि कोई हरिद्वार, ('हर की पैड़ी') से लौट आता है और परिवार को परेशान करता है तो फिर वे उसकी मुक्ति के लिए अन्य विधियां शुरू करते है। वे उसकी तेरहवीं, सत्रहवीं, मासिक, छःमासिक और फिर वार्षिक संस्कार एवं श्राद्ध आदि करने लगते हैं। फिर भी इन सब से काम नहीं चलता।
जब भूत परेशान करता है तो फिर उसका श्राद्ध निकालना शुरू कर देते है। अब, वह एक पितृ बन गया है। परिवार के सदस्य उसकी गति के लिए 'पिंड' अर्पित करते है और इस तरह परिवार के सदस्यों पर ऐसे क्रियाकांड थोप दिए जाते है।
ऐसे ही स्वभाव वश वह जीव उस अंडे से चिपक गया।
श्री शिव जी ने पार्वती जी को पूर्ण परमेश्वर की वह कहानी सुनाई, जो उन्होंने परमेश्वर कबीर जी से सुनी थी। फिर उन्होंने देवी पार्वती जी को प्रथम मंत्र बताया और कमलों का रहस्य समझाया। पार्वती जी समाधिष्ठ हो गईं, पहले वह 'हाँ-हाँ' कर रही थी, बाद में वह सड़ा हुआ अंडा स्वस्थ हो गया और तोते का बच्चा बन गया और वह 'हाँ-हाँ' करने लगा। आवाज में अंतर देखकर शिव जी ने पार्वती जी की ओर देखा तो वह गहन ध्यान की अवस्था में थी।
इसका उल्लेख सूक्ष्मवेद में किया गया है।
गरीब, पारबती के उर धरया, अमर भये क्षण माहीं।
सुखदेव की चौरासी मिटी, निरालंब निज नाम।।
जब श्री शिव जी ने अपनी आंतरिक दिव्य दृष्टि से देखा तो पता लगा कि तोते ने सारा ज्ञान सुन लिया है। शिव जी उस तोते को मारने के लिए खड़े हुए, लेकिन वह उड़ गया। अब तो उसे सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान और मंत्र सुनने से सिद्धियाँ प्राप्त हो गईं थी। शिव जी भी आकाश मार्ग से उसका पीछा करने लगे।
जब ऋषि वेदव्यास की पत्नी ने उबासी ली तो वह तोते वाला जीव ऋषि की पत्नी के गर्भ में उसके मुख द्वारा चला गया। उसने तोते के शरीर को वहीं छोड़ दिया। शिव जी सब कुछ देख रहे थे। शिव जी ने वेद व्यास जी की पत्नी से कहा कि मेरे ज्ञान और भक्ति के मंत्र का चोर तुम्हारे गर्भ में है। उसने अमर कथा सुन ली है। वह भी अमर हो गया है (उस मंत्र से जितना भी अमरत्व प्राप्त होता है, उतना अमर होना)। व्यास जी भी वहां आये और शिव जी को प्रणाम किया। जब उन्हें उनके आने का कारण पता चला तो वे बोले, 'हे भोलेनाथ! आप कह रहे है कि वह अमर हो गया है। यदि वह जीव अमर हो गया है तो आप उसे मार नहीं सकते। आप उसे गर्भ में बिल्कुल भी नहीं मार पाओगे। यह सुनकर शिव जी चले गये। उन्होंने पार्वती जी को ध्यान से जगाया और अपने निवास स्थान पर चले गये।
जिस स्थान पर शिव जी ने पार्वती जी को अमर मंत्र दिया था, वह स्थान 'अमरनाथ' नाम से जाना जाता है।
जब शुकदेव ऋषि व्यास जी की पत्नी के गर्भ से 12 वर्ष तक बाहर नहीं आए तब तीनों देवता (श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी और श्री शिव जी) ऋषि व्यास की कुटिया में आए और गर्भ में बैठे जीव से बोले कि आप जन्म लो और बाहर आओ। गर्भ के अंदर जीव को अपने पिछले जन्मों के बारे में पता चल जाता है। जीव ने कहा, 'भगवन! आपकी माया (गुणों का प्रभाव/ त्रिगुणमयी माया) की वजह से जैसे ही जीव बाहर आता है, वह अपना ज्ञान भूल जाता है। जीव अपना उद्देश्य भूल जाता है। आप अपनी माया को कुछ क्षण के लिए रोक दें तो मैं बाहर आ जाऊंगा।
व्यास जी की पत्नी ने कहा, “मेरे गर्भ में लड़का है और इससे अब तक मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई है। इस लड़के ने मुझे सुख दिया है। मैं उसका नाम 'सुखदेव' रखूंगी।” तीनों देवताओं ने उसका नाम 'शुकदेव' रखा क्योंकि तोते के शरीर में भक्ति की शक्ति प्राप्त की थी। (संस्कृत में शुक का अर्थ तोता होता है)। तीनों देवों ने कहा, “हे सुखदेव! हम अपने गुणों (त्रिगुणमयी माया) की शक्ति को केवल इतने समय के लिए ही रोक सकते है, जब तक कि एक सरसों का दाना गाय या भैंस के सींग पर (एक सेकंड के एक अंश मात्र के लिए) रह सके अर्थात रखते ही गिर जाता है।”
शुकदेव ने कहा, "ठीक है! ऐसा ही करो।” तीनों देवताओं ने एक क्षण/सेकंड के लिए अपने गुणों की शक्ति को रोक दिया। शुकदेव गर्भ से बाहर आ गए। इस बारे में सूक्ष्म वेद में कहा गया है:
तीनो देवा थंबी माया और सुखदेव उदर से बाहर आया।।
सुकदेव सुख में उपजे, राई सींग समोइ।
नवनाथ अरु सिद्ध चौरासी संग उपजे थे दोइ।।
फिर तीनों देव चले गये। उस समय 93 अन्य बच्चे भी पैदा हुए थे। उन सभी को और शुकदेव को अपने जीवन का उद्देश्य याद रहा। वे सभी महान भक्त-संत और सिद्ध पुरुष बन गये। उनमें से 9 नाथ के नाम से प्रसिद्ध हुए और 84 सिद्ध हुए तथा एक ऋषि शुकदेव हुए।
जैसे ही शुकदेव अपनी माता के गर्भ से बाहर आये, उनका शरीर 12 वर्ष का हो गया। उन्होने अपनी गर्भ नाल अपने कंधे पर रखी और चले गये।
नोट: माँ की नाभि की नाल जो बच्चे की नाभि से जुड़ी होती है। बच्चे का पोषण माँ के शरीर के माध्यम से होता है। इसकी लंबाई लगभग एक फुट होती है।
शुकदेव ने सोचा कि वो थोड़ा दूर जाकर इसे काटकर फेंक देंगे। कारण यह था कि शुकदेव नहीं चाहते थे कि उनका अपने परिवार के प्रति मोह बन जाए और यदि उनमें अपने माता-पिता के प्रति मोह रह गया तो वो भक्ति नहीं कर पाएंगे।
दूसरी तरफ, व्यास ऋषि ने कहा, "बेटा! हमने तुम्हारे जन्म के लिए 12 वर्ष तक प्रतीक्षा की और तुम जाने के लिए तैयार हो। हमने पुत्र का कौन सा सुख देखा? तुम घर त्याग कर मत जाओ।”
शुकदेव ने कहा “ऋषि जी! आप वेदों के ज्ञाता और विद्वान होकर भी मोह के दलदल में फँसे हुए हो? आप मुझे भी फंसाने की कोशिश कर रहे हो? मुझे अपने पिछले जन्म याद है कि आप कई बार मेरे पिता बन चुके है और कई बार मैं आपका पिता बन चुका हूं। हम 84 लाख प्राणियों के चक्र में कई बार दुखी हो चुके है। इस बार मैंने अपना उद्देश्य जान लिया है, मैं भक्ति करूंगा और अपना मनुष्य जन्म सफल करूंगा। यहां रिश्ते वो कर्ज़ है, जिन्हें हममें से हर एक जीव को चुकाना पड़ता है। इस बार मैं इस कष्ट से मुक्ति पाऊंगा।”
एक लेवा एक देवा दूतम्, कोई काहू का पिता न पूतम।
ऋण संबंध जुडा एक ठाठा, अंत समय सब बारा बाटा।।
शुकदेव ने अपने माता-पिता से इस विषय पर चर्चा की और आकाश में उड़ गये। पिछले जन्मों की बैटरी चार्ज होने से उसे आकाश में उड़ने की सिद्धि शक्ति प्राप्त हो गई। ऐसा कहा जाता है -
एक सिद्धि आकाशे उड़ जाए, एक सिद्धि जल पर न लाए।।
एक सिद्धि कुछ खावे न पीवे, एक सिद्धि जो बहु जुग जीवे।।
नोट: कबीर परमात्मा ने कहा है कि काल के लोक में देवताओं के पास अधिकतम आठ सिद्धियाँ होती है। लेकिन परमेश्वर कबीर जी की सच्ची भक्ति करने से साधक को 24 सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती है। परमात्मा सच्चे भक्तों को यह भी सलाह देते है कि वे इन शक्तियों का प्रयोग न करें अन्यथा साधक काल के जाल में फँसा रहेगा। ये सिद्धियाँ आत्मा को शक्तियुक्त करती है, जो काल के लोक को पार करने के लिए आवश्यक है।
शुकदेव के पास पूर्व जन्म की सिद्धि शक्ति थी। वे उसकी मदद से उड़ जाते थे। इसी के अहंकार के कारण उन्होंने कोई गुरु भी नहीं बनाया था। एक बार वे विष्णुलोक में गये, जहाँ द्वारपालों ने उन्हें प्रवेश नहीं करने दिया। क्योंकि उनका कोई गुरु नहीं था। जब उन्होंने सतोगुण श्री विष्णु जी से मिलने की जिद की तो श्री विष्णु जी वहां आये। लेकिन उन्हें अपने लोक (विष्णुलोक) से ये कहते हुए निष्कासित कर दिया कि यदि तुम्हें यहां स्थान चाहिए तो राजा जनक मिथलेश से दीक्षा लो। एक 'निगुरे' (अर्थात बिना गुरु धारण किए हुए) व्यक्ति का उनके लोक में कोई स्थान नहीं है। यह ईश्वर का नियम है। राजा जनक से दीक्षा लेकर उन्हें गुरु बनाकर भक्ति करके यहां आओ। इस संदर्भ में सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में इसका उल्लेख किया गया है -
कबीर, गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, करते हरि की सेव।
कहे कबीर बैकुंठ से, फेर दिया सुखदेव।।
सुखदेव को अपनी सिद्धियों पर इतना गर्व था कि उन्होंने भगवान विष्णु द्वारा निर्देश दिए जाने पर भी राजा जनक को अपना गुरु बनाने से इनकार कर दिया और कहा कि पृथ्वी पर कोई भी इस योग्य नहीं है कि वे उसे अपना गुरु बना सकें। वे पृथ्वी पर एकमात्र सिद्ध पुरुष हैं और बिना किसी को गुरु बनाए ही उड़कर विष्णुलोक आए हैं। इसके अलावा, राजा जनक एक गृहस्थ व्यक्ति हैं। उनकी 10,000 रानियाँ है, जबकि स्वयं शुकदेव, एक महान ऋषि/ तपस्वी/ वैरागी हैं। एक गृहस्थ व्यक्ति किसी तपस्वी से श्रेष्ठ नहीं हो सकता। वे राजा जनक को अपना गुरु कैसे बना सकते है?
राजा जनक गृहस्थि भाई, कैसे शीश निवाउं जाई।।
सुखदेव बोले शब्द विवेका, हमने स्त्री का मुख नहीं देखा।।
विशेष- यह शैतान काल का बहुत बड़ा जाल है। जो ऋषि-मुनि विवाह नहीं करते, वे गृहस्थ व्यक्ति को अपने से नीचा और खुद को श्रेष्ठ मानते है। काल की प्रेरणा से इन संतों/ तपस्वियों को यह भ्रांति है कि भगवान केवल वैरागी/ योगी को ही प्राप्त होते है। गृहस्थ व्यक्ति को कभी भी ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। परंतु सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान के प्रकाश में यह स्पष्ट होता है कि यह एक मिथक है। किसी तत्वदर्शी संत से दीक्षा लेकर कबीर परमात्मा की सच्ची भक्ति करने से परमेश्वर की प्राप्ति होती है। जो भी व्यक्ति सच्ची भक्ति करता है, वह मोक्ष प्राप्ति के योग्य बन जाता है। वास्तव में वैरागी/ भिक्षु/ ऋषि/ संत/ गृहस्थ होने या किसी भी लिंग से संबंधित होने पर कोई प्रतिबंध नहीं है।
जब सुखदेव ने देखा कि कोई भी प्रार्थना काम नहीं कर रही है और श्री विष्णु जी ने उन्हें विष्णुलोक के अंदर प्रवेश करने के लिए स्पष्ट रूप से मना कर दिया है तो उन्होंने अपना मुख नीचे कर लिया और दुःखी हो गये।
सुखदेव के पास जो सिद्धियाँ थीं, उनसे वे आकाश में उड़ जाते थे और सामान्य स्वर्ग लोक, इन्द्रलोक में चले जाते थे। वहाँ देवतागण उनका यथोचित आदर-सत्कार करते थे। शुकदेव उन देवताओं को उपदेश दिया करते थे। परंतु श्री विष्णु जी द्वारा उन्हें विष्णुलोक में प्रवेश की अनुमति देने से इंकार करने के बाद जब वे इस बार इंद्रलोक गए तो कागभुशुण्डि, नारद मुनि आदि देवताओं ने उनके दुःख का कारण पूछा और यह जानकर उनका उपहास किया कि सुखदेव का कोई गुरु नहीं है।
विशेष: सत्य भक्ति मार्ग में ईश्वर प्राप्ति के इच्छुक साधकों के लिए गुरु बनाना अनिवार्य है अन्यथा वे ईश्वर प्राप्ति और मुक्ति से वंचित रह जाते हैं। स्वर्ग में देवताओं ने शुकदेव से कहा कि आज हम देवता हैं लेकिन गुरु बनाकर भक्ति नहीं की तो कल हम गधे बनेंगे, नरक और 84 लाख योनियों में कष्ट भोगेंगे।
जब शुकदेव ने गधा शब्द सुना तो वे आश्चर्यचकित रह गये। यह भगवान की दया होती है। कहा गया है,
जो जाकी शरना बसे, ताको ताकी लाज।
जल सोही मछली चढ़ जाती, और बह जाते गजराज।।
अर्थ: जो भी साधक जिस भी इष्ट देव की भक्ति करता है और पूरी दृढ़ता से लगा रहता है तब उस पर वह इष्ट देव अवश्य कृपा करते है और साधक को अपने स्तर/ क्षमता के अनुसार सहायता करते है। जैसे मछली का पानी से खास रिश्ता होता है, वह इसकी शरण में है। जैसे ही मछली को पानी से बाहर निकाला जाता है तो उसका दम घुट जाता है और वह मर जाती है। पानी का बहाव कितना भी तेज़ क्यों न हो, मछली आसानी से उसमें तैर जाती है और जीवित रहती है भले ही बहाव उसके विपरीत हो। यहाँ तक कि झरने जैसे तेज प्रवाह में भी मछली कुछ फीट ऊपर तक चढ़ जाती है जबकि एक विशाल हाथी नदी के तेज जल प्रवाह में डूब सकता है, क्योंकि पानी और हाथी के बीच मैत्रीपूर्ण संबंध नहीं होता है।
भगवान विष्णु शुकदेव के इष्ट देव थे। इसलिए उनका मानव जन्म व्यर्थ न चला जाए, इसके लिए श्री विष्णु जी ने उन्हें उनका एक जन्म दिखाया, जब सुखदेव एक गधे के जन्म में थे और बहुत कष्ट सहन कर रहे थे। जब वो अंधा हो गया तो उसकी कष्टदायक मृत्यु हुई। क्योंकि एक बार अपने मालिक द्वारा दी गई यातनाओं के बाद उसे बाहर मैदान में खुला छोड़ दिया गया था, जहाँ से वह सड़क के किनारे अकेला चला गया और आगे जाकर एक नाली में फंस गया। किसी राहगीर ने उसे गटर से बाहर नहीं निकाला बल्कि उसे पार करने के लिए पुलिया के तरह उस पर पैर रख कर पार करते हुए इस्तेमाल किया। वह हफ्ते दस दिन तक भूखा-प्यासा रहा और फिर उसकी तड़प-तड़प कर मृत्यु हुई।
नोट: विभिन्न शरीरों में आत्मा के अनंत जन्मों की स्मृति उसके अंतःकरण में संग्रहीत रहती है, जिसे परमात्मा के आशीर्वाद से देखा जा सकता है।
शुकदेव को मनमानी पूजा करके गधे के जन्म में बहुत कष्ट सहना पड़ा। सच्चा गुरु/ सतगुरु/ तत्वदर्शी संत न मिलने के कारण शुकदेव जैसे महान ऋषि को भी गधे की योनि में दुःख भोगना पडा। इसका उल्लेख सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में किया गया है,
फिर पीछे तू खर कीजैगा, कुरडी चरने जाए।
टूटी कमर पजावा चढ़े, तेरा कागा मांस गिलाय।।
सुखदेव ने चौरासी भुगती, कहाँ रंक कहा राय।
ऐसी माया कालबली की, नारद मुनि भरमाये।।
यह काल का बहुत बड़ा जाल है, जिसे परमेश्वर कबीर जी ने उजागर किया है। कसाई ब्रह्म काल के इस जाल को केवल परमेश्वर कबीर जी की सच्ची भक्ति करने से ही तोड़ा जा सकता है।
शुकदेव राजा जनक को अपना गुरु बनाने के विषय में राय लेने के लिए अपने पिता ऋषि वेद व्यास के पास गए। क्योंकि भगवान विष्णु के निर्देश के बाद भी वे इसके लिए आश्वस्त नहीं हुए थे। शुकदेव ने भगवान विष्णु से अपनी मुलाकात और भगवान द्वारा उन्हें विष्णुलोक में प्रवेश की अनुमति न देने की पूरी घटना सुनाई। ऋषि वेद व्यास ने अपने पुत्र शुकदेव की यह बात सुनकर डांटा कि उसने अभी तक किसी को अपना गुरु नहीं बनाया है और अपना बहुमूल्य मानव जन्म बर्बाद कर रहा है।
ऋषि वेद व्यास यह कहते हुए नाराज हो गए कि "जब भगवान ने आपसे राजा जनक को अपना गुरु बनाने के लिए कहा है तो आप अस्थिर क्यों हो रहे हैं? आप एक अयोग्य व्यक्ति हैं और भक्ति करने के लायक नहीं हैं।"
अंत में, शुकदेव सहमत हुए और राजा जनक की शरण में गए और उनसे अनुरोध किया कि वे उन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार करें।
त्रेतायुग के प्रसिद्ध व्यक्ति राजा जनक, भगवान राम के श्वसुर (ससुर) थे तथा भगवान विष्णु के दृढ़ भक्त थे। उनकी 10,000 रानियाँ थीं। राजा जनक ने ऋषि सुखदेव ऋषि का हार्दिक स्वागत किया और उन्हें आसन प्रदान किया। राजा जनक ने सुखदेव से कहा कि वे अगले दिन सुबह उन्हें दीक्षा देंगे। राजा जनक ने सुखदेव की सेवा के लिए एक दासी को जिम्मेदारी सौंपकर, सुखदेव की निष्ठा की परीक्षा भी ली जिसमे सुखदेव एक जति साबित हुए।
राजा जनक ने अपनी मुख्य रानी/ पटरानी (पटरानी) को बताया कि सुखदेव नाम के एक महान ऋषि उनसे दीक्षा लेने आये है। उन्हें हवा में उड़ने की अपनी सिद्धि का अभिमान है। अगली सुबह राजा जनक ने अपनी पत्नी से कहा कि वह उनके स्नान के लिए एक बड़ी कड़ाही में पानी गर्म करें। पानी को बुलबुले आने तक उबाला गया (जैसे चाय को उबालते है) और पटरानी ने उसी गर्म पानी को राजा जनक के सिर पर डालकर और उनके शरीर को मलकर स्नान कराया। सुखदेव वह सब देख रहा था और यह देखकर घबरा गया कि राजा जनक की पत्नी यह कैसे कर सकती हैं और दोनों में से कोई भी नहीं जल रहा है।
राजा जनक ने सुखदेव से कहा, “हे व्यास के पुत्र! मैं तो एक गृहस्थ आदमी हूं और आप बाल ब्रह्मचारी है। आओ, मेरे स्नान करने के बाद नाली में जाते इस पानी में अपनी उंगली डुबाओ, मैं आपको एक महान ऋषि/ योगी मान लूंगा।”
भयभीत सुखदेव ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। इस संदर्भ में सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में इसका वर्णन किया गया है,
राजा विहंस जब देई ताली, मुझे अस्नान करावे एक नारी।।
ऐसा योग कमाया पूता, क्या भया जो इन्द्री दूता।।
इंद्री करम लगाओ किसके, जैसे जिव्या लेप नहीं मधुरस के।।
इस प्रकार राजा जनक ने सुखदेव की बुद्धि ठीक कर दी और उसके अहंकार का निवारण किया। तत्पश्चात राजा जनक ने उन्हें उपदेश दिया और दीक्षा दी। इसके बाद शुकदेव जी ने भक्ति की, वे विष्णुलोक/ स्वर्ग प्राप्ति के पात्र बन गये। सूक्ष्मवेद में ऐसा कहा गया है कि -
राजा जनक गुरु किया, फिर कीन्हीं हर की सेव।
कहे कबीर बैकुंठ में, चले गए सुखदेव।।
नोट: काल के लोक में साधक को केवल स्वर्ग तक का ही ज्ञान है, इसलिए वे इसे अंतिम उपलब्धि मानते है, जो एक मिथक है। स्वर्ग एक अस्थायी निवास स्थान है। स्वर्ग में गए साधक/ भक्तों का पुन:जन्म होता है। वे अपना समय पूरा करने के बाद पुनः जन्म-मृत्यु के चक्र में आते हैं और फिर 84 लाख योनियों में जाकर कष्ट भोगते हैं।
सभी आत्माओं का मूल स्थान अविनाशी लोक – सतलोक है, जहाँ परमेश्वर कबीर जी स्वयं रहते हैं। मोक्ष प्राप्त करने वाले प्राणियों को सतलोक में स्थाई स्थान मिलता है, जहाँ जाने के बाद वे काल के इस मृत्यु लोक में वापस नहीं आते हैं। सतलोक सभी आत्माओं का मूल स्थान है।
शुकदेव ने राजा जनक को गुरु बनाकर मनमानी विधि से भक्ति साधना की और स्वर्ग तो प्राप्त कर लिया, परंतु पूर्ण मोक्ष प्राप्ति से वंचित रह गए और शाश्वत धाम सतलोक नहीं पहुंच पाए।
संदर्भ: देवी पुराण
परीक्षित नाम के एक राजा थे, जिन्होंने समाधि अवस्था में बैठे एक ऋषि के गले में मरा हुआ साँप डाल दिया था। अपने पिता का ऐसा अपमान देखकर उस ऋषि का पुत्र क्रोधित हो गया और उसने राजा परीक्षित को श्राप दे दिया कि “ एक 'तक्षक' नाम का सांप तुम्हें डसेगा और सातवें दिन तुम्हारी मृत्यु हो जाएगी।”
गौतम ऋषि को किसी व्यक्ति को सांप के काटने पर उसे ठीक करने का उपाय पता था। उसने कहा कि 'तक्षक' सांप के काटने के बाद वह राजा परीक्षित को पुनर्जीवित कर देंगे। उसने सोचा कि राजा उसे ढेर सारा धन इनाम रूप में देगा।
भक्ति मार्ग में यह विधान है कि अंत समय में प्राणी जिसके प्रति भाव रखता है, वह उसी को प्राप्त होता है। इस बात को ध्यान में रखते हुए, मृत्यु के करीब जाने वाले व्यक्ति के करीबी और प्रियजन आमतौर पर यह निर्णय लेते है कि उसको श्रीमद्भगवद सुधा सागर का पाठ सुनाया जाना चाहिए ताकि उसकी भावना इस 'मृत्यु लोक' से हट जाए और भगवान से जुड़ जाए और उसका कल्याण हो सके।
इस दृष्टिकोण से अनेक ऋषियों ने मिलकर निर्णय लिया कि सातवें दिन राजा परीक्षित को साँप डंसेगा और उससे पहले ही श्रीमद्भागवत सुधा सागर का पाठ करना चाहिए। लेकिन सवाल यह था कि कथा सुनाएगा कौन? वहाँ कोई भी व्यक्ति इस कथा को सुनाने योग्य नहीं था यानि कथा करने का अधिकारी नहीं था, जिसमें अनेक महान विद्वानों सहित महर्षि वेद व्यास जी, जो शुकदेव ऋषि के पिता और श्रीमद्भागवत सुधा सागर के लेखक भी थे।
कथा सुनाने के अधिकारी नहीं होने के कारण किसी की हिम्मत नहीं हुई। क्योंकि सातवें दिन परिणाम आना था और सभी परमात्मा के नियम से परिचित थे। इसलिए ये सोचकर डर गए कि वे अधिकारी नहीं है तो किसी का जीवन क्यों बर्बाद करें?
तब ऋषि सुखदेव को श्रीमद्भगवद सुधा सागर का पाठ करने के लिए स्वर्ग से बुलाया गया। वह स्वर्ग से विमान में आये थे। तब राजा परीक्षित का मन इस संसार से हट गया और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हुई। लेकिन काल लोक का यह अटल नियम है कि स्वर्ग में सुख भोगकर और वहाँ की अवधि पूरी करने के बाद प्रत्येक प्राणी को नरक और 84 लाख योनियों में कष्ट भोगने के लिए जाना पड़ता है। ऋषि सुखदेव को कथा सुनाने का अधिकार था। इसलिए उन्हें चुना गया। सभी संत अधिकारी नहीं थे। सुखदेव द्वारा श्रीमद्भागवत सुधा सागर के पाठ से राजा परीक्षित को अस्थायी रूप से स्वर्ग की प्राप्ति हुई।
बात यह है कि पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के लिए अर्थात काल के जाल से मुक्ति पाने के लिए पूर्ण संत/ तत्वदर्शी संत की आवश्यकता होती है जो पूर्ण परमात्मा के तत्वज्ञान को जानता हो और सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान बताता हो ताकि उनके उपदेशों का पालन करने से आत्माएं सतलोक प्राप्ति के योग्य बन सकें ।
महत्वपूर्ण बिंदु: आज जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज पृथ्वी पर एकमात्र अधिकारी संत है जो सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान कर रहे हैं और शास्त्र आधारित भक्ति और सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान कर रहे है, जो आत्माओं को मुक्ति दिलाएंगे।
काल ब्रह्म किसी भी प्राणी को नहीं छोड़ता, चाहे वह किसी भी योनि में हो। वह इतना शैतान है कि वह अपने पुत्र ब्रह्मा, विष्णु और शिव को भी नहीं बख्शता। सभी उसके शिकार बने रहते है और 84 लाख योनियों में कष्ट भोगते है। सुखदेव ऋषि भी इसमें अपवाद नहीं थे। उन्होंने भी वैसा ही कष्ट सहा, जैसा कि उपरोक्त लेख से सिद्ध होता है। यहाँ परमेश्वर कबीर साहेब प्राणियों को चेताते है कि जब शुकदेव जैसे महान ऋषि मनमाना आचरण करने से गधे की योनि को प्राप्त हुआ तो तुम्हारी क्या औकात है? हे मानव! मोक्ष प्राप्त करने के लिए तत्वदर्शी संत द्वारा बताए गए सच्चे भक्ति मार्ग का अनुसरण कर और सच्ची भक्ति कर।
यह कालबली/शैतान ब्रह्म काल किसको छोड़ेगा? उसने सभी ऋषि-मुनियों को दुःख दिया है। उनमें से कोई भी उसके जाल से मुक्त नहीं हो सका, जैसा कि पूज्य संत गरीबदास जी महाराज जी सूक्ष्मवेद में वर्णित अपनी अमृत वाणी में बताते है,
वार ही गोरख, वार ही दत्त (दत्तात्रेय), वार ही ध्रुव प्रह्लाद अर्थ।।
वार ही सुखदेव, वार ही व्यास, वार ही पारासर प्रकाश।।
ये सभी महान भक्त काल की दुनिया में भटक रहे है और उसके जाल से छुटकारा पाने की प्रतीक्षा कर रहे है।
परमेश्वर कबीर जी देवों के देव है। वह मोक्ष प्रदान करने वाले हैं। यदि ऋषि सुखदेव ने शैतान ब्रह्म काल के बजाय परमेश्वर कबीर की सत भक्ति की होती तो उन्हें मोक्ष प्राप्त होता। हालाँकि भगवान विष्णु की सिफारिश पर उन्होंने राजा जनक को अपना गुरु बनाया लेकिन वो पूर्ण गुरु यानी तत्वदर्शी संत नहीं थे। शुकदेव का दुर्भाग्य रहा कि उन्हें कोई सच्चा गुरु/सतगुरु/ तत्वदर्शी संत नहीं मिल पाया, जो परम अक्षर ब्रह्म/ सतपुरुष का प्रतिनिधि हो। इसलिए, वे मानव जीवन के एकमात्र उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल रहे, जोकि सच्ची भक्ति करके मोक्ष प्राप्त करना है।
संदर्भ: सूक्ष्मवेद के 'सुमिरन का अंग’ में वर्णित वाणी नं. 71-87 उसी परम अक्षर ब्रह्म/सत्पुरुष कबीर साहेब, मुक्तिदाता की महिमा का वर्णन करती है।
वाणी नं 71 से 76:-
गरीब, ऐसा राम अगाध है, अविनासी गहिर गंभीर। हदि जीवों सें दूर हैं, बे हदियों के तीर।।71।।
गरीब, ऐसा राम अगाध है, बे कीमत करतार। सेस सहसंफुनि रटत है, अजहुं न पाया पार।।72।।
गरीब, ऐसा राम अगाध है, अपरंपार अथाह। उरमें किरतम ख्याल है, मौले अलख अल्लाह।।73।।
गरीब, ऐसा राम अगाध है, निरभय निहचल थीर। अनहद नाद अखंड धुनि, नाड़ी बिना सरीर।।74।।
गरीब, ऐसा राम अगाध है, बाजीगर भगवंत। निरसंध निरमल देखिया, वार पार नहिं अंत।।75।।
गरीब, पारब्रह्म बिन परख है, कीमत मोल न तोल। बिना उजन अनुराग है, बहुरंगी अनमोल।।76।।
सरलार्थ:– जो पूर्ण परमात्मा है। वह ऐसा अगाध राम है यानि सबसे आगे वाला (अगाध) सर्वोपरि है, अविनाशी तथा गहर गम्भीर (समुद्र की तरह शक्ति से भरा गहरा) है। वह हद जीवों (जो काल की सीमा वाले है, उसी काल ब्रह्म पर आश्रित हैं, उन जीवों) से दूर है। उनको उसका ज्ञान नहीं है। इसलिए उनको उस अविनाशी परमेश्वर से कोई लाभ प्राप्त नहीं होता। जो बेहद के है यानि जिन्होंने उस असीम शक्तियुक्त परमात्मा को जान लिया है, वह परमात्मा उनके साथ है। (71)
वह परमात्मा पारस पत्थर की तरह अनमोल है। उस परमात्मा की प्राप्ति के लिए शास्त्रविधि रहित नाम यानि राम का जाप शेष नाग जी हजार (संहस्र) मुखों से जप रहा है। आज तक उनको भी अविनाशी परमात्मा का पार (अंत) नहीं पाया है। (72)
परमेश्वर अपरमपार अथाह यानि समन्दर की तरह अमित (बेहद) शक्ति संपन्न है। तत्त्वज्ञान के अभाव से प्रत्येक ऋषि-देव अपने उर (हृदय) में किरतम यानि कृत्रिम (मन कल्पित) ख्याल (विचार) से मौला (परमात्मा) अलख अल्लाह (निराकार-दिखाई न देने वाला) मानते है। (73)
वह परमेश्वर अचल (निश्चल) यानि अविनाशी है, निर्भय है। थीर का अर्थ भी स्थिर यानि निश्चल होता है। पद्य भाग में पदों की तथा रागों को पूर्ण करने के कारण ऐसे दोहरे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। उस परमेश्वर के लोक में अखण्ड धुन बज रही है। उस परमेश्वर का शरीर पाँच तत्त्व से बना नाड़ी वाला नहीं है। (74)
वह परमेश्वर बाजीगर की तरह अद्भुत चमत्कार करता है। निरसंध (जिसकी शक्ति की सीमा नहीं) तथा पवित्र है। वह अपरमपार शक्ति वाला है। जिस सतपुरूष को अन्य गुरूजन व ऋषिगण अलख अल्लाह (निराकार प्रभु) कहते है, उनको परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई है। यह मैंने (संत गरीबदास जी ने) देखा है। (75)
पारब्रह्म परमात्मा की परख (पहचान) किसी को नहीं है। उसकी कीमत (मूल्य) तथा तोल (वजन) का क्या वर्णन किया जा सकता है? उसकी महिमा सुनकर उसके प्रति मेरे को अनुराग (प्राप्ति का प्रेम) है। वह बहुरंगी है। जैसे काशी में जुलाहा (धाणक) बना। मेरे को (संत गरीबदास जी को) जिन्दा बाबा के रूप में मिला तथा सतलोक में सतपुरूष रूप में बैठा देखा। इस प्रकार बहुरंगी यानि बहुरूपिया कहा है। (76)
वाणी नं. 77 से 87:-
गरीब, महिमा अबिगत नाम की, जानत बिरले संत। आठ पहर धुनि ध्यान है, मुनि जन रटैं अनंत।।77।।
गरीब, चन्द सूर पानी पवन, धरनी धौल अकास। पांच तत्त हाजरि खड़े, खिजमतिदार खवास।।78।।
गरीब, काल करम करै बदंगी, महाकाल अरदास। मन माया अरु धरमराय, सब सिर नाम उपास।।79।।
गरीब, काल डरै करतार सै, मन माया का नास। चंदन अंग पलटे सबै, एक खाली रह गया बांस।।80।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अबिगत अन्यत न जाइ। बाहिर भीतर एक है, सब घट रह्या समाइ।।81।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी एक। आदि अंत जाके नहीं, ज्यूं का त्यूंही देख।।82।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी ऐंन। महिमा कही न जात है, बोले मधुरै बैन।।83।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी आदि। सतगुरु मरहम तासका, साखि भरत सब साध।।84।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी पीर। चरण कमल हंसा रहे, हम हैं दामनगीर।।85।।
गरीब, सजन सलौना राम है, अचल अभंगी आप। हद बेहद सें अगम है, जपो अजपा जाप।।86।।
गरीब, ऐसा भगली जोगिया, जानत है सब खेल। बीन बजावें मोहिनी, जुग जंत्रा सब मेल।।87।।
सरलार्थ:– उस परमात्मा को प्राप्त करने के लिए अनन्त मुनिजन मनमाने नामों की रटना लगा रहे हैं (जाप कर रहे हैं), परंतु अविगत नामों (दिव्य मंत्रों) को तथा उनकी महिमा को बिरला संत ही जानता है। (77)
उस परमात्मा के आदेश से पाँचों तत्त्व (आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी) कार्य करते है। वे तो परमेश्वर कबीर जी के खिदमतदार यानि सेवा करने वाले (सेवक) दास है। (78)
ब्रह्म काल उस परमेश्वर को बंदगी यानि प्रणाम करके नम्र भाव से स्तुति करता है, (करम) दया की याचना करता है तथा महाकाल (अक्षर पुरूष) भी उस परमेश्वर से अरदास यानि प्रार्थना करता है, और इस तरह वे अपने-अपने लोक चला रहे हैं। मन (काल ब्रह्म), माया (देवी दुर्गा) और धर्मराय (काल का न्यायधीश) सबके सिर पर नाम उपासना है यानि सबको भक्ति करना अनिवार्य है, तब उनका पद सुरक्षित रहता है। (79)
(नोट:– यहां अक्षर पुरूष को महाकाल इसलिए कहा है क्योंकि जब इसका एक दिन जो एक हजार युग का है, पूरा होता है तो काल ब्रह्म-दुर्गा सहित एक ब्रह्माण्ड का विनाश हो जाता है। सर्व प्राणी अक्षर पुरूष के लोक में रखे जाते है। ज्योति निरंजन जब इक्कीसवें ब्रह्माण्ड में होता है, उस समय वह भी महाकाल कहा जाता है।)
ज्योति निरंजन काल भी परमेश्वर कबीर जी से भय मानता है। उस परमेश्वर के दिव्य मंत्रों के जाप से मन में विकार उत्पन्न नहीं होते तथा माया का नाश हो जाता है यानि सांसारिक पदार्थों का संग्रह करने वाला स्वभाव समाप्त हो जाता है। परमात्मा के आध्यात्म ज्ञान के वचनों – सत्संग का प्रभाव अच्छी आत्माओं यानि पूर्व जन्म में शुभ संस्कारी प्राणियों पर ही पड़ता है। जो अन्य प्राणियों के शरीर (कुत्ते-गधे, सूअर के शरीर) को त्यागकर मानव शरीर प्राप्त करते है। उन पर सत्संग वचन का प्रभाव शीघ्र नहीं पड़ता। उदाहरण दिया है कि जैसे वन में चंदन के वृक्ष होते है, उसके आसपास अन्य नीम, बबूल, आम, शीशम आदि-आदि के वृक्ष भी होते है और बाँस भी उगा होता है। चंदन की महक को आसपास के अन्य वृक्ष ग्रहण कर लेते है और चंदन की तरह खुशबूदार बन जाते है, परंतु बाँस के ऊपर चंदन की महक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। (80)
वाणी नं. 81 से 87 तक एक जैसा ही ज्ञान है। परमेश्वर की महिमा सामान्य रूप में बताई गई है कि वह परमात्मा सज्जन यानि नेक है। अविगत यानि दिव्य है। (अन्यत न जाई) उसकी खोज में अनेकों स्थानों पर ना जाएँ, उसकी प्राप्ति सतगुरू द्वारा होगी। उस परमात्मा की शक्ति बाहर यानि शरीर से बाहर तथा भीतर यानि शरीर के अंदर एक समान है। सबके घट (शरीर रूपी घड़े) में (रहा समाई) व्यापक है। (81)
अचल (स्थिर-स्थाई) अभंगी (जो कभी न भंग/खत्म हो यानि अविनाशी) वह तो एक ही प्रभु (परम अक्षर ब्रह्म) है। उसका आदि (जन्म अर्थात् प्रारम्भ) तथा अंत (मृत्यु) नहीं है। वह तो सदा से ज्यों का त्यों ही दिखाई देता है। आप भी साधना करके उसे देखो। (82)
उस अविनाशी सज्जन परमात्मा की महिमा सम्पूर्ण रूप से कोई नहीं कह सकता क्योंकि वह अचल (स्थिर) तथा अभंगी एँन यानि वास्तव में अविनाशी स्थाई परमात्मा है। वह जब मुझे (संत गरीबदास जी को) मिला था तो बहुत प्रिय भाषा बोली थी। (मधुरे माने मीठे, बैन माने वचन।) (83)
उस अचल अभंगी राम का महरम यानि गूढ़ ज्ञान केवल सतगुरू यानि तत्त्वदर्शी संत ही जानता है। इस बात के साक्षी सब साध (संत जन) है। (84)
उस सज्जन सलौने (शुभदर्शी यानि जिसके दर्शन से आनन्द हो) अचल अभंगी राम, जो पीर यानि गुरू रूप में प्रकट होते है, के चरण कमल (शरण) में हंसा (मोक्ष प्राप्त भक्त) रहते है। हम (संत गरीबदास जी) उस परमात्मा के साथ ऐसे है (दामनगीर) जैसे चोली-दामन का साथ होता है यानि हम उस परमेश्वर के अत्यंत निकट है। (85)
वह अचल अभंगी सज्जन सलौना (शुभदर्शी) राम (परमेश्वर कबीर) हद (काल की सीमा) बेहद (सत्यलोक की सीमा) के पार अकह लोक में मूल रूप से रहता है। उसकी प्राप्ति के लिए सतगुरू जी से दीक्षा लेकर अजपा (श्वांस-उश्वांस से) जाप जपो (स्मरण) करो। (86)
वह परमेश्वर ऐसा भगली (जादूगर) जोगिया (योगी=साधु रूप में प्रकट होने वाला) है। जो सब खेल जानता है कि कैसे जीव की रचना हुई? कैसे यह काल जाल में फँसा? कैसे काल ब्रह्म ने इसको अज्ञान में अंधा कर रखा है? काल का जीव को अपने जाल में फँसाए रखने का क्या उद्देश्य है? (उसको एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों को नित खाना पड़ता है) कैसे जीव को काल जाल से छुड़वाया जा सकता है? 'बीन बजावैं मोहिनी' यानि काल प्रेरित सुंदर स्त्रियाँ भक्तों को कैसे मधुर वाणी बोलकर आकर्षित करती हैं। बीन बजाने का भावार्थ यह है कि जैसे सपेरा बीन यंत्र बजाकर सर्प को वश में करता है। ऐसे ही काल के आदेश से सुंदर परियाँ सुरीले गाने गाकर साधकों को अपने जाल में फँसाती है। वे सब जोग यानि सब विधि (जुगत से) तथा जंत्र यानि अन्य अदाओं के जंत्र से अपनी ओर खींचती हैं यानि सब आकर्षणों को मिलाकर जीव को फँसाती हैं। (87)
(जोग जुगत का अर्थ है योग युक्त करना यानि अपने साथ जोड़ने की युक्ति लगाती हैं। जंत्र का अर्थ है आध्यात्मिक क्रिया भी करती हैं, इसे तन्त्र-मन्त्र करना भी कहते हैं।)
जैसा कि ऊपर बताई गई वाणी, परमेश्वर कबीर साहेब की महिमा प्रमाणित करती है कि वह सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान है। उनकी सच्ची भक्ति ही आत्माओं को कसाई ब्रह्म काल के जाल से मुक्त करा सकती है, जिसमें ऋषि शुकदेव बिल्कुल विफल रहे। क्योंकि उन्होंने किसी सच्चे संत से तत्वज्ञान प्राप्त नहीं किया था, जैसा कि पूज्य संत गरीबदास दास जी महाराज ने अपनी अमृत वाणी में भी कहा है,
तत्व ज्ञान नहीं सुखदेव कहा रै झूमकरा।।
नहिं विश्वामित्र वशिष्ठ सुनो रै झूमकरा।।
इसके कारण उन्होंने गधे की योनि में जन्म पाया और 84 लाख योनियों तथा नरक में कष्ट भोगा। सूक्ष्मवेद में वर्णित वाणी प्रमाणित करती है कि सुखदेव को परमेश्वर कबीर जी का अविनाशी लोक नहीं मिला, जोकि ब्रह्म काल की दुनिया से बहुत ऊपर है और वह अभी भी यहीं पर भटक रहे है।
जट कुण्डल ऊपर आसन है, सतगुरु की सैल सुनो भाई | जहां ध्रुव प्रह्लाद नहीं पहुंचे सुखदेव कूं मारग ना पाई।
नारद मुनि निरत रहे, दत्त गोरख से कोन सुच्चा |
बड़ी सैल अधम सुल्तान करी, सतगुरु तकिया तुक ऊंचा है |
इस वाणी में आदरणीय संत गरीबदास जी महाराज पूछते है कि वह सुख देने वाला परमेश्वर कहाँ रहता है तथा मुक्ति प्रदाता कौन है?
कोई है रे परले पार का, जो भेद कहे झंकार का।।
वह कोई और नहीं बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांडों के रचनहार सतपुरुष कबीर साहेब जी है। पूज्य संत गरीबदास जी महाराज ने सूक्ष्मवेद में लिपिबद्ध अपनी अमृत वाणी में सुखदेव की उत्पत्ति का सुन्दर वर्णन किया है,
गंदा अंडा हो गया देह मिटी माल सीन।।
अकाल पुरुष का नाद सुन, बहुर भया परवीन।।
उडा विहंगम रूप धर गर्भ योनि में बास।।
शिव शंकर से ग्रा बन्या, पियुं याके स्वांस।।
ब्रह्मा विष्णु महेश लग फिर भया समागम आन।।
चोर हमारा उदर में, इब होरी खेंचातान।।
व्यास व्यास की स्त्री कर बंधन आधीन।।
तिहुं देवा दर्शन भये, भाग बड़े ल्योलीन।।
बोले व्यास उदास होये कैसा चोर दयाल, कित से आया कौन है मोसे कहो हवाल।।
शिव बोले बानी कहे भाखों विधि संयोग, देयी चरित्र देव रचे सुरत निरत संजोग।।
जन्म योनि नाही तास के देह गरे नाही नाद।।
ब्रह्म तत हमरा सुना ताते वाद विवाद।।
कहे व्यास की इस्त्री, सून ब्रह्मा विष्णु महेश, ये पुत्तर सुखदेव है, सुनियो वचन संदेश।।
बोलत सुखदेव गरभ में, सुनियो तीनो देव।।
लख चौरासी में पड़े, भिन्न भिन्न भाको भेव।।
कीट पतंग भवंग हवे योनि धारी कै बार।।
अनन्त कोटि जब हो गई जनम मरन हमार।।
द्वादस वर्ष पुकाये कर बाहर आये देव, ओवल नाल कमर कसी, चले पंथ सुखदेव।।
व्यास कहे सुखदेव से कहाँ चले चितभंग, बोले बालक ब्रह्म गति ऐता ही सत्संग।।
कोट कलप जुग जन्म की समझ पड़ी है मोहे, और कौन पिता को पुत्तर है कै समझाऊं तोहे।।
गरीब पांच तत्व मिले उड़े विहंगम रूप।।
हुंकारा तभी भरा, बोले सत् स्वरूप।।
गगन मंडल को उड़ गये, बैकुंठ को किया पास, तीन लोक वितरित किये जीव शबद निवास।।
ऐसा जीव जिहां में मिट्टी महल सब झूठ।।
शंकर से सतगुरु मीले पद पावे अन् भूत।।
गर्भ मणि परमार जे सुख जैसा होय, जनक किये गुरु आन कर, छूटे सकल डरोये।।
न्यारे न्यारे करम है ये न्यारी न्यारी जात, कोई काहू का है नहीं, झूठा संगी साथ।।
रिन सम्बन्धी जुडे है ये मादर पिदर भ्रात , ग्रहद्वारा और इस्त्री फिर आप आप को जात।।
सतगुरु संगी संत है पारब्रह्म की सेव, सारनाम सरजीवन जडी, पास रहे दिल देव।।
दम सुदम को सोध ले ओहम सोहम सार, उल्टा गोता मारिये, परले पार दीदार।।
दम सुदम को शोधकर जपिये अजप्पा जाप, प्राण पिहाना करेगा, तो अनल बीच कर गाप।।
भंवर विहंगम उड़त है त्रिकुटी छाजे तेज, प्राण पुरुष परचा भया, लख पार ब्रह्म की सेज।।
इला पिंगला घाटी दो, सुषमन सिंध समाये, चार मुक्ति पानी भरे, जो उस द्वारे जाये।।
ब्रह्मरन्दर का घर है, तिल परवान परेख, नैनों माही रम रही, ये सूरमे जैसी रेख।।
ब्रह्मा शिव ध्यान धरे विष्णु करे परनाम, सतगुरु बिन पावै नहीं कबीर पुरुष का धाम।।
सारिग सुरत लगायी ले, पार और पिंड प्राण, गरीबदास पावे सही, परम पद निर्वाण।।
इस वाणी में सुखदेव ऋषि की उत्पत्ति, उन्हें आकाश में उड़ने की सिद्धि कैसे प्राप्त हुई तथा उनके अभिमान का क्या परिणाम हुआ, यह बताया गया है। सुखदेव ने अपनी साधना से केवल स्वर्ग प्राप्त किया, परंतु काल के जाल से पूरी तरह मुक्त नहीं हुए। इस वाणी में यह भी स्पष्ट किया गया है कि अगर सुखदेव कबीर परमेश्वर की भक्ति करते तो मुक्त हो जाते।
फिर भी एक अन्य वाणी में, संत गरीबदास जी सच्चे भक्त सुखदेव की महिमा करते है,
सन्दर्भ : 'यथार्थ भक्ति बोध' पुस्तक पृष्ठ संख्या 147-148, प्रवचन संख्या 73
आदरणीय संत गरीबदास जी महाराज ने दृढ़ भक्त सुखदेव, ध्रुव, प्रह्लाद और राजा जनक की महिमा का बखान करते हुए कहा है कि ये महापुरुष/दृढ़ भक्त सम्मान और प्रशंसा के पात्र है।
ध्रुव प्रहलाद और जनक विदेही। सुखदेव संगे परम सनेही ।।73।।
ऋषि सुखदेव की तरह काल के लोक में अन्य आत्माओं को हो रहे कष्टों को देखते हुए, परमेश्वर कबीर जी अपनी सभी प्रिय आत्माओं को सुख धाम, सतलोक लौटने के लिए कहते है।
चल हंसा सतलोक हमारे छोड़ो यो संसारा हो।।
इस संसार का काल है राजा माया जाल पसारा हो।।
चौदह खंड जाके मुख में बसत है, सबका करत अहारा हो।।
जार-बार कोयला कर डारे, फिर-फिर दे अवतारा हो।।
ब्रह्मा विष्णु शिव तन धारिया, और का कौन विचारा हो।।
सुर नर मुनि जन सब छल बल मारे, चौरासी में डारा हो।।
मध्य आकाश आप जहां बैठे, ज्योति स्वरूप उजियारा हो।।
जाको पार एक और नगर है, जहाँ बरसे अमृत धारा हो।।
स्वेत स्वरूप फूल जहाँ फूले, हंसा करत विहारा हो।।
ऋषि सुखदेव की सच्ची कथा से यह निष्कर्ष निकलता है कि यदि ऋषि सुखदेव को सच्ची भक्ति और सतलोक के बारे में पता होता तो वे स्वर्ग प्राप्ति के बारे में नहीं सोचते। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उन्हें कोई सच्चा संत नहीं मिला।
आदरणीय संत गरीबदास जी ने सतगुरु की महिमा बताई है,
गोरख से ज्ञानी घने और सुखदेव जति जहान।।
सीता सी बहु भारिया, संत दूर अस्थान।।
अर्थ : गोरखनाथ जैसे सिद्ध पुरुष बहुत मिल जाएंगे, सुखदेव जैसे श्रेष्ठ आचरण वाले निष्ठावान (जति) पुरुष आसानी से मिल जायेंगे, सीता जैसी निष्ठावान पत्नियाँ/ बहनें भी बहुत है। परन्तु सच्चा गुरु/संत मिलना बहुत दुर्लभ है।
आज जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज ही पृथ्वी पर एकमात्र ऐसे सतगुरु है, जिनकी शरण में जाने से साधकों को इस जीवन के साथ-साथ परलोक में भी सभी सुख प्राप्त होते है। इसलिए बिना किसी देरी के सभी को उनकी शरण में आना चाहिए और शुकदेव ऋषि की तरह अपने अनमोल मानव जन्म को शास्त्र विरुद्ध भक्ति करने में बर्बाद नहीं करना चाहिए। क्योंकि मनुष्य जन्म का मुख्य उद्देश्य मोक्ष प्राप्ति ही है।