सदना - एक कसाई की सच्ची कहानी


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भूले - भटके भक्तों को रास्ता दिखाना

हमारा देश भारतवर्ष साधु महात्माओं तथा पीर पैगम्बरों की भूमि रही है । सब जीवों के प्रति दया रखना, व किसी भी जीव-जन्तुओं को ना मारना, उन्हें हानि नही पहुँचाना, यही रीत रही है । यहाँ के मानव सृष्टि के शुरू से ही शांत, शील, नरम स्वभाव के रहे हैं । इनका रहना सहना सादा रहा है व इनके विचार बहुत अच्छे व उच्चे रहे हैं । ये अपने काम से काम रखते रहे व परमेश्वर का नाम जपते रहें । गरीबों की मदद करना, भूखों को भोजन करवाना व अतिथी को भोजन देना व स्वयं भूखे रहना, इनकी इंसानियत का एक अंग रहा है । मगर, ये सत्य भक्ति से अनजान, शास्त्रो के विरूद्ध साधना करते आ रहे हैं । भक्ति - परमेश्वर की तरफ खींचने वाली जबरदस्त कोशिश है, सच्ची लगन है ।

परमात्मा कबीर साहिब जी ने कहा है:-

गरीब, सो छल छिद्र मैं करूं, अपने जन के काज। हरणाकुश ज्यूं मार हूँ, नरसिंघ धरहूँ साज।।

पारख के अंग की वाणी नं. 61-62:-

गरीब, पीपा धनां रैदास थे, सदन कसाई कौनि। अबिगत पूरण ब्रह्म कूं, कहा करी अनहौनि।।61।।

अल्लाह कबीर अपनी प्रियतम आत्माओं को अमर दुनिया में वापस ले जाते हैं, जो इस मृतलोक  में रहने वाली सभी आत्माओं का मूल स्थान है। 'सतलोक' के लिए यह लेखन, अल्लाह कबीर की एक ऐसी प्रिय आत्मा का वर्णन करेगा जिसे कबीर साहिब जी ने अपनी शरण में लिया और उन्हें मोक्ष प्राप्ति के योग्य बनाया। इसी विधान के अनुसार परमेश्वर ने पूर्व जन्म के सदना कसाई को (पुनः) दोबारा अपनी शरण में लिया । सदना, परमेश्वर कबीर जी का भगत हुआ, उसे ज्ञान हुआ और कसाई का कार्य छोड़ दिया।

सदना की बूचड़खाने में नौकरी व जिन्दा महात्मा से भेंट

जैसे गाय अपने बच्चे (बछड़े-बछड़ी) पर अपनी दृष्टि रखती है। बच्चा भागता है तो उसके पीछे-पीछे भागती है। अन्य पशुओं से उसकी रक्षा करती है। इसी प्रकार परमेश्वर कबीर जी अपने भक्त के साथ रहता है।

गरीब, ज्यूं बच्छा गऊ की नजर में, यूं सांई कूं संत।
भक्तों के पीछे फिरै, भक्त वच्छल भगवन्त।।

जो भी संत शास्त्रो के अनुसार भक्ति साधना बताता है । सामाज में फैली कुरीतियों, कर्मकांड, अंधविश्वास  का बहिष्कार करता है और भक्त समाज को मार्ग दर्शन कर सामाजिक बुराइयों को दूर करता है तो वह पूर्ण संत है।

सदना एक कसाई का नौकर था । हर दिन में, वह दो से दस,  बकरियों /गाय /भैंस का कत्ल करता था। एक दिन परमेश्वर कबीर एक मुसलमान फकीर का भेष बनाकर सदना कसाई के पास आए । उसे सच्चा अध्यात्मिक ज्ञान प्रदान किया। जीव मारने से होने वाले पापों की जानकारी करवाई । परमेश्वर का सारा ज्ञान समझकर, सदना ने दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । परमेश्वर ने कहा कि पहले यह मांस काटने का कार्य छोड़ना पड़ेगा तभी दीक्षा मिलेगी । सदना ने जिंदा परमेश्वर को अपनी समस्या बताई कि मेरा निर्वाह (गुजारा) कैसे होगा । परमेश्वर ने कहा आपके शहर में सौ कसाई हैं, अन्य हजारों व्यक्ति भी तो निर्वाह करते हैं । आप भी कोई अन्य कार्य कर लो । सदना उसके लिए तैयार नहीं हुआ । परमेश्वर ने कहा तो आप हिंसा कम कर दो और निर्धारित कर लो कि एक दिन में, इतने पशुओं से ज्यादा नहीं काटूंगा। सदना कसाई इस बात पर मान गया क्योंकि उसकी दीक्षा लेने की बहुत इच्छा थी । सदना ने जिंदा महात्मा से कहा कि मैं सौ पशुओं से अधिक नहीं काटूंगा, चाहे नौकरी ही क्यों ना छोड़नी पड़े । महात्माजी ने कहा ‘ठीक है’ और आपको अगर मेरे से मिलना है तो जगन्नाथ मंदिर में, पूरी में रहता हूँ, वहां आ जाना ।

( पृष्ठ 33 ज्ञान बोध का सार :- )

इस पृष्ठ पर ‘जीव दया का ज्ञान’ है। जीवों की हत्या कसाई व्यक्ति करते हैं। जो शिकार करके खुशी मनाते हैं, वे दुष्ट अन्यायी हैं। उनको चाहिए कि बुराई तथा हिंसा त्यागकर सतगुरू शरण में आकर दीक्षा लेकर भक्ति करके अपना कल्याण कराऐं।

सदना की बकरे से वार्तालाप

सदना का कुछ समय ठीक तरह से चलता रहा । एक दिन नगर में कई विवाह थे । नवाब के लड़के की भी शादी थी। उस दिन सदना ने सौ बकरे काटे और परमेश्वर का धन्यवाद किया तथा अपने सभी औजार धोकर साफ करके रख दिए । रात कुछ ही बिती थी कि मालिक कसाई के पास एक अन्य कसाई आया और 50 बकरे लेने की बात कही । सौदा तय हो गया । उसके खाने के लिए मालिक ने सदना को बुलाया और कहा कि एक बकरा काट कर एक व्यक्ति की सब्जी के लिए रसोई घर में भिजवा दें ।

सदना घबरा गया और अपना वचन खंड होने का भय सताने लगा । उसके दिमाग में एक विचार आया कि क्यों ना बकरे के अंडकोष काटकर रसोई में भेज दूं । मेरा वचन रह जाएगा जो मैंने जिंदा महात्मा को दिया है । मालिक भी खुश हो जाएगा । अब सदना ने चाकू उठाया और बकरे की तरफ अंडकोष काटने चला तो उसी समय परमात्मा ने बकरे को बुद्धि प्रदान की व तत्वज्ञान की रोशनी कर दी । बकरे ने सदना से कहा कि हे सदन कसाई! यह सब ना भाई, आप मेरी गर्दन काट लो, अंडकोष नहीं । यह नया क्या कर रहे हो? ऐसी दुश्मनी शुरू मत करो । मैं सारी रात तड़प तड़प कर मर जाऊंगा। अगले जन्म में जब तुम बकरा बनोगे और मैं कसाई बनूँगा, तो परमेश्वर के न्याय अनुसार मैं तेरे अंडकोष काट लूंगा । सदना के हाथ से चाकू छूट गया, वह थरथर कांपने लगा । बेहोश होकर जमीन पर गिर गया ।

गरीब, कलि बिष कोयला कर्म हैं, चिनघी अगनि पतंग। अजामेल सदना तिरे, जरि बरि गये कुसंग।।10।।
गरीब, मौनि रहैं मघ नां लहैं, मारग बंकी बाट। शून्य शिखर गढ सुरंग है, करि सतगुरु सें सांट।।11।।

सतगुरु देवजी बताते हैं:-

सरलार्थ:-(कल बिस) पाप कर्म तो कोयले के समान हैं। सत्यनाम की अग्नि की (चिनघी) चिंगारी का (पतंगा) जलता हुआ लकड़ी या कोयले का टुकड़ा यदि उड़कर किसी सूखे घास या कोयले के ढे़र में गिर जाता है। उसे जलाकर राख कर देता है। ऐसे सत्य साधना का पतंगा पापों को जलाकर राख कर देता है। इसी तरह पापी अजामेल तथा सदना कसाई तर गए थे। भवसागर से पार हो गए थे। उनके पाप जल गए। उनका कुसंग यानि बुरी संगत छूट गई थी।(10,11)

सदना को नौकरी से निकालना

मालिक ने रसोई से खाना लाने के लिए आवाज लगाई । रसोइए ने मालिक को बताया कि सदना ने मांस नहीं काटा । मालिक कुछ नौकरों को साथ लेकर सदना के पास आया। मलिक ने कहा हरामखोर, नमक हराम मांस क्यों नहीं काटा । सदना ने कहा मालिक सौ बकरे काट दिए अब और नहीं काटूंगा । मालिक ने क्रोध में आकर सदना के दोनों हाथ नौकरों से कटवा दिए । नौकरी से निकाल दिया । हाथों का इलाज वैद्य से करवाया फिर जगन्नाथपुरी की ओर चल पड़ा ।

तब देखा दूतन कहं जाई। चौरासी तहां कुण्ड बनाई।।
कुण्ड-कुण्ड बैठे यमदूता। देत जीवन कहं कष्ट बहुता।।

नंबरदारनी ने सदना कसाई पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया

रास्ते में एक गांव में नंबरदार के घर, सदना रात को रुका । नंबरदारनी ने सदना के हाथ ना होने के कारण अपने हाथों से उसे खाना खिलाया । सदना ने नंबरदारनी की बड़ी प्रशंसा की । नंबरदारनी का चाल-चलन ठीक नहीं था । वह रात में सदना के बिस्तर पर गई और अपने साथ संभोग करने को कहा । सदना बिस्तर से खड़ा हो गया और कहा बहन तुम नंबरदार की पत्नी हो, उनकी इज्जत हो । मैं पहले से ही बहुत दु:खी हूँ । मुझे छोड़ दो। मैं अभी यहां से चला जाऊंगा । आप अपने पति के साथ विश्वासघात कर रही हैं। आपको अल्लाह के दरबार में जवाब देना होगा । उस परमेश्वर, उस परवरदिगार से तो डरो । रात के 2:00 बजे थे । नंबरदारनी ने सोचा यह मेरे पति को बताए, उसे पहले मैं ही बता देती हूँ । उसने पति को कहा कि यह मेहमान मेरे साथ गलत हरकत करने लगा । अपने टूटे हाथों से मेरे स्तनों को छू रहा है । जमीन पर सर पटक- पटक कर रोने लगी ।

नंबरदार ने सदना से कहा, अरे नीच! मूर्ख, मैंने तुम्हें खाना खिलाया, मेहमान बना कर रखा । यह तूने क्या किया । सदना ने अपनी बात कही । पर नंबरदार ने वह झूठी मानी । पंचायत को भी नवाब के साथ-साथ, उनकी बातों पर भरोसा नहीं हुआ ।

नंबरदार ने सदना को नवाब तथा पंचायत की मदद से मीनार में चिनवा दिया। मंशा थी कि दम घुटने से सदना की मौत हो । ज्योंहि कारीगर मीनार का द्वार बंद करके हटे, उसी समय मीनार के पत्थर- ईंटे आकाश में उड़ गई जैसे बम्ब विस्फोट हुआ हो । कुछ ईटें नंबरदार के घर के आंगन में व आसपास गिरीं । नंबरदारनी के दोनों स्तन कटकर गिर गए । वह दर्द से चिल्ला उठी और अपनी गलती बताने लगी । उसने स्वीकार किया कि उसने झूठी कहानी सुनाई ।
 
गरीब, जो जन मेरी शरण है, ताका हूँ मैं दास।
गैल-गैल लागा रहूँ, जब तक धरणी आकाश।।

परमेश्वर कबीर जी कहते हैं जो मेरी शरण में किसी भी जन्म में आया है, मैं उसे मुक्ति दिलाने के लिए कुछ भी लीला करके उसे अपनी शरण में लेकर मुक्त करता हूँ । उसके मोक्ष के लिए उसके पीछे पीछे भागता हूँ ।

अल्लाह कबीर ने सदना के हाथों को पूरा किया

सतगुरु देवजी बताते हैं:-

साधक को चाहिए कि वह परस्त्राी को माता तथा बहन के समान समझे, परधन पत्थर के तुल्य जाने।

भक्त के हृदय में दयाभाव होना चाहिए। जीवों के प्रति दया रखे। जीव हिंसा नहीं करनी चाहिए। ना ही माँस खाना चाहिए।

गुरू सेवा में फल सब आवै। गुरू विमुख नर पार न पावै।।
गुरू वचन निश्चय कर मानै। पूरे गुरू की सेवा ठानै।।
गुरू से शिष्य करे चतुराई। सेवाहीन नरक में जाई।।

नंबरदार का सारा परिवार देखने के लिए मीनार के पास आया । वहाँ सदना भक्त आराम से बैठा था और उसके दोनों हाथ ठीक हो गए थे। नगर के सभी निवासियों और नंबरदार दंपति ने अपनी गलती के लिए माफी मांगी। भगत सदना चुपचाप वहाँ से चले गए। सदना वहां से चलकर जगन्नाथपुरी, अपने परमेश्वर, सतगुरु के पास पहुंचा। जगन्नाथपुरी में जिंदा बाबा से भक्त सदना ने मुलाकात की। वहाँ सतगुरु को सदना ने सारा वृतांत कह सुनाया। उसने सतगुरु देवजी से नाम दीक्षा ली और अपना कल्याण करवाया ।

गरीब, राम नाम सदने पीया, बकरे के उपदेश। अजामेल से उधरे, भक्ति बंदगी पेश।।

सदना की प्रेरणा से कुछ समय के बाद उस शहर के अधिकतर 80% लोगों ने (हिंदू व मुसलमानों ने) परमेश्वर कबीर साहिब जी से (जो जिंदा बाबा के रूप में थे) नाम दीक्षा ली व अपना भी उद्धार करवाया ।

निष्कर्ष

केवल सतगुरूदेव जी ही आपत्ती के समय सहायता करते हैं। इसलिए `परमेश्वर कबीर जी ने कहा है कि : -

अंत समय जम दूत गला दबावै । ता समय कहो कौन छुड़ावै ।।
सद्गुरु एक छुड़ावन हारा । निश्चय कर मानहु कहा हमारा ।।

यदि कोई भक्त ज्ञान समझकर दीक्षित होकर अन्य भोले-भोले जीवों को ज्ञान चर्चा करके सत्य ज्ञान प्रचार द्वारा सद्गुरु शरण में लाकर दीक्षा दिलाता है तो उसको (एक जीव को) सत्य भक्ति मार्ग बताकर गुरु से दीक्षा दिलाने का इतना पुण्य होता है जितना एक करोड़ गायों को कसाई से बचाने का मिलता है । एक मानव का जीवन इतना बहुमुल्य तथा इतने पुण्यों से प्राप्त होता है।

यदि कोई मूर्ख प्रचारक मान-बड़ाई के वश होकर स्वयं दीक्षा देता है, स्वयं गुरु बन बैठता है तो वह महा अपराधी होता है। उससे परमेश्वर रुष्ट हो जाते हैं। तथा काल उसको कान पकड़कर घसीटकर ले जाता है। जैसे खटिक (कसाई) बकरे-बकरी को ले जाता है। मनुष्य को सभी बुराई और हिंसा को छोड़कर सच्चे सतगुरु की शरण में आकर, नाम दीक्षा लेकर, भक्ति करके, अपना कल्याण करवाना चाहिए।