42. एक लेवा एक देवा दूतं। कोई किसी का पिता न पूतं | जीने की राह


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एक किसान के घर एक पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र आठ वर्ष का हुआ तो पत्नी की मृत्यु हो गई। किसान के पास 16 एकड़ जमीन थी। कुछ वर्ष पश्चात् किसान ने दूसरी शादी की। उस पत्नी से भी एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुछ वर्ष पश्चात् उस पत्नी की भी मृत्यु हो गई। किसान का प्रथम पत्नी वाला पुत्र 16 वर्ष का हुआ। उसका विवाह कर दिया। किसान की भी मृत्यु हो गई। छोटा लड़का 10-12 वर्ष की आयु में रोगी हो गया। कुछ दिन उपचार कराया, फिर बड़े भाई (मौसी का बेटा) ने तथा उसकी पत्नी ने विचार किया कि उपचार पर क्यों खर्च किया? यदि मर गया तो इसके हिस्से के आठ एकड़ जमीन अपने पास रह जाएगी। यह विचार करके पड़ोस के गाँव से जो वैद्य उपचार के लिए आता था, उससे कहा कि इस लड़के को औषधि में विष मिलाकर दे दो। हम आपको धन दे देंगे। पाँच सौ रूपये के लालच में वैद्य ने उस लड़के को औषधि में विष खिलाकर मार दिया। गाँव वालों को बताया गया कि रोग के कारण मृत्यु हो गई। किसी को शंका नहीं हुई। बच्चे की मृत्यु रोग के कारण हुई मान ली।

उस मौसी के बेटे की मृत्यु के एक वर्ष पश्चात् बड़े भाई को पुत्र प्राप्त हुआ। खुशी का ठिकाना नहीं रहा। बच्चे के जन्म की खुशी में जीमनवार (लंगर) किया। पूरे गाँव में मिठाई बाँटी गई। उसके पश्चात् कोई संतान नहीं हुई। इकलौते पुत्र को प्रेम से पाला। अच्छा घी-दूध, दही खिला-पिलाकर हष्ट-पुष्ट कर दिया। सोलह वर्ष की आयु में विवाह कर दिया। उस समय बाल विवाह को गर्व की बात माना जाता था। वह लड़का रोगी हो गया। वैद्य पर वैद्य बुलाए। मंहगे से मंहगी औषधि खिलाई, परंतु व्यर्थ रहा। उस समय एक महीने में एक-एक हजार की औषधि खिलाई गई। हीरा तथा मोती भस्म भी औषधि में मिलाकर लड़के को खिलाया गया। जिस कारण से आठ एकड़ जमीन भी बेचनी पड़ी, परंतु रोग घटने की बजाय बढ़ता ही चला गया और अंतिम दिन आ गया। लड़के का पिता चिंतित अवस्था में पुत्र के पास बैठा था। उसी समय लड़का बोला, भाई साहब! एक काम कर। पिता ने कहा कि बेटा! मैं तेरा पिता हूँ। लड़का बोला कि मैं तेरा वह भाई हूँ जिसको आपने विष देकर मरवाया था। मैं ही अपना बदला लेने आपके पुत्र रूप में जन्मा हूँ। उस लड़के की माता जी भी वहीं विराजमान थी। लड़का बोला कि आठ एकड़ जमीन मेरे हिस्से की थी, वह मैंने वसूल कर ली है। अब केवल कफन तथा लकड़ियों का हिसाब शेष है, उसकी तैयारी करो। यह बात सुनकर पिता उर्फ भाई का मुख फटा का फटा रह गया। अपने किए पर दोनों (पति-पत्नी) ने पश्चाताप किया। परमात्मा का विधान अटल है। बड़े भाई ने पुत्र रूप में जन्मे छोटे भाई से प्रश्न किया कि हमने लालच में आकर जो पाप किया, हमें तो परमात्मा ने फल दे दिया। जिस उद्देश्य के लिए आपकी जान ली थी, वह आठ एकड़ जमीन गई तथा अन्य संतान है नहीं। यह शेष जमीन कोई और ही लेगा। हमारा तो नाश हुआ सो हुआ, यह तो होना ही चाहिए था। परमात्मा ने न्याय किया, परंतु जो लड़की आपकी पत्नी रूप में आई है, इसने कौन-सा अपराध किया है? जिस कारण से यह सती प्रथा के तहत आपके साथ जिंदा जलाई जाएगी। इसके साथ भगवान ने अन्याय किया है। छोटा भाई उर्फ पुत्र बोला कि मेरी मृत्यु के दो वर्ष पश्चात् वह वैद्य मर गया था जिसने मुझे पाँच सौ रूपये के लालच में विष देकर मारा था। यह पत्नी वही वैद्य (डाॅक्टर) वाली आत्मा है। इसको वह फल मिलेगा, जिंदा जलाई जाएगी। उस समय सती प्रथा जोरों पर थी। पति की मृत्यु के पश्चात् पत्नी को जिंदा उसी चिता में जलाया जाता।

प्रिय पाठको! विचार करो, परमात्मा की दृष्टि से कुछ नहीं छुपा है। जैसा करेगा, वैसा भरना पड़ेगा। प्रत्येक परिवार इसी प्रकार संस्कार के कारण एक-दूसरे से जुड़ा है। कोई पूर्व जन्म का कर्ज उतारने के लिए जन्मा है, कोई पूर्व जन्म का कर्ज लेने जन्मा है। उदाहरण के लिए:-

पिता ने लड़के को पढ़ाया। शादी से दो दिन पहले दुर्घटनाग्रस्त होकर मर गया। वह अपना कर्ज पिता से लेने आया था। बेटा जवान हुआ। कार्य करके निर्वाह करने लगा। पिता रोगी हो गया, लाखों रूपये लगे, व्यर्थ रहे, मर गया। यह पिता पिछले जन्म का कर्ज लेने आया था। कुछ देने आया था। लड़की का विवाह किया, दो वर्ष पश्चात् लड़की मर गई। बहुत दहेज दिया था। वह दामाद पूर्व जन्म के ऋण के बदले में लड़की भी ले गया और धन भी। वर्तमान में जो किसी के साथ धोखा करके धन हड़प लेते हैं, वह धन अगले जन्म में दामाद बनकर वसूलेगा। परमात्मा का अटल विधान है। बुद्धिमान को संकेत ही पर्याप्त है। उपरोक्त केवल कथा नहीं है, यह हकीकत है। कोई यह कहता है कि यह तो डराने के लिए कथा बनाई। किसने देखा है क्या होगा? जैसे चोर को भद्रपुरूष समझाते हैं कि भाई! चोरी मत किया कर। जब पकड़ा जाएगा तो पहले तो जनता पिटाई करेगी, फिर पुलिस पीटेगी और जेल में भी कष्ट उठाना पड़ेगा। यदि कोई कहे कि यह तो चोर को डराने के लिए कहा है। किसने देखा है कि आगे क्या होता है? विचार करें कि चोर को सच्चाई से अवगत करवाकर डराया है और सच्चाई भी है। यदि चोर सच्चाई से डरकर चोरी करना त्याग देगा तो उसकी भलाई है। यदि कहेगा कि किसने देखा है, आगे क्या होता है? उसके साथ वह सब गुजरेगी जो पहले बताई गई थी। इसी प्रकार जो उपरोक्त कथा को केवल समझाने-डराने के लिए ही मानेगा तो दुर्भाग्य होगा। इसको इतनी ही सत्य समझना, जैसे चोर को सतर्क किया है।

लेखक ने यह कथा सन् 1978 में एक पशुओं के डाॅक्टर से सुनी थी जो किसान के दो पुत्रों वाली कथा ऊपर बताई है। वह इस कथा को अपने पास बैठने वाले को अवश्य सुनाता था, परंतु अमल कतई नहीं करता था। दस रूपये की दवाई देकर चार distilled water के इन्जैक्शन लगाकर 200-300 रूपये वसूलता था। फिर शाम को मिलता तो अपने कारनामे भी बताता था कि यदि कम रूपये लूंगा तो भैंस वाला यह समझेगा कि अच्छी दवाई नहीं दी। भैंस को स्वस्थ तो दस रूपये की दवाई से ही हो जाना था। विचार करें कि ऐसे व्यक्तियों की कथनी और करनी में अंतर है तो उनके द्वारा सुनाई इन कथाओं का अन्य पर कैसे प्रभाव होगा? संत गरीबदास जी ने कहा है कि ये बातें कहन-सुनन की नहीं हैं, कर पाड़ने की हैं यानि इन पर अमल करना चाहिए। परमात्मा के विधान को समझकर निर्मल जीवन यापन करो। जीवन की राह को कांटों रहित बनाऐं।

एक लेवा एक देवा दूतं

जिस समय श्री शिव जी ने अपनी पत्नी पार्वती जी को अमरनाथ स्थान पर एक सूखे वृक्ष के नीचे बैठकर नाम दीक्षा (अमर मंत्र) दिया था। उस वृक्ष की खोगड़ (तने में बने बिल) में मादा तोते ने अण्डे उत्पन्न कर रखे थे। स्वस्थ अण्डे तो शिव जी की हाथों से बजाई ताली से बच्चे बनकर उड़ गए। उनमें एक अण्डा गंदा (अस्वस्थ) था। उसका जीव उसके अंदर था। जब श्री शिव जी ने श्री पार्वती जी को दीक्षा मंत्र सुनाया तो वह गंदा अण्डा स्वस्थ हो गया और तोते का बच्चा बन गया। पंख लग गई, उड़ने योग्य हो गया। पार्वती जी की समाधि लग गई। उसने हाँ-हाँ करना बंद कर दिया। तोता हाँ-हाँ करने लगा तो श्री शिव जी ने देखा कि पार्वती की तो समाधि लगी है, सुन-बोल कुछ नहीं रही है। हाँ-हाँ की आवाज किसकी है? देखा तो वृक्ष के तने के बिल (खोगड़) में तोता बोल रहा है। श्री शिव जी ने उसे मारना चाहा तो तोता उड़ गया। पीछे-पीछे श्री शिव जी सिद्धि से उड़कर मारने चले। ऋषि वेदव्यास जी की पत्नी ने जम्बाई ली। मुँह खोला तो तोते के शरीर को त्यागकर जीव व्यास की पत्नी के गर्भ में मुख से प्रवेश कर गया। श्री शिव जी ने व्यास की पत्नी से कहा कि मेरा ज्ञान चुराकर जीव तोते के शरीर को त्यागकर आपके गर्भ में चला गया है। यह मेरा चोर है, इसे मारूंगा। उसी समय ऋषि वेदव्यास जी भी आ गए थे, सब बातें सुन रहे थे। व्यास जी ने पूछा, हे भगवान! कौन-कैसा चोर? श्री शिव जी ने बताया कि मैं पार्वती जी को दीक्षा दे
रहा था। अंदर के कमलों का भेद बता रहा था तो इस तोते ने सुन लिया। यह किसी अनाधिकारी को मंत्र बता देगा तो वह अमर होकर जनता को पीड़ा देगा। यह अमर हो गया। मैं इस जीव को मारूंगा। व्यास जी बोले, हे शिव जी भगवान! जब यह अमर हो गया तो आप मारोगे कैसे? यह बात सुनकर श्री शंकर जी पार्वती के पास लौट गए। पार्वती जी को सब बातें बताई। श्री वेदव्यास जी ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखा तो पता चला कि पत्नी के गर्भ में पुत्र है। बारह वर्ष के पश्चात् पुत्र उत्पन्न हुआ। माता कहती थी कि पुत्र का नाम सुखदेव रखना है। इसके गर्भ में रहते हुए मुझे कोई दुःख नहीं हुआ। मन में खुशी बनी रहती थी। सुख का आभास होता रहता है। इसलिए गर्भ में ही उस बालक का नाम सुखदेव रख दिया था।
तोते के अण्डे में रहने और तुरंत मानव शरीर प्राप्त करने के कारण ब्राह्मण लोग उसे शुक देव (शुक माने तोता) भी कहते थे। ऋषि शुकदेव जी का जन्म लेते ही बारह वर्ष का शरीर बन गया और उठकर चलने लगे तो ऋषि वेदव्यास जी ने कहा, हे पुत्र! कहाँ चला? शुकदेव जी अपने माता-पिता की ओर पीठ करके बोले, आपका और मेरा इतना ही संग है। (संस्कार है।) ऋषि व्यास जी ने कहा, हे पुत्र सुखदेव! हमने तेरे जन्म लेने की बारह वर्ष प्रतिक्षा की और आज आप छोड़कर जा रहे हो। एक बार मुख तो दिखा दे। सुखदेव ऋषि बोले, हे ऋषि जी! बहुत बार आप मेरे पिता बने, अनेको बार मैं आपका पिता बना। यह तो बड़ा बखेड़ा (झंझट) है। मैं भक्ति करके जन्म-मरण से मुक्ति करवाऊँगा। मैं आपकी ओर मुख इसलिए नहीं कर रहा हूँ कि कहीं मेरा आप में मोह न हो जाए। यह कह संत गरीबदास जी ने वाणी द्वारा बताया है कि:-

एक लेवा एक देवा दूतं, कोई काहू का पिता न पूतं।
ऋण सम्बन्ध जुड़ा एक ठाठा, अंत समय सब बारा बाटा।। 

भावार्थ:- शुकदेव जी ने कहा कि जो परिवार के सदस्य बेटा-पिता आदि-आदि नातों में हैं, वे सब पूर्व जन्मों का ऋण लेने या देने के लिए जुड़े हैं। वास्तव में कोई किसी का पिता-पुत्र नहीं है। मृत्यु के उपरांत सब अपने-अपने संस्कारवश भिन्न स्थानों पर जाकर अन्य शरीर धारण कर लेते हैं। इसलिए कोई किसी का पिता-पुत्र नहीं है।

पाठको ने ऊपर किसान के पुत्रों वाली कथा में पढ़ा है कि बड़े भाई ने छोटे मौसी के पुत्र को आठ एकड़ जमीन के लालच में मरवाया तो वही जीव उसका पुत्र बनकर अपना ऋण लेने जन्मा और अपना हिसाब चुकता करके मर गया। इसलिए कहा है कि:-

एक लेवा (ऋण लेने वाला) एक देवा (ऋण चुकाने वाला) दूतम। कोई काहू का पिता नहीं पूतं। ऋण सम्बन्ध जुड़ा एक ठाठा यानि परिवार रूप में ठाठ से रहते दिखाई देते हैं, अचानक मृत्यु हो जाती है। अंत समय में बारा बाटा यानि मुत्यु के पश्चात् कोई कहीं और जन्म लेगा यानि बारा (12) बाट (रास्तों) पर चले जाऐंगे। इतनी वार्ता पिता से करके शुकदेव आकाश में उड़कर अन्य स्थान पर चला गया। प्रिय पाठको! इसलिए भक्ति करो और जीव का कल्याण करवाओ। केवल परिवार के चिपककर अपना जीवन नष्ट न करो। परमात्मा की भक्ति से ऋण भी सरलता से उतर जाएगा।