देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी के बारे में पूरा स्पष्टीकरण


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माना जाता है कि देवी लक्ष्मी सौभाग्य, सुख, सुविधा, धन और समृद्धि की प्रदाता हैं और लोगों द्वारा माना जाता है कि वे हिन्दू देवी हैं। जबकि लक्ष्मी जी के भक्त मानते हैं कि वह भौतिक पूर्ति और संतुष्टि की पूर्ति करती हैं। क्योंकि वह हिन्दू भक्तों द्वारा पूजित महान देवी हैं, तो मन में यह सवाल उठता है कि अन्य धर्मों के लोग धन और समृद्धि प्राप्त करने के लिए किसकी पूजा करते हैं? क्या हम यह मानें कि हिन्दू धर्म के अलावा अन्य धर्मों के लोग जो देवी लक्ष्मी की पूजा नहीं करते, वे धनी नहीं होते और समृद्ध और खुशहाल जीवन नहीं जीते हैं? इससे भक्त समाज में संदेह उत्पन्न होता है कि यदि देवी लक्ष्मी हिन्दू भक्तों को समृद्धि और सुख प्रदान करती हैं तो अन्य धर्मों के श्रद्धालुओं को समृद्ध जीवन कौन प्रदान करता है, जो देवी लक्ष्मी की पूजा ही नहीं करते? यह सवाल ही इस संदेह का मूल है। पूरी दुनिया सिर्फ भौतिक आनंद के पीछे दौड़ रही है और धन को जमा करने में जुटी है, लेकिन उनमें से सभी देवी लक्ष्मी की पूजा नहीं करते हैं, तो वे सभी सुखी और खुशहाल जीवन कैसे जी रहे हैं? वे धन और समृद्धि कहाँ से प्राप्त कर रहे हैं? हमारे प्राचीन पवित्र ग्रंथ हमें इस पर मार्गदर्शन करते हैं, क्योंकि वे ही हमारे मार्गदर्शक हैं।

पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 15 श्लोक 17 में बताया गया है कि परमेश्वर कोई और है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सभी का पालन पोषण और संरक्षण करते हैं। इसका मतलब है कि देवी लक्ष्मी के अलावा एक और परम शक्ति है जो खुशियों का भंडार है और समृद्धि और धन के प्रदाता हैं। वह सभी जीवों की इच्छाओं को पूरा करते हैं। इसका मतलब है कि वह सभी को समृद्धि प्रदान करते हैं, चाहे वह किसी भी धर्म का पालन कर रहा हो। लेकिन वह कौन है? वहीं श्रद्धालुओं द्वारा देवी लक्ष्मी को ही गलती से महालक्ष्मी भी कहा जाता है, जबकि ये दो अलग-अलग देवियां हैं, एक समान नहीं हैं।

 

इस लेख के माध्यम से हम गहरा विश्लेषण करेंगे कि –

● देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी कौन हैं?

● इन दो देवियों के ऊपर वह सर्वोत्तम शक्ति कौन है जो सभी को सुख समृद्धि प्रदान करते हैं?

इस निष्कर्ष तक पहुँचने के लिए सबसे पहले हमें उपरोक्त दो देवियों के बीच के अंतर को जानने की आवश्यकता है। इसके लिए हमें सबसे पहले सृष्टि रचना (ब्रह्मांड के निर्माण) के बारे में पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है, जैसा कि सच्चिदानंद घन ब्रह्म की वाणी में वर्णित है।

इस लेख में निम्नलिखित बातों को मुख्य रूप से स्पष्ट किया जाएगा –

● देवी महालक्ष्मी की उत्पत्ति

● क्या देवी महालक्ष्मी की कोई संतान है?

● समुन्द्र मंथन में देवी महालक्ष्मी की भूमिका क्या थी?

● देवी लक्ष्मी की उत्पत्ति

● मानव शरीर में बने कमल चक्रों में देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी की स्थिति

● दोनों देवियाँ कहाँ निवास करती हैं?

● महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी का मूल मंत्र क्या है?

● नाशवान देवियाँ सुख समृद्धि प्रदान नहीं कर सकतीं।

● मोक्ष का प्रदाता कौन है महालक्ष्मी या देवी लक्ष्मी?

देवी महालक्ष्मी की उत्पत्ति

सूक्ष्मवेद पवित्र कबीर सागर के अध्याय-अनुराग सागर, स्वांस गुंजार, कबीर बानी, स्वसमवेद बोध, ज्ञानसागर और अध्याय ज्ञानबोध पेज नं. 21-22 के अनुसार, सर्वशक्तिमान कविर्देव (कबीर साहेब)/परम अक्षर ब्रह्म (उत्तम पुरुष) सम्पूर्ण ब्रह्मांडों के निर्माता हैं। सर्वप्रथम केवल एक स्थान अनामी (अनामय/अकह) लोक था, जहां कबीर परमेश्वर रहा करते थे। उन्होंने अपनी शब्द शक्ति से नीचे के तीन अमरलोकों (शाश्वत स्थानों) अगम लोक, अलख लोक और सतलोक की रचना की। आकाश, पृथ्वी, जल, पहाड़, पेड़, आत्माएँ आदि सभी की रचना उनके द्वारा शब्द शक्ति द्वारा की गई। 
 

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ब्रह्म काल 21 ब्रह्मांडों का स्वामी है, जहां हम सभी आत्माएँ फंसी हुई हैं जिसे सतपुरुष कबीर साहिब ने सतलोक में सृजित किया था। इसके तप को देखकर हम सभी इसके ब्रह्मांडो में फंसी आत्मायें इस पर आसक्त होकर इसके साथ आ गईं। सतलोक में ब्रह्म काल ने अपनी पत्नी प्रकृति/अष्टांगी/दुर्गा के साथ दुराचार किया, इसलिए परमेश्वर ने हमें भी उनके साथ ही निष्कासित कर दिया गया। अब ये दोनों 21 ब्रह्मांडों के शासक हैं। 
 

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यह संक्षेप में सृष्टि रचना की जानकारी है। परंतु यह जानने के लिए कि देवी महालक्ष्मी कौन हैं, हमें जानना होगा कि काल ब्रह्म और देवी दुर्गा को अमर धाम सतलोक से निकाल दिए जाने के बाद इन्होंने 21 ब्रह्मांडों के अंदर सृष्टि को कैसे रचा? जानने के लिए पढ़ें आगे पूरा लेख। 

एक ब्रह्माण्ड में, ब्रह्म काल ने एक ब्रह्मलोक बनाया है। उसमें इसने तीन गुप्त स्थल बनाए हैं। पहला स्थल रजोगुण-प्रधान है, जहाँ यह ब्रह्म (काल) खुद महाब्रह्मा और अपनी पत्नी दुर्गा को महासावित्री रूप में रखता है। इस स्थान पर इनके मिलन (संतानोत्पत्ति क्रिया) से पैदा हुआ बेटा स्वयं रजोगुणी बन जाता है और रूप भी वैसा हो जाता है जिसका नाम ब्रह्मा रखते हैं। दूसरा स्थल सतगुण प्रधान है, जहाँ यह क्षर पुरुष खुद को महाविष्णु और अपनी पत्नी दुर्गा को महालक्ष्मी रूप में रखता है। इस स्थान पर इनके मिलन से उत्पन्न पुत्र स्वयं सतगुणी हो जाता है और रूप भी वैसा ही हो जाता है, जिसका नाम विष्णु रखते हैं। इस काल ने एक तामोगुण प्रधान तीसरा स्थल भी बनाया है। यहाँ पर यह सदाशिव/महाशिव और अपनी पत्नी दुर्गा को महापार्वती रूप में रखता है। उनके पति-पत्नी व्यवहार से पैदा होने वाले बेटे स्वयं तमोगुण युक्त हो जाता है और रूप भी वैसा हो जाता है जिसका नाम शिव/शंकर रखते हैं। (प्रमाण खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन मुंबई से प्रकाशित श्रीमद्देवीभागवत पुराण तीसरा स्कन्ध अध्याय 4 श्लोक 42, अध्याय 5 श्लोक 8 व 12 पृष्ठ 10-12, गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत तीसरा स्कन्ध अध्याय 1-3)
 

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ब्रह्म और दुर्गा इन तीनों बच्चों को अचेत (मूर्छित) करके रखते हैं और जब ये बड़े होते हैं, तो इन्हें सचेत करके अपने भोजन के लिए जीवों की उत्पत्ति भगवान ब्रह्मा द्वारा करवाता है, संरक्षण यानि पालन का कार्य श्री विष्णु द्वारा करवाया जाता है (सभी को काल जाल में फंसायें रखने के लिए सभी में प्यार और स्नेह विकसित करवा कर रखता है) और संहार की भूमिका भगवान शिव को सौंप देता है। क्योंकि काल/ज्योति निरंजन को प्रतिदिन एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों के सूक्ष्म शरीर से निकलने वाली गंध (मैल) को खाने का श्राप लगा हुआ है। क्योंकि सतलोक में काल ब्रह्म के द्वारा किए गए दुराचार के परिणामस्वरूप परमेश्वर कविर्देव ने इसे एक लाख मानव शरीरधारी प्राणियों से निकलने वाली गंध को खाने का श्राप दिया था। जिसके अंतर्गत वह एक जलते हुए पत्थर (तप्तशिला) पर एक लाख मनुष्यों के सूक्ष्म शरीर को जलाकर उनके शरीर से गंध निकालता है और फिर उसे वह खाता है। इससे आत्माएँ मरती नहीं हैं, लेकिन दर्द असहनीय होता है।

 

सार :- उपरोक्त संक्षिप्त सृष्टि रचना (ब्रह्मांड के निर्माण) से स्पष्ट हो जाता है कि देवी दुर्गा की उत्पत्ति सतलोक में परमेश्वर कविर्देव की शब्द शक्ति के द्वारा हुई थी और यहाँ 21 ब्रह्मांड में वह खुद इन तीन गुप्त स्थलों में महासावित्री, महालक्ष्मी और महापार्वती रूप में निवास करती है। वहीं ब्रह्म काल महाब्रह्मा, महाविष्णु और महाशिव/सदाशिव रूप में निवास करता है।

 

क्या देवी महालक्ष्मी की कोई संतान है?

त्रिमूर्ति रजोगुण ब्रह्मा, सतोगुण विष्णु और तमोगुण शिव/शंकर/महेश, देवी महालक्ष्मी/ देवी दुर्गा और ब्रह्मकाल के पुत्र हैं। इनके अनेकों प्रमाण हैं। जिसका उल्लेख निम्नलिखित पवित्र ग्रंथों में किया गया है:

श्रीमद्देवीभागवत महापुराण (खेमराज श्रीकृष्णदास प्रकाशन मुंबई से प्रकाशित) के स्कन्ध 3, अध्याय 5, श्लोक 8, पृष्ठ 11 पर शिव जी अपनी माता दुर्गा से कहते हैं "हे मातः! यदि आप हम पर दयालु हैं तो मेरे को तमगुण युक्त क्यों उत्पन्न किया, विष्णु को सतगुण तथा ब्रह्मा को रजगुण युक्त क्यों उत्पन्न किया?"

Srimad-Devi-Bhagavatam-Third-Skandha-Chapter-5-Page-138


संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत (गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित, संपादक हनुमानप्रसाद पोद्दार, चिम्मनलाल गोस्वामी) के तीसरे स्कन्ध के अध्याय 4-5 में श्री विष्णु जी ने अपनी माता दुर्गा की स्तुति करते हुए कहा है कि हे मातः! आप शुद्ध स्वरूपा हो, सारा संसार आप से ही उद्भाषित हो रहा है, हम आपकी कृपा से विद्यमान हैं, मैं, ब्रह्मा और शंकर तो जन्मते मरते हैं, हमारा तो अविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मत्यु) हुआ करता है, हम अविनाशी नहीं है। तुम ही जगत जननी और सनातनी देवी हो और प्रकृति देवी हो शंकर भगवान बोले, हे माता ! विष्णु के बाद उत्पन्न होने वाला ब्रह्मा जब आपका पुत्र है तो क्या में तमोगुणी लीला करने वाला शंकर तुम्हारी सन्तान नहीं हुआ अर्थात मुझे भी उत्पन्न करने वाली तुम ही हो।
 

 

मार्कण्डेय पुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित) के अध्याय 25 में 131 पृष्ठ पर कहा है कि रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शंकर, तीनों ब्रह्म की प्रधान शक्तियाँ है, ये ही तीन देवता है ये ही तीन गुण हैं।

 

Sri-Markandeya-Purana-Chapter-25-Page-131

पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 14 श्लोक 3-5 में भी है कि रज् (रजगुण ब्रह्मा), सत (सतगुण विष्णु), तम् (तमगुण शंकर) तीनों गुण प्रकृति अर्थात् दुर्गा देवी से उत्पन्न हुए हैं। प्रकृति तो सब जीवों को उत्पन्न करने वाली माता है मैं (गीता ज्ञान दाता ब्रह्म काल) सब जीवों का पिता हूँ। मैं दुर्गा (प्रकृति) के गर्भ में बीज स्थापित करता हूँ जिससे सबकी उत्पत्ति होती है। प्रकृति दुर्गा से उत्पन्न ये तीनों गुण (रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव) ही जीवात्मा को शरीर में बाँधते हैं यानि सब जीवों को काल के जाल में फसांकर रखने वाले ये ही तीनों देवता हैं।
 

Shrimad-Bhagavad-Gita-Chapter-14-Shloka-3

Shrimad-Bhagavad-Gita-Chapter-14-Shloka-4-5

संक्षिप्त शिवपुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित, संपादक हनुमानप्रसाद पोद्दार) के रुद्र संहिता, अध्याय 5-9 में प्रकरण है कि "अपने पुत्र नारद जी के प्रश्न का उत्तर देते हुए श्री ब्रह्मा जी ने कहा कि हे पुत्र ! आपने सृष्टि के उत्पत्तिकर्ता के विषय में जो प्रश्न किया है, उसका उत्तर सुन। प्रारम्भ में केवल एक "सद्ब्रह्म" ही शेष था। सब स्थानों पर प्रलय था। उस निराकार परमात्मा ने अपना स्वरूप शिव जैसा बनाया। उसको "सदाशिव" कहा जाता है, उसने अपने शरीर से एक स्त्री निकाली, वह स्त्री दुर्गा, जगदम्बिका, प्रकृति देवी तथा त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव) की जननी कहलाई जिसकी आठ भुजाएं हैं, इसी को शिवा भी कहा है। उन काल रूपी ब्रह्म/सदाशिव और शिवा (दुर्गा) ने पति-पत्नी रूप में रहकर एक पुत्र की उत्पत्ति की, उसका नाम विष्णु रखा। फिर श्री ब्रह्मा जी ने बताया कि जिस प्रकार विष्णु जी की उत्पत्ति शिव तथा शिवा के संयोग (भोग-विलास) से हुई है, उसी प्रकार शिव और शिवा ने मेरी (ब्रह्मा की) भी उत्पत्ति की। इसी तरह फिर शिव/रुद्र की भी उत्पत्ति हुई।

उपरोक्त प्रमाणों से स्वसिद्ध है कि रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु और तमगुण शंकर जी हैं और देवी दुर्गा को ही प्रकृति कहते हैं। साथ ही, यह भी सिद्ध हुआ कि तीनों देवों की माता देवी दुर्गा/देवी महालक्ष्मी और पिता काल ब्रह्म/सदाशिव हैं। तथा देवी दुर्गा का पति ब्रह्म काल है। देवी महालक्ष्मी और उनके पुत्रों के बारे में जानने के बाद अब आपके मन में यह जानने की उत्सुकता होगी कि फिर देवी लक्ष्मी कैसे उत्पन्न हुई? तो इससे समझने के लिए हमें समुद्र (सागर) मंथन के दौरान क्या हुआ था, इसके बारे में जानने की आवश्यकता है? तो चलिए जानते समुद्र मंथन की विशेष जानकारी।

देवी महालक्ष्मी की समुद्र मंथन में क्या भूमिका थी?

जब तीन बच्चे ब्रह्मा, विष्णु, शिव युवा हो गए, तो मां भवानी (दुर्गा/प्रकृति/अष्टांगी) ने कहा, "तुम समुद्र का मंथन करो।" जब पहली बार समुद्र का मंथन किया गया। उससे चार वेद निकले, जिसे माता के आदेशानुसार श्री ब्रह्मा ने चारों वेदों को रख लिया और उन्हें पढ़ा। परंतु वास्तव में पूर्णब्रह्म ने ब्रह्म अर्थात् काल/सदाशिव को पांच वेद दिए थे। लेकिन ब्रह्म ने केवल चार वेद प्रकट किए। उसने पांचवा वेद जिसमें पूर्णब्रह्म की प्राप्ति की सम्पूर्ण जानकारी दी गई थी उसे ब्रह्म ने छिपा दिया, नष्ट कर दिया। पवित्र ऋग्वेद मण्डल नं. 9 सूक्त 96 मंत्र 16-20 के अनुसार, उस गुप्त ज्ञान को पूर्ण परमात्मा स्वयं कविरगीर्भिः अर्थात् कविर वाणी (कबीर वाणी) द्वारा कविता और दोहों के माध्यम से प्रकट करता है। वेदों की उत्पत्ति की वास्तविक पूर्ण जानकारी जानने के लिए पढ़िये सम्पूर्ण सृष्टि रचना।

देवी लक्ष्मी की उत्पत्ति कैसे हुई?

श्रीमद्देवीभागवत (गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित) के तीसरे स्कन्ध, अध्याय 6 में दिया गया है कि जब माता के आदेश अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव जी दूसरी बार समुद्र मंथन करने गए तो प्रकृति (दुर्गा) ने खुद अपने तीन रूप सावित्री, लक्ष्मी व पार्वती बनाए और समुद्र में छिप गई। फिर वह समुद्र मंथन के दौरान बाहर आई। फिर देवी दुर्गा ने क्रमशः सावित्री भगवान ब्रह्मा को, लक्ष्मी भगवान विष्णु को और पार्वती भगवान शंकर को पत्नियों के रूप में स्वीकार करने के लिए दे दी। बाद में इन्हीं से देवता और राक्षस आदि रजोगुण के प्रभाव से पैदा हुए। इससे काल के ब्रह्मांड में जीवन की शुरुआत हुई। जिससे स्पष्ट है कि देवी लक्ष्मी, महालक्ष्मी से भिन्न है। 

देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी का मानव शरीर में स्थित कमल चक्रों में स्थान

पवित्र कबीर सागर, अध्याय कबीर वाणी, पृष्ठ संख्या 111, अध्याय भवतारण बोध पृष्ठ 57 और अध्याय अनुराग सागर पृष्ठ 151 में कबीर परमेश्वर ने तथा संत गरीबदास जी ने अपनी अमृत वाणी 'ब्रह्मवेदी' में मानव शरीर में देवताओं के निवास स्थान का विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। उन्होंने बताया है कि परमेश्वर ने मानव शरीर में विभिन्न भाग बनाए हैं, जिसमें रीढ़ की हड्डी के अंदर की ओर कमल (चक्र) बने हुए हैं। जिन पर पूर्ण परमात्मा समेत अन्य देवी-देवता भी निवास करते हैं। संत गरीबदास जी महाराज की अमृतवाणी "ब्रह्मवेदी" का कुछ अंश

 

मूल चक्र गणेश बासा, रक्त वर्ण जहां जानिये।

किलियं जाप कुलीन तज सब, शब्द हमारा मानिये।।

स्वाद चक्र ब्रह्मादि बासा, जहां सावित्री ब्रह्मा रहैं।

ॐ जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग सतगुरु कहैं।।

नाभि कमल में विष्णु विशम्भर, जहां लक्ष्मी संग बास है। 

हरियं जाप जपन्त हंसा, जानत बिरला दास है।।

हृदय कमल महादेव देवं, सती पार्वती संग है। 

सोहं जाप जपंत हंसा, ज्ञान जोग भल रंग है।।

कंठ कमल में बसै अविद्या, ज्ञान ध्यान बुद्धि नासही।

लील चक्र मध्य काल कर्मम्, आवत दम कुं फांसही।।

त्रिकुटी कमल परम हंस पूर्ण, सतगुरु समरथ आप है।

मन पौना सम सिंध मेलो, सुरति निरति का जाप है।।

 

  1. मूल चक्र : यह चक्र गुदा के निकट रीढ़ की हड्डी के अंत से ठीक एक इंच ऊपर मौजूद है। इसमें श्री गणेश देव का निवास है। इस कमल की 4 पंखुड़ियाँ होती हैं।
  2. स्वाद चक्र : मूल कमल से दो उंगलियों की चौड़ाई के ऊपर यानि मूल चक्र से एक इंच ऊपर स्वाद कमल है। इस कमल में श्री ब्रह्मा जी और उनकी पत्नी सावित्री जी का निवास है। इस कमल की 6 पंखुड़ियाँ होती हैं।
  3. नाभि चक्र : नाभि के ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी से जुड़ा नाभि चक्र होता है। इस कमल में श्री विष्णु जी और उनकी पत्नी लक्ष्मी जी का निवास स्थान है। इस कमल की 8 पंखुड़ियाँ होती हैं।
  4. हृदय चक्र : छाती में बने दोनों स्तनों के मध्य स्थान में ठीक पीछे रीढ़ की हड्डी पर यह हृदय कमल बना है। इस कमल में श्री शिव जी और उनकी पत्नी पार्वती (सती) जी रहती हैं। इस कमल की 12 पंखुड़ियाँ होती हैं।
  5. कंठ चक्र : गले के पीछे रीढ़ की हड्डी के ऊपर यह कण्ठ कमल बना है। इसमें अविद्या अर्थात् दुर्गा जी का निवास है। जिसके प्रभाव से जीव का ज्ञान तथा भक्ति के समय ध्यान समाप्त होता है तथा बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। इस कमल की 16 पंखुड़ियाँ होती हैं। काल निरंजन भी सूक्ष्म रूप में उसके साथ रहता हैं क्योंकि दुर्गा जी काल निरंजन की पत्नी है।
  6. संगम कमल : यह छठा संगम कमल त्रिकुटी से पहले है जो सुष्मणा के दूसरे अंत वाले द्वार पर बना है। इसकी तीन पंखुड़ियाँ है। इसमें सरस्वती का निवास है। वास्तव में दुर्गा जी ही अन्य रूप में यहाँ रहती है। इसके साथ 72 करोड़ सुन्दर देवियाँ रहती हैं। इसकी तीन पंखुड़ियाँ हैं। एक पंखुड़ी में सरस्वती तथा 72 करोड़ देवियाँ जो भक्तों को आकर्षित करके उनको अपने जाल में फँसाती हैं। दूसरी पंखुड़ी में काल अन्य रूप में रहता है तथा करोड़ों युवा देव रहते हैं जो भक्तमतियों को आकर्षित करके काल के जाल में फँसाते हैं। तीसरी पंखुड़ी में परमेश्वर जी हैं जो अपने भक्तों को सतर्क करने के लिए अन्य रूप में रहते हैं।
  7. त्रिकुटी कमल : सातवां त्रिकुटी कमल है इसे सुरति कमल भी कहा गया है। मस्तिष्क का वह स्थान जो दोनों आँखों के ऊपर बनी भौवों (सेलियों) के मध्य जहाँ टीका लगाते हैं, उसके पीछे की ओर आँखों के पीछे यह त्रिकुटी कमल है। जिसकी काली तथा सफेद दो पंखुड़ियाँ हैं। काली में काल का सतगुरु रूप में निवास है तथा सफेद में सत्य पुरुष का सतगुरु रूप में निवास है। 
  8. संहस्र कमल : संहस्र कमल, इसमें काल ने एक हजार ज्योति जगा रखी हैं। इसकी हजार पंखुड़ी हैं। संहस्र कमल दल का स्थान सिर के ऊपरी भाग में कुछ पीछे की ओर है जहाँ पर कुछ साधक बालों की चोटी रखते हैं, पर है। इस कमल में काल निरंजन के साथ-साथ परमेश्वर की निराकार शक्ति भी विशेष तौर से विद्यमान है।

इससे स्पष्ट होता है कि मानव शरीर में देवी महालक्ष्मी/दुर्गा 'कंठ कमल' में निवास करती है, जबकि देवी लक्ष्मी 'नाभि कमल' में निवास करती है। अब जानते है कि काल के क्षेत्र में दोनों देवियों का आवास कहां होता है?

देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी कहां निवास करती हैं?

देवी दुर्गा के पास 21 ब्रह्मांडों में अपना अलग द्वीप है। लेकिन महालक्ष्मी के रूप में वह अपने पति ब्रह्म के साथ महाविष्णु रूप में बनाए गए गुप्त सतोगुण प्रधान क्षेत्र में निवास करती है। जहां वे पति-पत्नी के रूप में निवास करते हैं। जिसे इसी लेख में आपने पूर्व में पढ़ा। जबकि देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु 'वैकुंठ लोक' में निवास करते हैं, जो समुद्र के अंदर गहराई में होता है। वहां भगवान विष्णु अपनी पत्नी देवी लक्ष्मी के साथ शेषनाग के बिछौने पर विश्राम करते हैं।

देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी का मूल मंत्र क्या है?

देवी लक्ष्मी मूर्तियों और चित्रों में एक महिला के रूप में दिखती हैं, जो एक कमल के फूल पर बैठी हुई हैं, जो भाग्य और आध्यात्मिक मोक्ष का प्रतीक माना जाता है। अज्ञानतावश कुछ भक्त अपने स्वास्थ्य, धन और समृद्धि को बढ़ाने के लिए ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं त्रिभुवन महालक्ष्म्यै अस्माकं दारिद्रय नाशय प्रचुर धन देहि देहि क्लीं ह्रीं श्रीं ओं, ॐ श्रीं श्रीये नमः या ॐ ऐं ह्रीं श्रीं ज्येष्ठ लक्ष्मी स्वयम्भुवे ह्रीं ज्येष्ठायै नमः जैसे विभिन्न लक्ष्मी मंत्रों का जाप करते हैं। श्रद्धालु लोकमान्यताओं के अनुसार इस तरह के मंत्रों का जाप करके देवी लक्ष्मी जी की पूजा करते हैं। लेकिन ये कहीं भी किसी प्रभु प्रदत्त धर्मग्रंथ जैसे पवित्र चारों वेद, पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता गीता में वर्णित नहीं है। इन मंत्रों का पाठ करके देवी लक्ष्मी की कृपा नहीं पाई जा सकती। 

यह एक मनमाना पूजा का तरीका है। यहां तक कि कुछ श्रद्धालु लक्ष्मी देवी के प्रतीक के रूप में झाड़ू की भी पूजा करते हैं, जिसे वे लक्ष्मी देवी का प्रतीक मानते हैं। ऐसे अज्ञानी भक्तों की मूर्खता उनके बिना सत्य जाने आध्यात्मिक परंपराओं के कारण होती है, क्योंकि काल ब्रह्म के क्षेत्र में त्रिगुणमयी माया के कारण सभी प्राणियों को झूठी क्रियाओं में फंसा दिया जाता है। जिसकी विशेष जानकारी परमेश्वर कबीर जी ने "कर नैनों दीदार महल में प्यारा है" शब्द में दी है। इस शब्द में कबीर साहेब जी ने इन सभी देवी-देवताओं के वास्तविक मंत्र की जानकारी दी है तथा काल द्वारा जीवों को भ्रमित करने के लिए की गई रचना का भी वास्तविक ज्ञान दिया है।

 

 

काल ने शुरुआत में परमेश्वर से कहा था कि वह उसके बच्चों यानि हम आत्माओं को बेकार की पूजा जैसे तीर्थ यात्रा करने, मूर्तिपूजा, मंदिरों, मस्जिदों, चर्चों, गुरुद्वारों की यात्रा और झूठे धार्मिक गुरुओं का अनुसरण करने में लगाएगा, जो उन्हें परमात्मा से मिलने वाला लाभ प्रदान नहीं करवा सकते हैं। जिससे वे मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकते। इस तरह काल भोली आत्माओं से छलावा करता है और उन्हें अपने जाल में फंसाए रखता है। यह काल की बड़ी चाल है, जिसे भगवान कविर्देव ने उजागर किया है, जो इस काल के लोक में सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान को प्रदान करने और सच्चे मोक्ष मंत्रों को प्रदान करने के लिए अवतरित होते हैं और आत्माओं को मुक्ति प्राप्त करने के लिए भक्ति का सही तरीका बताते हैं, जिससे आत्माएं मुक्ति प्राप्त करने के योग्य होती हैं। परमात्मा जब पृथ्वी पर अवतरित होते हैं तो एक तत्वदर्शी संत की भूमिका निभाते हैं। आज उन्हीं परमात्मा के अवतार आध्यात्मिक विश्व विजेता संत, जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज हैं, जो देवी महालक्ष्मी और लक्ष्मी देवी के सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान करते हैं। इन शक्तिशाली मंत्रों से भक्तों को इस जीवन में और आगामी जीवन में सुख और समृद्धि मिलती है। इसलिए शोधकर्ताओं, पाठकों को सलाह दी जाती है कि वे संत रामपाल जी महाराज से दीक्षा लें, ताकि उनका कल्याण हो सके और मोक्ष प्राप्त करने के लिए वे पात्र हो सकें।

नश्वर देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी धन वैभव प्रदान नहीं कर सकती

पवित्र गीता अध्याय 8 श्लोक 16 के अनुसार, ब्रह्मलोक तक जितने भी लोक हैं वे सभी पुनरावृत्ति में हैं अर्थात क्षर पुरुष/ब्रह्म काल के 21 ब्रह्मांड नाशवान हैं। इनमें उपस्थित सभी प्राणी, देवता, स्वर्ग, नरक, अंतरिक्ष भी प्रलय में नष्ट होते हैं, इसी तरह देवी दुर्गा/महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी भी नष्ट हो जाती हैं। जब ये देवियां जन्म-मृत्यु के चक्र में यानि नाशवान हैं, तो समझा जा सकता है कि वे अपने भक्तों को अमरत्व, धन और खुशियाँ प्रदान नहीं कर सकती। उनकी शक्तियां बहुत सीमित हैं और वे केवल कर्म फल ही दे सकती हैं। 

Shrimad-Bhagavad-Gita-Chapter-8-Shloka-16

परमेश्वर कबीर जी कहते हैं:

 

गुण तीनों की भक्ति में, भूल परो संसार।

कहै कबीर निज नाम बिन, कैसे उतरैं पार।।

तीन देव की करि हैं भक्ति। उनकी कबहु ना होवे मुक्ति।।

तीन देव का अजब ख्याला। देवी देव प्रपंची काला।।

इनमें मत भटको अज्ञानी। काल झपट पकड़ेगा प्राणी।।

तीन देव पुरूष गम्य ना पाई। जग के जीव सब फिरैं भुलाई।।

जो कोई सतपुरूष भजै भाई। ताको देख डरै जम राई।।

 

भावार्थ:- कबीर परमेश्वर जी कहते हैं कि जो तीन देव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) की भक्ति करते हैं, उनकी कभी मुक्ति नहीं हो सकती। देवी तथा देवताओं व काल ब्रह्म में आस्था मत रखो, आपको काल अचानक झपट कर ले जाएगा। तीनों देवताओं यानि ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को भी परम अक्षर पुरूष का गम्य यानि भेद नहीं मिला। अन्य जीव जो इनके साधक हैं, उनको कैसे परमेश्वर मिलेंगे? अर्थात् कभी मुक्ति नहीं हो सकती। जो सतपुरूष यानि परम अक्षर ब्रह्म को भजता है, उसको देख (जम राई) काल राजा यानि काल पुरूष भी भय मानता है।

 

पवित्र गीता अध्याय 15 श्लोक 16, 17 में गीता ज्ञानदाता ब्रह्म काल ने बताया है कि उत्तम पुरुष यानि परम अक्षर ब्रह्म (पूर्णब्रह्म) तो क्षर पुरुष (ब्रह्म) और अक्षर पुरुष (परब्रह्म) से अन्य है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका पालन-पोषण करता है, जिसे अविनाशी परमेश्वर कहा जाता है। जिससे स्पष्ट है कि यही पूर्ण परमात्मा पूजा के योग्य है।

Shrimad-Bhagavad-Gita-Chapter-15-Shloka-16

Shrimad-Bhagavad-Gita-Chapter-15-Shloka-17

 

पवित्र गीता अध्याय 15 श्लोक 16, 17 तथा पवित्र गीता अध्याय 18 श्लोक 62 के अनुसार वास्तव में परम सुख और समृद्धि का प्रदाता भी यही पूर्णब्रह्म परमेश्वर है, न कि देवी लक्ष्मी और महालक्ष्मी।

Shrimad-Bhagavad-Gita-Chapter-18-Shloka-62

 

पवित्र गीता अध्याय 18 श्लोक 62 मोक्ष का प्रदाता कौन है, देवी महालक्ष्मी या देवी लक्ष्मी या फिर कोई अन्य परमेश्वर?

जैसा कि आपने पूर्व में जाना कि देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी दोनों नश्वर हैं। वे खुद मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाई हैं तो फिर वे अपने साधकों को मोक्ष कैसे प्रदान कर सकती हैं? इसलिए देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी की पूजा मनमाना आचरण है और यह पवित्र सद्ग्रंथों के विपरीत है क्योंकि इनकी पूजाओं का किसी भी सद्ग्रंथ चारों वेद, श्रीमद्भगवद्गीता में प्रमाण नहीं है। मोक्ष केवल तत्वदर्शी संत से नाम उपदेश (नाम दीक्षा) लेने के बाद परम अक्षर ब्रह्म पूर्ण परमेश्वर कविर्देव (कबीर साहेब) जी की सतभक्ति करने से प्राप्त किया जा सकता है, जो गीता अध्याय 15 श्लोक 4, अथर्ववेद कांड 4 अनुवाक 1 मंत्र 7, यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 8, यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32, ऋग्वेद मण्डल 1 सूक्त 1 मंत्र 5 आदि के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्मांड के निर्माता हैं और यहीं परमात्मा पापनाशक, काल के कर्म बंधनों से छुड़वाकर मोक्ष प्रदान करता है, जिससे इन्हें बन्दीछोड़ भी कहा जाता है।

Yajurved-Chapter-5-Mantra-32

 

यजुर्वेद अध्याय 5 मंत्र 32

 

विशेष: नाम उपदेश को केवल दु:ख निवारण के दृष्टिकोण से नहीं लेना चाहिए, बल्कि स्वयं के उपकार के लिए लेना चाहिए। क्योंकि सतभक्ति से सभी सुख स्वयं ही मिलते हैं। इस विषय में परमेश्वर कबीर जी कहते हैं:

 

कबीर, सुमिरण से सुख होत है, सुमिरण से दुःख जाए।

कहैं कबीर सुमिरण किए, सांई माहिं समाय।।

 

इसीलिए परमेश्वर कबीर जी की भक्ति सभी मानव को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य मानकर अपने उद्धार यानि मोक्ष के उद्देश्य से करना चाहिए। क्योंकि कबीर परमात्मा पापनाशक, मोक्ष दाता, विघ्नहर्ता, आयु सीमा में वृद्धि करने वाले, सर्व रोग नाशक और परम सुखदायक (सम्पूर्ण शांतिदायक) हैं। जिसका प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक 62, यजुर्वेद अध्याय 8 मंत्र 13, ऋग्वेद मण्डल 9 सूक्त 80 मंत्र 2 और ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 161 मंत्र 2, 5, सूक्त 162 मंत्र 2, सूक्त 163 मंत्र 1-3 आदि स्थानों में दिया गया है।

Yajurved-Chapter-8-Mantra-13

Rigved-Mandal-10-Sukta-161-Mantra-2

निष्कर्ष

देवियों के रूप में होने के कारण दोनों देवियों में मनुष्यों से थोड़ी अधिक लेकिन सीमित शक्तियां हैं। लेकिन वे न तो मोक्ष दे सकती है और न स्वयं प्राप्त कर सकती हैं। क्योंकि केवल मानव जीवन पाकर ही सच्ची भक्ति करके मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार मिलता है। ये देवियां मानव जन्म प्राप्त होने तक मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती हैं। साथ ही, पूर्व अवलोकित आधारों से निष्कर्ष निकलता है कि:

  • देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी दो अलग देवियां हैं।
  • देवी महालक्ष्मी देवी दुर्गा/भवानी/अष्टांगी है, जिनके पति ब्रह्म काल हैं और ब्रह्मा, विष्णु, शिव उनके तीन पुत्र हैं।
  • देवी लक्ष्मी, दुर्गा देवी या यूँ कहें महालक्ष्मी का ही एक अन्य रूप है, जिनके पति त्रिलोकीनाथ भगवान विष्णु हैं।
  • न तो देवी महालक्ष्मी और न ही देवी लक्ष्मी सुख समृद्धि और संपदा की प्रदानकर्ता हैं, बल्कि पूर्ण परमात्मा कबीर जी ही सुख समृद्धि के प्रदानकर्ता हैं।
  • काल लोक में निवास करने वाली अन्य आत्माओं की तरह देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी दोनों नाशवान हैं यानि जन्म मृत्यु के दुष्चक्र से दोनों देवियाँ दुःखी हैं।
  • देवी महालक्ष्मी और देवी लक्ष्मी किसी व्यक्ति के कर्म के लेख को बदल नहीं सकती हैं अर्थात वे केवल हमें वह वस्तु ही प्रदान कर सकती हैं जो हमारे प्रारब्ध में निर्धारित है। 
  • सर्वोच्च परमेश्वर कबीर ही हमारे कर्म को बदल सकते हैं और वे हमें सांसारिक सुखों को प्रदान कर सकने वाले एकमात्र सर्वशक्तिमान परमात्मा हैं।
  • हमारे धर्मग्रंथों अनुसार पूर्णब्रह्म परमेश्वर कबीर जी ही पूजा के योग्य हैं जो पापनाशक, संकटमोचक, मोक्ष प्रदाता और सम्पूर्ण शांतिदायक परमात्मा हैं।