54. भक्त परमार्थी होना चाहिए | जीने की राह


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अनुराग सागर के पृष्ठ 162 तथा 163 का सारांश:-

भक्त परमार्थी होना चाहिए

जैसे गाय स्वयं तो जंगल में खेतों में घास खाकर आती है। स्वयं जल पीती है। मानव को अमृत दूध पिलाती है। उसके दूध से घी बनता है। गाय सुत यानि गाय का बच्छा हल में जोता जाता है। इंसान का पोषण करता है। गाय का गोबर भी मनुष्य के काम आता है। मृत्यु उपरांत गाय के शरीर के चमड़े से जूती बनती हैं जो मानव के पैरों को काँटों-कंकरों से रक्षा करती है। मानव जन्म प्राप्त प्राणी परमार्थ न करके भक्ति से वंचित रहकर पाप करने में अनमोल जीवन नष्ट कर जाता है। माँसाहारी नर राक्षस की तरह गाय को मारकर उसके माँस को खा जाता है। महापाप का भागी बनता है। इस सम्बन्ध की परमेश्वर कबीर जी की निम्न वाणी पढ़ें:- 

‘‘परमार्थी गऊ का दृष्टांत‘‘

गऊको जानु परमार्थ खानी। गऊ चाल गुण परखहु ज्ञानी।।
आपन चरे तृण उद्याना। अँचवे जल दे क्षीर निदाना।।
तासु क्षीर घृत देव अघाहीं। गौ सुत नर के पोषक आहीं।।
विष्ठा तासु काज नर आवे। नर अघ कर्मी जन्म गमावे।।
टीका पुरे तब गौ तन नासा। नर राक्षस गोतन लेत ग्रासा।।
चाम तासु तन अति सुखदाई। एतिक गुण इक गोतन भाई।।

‘‘परमार्थी संत लक्षण‘‘

गौ सम संत गहै यह बानी। तो नहिं काल करै जिवहानी।।
नरतन लहि अस बु़द्धी होई। सतगुरू मिले अमर ह्नै सोई।।
सुनि धर्मनि परमारथ बानी। परमारथते होय न हानी।।
पद परमारथ संत अधारा। गुरू सम लेई सो उतरे पारा।।
सत्य शब्द को परिचय पावै। परमारथ पद लोक सिधावै।।
सेवा करे विसारे आपा। आपा थाप अधिक संतापा।।
यह नर अस चातुर बुद्धिमाना। गुन सुभ कर्म कहै हम ठाना।।
ऊँचा कर्म अपने सिर लीन्हा। अवगुण कर्म पर सिर दीन्हा।।
तात होय शुभ कर्म विनाशा। धर्मदास पद गहो विश्वासा।।
आशा एक नामकी राखे। निज शुभकर्म प्रगट नहिं भाखे।।
गुरूपद रहे सदा लौ लीना। जैसे जलहि न विसरत मीना।।
गुरू के शब्द सदा लौ लावे। सत्यनाम निशदिन गुणगावे।।
जैसे जलहि न विसरे मीना। ऐसे शब्द गहे परवीना।।
पुरूष नामको अस परभाऊ। हंसा बहुरि न जगमहँ आऊ।।
निश्चय जाय पुरूष के पासा। कूर्मकला परखहु धर्मदासा।।

भावार्थ:- परमेश्वर कबीर जी ने धर्मदास जी के माध्यम से मानव मात्र को संदेश व निर्देश दिया है। कहा है कि मानव को गाय की तरह परमार्थी होना चाहिए। जिनको सतगुरू मिल गया है, वे तो अमर हो जाएंगे। घोर अघों (पापों) से बच जाएंगे, सेवा करें तो अपनी महिमा की आशा न करें। यदि अपने आपको थाप (मान-बड़ाई के लिए अपने आपको महिमावान मान) लेगा तो उसको अधिक कष्ट होगा। शुभ कर्म नष्ट हो जाएंगे।

उपदेशी केवल एक नाम की आशा रखे। मान-बड़ाई की चाह हृदय से त्याग दे। अपने शुभ कर्म (दान या अन्य सेवा) किसी के सामने न बताए। गुरू जी के पद (चरण) यानि गुरू की शरण में ऐसे रहे जैसे जल में मीन रहती है। मछली एक पल भी पानी के बिना नहीं रह सकती। तुरंत मर जाती है। ऐसे गुरू की शरण को महत्त्व देवे। गुरू जी द्वारा दिए शब्द यानि जाप मंत्र (सतगुरू शब्द) जो सत्यनाम है यानि वास्तविक भक्ति मंत्र में सदा लीन रहे जो पुरूष (परमात्मा) का भक्ति मंत्र है, उसका ऐसा प्रभाव है, उसमें इतनी शक्ति है कि साधक पुनः संसार में जन्म-मरण के चक्र में नहीं आता। वह वहाँ चला जाता है जो सनातन परम धाम, जहाँ परम शांति है। जहाँ जाने के पश्चात् साधक कभी लौटकर संसार में नहीं आता।

यही प्रमाण श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि हे अर्जुन! तू सर्वभाव से उस परमेश्वर की शरण में जा, उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शांति को तथा सनातन परम धाम (शाश्वतम् स्थानम्) को प्राप्त होगा।(अध्याय 18 श्लोक 62)

गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि तत्त्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर कभी संसार में नहीं आता। जिस परमेश्वर ने संसार रूपी वृक्ष की रचना की है, उसी की भक्ति करो।(अध्याय 15 श्लोक 4)

गीता ज्ञान दाता ने अपनी नाशवान अर्थात् जन्म-मरण की स्थिति गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5 और 9 में तथा अध्याय 10 श्लोक 2 में स्पष्ट कर रखी है कि अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं, तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। पाठकजनो! गीता से स्पष्ट हुआ कि गीता ज्ञान दाता (काल ब्रह्म है जो श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके बोल रहा था) नाशवान है, जन्म-मरण के चक्र में है तो उसके उपासक की भी यही स्थिति होती है। इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णित लाभ प्राप्त नहीं हो सकता। दूसरी बात यह सिद्ध होती है कि गीता ज्ञान दाता, कोई अन्य समर्थ तथा सर्व लाभदायक परमेश्वर हैं जिनकी शरण में जाने के लिए गीता ज्ञान दाता यानि काल ब्रह्म ने कहा है। वह परमेश्वर कबीर बन्दी छोड़ जी हैं। उन्होंने अपनी महिमा स्वयं ही कही है जो आप जी कबीर सागर में पढ़ रहे हैं। परमेश्वर ने अनुराग सागर पृष्ठ 13 पर कहा कि सत्य पुरूष द्वारा रची सृष्टि के विषय में बताई कथा का साक्षी किसको बनाऊँ क्योंकि सबकी उत्पत्ति बाद में हुई है। पहले अकेले सतपुरूष थे। यहाँ पर विवेक करने की बात यह है कि कबीर जी को ज्ञान कहाँ से हुआ? जब सृष्टि रचना के समय कोई नहीं था। इससे स्वसिद्ध है कि ये स्वयं पूर्ण परमात्मा सृष्टि के सृजनहार हैं। जिन महान आत्माओं को परमेश्वर कबीर जी मिले हैं, उन्होंने भी यही साक्ष्य दिया है कि:-

गरीब, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड का, एक रति नहीं भार।
सतगुरू पुरूष कबीर हैं, कुल के सिरजनहार।।

भावार्थ इस वाणी से ही स्पष्ट है।

‘‘कूर्म कला परखो धर्मदासा‘‘ का भावार्थ है कि जैसे कूर्म यानि कच्छवा आपत्ति के समय अपने मुख तथा पैरों को अपने अंदर छुपाकर निष्क्रिय हो जाता है। आपत्ति टलने के तुरंत पश्चात् अपने मार्ग पर चल देता है। इसी प्रकार भक्त को चाहिए कि यदि सांसारिक व्यक्ति आपके भक्ति मार्ग में बाधा उत्पन्न करे तो उसको उलटकर जवाब न देकर अपनी भक्ति को छुपाकर सुरक्षित रखे। सामान्य स्थिति होते ही फिर उसी गति से साधना करे। इस प्रकार करने से ‘‘निश्चय जाय पुरूष के पासा‘‘ वह साधक परमात्मा के पास अवश्य चला जाएगा।

अनुराग सागर पृष्ठ 163(281) पर:-

सोरठा:- हंस तहां सुख बिलसहीं, आनन्द धाम अमोल।
पुरूष तनु छवि निरखहिं, हंस करें किलोल।।

भावार्थ:- उपरोक्त ज्ञान के आधार से साधना करके साधक अमर धाम में चला जाता है। वहाँ पर आनन्द भोगता है। वह सतलोक बेसकीमती है। वहाँ पर सत्यपुरूष के शरीर की शोभा देखकर आनन्द मनाते हैं।