क्या ध्यान करने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है? चलिए सच्चाई की करते हैं जाँच

क्या ध्यान करने से मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है? चलिए सच्चाई की करते हैं जाँच

ध्यान द्वारा मन और शरीर को जो लाभ मिलते है उसके लिए ध्यान की महिमा कही गई है। हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में, ध्यान का उपयोग मानसिक शांति प्राप्त करने, तनाव दूर करने और एकाग्रता में सुधार करने के एक उपाय के रूप में किया जा सकता है। इसका उपयोग किसी के साथ जुड़ने और खुद को गहरी की समझ हासिल करने के लिए भी किया जा सकता है। लेकिन, आज गहराई से जानेगें कि आज की तेज-तर्रार दुनिया में आंतरिक शांति पाना बहुत महत्वपूर्ण है, परंतु क्या इसके लिए सिर्फ ध्यान का पारंपरिक तरीका पर्याप्त होगा?

वास्तव में, ध्यान या हठ योग से कुछ मानसिक और शारीरिक लाभ तो जरूर मिलते है, लेकिन यह मोक्ष का मार्ग नहीं है। प्राचीन धर्मग्रंथों के अनुसार, पारंपरिक ध्यान से पूर्ण मोक्ष नहीं मिल सकता। आज दुनिया एक ऐसे सशक्त माध्यम या एक सच्चे रास्ते की तलाश में है जो उसे निराशा से निकालकर साहस-उत्साह से भर दे, आंतरिक शांति दे और मोक्ष प्रदान करे और इसे प्राप्त करने के लिए वो "ध्यान" को आशा की एक किरण मानते है। लेकिन क्या होगा अगर हम आपको बताएं कि यह प्राचीन साधना उतनी क्रियाशील या परिपूर्ण नहीं हैं, जैसा कि अभी तक हम लोग इसे मानते आ रहे हैं।

आज हम यहाँ इस रहस्योद्घाटन में ध्यान के अनदेखे खतरे, ध्यान की सीमाओं का खुलासा, ध्यान से मोक्ष प्राप्ति मिलने की धारणा को खारिज करना, जैसे मुद्दों को गहराई से जाँचेंगे। जब हम सच्चे आत्मज्ञान और परम शांति की प्राप्ति के वैकल्पिक रास्तों को खोजेंगे तो पता लगेगा कि एक जगह बैठे रहने और मंत्र करने से वास्तविक आंतरिक शांति और मुक्ति नहीं हो सकती है।

तो ध्यान के बारे में आप जो कुछ भी जानते हैं, जो भी आपकी सोच है, उसके विषय मे प्रश्न उठाने के लिए तैयार हो जाइये - चौंकाने वाले रहस्योद्घाटन की यात्रा आपका इंतजार कर रही है! साथ ही, इंतजार कर रही है सतनाम और सारनाम जैसे सच्चे मंत्रों का जाप करके परमात्मा के साथ जुड़ने की विधि। आध्यात्मिक विकास और कल्याण की दिशा में चलिए एक गहन यात्रा पर।

आज हम यहाँ ध्यान के गुप्त रहस्यों को आपके समक्ष पेश करेंगे। इन्हें जानने के लिए निम्नलिखित मुख्य बिंदुओं पर विचार करेंगे?

  • ध्यान साधना/हठ योग क्या है?
  • सहज समाधि (सरल ध्यान) क्या है?
  • ध्यान के सिद्धांत की उत्पत्ति।
  • क्या ध्यान से निर्वाण प्राप्त होता है?
  • त्रिदेव ध्यान साधना कर के अपने विकारों पर विजय नहीं पा सके।
  • श्रीकृष्ण ने पांडवों को ध्यान का उपदेश दिया।
  • ध्यान के माध्यम से कुंती द्वारा प्राप्त सिद्धि उसे शर्मिंदगी की ओर ले गई
  • ऋषभदेव ध्यान साधना करके 84 लाख योनियों के चक्र में ही रहे।
  • भगवान बुद्ध को ध्यान से मुक्ति नहीं मिल सकी।
  • नारद मुनि ने ध्यान तप साधना की और भगवान विष्णु को श्राप दे दिया।
  • तमोगुण शंकरजी के भक्त रावण ने ध्यान साधना की, लेकिन वे एक भयानक मृत्यु को प्राप्त हुआ।
  • ऋषि-मुनि ध्यान के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने में असफल रहे।
  • स्वामी रामानन्द ध्यान से केवल त्रिकुटी तक ही पहुँच सके।
  • राधास्वामी संप्रदाय के प्रमुख शिवदयाल जी ध्यान साधना करके आखिर भूत बन गए।
  • महापुरुषों ने सहज समाधि (सरल ध्यान) की और मोक्ष प्राप्त किया।
  • हम एक तत्वदर्शी संत को कैसे ढूंढ सकते हैं?
  • सहज समाधि (सरल ध्यान) से पूजनीय परमात्मा कबीर साहेब की प्राप्ति होती है।
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ध्यान साधना/हठ योग क्या है?

ध्यान साधना आध्यात्मिक विकास की एक प्रक्रिया है और साधकों द्वारा परमात्मा के साथ संबंध स्थापित करने का प्रयास है। क्योंकि जिस दिन से आत्मा परमात्मा से बिछुड़ी है, वह उस सुख को पाने और उसी सुख-सुविधाओं का आनंद प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रयास कर रही है, जो उसे वहाँ सुख के सागर, अविनाशी लोक - सतलोक में मिल रहा था।

परमात्मा प्राप्ति की चाहत में, इस काल लोक में साधक कई हजार वर्षों तक कठिन तप साधना या जिसे 'हठ योग' कहते हैं, करते हैं। प्रभु प्राप्ति के लिए साधक जंगल में ध्यान करने जाते हैं, क्योंकि यह गलत साधना हमारे समकालीन ऋषि-मुनियों ने बताई हुई है, जो खुद ही भगवान की प्राप्ति नहीं कर सके और फिर उन्होंने कह दिया कि भगवान निराकार है और उसे देखा नहीं जा सकता। सिर्फ उसका प्रकाश देखा जा सकता है।

हठ योग (दमनकारी साधना) में साधक अपनी आंखें, कान बंद करके घंटों बैठकर ध्यान करते हैं और परमात्मा से जुड़ने का प्रयास करते हैं। ऐसा करने से उन्हें सिद्धियाँ तो मिलती हैं परन्तु मुक्ति नहीं मिलती, ईश्वर की प्राप्ति नहीं होती। हठ योग एक शास्त्र विरुद्ध साधना है, जिसका पवित्र पुस्तकों में प्रमाण नहीं है क्योंकि ऐसी ध्यान साधना/हठ योग से मोक्ष और परमात्मा-प्राप्ति नहीं होती है। बल्कि सच्चे संतों ने ईश्वर प्राप्ति के लिए भक्ति का एक सरल मार्ग बताया है, जिसे 'सहज समाधि' कहते हैं।

आइए सबसे पहले हम समझते है कि 'सहज समाधि' (सहज ध्यान) क्या है? सहज समाधि परमात्मा प्राप्ति का एक प्रमाणित रास्ता है, जो एक सच्चे आध्यात्मिक और पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) द्वारा बताया जाता है। जो स्वयं ईश्वर के बजाय ईश्वर का प्रतिनिधि होता है और एक तत्वदर्शी संत की भूमिका निभाता है और सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने के इरादे से इस मृत्युलोक में आता है और शैतान कालब्रह्म के जाल में फंसी आत्माओं को मुक्त करवाने के लिए सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान करता है।

सहज समाधि क्या है?

यह मोक्ष प्राप्ति के लिए परमात्मा द्वारा बताई गई भक्ति की एक सरल विधि है, जो हमारे पवित्र सद्ग्रंथों में लिखी गई है और उसमें कहा गया है कि साधक को एक पूर्ण संत (तत्वदर्शी संत) की शरण लेनी चाहिए और दिन-रात सच्चे मोक्ष मंत्रों का जाप करना चाहिए। हमें इस विधान का समर्थन पवित्र यजुर्वेद अध्याय 40 श्लोक 15 में भी मिलता है, जिसमें काम करते हुए प्रभु प्राप्ति की तड़प में (विशेष कसक के साथ) और भक्तिभाव के साथ मंत्र का जाप करने के लिए कहा गया है। कबीर परमात्मा अपनी वाणी में कहते है,

कहता हूं कहीं जात हूँ, कहूं बजाके ढोल।
सांस जो खाली जात है
, तीन लोक का मोल।।

परमात्मा प्राप्त संत गरीबदास जी ने भी परमात्मा का विधान बताते हुए कहा है,

नाम उठत नाम बैठत, नाम सोवत जाग रे।
नाम खाते नाम पीते, नाम सेती लाग रे।।

सहज समाधि, सहज ध्यान या भक्ति की सही विधि एक ऐसी साधना है, जिसमें प्रभु-प्रेमी आत्माएं सच्चे तत्वदर्शी संत (सतगुरु) की शरण में जाते हैं और वह पूर्णसंत वास्तविक नामदीक्षा प्रदान करता है यानी सच्चे मोक्ष मंत्र सतनाम, सारनाम का जाप करने के लिए देता है। जो साधक भक्ति के निर्धारित नियमों में रहकर इन मंत्रों के जप और परम अक्षर ब्रह्म/सतपुरुष - कबीर साहेब की भक्ति अंतिम सांस तक करते हैं, वे मोक्ष प्राप्त करके शाश्वत स्थान सतलोक में चले जाते हैं, जहां जाने के बाद उन्हें जन्म और मृत्यु के रोग से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाती है और फिर वे कभी भी काल ब्रह्म के 21 ब्रह्मांडों में, नाशवान लोक पृथ्वी पर कष्ट उठाने के लिए वापस नहीं आते है।

सच्चे संतों ने बताया है कि 'सहज समाधि' में यानी सहज ध्यान साधना में साधक को दिन में तीन बार आरती/पाठ करना चाहिए अर्थात सुबह 'नित्य नियम', दोपहर को 'रमैनी' और शाम को 'संध्या आरती' करनी चाहिए। इन सब में सतपुरुष कबीर साहेब और महान संत गरीबदास जी महाराज की अमृतवाणी समाहित है, जिससे पूर्ण परमात्मा समेत विश्व के सभी देवी देवताओं की स्तुति हो जाती है तथा सच्चे मोक्ष मंत्रों का जाप करना चाहिए। साथ ही, सहज ध्यान साधना में पाँच यज्ञ करने होते हैं जो निम्न हैं:

(1) धर्म यज्ञ: जैसे कि भूखों को खाना खिलाना, पक्षियों को दाना डालना और जानवरों के लिए पीने के पानी की व्यवस्था करना, लोगों के लिए पीने के पानी का प्याऊ बनवाना, सार्वजनिक गृह/धर्मशाला का निर्माण करना, दान करना, सामुदायिक भोजन का आयोजन करना आदि धर्म यज्ञ कहलाता है। आध्यात्मिक मार्ग में, यह सब एक सच्चे आध्यात्मिक संत के मार्गदर्शन अनुसार करना चाहिए। यह वास्तविक धर्म यज्ञ है।

(2) ध्यान यज्ञ: यह कोई हठ योग वाली क्रिया नहीं है। गीता अध्याय 17 श्लोक 5, 6 में तो हठयोग का निषेध है, बल्कि सहज ध्यान में मन में भगवान कबीर साहेब की याद बनाये रखनी होती है, किसी देवता की पूजा नहीं करनी हैं। हर सांस में सिर्फ सच्चे मोक्ष मंत्र सतनाम, सारनाम का जप करना चाहिए।

(3) हवन यज्ञ: मिट्टी या धातु के छोटे बर्तन में गाय या भैंस का घी डालकर, उसमें रूई की खड़ी बाती रखकर ज्योति जलाना और पाठ या मंगलाचरण बोलना हवन यज्ञ कहलाता है। यह अग्नि कुंड में टन भर लकड़ी और घी जलाकर किया जाने वाला धार्मिक अनुष्ठान/यज्ञ नहीं है।

(4) प्रणाम यज्ञ: प्रणाम यज्ञ में सतगुरु/परमात्मा कबीर जी को साष्टांग दण्डवत प्रणाम करना होता है, विनम्र बनना और अहंकार का त्याग करना होता है। एक दास/सच्चा भक्त बनना होता है।

(5) ज्ञान यज्ञ: ज्ञान यज्ञ में पवित्र ग्रंथों का अध्ययन करना और एक तत्वदर्शी संत द्वारा बताए गए भगवान कविर्देव के आध्यात्मिक प्रवचनों को सुनकर ज्ञान प्राप्त करना होता है।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 15 के श्लोक 1-4 तथा श्लोक 16 और 17 में तीन प्रभु बताए गए हैं, जो अध्यात्म के आधार स्तंभ है। पहला क्षर पुरुष (काल ब्रह्म) इक्कीस ब्रह्माण्ड का स्वामी है और दूसरा अक्षर पुरुष (परब्रह्म) सात संख ब्रह्माण्ड का स्वामी है। ये दोनों ही नाशवान है तथा तीसरा परम अक्षर ब्रह्म - कविर्देव, जो सर्व ब्रह्मांडों के रचयिता और अविनाशी परमेश्वर हैं, उनकी ही पूजा करनी चाहिए। उनका मंत्र गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताया गया है। वह मोक्ष प्रदान कर्ता है अर्थात गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में वर्णित शाश्वत स्थान (सनातन परम धाम) सत्यलोक की प्राप्ति करवाता है।

अब मुद्दे कि बात यह है कि जब पवित्र ग्रंथों में हमें मोक्ष प्राप्त करने के लिए सहज ध्यान यानी 'सहज समाधि' करने के लिए बताया गया है तो फिर साधक हठ योग/दमनकारी साधना क्यों करते हैं तथा हठ योग/दमनकारी साधना/ तप-ध्यान साधना/समाधिस्थ होने का सिद्धांत कहाँ से उत्पन्न हुआ?

ध्यान साधना के सिद्धांत की उत्पत्ति

ध्यान अभ्यास की उत्पत्ति का पता लगाने पर उसका संबंध उस शाश्वत संसार से मिलता है, जहां सब कुछ सर्वशक्तिमान परमात्मा कबीर जी द्वारा उत्पन्न हुआ है। जैसा कि पवित्र वेदों और पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता जैसे अन्य प्रामाणिक ग्रंथों में भी लिखा गया है। सभी लोग इस बात पर एकमत है कि ध्यान आरंभ से ही भारत के आध्यात्मिक जगत का एक अभिन्न अंग रहा है।

इस 21 ब्रह्माण्ड के स्वामी काल ब्रह्म ने अमर लोक सतलोक में ध्यान साधना प्रारम्भ की थी। काल-ब्रह्म (शैतान) ने 70 युगों तक ध्यान और तपस्या की, जिसके बदले में सर्वशक्तिमान परमात्मा ने उसे 21 ब्रह्मांड प्रदान किए। उसने इस प्रक्रिया को पुनः दोहराया और 70 युग तक तपस्या की, जिसके बदले में उसने सत्यपुरुष/परम अक्षर ब्रह्म से अपने ब्रह्मांडों के भीतर सृजन क्रिया शुरू करने के लिए 3 गुण (सत, रज, तम) और 5 तत्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) प्राप्त किए। [वास्तव में संपूर्ण ब्रह्मांडों और सभी आत्माओं का जनक यह सत पुरूष है, जिसने हम सबको सतलोक में भी एक निवास स्थान प्रदान किया था।] इसके बाद इसने 64 युग तप फिर किया, जिसके बदले सतपुरुष ने इस लोक में फंसी सभी आत्मायें जो इस पर आसक्त हो गईं थीं उन्हें इसके 21 ब्रह्मांडो में भेज दिया अर्थात हम स्वयं इस शैतान काल ब्रह्म के जाल में फंस गए। वहीं सतपुरुष द्वारा इतना करने के बाद भी काल ब्रह्म अपनी बदनीयत से बच नहीं सका और उसने अपनी बहन, जिसे देवी दुर्गा के नाम से जाना जाता है, उसके साथ दुर्व्यवहार किया। उन दोनों के पति-पत्नी के संयोग से तीन पुत्र ब्रह्मा, विष्णु और शिव पैदा हुए। इसका प्रमाण हमें पवित्र कबीर सागर-भाग 11 (स्वामी युगलानन्द बिहारी द्वारा परिष्कृत, प्रकाशक खेमराज श्री कृष्ण दास प्रकाशन, मुंबई) के अध्याय-ज्ञान बोध पृष्ठ 21-22, अध्याय-अनुराग सागर पृष्ठ 15, 16, 19 पर मिलता है। कबीर साहेब कहते हैं,

तप से राज, राज मध मानम् , जन्म तीसरे शुकर स्वानम्।।

ज्योति निरंजन काल ने कठोर तपस्या/ध्यान/हठयोग से 21 ब्रह्माण्ड प्राप्त तो कर लिए, मालिक तो बन गया, परन्तु इसकी इसको भारी कीमत चुकानी पड़ी। अपने दुराचरण के कारण उसे सुख सागर सतलोक से निकाल दिया गया और अब वह भी यहाँ दुःख भोग रहा है, वह भी जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में ही है। इसके बाद से यह कसाई ब्रह्म काल भगवान के बच्चों पर यानी हम आत्माओं पर अत्याचार कर रहा है, जो उसके जाल में फंस गए थे। इसने अपने 21 ब्रह्मांड के लोक में ध्यान/हठयोग की वही गलत साधना शुरू करवाई, जिससे देवता भी अछूते नहीं है। {पढ़िये: सम्पूर्ण सृष्टि रचना}

यहाँ से आगे बढ़ने से पहले, आइए हम जान लें कि क्या ध्यान तप साधना से निर्वाण/मोक्ष/मुक्ति की प्राप्ति हो सकती है?

क्या ध्यान साधना से निर्वाण प्राप्त होता है?

बहुत से लोगों का मानना ​​है कि ध्यान के दौरान मंत्र जाप का अभ्यास करने से निर्वाण/ मोक्ष/ मुक्ति प्राप्त हो सकती है। लेकिन, क्या वास्तव में ध्यान साधना से व्यक्ति को निर्वाण/ मुक्ति या ईश्वर प्राप्ति होती है? क्या उसका कोई ठोस सबूत है?

पाठकों, वर्तमान में ज्यादातर लोगों को निर्वाण/मुक्ति/मोक्ष के विषय की उचित समझ प्राप्त नहीं है, जहां तक ​​उन श्रद्धेय संतों की बात है, जिनके बारे में लोग मानते है कि उन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया है वे वास्तव में नहीं जानते कि निर्वाण का क्या अर्थ है। जबकि जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने को निर्वाण कहा जाता है। इसका अर्थ है सच्चे समर्थ परमात्मा को प्राप्त करना और उसके अविनाशी लोक में जाना, जिसे पवित्र ऋग्वेद में "ऋतधाम" और संतों द्वारा सत्यलोक / सच्चखंड कहा गया है। कुछ व्यक्ति हठ के कारण ध्यान में संलग्न रहते है, जो 'हठ योग' के रूप में जाना जाता है जिसका पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता में विशेष रूप से अध्याय 3 श्लोक 5-9 और अध्याय 6 श्लोक 16 में खंडन किया गया है। श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 16 श्लोक 23 इस दावे का समर्थन करता है कि जो लोग पवित्र शास्त्रों के आदेशों के विपरीत पूजा-साधना करते है, उन्हें न तो सुख मिलता है, न ही कोई सिद्धि और न ही मोक्ष मिलता है।

अब उपरोक्त प्रश्न के उत्तर पर आते हैं। ध्यान साधना से कभी भी निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती और हम यहाँ इस बात को साबित करने के लिए आपको बहुत से ऐतिहासिक प्रमाण देंगे। आगे आप पढ़ेंगे कि त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) भी हठ योग यानी ध्यान तपस्या की इस गलत साधना में लगे हुए हैं। वे इसे परमात्मा का आदेश मानकर और प्रभु प्राप्ति का उद्देश्य रखकर ऐसा कर रहे हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि वे काल के जाल में फंस गए हैं और वे इस जाल से निकलने में यानी मुक्ति प्राप्त करने में असमर्थ हैं।

त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) ध्यान साधना करके विकारों पर विजय नहीं पा सके

भगवान ब्रह्मा जी की स्थिति

रजोगुण प्रधान ब्रह्माजी के पास अपने पिता काल ब्रह्म के 21 ब्रह्मांडों में से एक ब्रह्मांड के अंदर सृजन का कार्य करने की जिम्मेदारी है। उन्होंने एक हजार साल तक तपस्या की क्योंकि वे अपने पिता को प्राप्त करना चाहते थे, इसलिए इस तरह उन्हें खोजने की कोशिश की। उनके पिता कौन है, इस बात से वे अनजान हैं। क्योंकि काल ब्रह्म ने अव्यक्त रहने की प्रतिज्ञा की है, इसलिए वो किसी के सामने नही आता। जिसके कारण ब्रह्मा जी उसे ढूंढ नहीं पाये, परन्तु अपनी बेइज्जती के डर से उन्होंने अपनी माँ देवी दुर्गा जी से झूठ बोला और जिसके कारण दुर्गा जी ने उन्हें अपूज्य होने का श्राप दिया।

इससे सिद्ध होता है कि शक्तियां होने के साथ-साथ सृष्टि करने के जिम्मेदार पद पर आसीन होने के बावजूद ब्रह्माजी में अहंकार, अभिमान तथा झूठ बोलने जैसे अवगुण हैं, जिन्हें हठयोग/ध्यान साधना से दूर नहीं किया जा सकता। गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित मत्स्यपुराण अध्याय 3 श्लोक 30-45 में वर्णित एक सत्य प्रसंग से सिद्ध होता है कि ब्रह्मा जी जिस प्रकार की भक्ति करते थे, उससे उनका काम-विकार भी नष्ट नहीं हो पाया था। उन्होंने अपनी सभा में अपनी ही पुत्री सरस्वती के साथ दुर्व्यवहार करने का प्रयास किया, जिससे नाराज होकर शंकर जी ने उनकी गर्दन काट दी। बाद में उनकी माँ दुर्गा जी ने उन्हें पुनर्जीवित किया। इससे सिद्ध होता है कि ध्यान साधना, भक्ति का सत्य मार्ग नहीं है क्योंकि इससे विकार नष्ट नहीं होते। यहां तक ​​कि काल की दुनिया में देवता लोग भी ध्यान करते रहते हैं और उसके जाल में फंसे रहते हैं और मुक्त नहीं हो पाते।

भगवान विष्णु जी की स्थिति

विष्णु पुराण, शिवपुराण और संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित, सम्पादक: हनुमानप्रसाद पोद्दार, चिम्मनलालगोस्वामी) के प्रथम स्कन्ध और तीसरे स्कन्ध के अनुसार भगवान विष्णु अधिकांश समय ध्यान/तप में डूबे रहते है। क्योंकि इससे उन्हें शक्तियां प्राप्त होती हैं, जिनका उपयोग वे राक्षसों से लड़ते समय करते हैं। इससे सिद्ध होता है कि परमात्मा कबीर सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करके शांति स्थापित करते हैं, इसके विपरीत, इस काल लोक में नाशवान देवताओं को अपनी स्थिति और शांति बनाए रखने के लिए युद्ध करना पड़ता है। जिसके बाद भी सिर्फ नाम मात्र की शांति मिलती है। साथ ही, यह भी सिद्ध होता है कि हठयोग से कई सिद्धियां तो प्राप्त हो जाती हैं, लेकिन मोक्ष नहीं और विकार भी नष्ट नहीं होते। भगवान विष्णु जी का अहंकार भी ध्यान से समाप्त नहीं हो सका था। श्री शिवमहापुराण (अनुवाद कर्ता: पं. ज्वाला प्रसाद जी मिश्र प्रकाशक, मुद्रक:- खेमराज, श्री कृष्णदास प्रकाशन मुम्बइ, अध्यक्षः श्री वैंकटेश्वर प्रैस खेमराज कृष्ण दास मार्ग, मुम्बई) के विद्येश्वर संहिता के अध्याय 9 व 10 पृष्तथा संक्षिप्त शिवपुराण (संपादक: हनुमानप्रसाद पोद्दार, गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित) के विद्यवेश्वर संहिता अध्याय 9-10 में ब्रह्मा और विष्णु के मध्य युद्ध होने का एक प्रसंग है, जिसमें ब्रह्मा जी और विष्णु जी इस बात पर लड़ते है कि कौन किसका पिता है? तथा दोनों में से कौन श्रेष्ठ है?

आइए अब जानते हैं भगवान शिव जी की स्थिति,

तमोगुण शिव जी को उनके भक्त मृत्युंजय, कालिंजय, सर्वशक्तिमान और शाश्वत भगवान मानते हैं। परंतु पुराणों में वर्णित कथाओं से पता चलता है कि भगवान शिवजी ध्यान करने के बाद भी अपने विकारों पर विजय नहीं पा सके। जबकि स्वयं भगवान शिवजी को ही अभी तक मोक्ष नहीं मिला है। श्रीविष्णु जी संक्षिप्त श्रीमद्देवीभागवत (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित, सम्पादक: हनुमानप्रसाद पोद्दार, चिम्मनलालगोस्वामी) के तीसरे स्कन्ध अध्याय 5 में माता दुर्गा की स्तुति करते हुए कहते हैं "मैं (विष्णु), ब्रह्मा और शिव नित्य यानि अविनाशी नहीं हैं, हमारा तो जन्म और मृत्यु हुआ करता है।" वहीं अनगिनत युगों तक ध्यान करने के बाद भी शिवजी भगवान विष्णु जी के मनोरम मोहिनी रूप के आकर्षण से खुद को नहीं बचा सके।

Shrimad Devi Bhagwat Page 123

संक्षिप्त श्रीमद्देवी भागवत, तीसरा स्कन्ध, अध्याय 5

विचार करने योग्य बात:- काल-ब्रह्म के इस लोक में यदि देवता लोग भी ध्यान के माध्यम से वासना जैसे विकारों पर विजय नहीं पा सके है, तो उनके भक्त खुद को इन विकारों से बचा पाने की आशा कैसे कर सकते है? साथ ही जब इस ध्यान साधना/तप से त्रिदेव (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में है और काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि विकारों से भरे हुए हैं। जिससे सिद्ध है कि ध्यान/हठयोग द्वारा इन विकारों से छुटकारा नहीं पाया जा सकता और न ही इस क्रिया से जन्म मृत्यु से मुक्ति मिल सकती।

आगे हम देखेंगे कि किस तरह काल ब्रह्म सबको गुमराह करता है और देवताओं को भी मोक्ष प्राप्ति के सच्चे मार्ग का पता नहीं है तथा श्रीकृष्ण अर्थात भगवान विष्णुजी सच्चे आध्यात्मिक ज्ञान से परिचित नहीं हैं और हठ योग /ध्यान को ही पाप नाश करने का और शांति प्राप्ति का मार्ग मानते हैं

श्रीकृष्ण ने पांडवों को ध्यान का उपदेश दिया

पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान बोलने वाले कालब्रह्म ने महाभारत युद्ध के दौरान योद्धा अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 37, 38 में कहा कि यदि तू युद्ध में जीत जाता है तो एक राजा के रूप में पृथ्वी का राज्य भोगेगा और अगर युद्ध में मर गया तो स्वर्ग का सुख प्राप्त करेगा, उसके दोनों हाथों में लड्डू है।

Gita Adhyay 2 Shlok 37

Gita Adhyay 2 Shlok 38

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 2 श्लोक 37, 38

यह आश्वासन पाकर अर्जुन ने युद्ध किया और बड़ा नरसंहार किया। अर्जुन सहित सभी पांडवों ने भी युद्ध किया और युद्ध में कितने ही लोगों को मार डाला। उन्होंने सोचा कि श्री कृष्णजी के आशीर्वाद से उन्होंने युद्ध जीत लिया है, लेकिन वे इस बात से अनजान थे कि यह तो कालब्रह्म ने अपने कुटिल इरादे को पूरा किया है।

बाद में जब युधिष्ठिर को बुरे सपने आने लगे तो श्रीकृष्ण ने पांडवों से कहा कि वे एक यज्ञ और धार्मिक भोजन-भंडारे का आयोजन करें और उसमें सभी देवता, ब्राह्मण, ऋषि मुनि आदि को आमंत्रित करें, जिनके आशीर्वाद से पांडवों के पाप नष्ट हो जाएंगे और वे शांतिपूर्ण जीवन जी सकेंगे। वैसा ही किया गया। बाद में अपनी मृत्यु के समय श्री कृष्ण ने पांडवों को हिमालय पर जाकर ध्यान-तपस्या करने का उपदेश दिया ताकि हठयोग/ध्यान की कठोर तपस्या से उनके पाप नष्ट हो सकें। इससे सिद्ध होता है कि काल का जाल कितना भयानक है, जिसके बारे में निर्दोष जीवों को तो छोड़ ही दो देवता भी अनजान है, जो यह मान बैठे है कि ध्यान से उनकी समस्याओं का समाधान हो जाएगा। धर्मग्रंथों से मिले प्रमाणों से सिद्ध होता है कि श्रीकृष्णजी के निर्देश अनुसार तप-ध्यान साधना करने के बावजूद पांडवों को नरक का कष्ट सहना पड़ा। ध्यान से न तो उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ और न ही परमात्मा। इस तरह सिद्ध होता है कि बलपूर्वक अभ्यास /हठयोग एक व्यर्थ साधना है।

ध्यान के माध्यम से कुंती द्वारा प्राप्त सिद्धि उसे शर्मिंदगी की ओर ले गई

योद्धा अर्जुन की माता कुंती एक बहुत ही धार्मिक महिला थीं, जब उनका विवाह नहीं हुआ था तब उन्हें दुर्वासा ऋषि ने एक मंत्र प्रदान किया था जिससे किसी भी देवता को प्रसन्न किया जा सकता था। कुंती ने एक दिन ध्यान लगाते हुए सूर्यदेव के मंत्र का जाप किया, जिससे सूर्यदेव ने कुंती को दर्शन दिये। उसने पुत्र प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की। भगवान सूर्य ने उसे वरदान दिया। फलस्वरूप 'कर्ण' का जन्म हुआ। चूंकि उस समय वह किशोरावस्था में थी, इसलिए बेटा कुंती के लिए शर्मिंदगी का सबब (कारण) बन गया। विवाह पूर्व गर्भधारण के कारण समाज की आलोचना और नाराजगी के डर से कुंती के पास उस शिशु को त्यागने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था, यहीं कारण था कि उसने बच्चे रूपी कर्ण को एक टोकरी में रखा और गुप्त रूप से गंगा नदी में बहा दिया कि बच्चे को कोई पालक माता-पिता मिल जाएगा और वह जीवित रहेगा। जिससे स्पष्ट है कि ध्यान कुंती को ईश्वर प्राप्ति की बजाय शर्मनाक स्थिति की ओर ले गया।

आइए अब आगे बढ़ते है और जानते है कुछ और धर्मों के स्थापकों की स्थिति, जिनको उनके अज्ञानी भक्त और उनके अनुयायी भगवान मानते है और पूजा करते है। लेकिन वे भी सामान्य जीवों से अलग नहीं है, जो काल के जाल से मुक्त होने में असमर्थ है।

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ध्यान साधना करने के बाद भी 84 लाख योनियों के चक्र में ही रहे

जैन धर्म के इतिहास के अनुसार, जैन धर्म के संस्थापक और प्रथम तीर्थंकर, आदिनाथ ऋषभदेव जी ने एक हजार वर्ष तक ध्यान साधना की और एक वर्ष तक उपवास किया इसके बाद उन्होंने अपने पोते मारीचि को दीक्षा दी, जिसका वर्णन लेखक प्रो. भागचंद्र भास्कर की पुस्तक "जैन संस्कृति कोश'' प्रथम खंड, पृष्ठ 175-177 में मिलता है।आश्चर्य की बात है कि मारीचि वाले जीव ने 24वें तीर्थंकर महावीर बनने से पहले 84 लाख योनियों के चक्र में दुःख सहन किये। पुस्तक "आओ जैन धर्म को जाने'' (लेखक प्रवीण चंद्र जैन प्रकाशक : श्रीमती सुनीता जैन जम्बूद्वीप हस्तिनापुर- मेरठ उ० प्र०) के पृष्ठ 294-295 में महावीर जैन के रूप में उनके अवतार होने से पहले कुत्तों, गधे, घोड़ों, बिल्लियों, वृक्षों और अन्य रूपों में उनके जन्मों का विवरण दिया गया है। वहीं ऋषभदेव की दु:खद मृत्यु का प्रमाण श्रीमद्भागवत-सुधा-सागर (शुकसागर) गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित के स्कन्ध 4 अध्याय 6 श्लोक 7, 8 पृष्ठ 281 में दिया गया है कि जब ऋषभदेव ध्यान कर रहे थे तो जंगल में लगी आग में वे जिंदा जल गए।

विचारणीय बिंदु:- जैन धर्म के प्रवर्त्तक ऋषभदेव जी जिस विधि से भक्ति कर रहे थे, उससे उनका दु:खद अंत हुआ और उसी के से मारीची वाला जीव जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में रहा, जो 24वें तीर्थंकर भगवान महावीर जैन बना, लेकिन उसके बाद भी यह चक्र न ऋषभदेव का समाप्त हुआ और न ही महावीर जैन जी का समाप्त हुआ। अर्थात काल के जाल से मुक्त नहीं हो सके। इससे स्पष्ट है कि जब जैन धर्म के प्रवर्तक और 24वें तीर्थंकर को मनमानी पूजा से मुक्ति नहीं मिल सकी तो उस साधना से उसके अनुयायियों को मुक्ति कैसे मिल सकती है? यही स्थिति बौद्ध धर्म के प्रवर्तक की भी थी।

भगवान बुद्ध, ध्यान साधना से मोक्ष प्राप्त नहीं कर सके

भगवान बुद्ध स्वर्ग से आई हुई एक पवित्र आत्मा थी। उनके मन में ईश्वर को पाने की प्यास थी। उन्होंने ध्यान साधना की और लंबे समय तक भूखे रहे लेकिन हठ योग/ध्यान का जबरन अभ्यास, मोक्ष और परमात्मा प्राप्ति करने की सही साधना नहीं है, इसलिए उनको परमात्मा की प्राप्ति नहीं हुई। तब उन्होंने यह सिद्धांत बनाया कि "starvation could not lead to salvation अर्थात् भूखा रहने से भगवान नहीं मिलता।" दुनिया भर में उनके लाखों अनुयायी है। चीन इसमें सबसे आगे है और वे सभी नास्तिक हैं। चीन में लोग भगवान में विश्वास नहीं करते, क्योंकि वे भगवान बुद्ध के उपदेशों का पालन करते हैं। यह ध्यान की त्रुटि/खराबी है कि इससे ईश्वर कभी प्राप्त नहीं होता और जीव काल के जाल में फंसा रह जाता है। इससे स्पष्ट है कि कठिन तपस्या करने से भगवान की प्राप्ति नहीं होती है। हकीकत में, भूखा रहने से ईश्वर प्राप्ति होना और मोक्ष पाना एक काल्पनिक बात है, एक दंत कथा मात्र है।

ऋषि नारदजी ने ध्यान साधना की और भगवान विष्णुजी को श्राप दिया

ब्रह्माजी के पुत्र नारद मुनि ने तप साधना की और आत्म-विश्वास हो गया कि उन्होंने विकारों को जीत लिया है, लेकिन यह काल बहुत बड़ा धोखेबाज है। नारदमुनि ने अपने पिता और भगवान विष्णु जी के सामने इस बात की डींग मारी कि 'मैंने विकारों पर काबू पा लिया है।' तो काल ने भगवान विष्णु जी को परीक्षा लेने के लिए प्रेरित किया और नारद मुनि को गुमराह किया। विष्णु जी ने एक मायावी नगर बनाया, जहां एक खूबसूरत राजकुमारी के लिए स्वयंवर समारोह का आयोजन किया जा रहा था। नारद मुनि के मन में राजकुमारी से विवाह करने की इच्छा जागृत हुई। लेकिन उनका रूप आकर्षक नहीं था, इसलिए उन्होंने विष्णु जी से उनका 'हरि रूप' मांगा, जिन्होंने बदले में नारद मुनि को बंदर का चेहरा दे दिया। क्योंकि संस्कृत में 'हरि' का अर्थ बंदर भी होता है।

जब राजकुमारी ने उनको अस्वीकार कर दिया तब नाराज़ होकर नारदमुनि ने भगवान विष्णु जी को श्राप दे दिया कि आपको पृथ्वी पर एक मानव जीवन के लिए अपनी पत्नी के वियोग और पीड़ा का कष्ट उठाना पड़ेगा। इस श्राप के बाद, भगवान विष्णु जी का जन्म त्रेतायुग में श्रीराम रूप में हुआ, जिन्होंने वनवास के दौरान रावण द्वारा सीता का अपहरण किए जाने पर सीता से वियोग सहना पड़ा। फिर जब अयोध्या वापिस लौटे तो एक धोबी के व्यंग्य के कारण श्रीराम ने सीता जी को घर से निष्कासित कर दिया। इस तरह पूरा जीवन पत्नी वियोग में श्रीराम उर्फ विष्णु जी को एक मानव जीवन कष्ट सहना पड़ा। इससे सिद्ध होता है कि ध्यान साधना से नारदमुनि जैसे साधक को सिद्धियाँ तो प्राप्त हुईं, परंतु न तो उनके विकार समाप्त हुए और न ही मोक्ष प्राप्त हुआ।

तमोगुण शंकरजी के भक्त रावण ने ध्यान तपस्या की और भयानक मृत्यु को प्राप्त हुआ

प्रत्येक हिंदू निस्संदेह इस कथा से परिचित हैं कि रावण ने कठोर तप और ध्यान के माध्यम से भगवान शिव को प्रसन्न किया और भक्ति के भाव में कई बार अपना सिर भी अर्पित कर दिया। क्योंकि भक्ति में अपने सिर का बलिदान देना कोई मामूली बात नहीं है जो रावण के भगवान शिव के प्रति समर्पण के एक अद्वितीय स्तर को दर्शाता है। लेकिन यह भी सर्वविदित है कि रावण ने खुद अपने कृत्यों से अपने ही कर्म खराब किये, उसने भगवान राम उर्फ विष्णुजी जोकि भगवान शिव के भाई हैं की पत्नी सीता उर्फ लक्ष्मी जी का अपहरण कर लिया और अपनी ही माता को पत्नी बनाना चाहा। जिसके लिए उसने माता सीता को 12 वर्षों तक बंदी बनाकर रखा। इस बात पर गहनता पूर्वक सोचना चाहिए कि तप और ध्यान साधना से रावण ने बहुत सिद्धियां हासिल कर ली। लेकिन पूरी दुनिया जानती है कि उसका अंत कैसे हुआ। क्या ऐसे कर्मों वाला कोई भी व्यक्ति वास्तव में मोक्ष प्राप्त कर सकता है?

परंतु रावण का छोटा भाई विभीषण था, वह सर्व समर्थ परमात्मा कविर्देव का शिष्य था। कविर्देव त्रेता युग में ऋषि मुनींद्र के रूप में अवतरित हुए थे, उन्होंने विभीषण को आशीर्वाद दिया क्योंकि विभीषण ने ऋषि मुनींद्र के बताए अनुसार सहज ध्यान - सहज समाधि वाली सतभक्ति की थी। उसे ईश्वर से लाभ और आशीर्वाद मिला तथा रावण की मृत्यु के बाद विभीषण को लंका के राजा के रूप में सिंहासन पर बैठाया गया, विभीषणन ने शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत किया। इस प्रकार एक सच्चे उपासक का कल्याण सहज ध्यान से, सत भक्ति से हुआ, जो हठयोग द्वारा असंभव है।

ऋषि मुनि भी ध्यान साधना से मोक्ष प्राप्त करने में असफल रहे

यहाँ हम निम्नलिखित ऋषियों के जीवन का निरीक्षण करेंगे और जानेंगे कि उन्हें ध्यान साधना से क्या लाभ हुआ।

  • ऋषि चुणकजी ने ध्यान साधना से प्राप्त सिद्धियों की मदद से मानधाता राजा की विशाल सेना को नष्ट कर दिया।
  • ध्यान साधना करने से ऋषि दुर्वासा को मुक्ति नहीं मिली।
  • भस्मागिरि तप और ध्यान साधना करने के बाद भी अपने बुरे इरादे को छोड़ने में असफल रहा।
  • श्रृंगी ऋषि तप साधना करके काल के जाल में फंसे रहे।
  • ऋषि कपिल ने ध्यान से सिद्धियाँ प्राप्त कीं और राजा सगड़ की विशाल सेना को नष्ट कर दिया।
  • सौभरि ऋषि ने तप किया और परमात्मा प्राप्ति करने में असफल होने का पश्चाताप किया।
  • तांत्रिक गोरखनाथ तप और ध्यान साधना करके भी काल के जाल से मुक्ति प्राप्त करने में असफल रहे।
  • ऋषि मार्कण्डेय ध्यान के माध्यम से केवल ब्रह्मलोक तक ही पहुँच सके।
  • ऋषि पराशर का ध्यान विकारों को मारने में बुरी तरह विफल रहा
  • सती अनुसूईया ने ध्यान से प्राप्त शक्तियों से त्रिदेव को शिशु में बदल दिया लेकिन 'चौरासी' का चक्र बना रहा
  • अगस्त्य ऋषि ने ध्यान से प्राप्त शक्तियों से सात समुद्रों को पी लिया लेकिन मोक्ष प्राप्ति से रहे वंचित
  • बादशाह बाजीद (वाजीद) ने अल्लाह को पाने के लिए ध्यान साधना छोड़ी
  • भक्त ध्रुव हठयोग करके ध्रुव तारा तो बन गये परन्तु उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं हुई
  • राक्षस हिरण्यकशिपु ने ध्यान से अमरता का वरदान प्राप्त किया लेकिन उसकी भयानक मृत्यु हुई

आगे बढ़ते हुए हम कुछ महान ऋषि-मुनियों के वृत्तांत इस लेख में पढ़ेंगे, जिन्होंने ध्यान साधना की और फिर सर्वनाश किया। न तो वे काल के जाल से मुक्त हुए और न ही उन्हें ईश्वर की प्राप्ति हुई। बल्कि ध्यान/हठ योग से जो सिद्धियाँ उन्होंने प्राप्त की थी, उनसे उन्होंने नए पाप कर्म इकट्ठे कर लिए, जो उनके खाते में जुड़ गये, जिसको उन्होंने अपने पूरे मानव जीवन में भोगा और भुगता। आइए जानते है।

चुणक ऋषि ने ध्यान साधना से प्राप्त सिद्धियों द्वारा मानधाता राजा की विशाल सेना को नष्ट कर दिया

एक मानधाता राजा था, जिसने अन्य छोटे शासकों पर अपना वर्चस्व जांचने के लिए 'अश्वमेघ यज्ञ' किया। किसी ने भी उसके घोड़े को बांधने की हिम्मत नहीं की और सभी ने उसको शासक के रूप में स्वीकार कर लिया। लेकिन ऋषि चुणक, जिनका राजनीति और राज्य से कोई लेना-देना नहीं था, वे साधना से प्राप्त सिद्धियों के कारण इतने अहंकारी बन गए कि उन्होंने राजा के साथ युद्ध करना स्वीकार कर लिया और घोड़े को बांध लिया। बाद में युद्ध हुआ और ऋषि चुणक ने अपनी सिद्धि शक्ति से मानधाता राजा की 72 करोड़ सैनिकों की विशाल सेना को नष्ट कर दिया और अपनी सारी अर्जित शक्ति बर्बाद कर दी और अपना अनमोल मानव जीवन, जो वास्तव में सच्ची भक्ति करने और परमात्मा प्राप्त करने के लिए मिला था, उसे बर्बाद कर दिया। काल की माया (त्रिगुणमयी माया) से भ्रमित होकर तप और ध्यान साधना करने से उनको मुक्ति नहीं मिली बल्कि वह काल के जाल में फंसे रहे। सूक्ष्मवेद में लिखा है:

गरीब, बहतर क्षौणी क्षय करी, चुणक ऋषिश्वर एक।
देह धारें जौरा (मृत्यु) फिरैं, सब ही काल के भेष।।

ध्यान साधना से ऋषि दुर्वासा को मुक्ति नहीं मिली

ऋषि दुर्वासा के तीव्र क्रोध वाले स्वभाव के कारण राजाओं के मन में उनके प्रति डर बना रहता था। यहां तक ​​कि द्वापरयुग में श्रीकृष्ण के बच्चे भी उनके श्राप के शिकार हो गए, जिससे 56 करोड़ यादवों का दुर्भाग्यपूर्ण अंत हुआ। सूक्ष्मवेद में कहा गया है:

गरीब, दुर्वासा कोपे तहाँ, समझ न आई नीच।
छप्पन करोड़ यादव कटे, मची रूधिर की कीच।।

इसलिए यह दावा गलत साबित होता है कि ध्यान से आंतरिक शांति मिलती है। वहीं ऋषि दुर्वासा इतने अहंकारी थे कि एक बार उन्होंने स्वर्ग के राजा इंद्र को श्राप दे दिया था, जोकि स्वर्ग के विनाश का कारण बना था। इससे सिद्ध होता है कि ध्यान एक व्यर्थ साधना है, जिसके द्वारा कभी भी ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती, बल्कि साधक पापों के ढेर इकट्ठा कर लेते है और बाद में कष्ट भोगते है।

भस्मागिरि ध्यान साधना कर के भी अपने बुरे इरादे को छोड़ने में विफल रहा

तमोगुण शंकर जी के उपासक भस्मागिरि ने उन्हें मारने और देवी पार्वती से विवाह करने के इरादे से 12 वर्षों तक भगवान शिव के निवास स्थान के सामने तपस्या की। जिससे उसकी मुक्ति नहीं हुई, न उसके विकार मरे, बल्कि भगवान शिव के प्रति उसके कुकृत्य के कारण वह राक्षस 'भस्मासुर' कहलाया और काल के जाल में फंसा रहा।

श्रृंगी ऋषि तप साधना करके काल के जाल में फंसे रहे

त्रेतायुग में श्रृंगी नाम के एक ऋषि थे, जो महान तपस्वी माने जाते थे। ध्यान करने से उन्हें भोजन के बिना जीवित रहने की सिद्धि प्राप्त हुई। सच्चिदानंद घनब्रह्म की वाणी में सिद्धि के संबंध में कहा गया है 'एक सिद्धि कुछ पीवे ना खावे', इसका मतलब यह है कि हठ योग/ध्यान साधना करने से साधक भूखे रहकर भी जीवित रहने की शक्ति प्राप्त कर लेते हैं। श्रृंगी ऋषि ने यह सिद्धि प्राप्त कर ली और प्रसिद्ध हो गये। वह जब अयोध्या के बाहरी इलाके में ध्यान कर रहे थे, तब राजा दशरथ की बेटी शांता को उनके बारे में पता चला। वह उनके दर्शन के लिए आई।

उसने देखा कि श्रृंगी ऋषि घोर तपस्या में लीन है और जीवित रहने के लिए दिन में केवल एक बार पेड़ की छाल को चाटते हैं और कुछ भी नहीं खाते हैं। वह उन पर मोहित हो गई। किसी ने शांता से कहा कि वह पेड़ के उस हिस्से पर खीर लगा दे, जिसे श्रृंगी ऋषि रोज चाटते थे ताकि कुछ खाने की चीज उनके शरीर के अंदर चली जाए नहीं तो वह भूख से मर जाएंगे, वह बहुत कमजोर हो गए हैं। शांता हर रोज ऐसा ही करने लगी। कुछ दिनों के बाद श्रृंगी ऋषि ने अपनी आँखें खोलीं। बाद में राजा दशरथ ने श्रृंगी ऋषि को अपने दरबार में आमंत्रित किया और उनसे पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ करने का अनुरोध किया। ऐसा ही किया गया। जिसके बाद अयोध्या में राजा दशरथ के घर में रानी कौशल्या से भगवान विष्णुजी का राम के रूप में जन्म हुआ, कैकेयी (कैकई) से भरत का जन्म हुआ और सुमित्रा से लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म हुआ। इसी बीच श्रृंगी ऋषि और शांता में एक-दूसरे के प्रति प्रेमभाव बन गया। बाद में दोनों ने शादी कर ली।

इस सत्य कथा का सार यह है कि सभी प्राणी साधना करके ब्रह्म काल के जाल में फंसे रहते हैं और ईश्वर को प्राप्त नहीं कर पाते। श्रृंगी ऋषि ने भगवान को पाने के लिए वर्षों तक हठ योग किया। लेकिन चूँकि ध्यान करना शास्त्रों में निषेध है जिससे यह एक मनमानी साधना है, इसलिए यह व्यर्थ है। श्रृंगी ऋषि ने मोक्ष पाने की बजाय पारिवारिक बंधन में फंसकर विवाह कर लिया। ईश्वर प्राप्ति के सारे प्रयास व्यर्थ गये।

कपिल मुनि ने ध्यान साधना से सिद्धि प्राप्त की और राजा सगड़ की विशाल सेना को नष्ट कर दिया

कपिल मुनि को काल लोक में 24 अवतारों में से एक माना जाता है। एक राजा सगड़ (सगर) थे, जिन्होंने कई अश्वमेघ यज्ञों के बराबर पुण्य प्राप्त करने के लिए यज्ञ किया था। उनके साठ हजार पुत्र थे, जो यज्ञ करने के लिए सारी पृथ्वी खोद रहे थे। देवी पृथ्वी उनसे बचने के लिए भगवान विष्णुजी से मदद मांगती है। भगवान विष्णु जी स्वर्ग के राजा इंद्र के पास गए और उन्हें चेतावनी दी कि राजा सगर अश्वमेघ यज्ञ कर रहे हैं, आपका सिंहासन खतरे में है और यदि वह सफल हुए तो आपको स्वर्ग के राजा का पद छोड़ना होगा। भयभीत होकर इंद्र ने यज्ञ भंग करने के लिए कुछ दूत भेजे।

उन दूतों ने राजा सगड़ का घोड़ा चुरा लिया और उसे युगों से तपस्या कर रहे कपिल मुनि की जाँघ से बाँध दिया। उनकी पलकें बहुत लंबी हो गईं थीं, जो जमीन को छू रही थीं। राजा सगड़ के साठ हजार पुत्र अपना घोड़ा छुड़ाने गये और कपिल मुनि को पीड़ा देने लगे। उन्हें दर्द हुआ और उन्होंने झुँझलाकर अपनी पलकें खोल दीं। ध्यान से उन्हें सिद्धियाँ प्राप्त हुईं थीं। जैसे ही उन्होंने अपनी पलकें खोलीं, उनकी आंखों से अग्निबाण निकलने लगे, जिससे राजा सगर के साठ हजार पुत्र जलकर मर गये। कपिल मुनि ने ध्यान से भगवान को प्राप्त करने के बजाय अंततः राजा के पुत्रों की हत्या करके अपने खाते में पाप जमा कर लिया। जिसे बाद में उन्होंने भोगा और 84 लाख योनियों में रहे। सूक्ष्मवेद में इस विषय में कहा गया है:

60 हजार सगड़ के होते, कपिल मुनिश्वर खाए।
जै परमेश्वर की करें भक्ति, तो अजर-अमर हो जाए।।

ध्यान द्वारा परमात्मा प्राप्ति में ऋषियों की असफलताओं की सूची यहाँ समाप्त नहीं होती। आइए ऋषि सौभरि के एक वृत्तांत के बारे में जानें कि कैसे ब्रह्म काल ने उनको धोखा दिया और उससे हठ योग/ध्यान करवाकर उसका जीवन बर्बाद कर दिया।

सौभरि ऋषि ने तप किया और ईश्वर प्राप्ति करने में असफल होने पर पश्चाताप किया

ऋषि सौभरि ने बचपन से ही ध्यान करना शुरू कर दिया था। वह बड़े धर्मात्मा थे। उन्होंने पानी के अंदर गहरे ध्यान का अभ्यास किया, जहां उन्होने एक मगरमच्छ को देखा, जो अपने पोते-पोतियों से लाड़-प्यार करते हुए अपने पारिवारिक जीवन का आनंद ले रहा था। ऋषि सौभरि ने भी सोचा कि अगर मेरे भी पोते-पोतियाँ होती और मैं उन्हें लाड़-प्यार करता तो यहीं आनंद मुझे भी मिलता। इसलिए विवाह कराने के उद्देश्य से सौभरि ऋषि, मानधाता राजा के पास गये और उनकी पुत्री से विवाह करने का प्रस्ताव रखा। ऋषि सौभरि तब तक वृद्ध हो चुके थे। राजा को डर लगा कि यदि वह अपनी जवान बेटी का विवाह बूढ़े ऋषि से करने से इंकार करेगा तो वह श्राप दे सकता है। क्योंकि उनके पास शक्तियां हैं। मानधाता राजा की 50 बेटियाँ थीं। उसने विचार करके ऋषि से कहा कि अगर मेरी बेटी आपको चुन ले यानी जो बेटी आपको चुनेगी मैं उसका विवाह आपके साथ कर दूंगा। ऋषि सौभरि ने ध्यान से प्राप्त सिद्धियों से स्वयं को युवा और सुंदर बना लिया। सभी 50 राजकुमारियां सुंदर ऋषि से विवाह करने के लिए सहमत हो गईं, तो राजा मान्धाता ने अपनी 50 बेटियों का विवाह ऋषि से कर दिया। फिर ऋषि सौभरि के आदेश पर वास्तुकार विश्वकर्मा ने एक सुंदर महल बना दिया, जिसमें वह 50 राजकुमारियों और अपने 150 बच्चों के साथ खुशी से रहते थे। सूक्ष्मवेद में बताया है कि ध्यान से साधकों को अपने अनेक रूप बनाने की शक्ति भी प्राप्त होती है। सूक्ष्मवेद में कहा गया है,

'एक सिद्धि बहु चोले धारे'

ऋषि ने सिद्धि से अपने 51 रूप बनाए और प्रत्येक रूप द्वारा एक राजकुमारी के साथ संबंध बनाया। लेकिन बाद में उन्हें एहसास हुआ कि पोते-पोतियों के साथ आनंद ले रहे मगरमच्छ के जीवन से प्रेरित होकर, उन्होंने अपना पूरा जीवन बर्बाद कर दिया और अपनी सभी सिद्धियों का उपयोग कर लिया। लेकिन मोक्ष प्राप्त नहीं कर सके। उन्हें परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई और वह काल के जाल में ही फंसे रहे। इस प्रकार कालब्रह्म परमात्मा के निर्दोष बच्चों को हम आत्माओं को धोखा देता है, जो यहां पृथ्वी पर सत भक्ति का ज्ञान नहीं होने से दुःख पा रहे हैं।

तांत्रिक गोरखनाथ भी ध्यान साधना करके काल के जाल से मुक्ति पाने में असफल रहे

गोरखनाथ को एक महान सिद्ध पुरुष, एक तांत्रिक माना जाता है, जिन्होंने अपने गुरु मछंदर नाथ को भौतिक सुखों के जाल में फंसने से बचाया और यहां तक ​​कि मिट्टी और पत्थर के पहाड़ को भी सोने के पहाड़ में बदल दिया था। उन्होंने स्वामी रामानंद को आध्यात्मिक ज्ञानचर्चा के लिए चुनौती दी थी। लेकिन उसमें वे हार गए थे, जब कबीर साहेब ने उन्हें उनकी कीमत का एहसास करा दिया।

तब उन्हें एहसास हुआ कि उनका प्रभु अलख निरंजन यानी 21 ब्रह्मांड का मालिक कालब्रह्म, जिनकी वे पूजा करते हैं, वह भी कबीर भगवान की ही पूजा करता है, वह भी उनके आधीन है। अत: ध्यान से उन्हें जो सिद्धियाँ प्राप्त हुई है, वे सब व्यर्थ हैं और इनसे उन्हें ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। अत: ध्यान का उद्देश्य ही गलत साबित हो जाता है।

मार्कण्डेय ऋषि ध्यान साधना कर के केवल ब्रह्मलोक तक ही पहुँच सके

महान तपस्वी, मार्कण्डेय ऋषि ने बंगाल की खाड़ी में हठ योग किया और ओम मंत्र का जाप करके सिद्धियाँ प्राप्त की। ओम मंत्र ब्रह्म का है, इसलिए वे ध्यान में केवल ब्रह्मलोक तक ही पहुँच पाते थे। यहां तक ​​कि उनकी कठिन तपस्या के कारण राजा इंद्र को भी अपना सिंहासन खोने का डर था, इसलिए उन्होंने ऋषि मार्कंडेय की तपस्या भंग करने के लिए अपनी पत्नी उर्वशी को भेजा था। ध्यान से सिद्धियां प्राप्त करने के बावजूद ऋषि काल के जाल से मुक्त नहीं हो सके और अभी भी जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र में रहकर दुःखी है, अभी तक मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ है।

ऋषि पराशर का ध्यान विकारों को मारने में बुरी तरह विफल रहा

ऋषि पराशर एक बहुत ही विद्वान और प्रसिद्ध ऋषि थे, जिन्हें ध्यान के माध्यम से चमत्कारी सिद्धियाँ प्राप्त हुई थीं। कठोर तपस्या/हठयोग से उन्होंने यह शक्ति प्राप्त कर ली कि उनसे उत्पन्न होने वाली संतान में भी चमत्कारी शक्तियां होंगी। लेकिन हठयोग करने के लिए वह जंगल में चले गए और अपनी पत्नी के साथ कोई संबंध नहीं रखा। बाद में उन्होंने अपना वीर्य एक कौए के माध्यम से एक पत्ते पर रखकर अपनी पत्नी को देने के लिए भेज दिया। रास्ते में अन्य कौवों को लगा कि कौआ मांस का टुकड़ा ले जा रहा है इसलिए उन्होंने उसे छीनने की कोशिश की। परिणामस्वरूप ऋषि पराशर का वीर्य नदी में गिर गया जिसे एक मछली ने खा लिया। उस मछली के अंदर एक लड़की बनी। एक मछुआरे ने उस मछली को पकड़ लिया और जब उसने उसे खाने के लिए काटा तो उसमें से एक लड़की निकली जिसे उसने अपनी बेटी की तरह पाला और उसका नाम 'मछोदरी/सत्यवती' रखा। एक दिन ऋषि पराशर तपस्या करके वापिस लौटे और मछुआरे से यमुना नदी पार कराने के लिए कहा। मछुआरा उस समय भोजन कर रहा था और ऋषि ने उससे कहा कि वह जल्दी में है और इंतजार नहीं कर सकता। तब मछुआरे ने ऋषि के श्राप के डर से अपनी बेटी सत्यवती बेटी को जिम्मेदारी सौंपी। सत्यवती उस समय 13-14 वर्ष की एक युवा और सुंदर लड़की थी। ऋषि पराशर यह नहीं जानते थे कि वह उनकी बेटी है, वह उनकी सुंदरता पर मोहित हो गए और उनके साथ संबंध बनाने की इच्छा व्यक्त की, लेकिन उस लड़की ने यह कहकर इंकार कर दिया कि उनके पिता और बाकी सभी लोग उन्हें देख रहे हैं। ऋषि पराशर ने अपनी सिद्धि से तुरंत धुंध वाला वातावरण बना दिया। फिर उसने अपनी इज्जत की रक्षा के लिए कहा कि ऋषि जी मेरे शरीर से मछली जैसी गंध आती है। लेकिन ऋषि पराशर तब भी नहीं माना और अपनी सिद्धि से गंध को सुगंध में बदल दिया। आखिरकार नाव में ही ऋषि पराशर ने अपनी ही बेटी के साथ गंदा कर्म करके छोड़ा। परिणामस्वरूप, उसने एक पुत्र को जन्म दिया जो बाद में महर्षि वेदव्यास के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यहां मुख्य बात यह है कि ध्यान करने से कामवासना जैसी बुराई नहीं जाती। ऋषि पराशर का अपनी ही पुत्री के साथ संबंध से पुत्र का जन्म हुआ अर्थात दोनों वास्तव में एक ही पिता से उत्पन्न हुए भाई-बहन थे जो यह साबित करता है कि काल के लोक में सब कुछ गड़बड़ है और जीव व्यर्थ ध्यान साधना, तपस्या में फंस गए हैं जिससे उन्हें केवल कुछ शक्तियां प्राप्त होती हैं, जिसके फलस्वरूप जीव को मोक्ष प्राप्त करने के बजाय 84 लाख योनियों में कष्ट भोगना पड़ता है।

 

सती अनुसूईया ने ध्यान से प्राप्त शक्तियों से त्रिदेव को शिशु में बदल दिया लेकिन 'चौरासी' का चक्र बना रहा

सती अनुसूईया श्री अत्री ऋषि की पत्नी थी। जो अपने पतिव्रता धर्म के कारण सुप्रसिद्ध थी। एक दिन देवर्षि नारद जी ने देवी लक्ष्मी, देवी पार्वती और देवी सावित्री को अनुसूईया जी की सुन्दरता तथा उसके पतिव्रता धर्म की अति महिमा की। जिस कारण से तीनों देवियों को अनुसूईया के प्रति ईर्ष्या हो गई तथा उसके पतिव्रता धर्म को खण्ड करवाने की युक्ति सोचने लगी। तीनों (सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती) इकट्ठी हुई तथा अनुसूईया के पतिव्रता धर्म को खण्ड कराने की युक्ति निकाली कि अपने-अपने पतियों (ब्रह्मा, विष्णु, शिव) को भेज कर अनुसूईया का पतिव्रता धर्म खण्ड कराना चाहिए। उसे अपने पतिव्रता धर्म का अधिक घमण्ड है। तीनों देवियों ने अपने पतियों से अनुसूईया का पतिव्रता धर्म खण्ड कराने की जिद्द की। तीनों भगवानों ने बहुत समझाया कि यह पाप हमसे मत करवाओ। परंतु तीनों देवियां (सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती) टस से मस नहीं हुई। तीनों भगवानों ने साधु वेश धारण किया तथा अत्रि ऋषि के आश्रम पर पहुंचे। उस समय अनुसूईया जी आश्रम पर अकेली थी। साधुवेश में तीन अतिथियों को द्वार पर देख कर अनुसूईया ने भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया। तीनों साधुओं ने कहा कि हम आपका भोजन अवश्य ग्रहण करेंगे। परंतु एक शर्त पर कि आप निःवस्त्र होकर भोजन कराओगी। अनुसूईया ने अपनी ध्यान साधना से प्राप्त सिद्धियों से तीनों को छः-छः महीने की आयु का शिशु बना दिया तथा अनुसूईया ने तीनों को निःवस्त्र होकर दूध पिलाया तथा पालने में लेटा दिया। अंत में जब तीनों देवता वापिस नहीं लौटे तो तीनों देवियों (सावित्री, लक्ष्मी तथा पार्वती) की प्रार्थना पर सती अनुसूईया ने उन्हें पुनः वैसा ही बना दिया जिससे अनुसुईया जी का पतिव्रता धर्म भी खण्ड नहीं हुआ और साधुओं को आहार भी प्राप्त हो गया व उन्हें अतिथि सेवा न करने का पाप भी नहीं लगा। ध्यान के माध्यम से प्राप्त चमत्कारी शक्तियों के बावजूद, अनुसुईया जन्म और मृत्यु के दुष्चक्र से छुटकारा नहीं पा सकीं और 84 लाख योनियों में फंसी रहीं। ध्यान से प्राप्त उपलब्धियाँ उन्हें मुक्त कराने में बुरी तरह विफल रहीं। उससे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हुई क्योंकि ध्यान/हठयोग एक व्यर्थ प्रयत्न है जिससे आत्मा का कल्याण (मोक्ष) कभी नहीं होता।

अगस्त्य ऋषि ने ध्यान से प्राप्त शक्तियों से सात समुद्रों को पी लिया लेकिन मोक्ष प्राप्ति से रहे वंचित

ऋषि अगस्त्य एक प्रसिद्ध वैरागी थे जो छह महीने तक ध्यान करते थे और छह महीने तक घूमते रहते थे। भ्रमण के दौरान एक बार उनकी मुलाकात एक ऐसे राजा से हुई जिनकी कोई संतान नहीं थी इसलिए उन्होंने अगस्त्य ऋषि से आशीर्वाद लिया। उनके आशीर्वाद से रानी के यहां एक पुत्री का जन्म हुआ। जब वह राजकुमारी 12 वर्ष की हो गई, तब ऋषि अगस्त्य राजा के नगर में आए और राजा के अनुरोध पर वे सात दिनों तक उनके महल में रहे जहाँ राजकुमारी ने उनकी सेवा की। वैरागी होने के बावजूद वासना जैसी बुराइयां नहीं गईं और उसने राजा से राजकुमारी की मांग की, जिसके लिए राजा को ऋषि के श्राप के डर के कारण भारी मन से सहमत होना पड़ा। उसने अपनी बेटी की उम्र की राजकुमारी से विवाह किया। उन्होंने अपना पूरा जीवन ध्यान/हठ योग में बिताया जिससे उन्हें सिद्धियाँ प्राप्त हुईं। इसी सिलसिले में एक बार वह एक घूंट में सातों सागर पी गये। देवताओं के अनुरोध पर बाद में उन्होंने उन्हें कुल्ला कर दिया। ध्यान से उन्हें शक्तियां तो मिलीं  लेकिन विकारों के कारण मोक्ष की प्राप्ति से वे वंचित रह गए।

बादशाह बाजीद (वाजीद) ने अल्लाह को पाने के लिए ध्यान साधना छोड़ी

बाजीद नाम का एक मुसलमान राजा था। जिसे ऊँट की मौत से  इस बात का गहरा दु:ख हुआ कि चाहे वह राजा ही क्यों न हो, एक दिन उसकी भी मौत होगी। मृत्यु एक सार्वभौमिक सत्य है। उन्होंने अपना राज्य और परिवार त्याग दिया और कठोर तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और वैरागी बन गए। जब तक आत्मा सच्ची भक्ति में नहीं लगती तब तक वह भटकती रहती है और तपस्या, ध्यान/हठयोग जैसे व्यर्थ अभ्यास करती रहती है। भगवान कबीर के महान भक्त धन्ना जाट उनसे मिले और वाजिद जी को ध्यान छोड़ने के लिए प्रेरित किया तथा परमात्मा से प्राप्त ज्ञान वाजिद जी को बताया कि

 

दिन में भजे सो ढोंगी कहिए, रात में भजे सो चोर।

गुफा में भजे सो कहिए मूष्टा, भक्ति की गति ओर।।

 

मतलब भक्ति का सही तरीका ध्यान साधना से भिन्न है। ध्यान, हठयोग से कभी भी ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस वाणी से आश्वस्त होकर राजा वाजिद ने तपस्या छोड़ दी और 'सहज समाधि’ प्राप्त की, जिससे वे मोक्ष प्राप्त करने के पात्र बने।

भक्त ध्रुव हठयोग करके ध्रुव तारा तो बन गये परन्तु उन्हें मोक्ष की प्राप्ति नहीं हुई

इतिहास गवाह है कि कैसे 5 साल की उम्र के ध्रुव नाम के एक युवा लड़के ने कठिन तपस्या / हठ योग किया और भगवान विष्णु को प्रसन्न किया जिन्होंने उसे वरदान दिया जिसके बाद उसने पृथ्वी पर राज्य प्राप्त किया और साथ ही ध्रुव तारा बन गया। हठ योग ने उन्हें शक्तियाँ प्रदान कीं लेकिन वे ब्रह्म काल के जाल से मुक्ति पाने में बुरी तरह असफल रहे, इसलिए ईश्वर को प्राप्त करने से वंचित रह गए। उनका बहुमूल्य मानव जीवन शासन करने में बर्बाद हो गया जो वास्तव में ईश्वर की सच्ची भक्ति करने के लिए दिया गया था।

राक्षस हिरण्यकशिपु ने ध्यान से अमरता का वरदान प्राप्त किया लेकिन उसकी भयानक मृत्यु हुई

भगवान ब्रह्मा ने राक्षस हिरण्यकशिपु को अमर रहने का वरदान दिया था, जो कि ब्रह्म काल के नश्वर क्षेत्र में मूर्खता का कार्य है, इसलिए, नर-शेर के रूप में सर्वशक्तिमान भगवान नरसिम्हा ने उसे मार डाला और अपने दृढ़ भक्त प्रह्लाद को बचाया और उसकी दुखद मृत्यु हो गई।

स्वामी रामानन्द जी ध्यान से केवल त्रिकुटी तक ही पहुँच सके

सन् 1398 में परमात्मा कबीर जी धरती पर सशरीर अवतरित हुए थे तथा गुरु-शिष्य परंपरा बनाए रखने के लिए उन्होंने स्वामी रामानंद जी को अपना गुरु बनाया। परमेश्वर कबीर जी की अमृतवाणी में वर्णित सत्य प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि वैष्णव संत स्वामी रामानन्द जी तप ध्यान साधना करते थे तथा सिद्धियाँ प्राप्त करके त्रिकुटी तक ही पहुँच पाते थे, उससे आगे नहीं।

वह काल ब्रह्म के 21 ब्रह्मांडों को पार करने में असफल रहे और जब परमेश्वर कबीर जी से परिचित होने के बाद स्वामी रामानन्द जी ने हठयोग करना बंद कर दिया था और कबीर परमेश्वर द्वारा बताई गई सहज समाधि यानि सतभक्ति की, जिससे वे मोक्ष प्राप्ति के अधिकारी बने। इस तरह उनका आत्मकल्याण हुआ।

राधास्वामी पंथ के प्रमुख शिवदयाल जी ध्यान साधना कर के भूत बने

राधास्वामी संप्रदाय के संस्थापक शिवदयाल जी एक कमरे में 17 वर्षों तक ध्यान साधना में लगे रहे, फिर दीक्षा देना शुरू किया अर्थात शिष्य बनाना प्रारंभ किया तथा उन्होंने अपने शिष्यों को 2.5 घंटे प्रतिदिन हठयोग यानि ध्यान मनमानी साधना को करने के लिए कहा। इसी मनमानी ध्यान साधना का परिणाम यह हुआ कि शिवदयाल जी मृत्यु के बाद अपनी 'बुकी' नामक शिष्या में भूत बनकर प्रवेश कर गए और फिर उसके माध्यम से प्रकट होने लगे, यहां तक ​​कि खाना खाने और हुक्का पीने जैसी दैनिक गतिविधियां भी करने लगे। शिष्या बुकी की मृत्यु तक वह उसमें प्रवेश रहे। इस घटना का विवरण लाला प्रताप सिंह सेठ द्वारा लिखित और राधा स्वामी ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित "जीवन चरित्र स्वामी जी महाराज" नामक पुस्तक में पृष्ठ संख्या 79-81 पर देखा जा सकता है।

इससे सिद्ध होता है कि जिस ध्यान साधना से राधास्वामी पंथ के प्रवर्तक शिवदयाल जी का मोक्ष नहीं हो सका बल्कि भूत बन गए, तो उनके द्वारा बताई गई साधना को करने वाले राधास्वामी पंथ और उससे निकलने वाली शाखाओं जैसे धन धन सतगुरु पंथ, जयगुरुदेव पंथ, सावन कृपाल मिशन, ताराचंद जी का दिनोद वाली पंथ आदि का मोक्ष कैसे हो सकता है।

यहां हम पाठकजन को बताना चाहेंगे कि आप इन सत्य वृत्तांतों को पढ़कर निराश न हों और आपके मन में यह भावना न आए कि इन साधु-संतों में से कोई भी काल जाल से मुक्त नहीं हुआ तो फिर हमारा क्या होगा? हमें मुक्ति कैसे मिलेगी? तो यहाँ आपको बता दें जिन साधकों ने सहज समाधि (सहज ध्यान) द्वारा सर्वशक्तिमान कविर्देव (कबीर परमेश्वर) की सच्ची भक्ति की है, वे मुक्ति प्राप्त करने में सफल रहे हैं। आइये जानते हैं ऐसे ही कुछ भाग्यशाली महापुरुष की सफल यात्रा के बारे में।

महापुरुषों ने सहज समाधि (सहज ध्यान) से मोक्ष प्राप्त किया

परमात्मा कबीर जी इस मृत्युलोक में सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करने के इरादे से अवतरित होते हैं और अपने दृढ़ भक्तों को सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान करते है। कुछ धन्य आत्माएँ थी, जिनको सर्वशक्तिमान कविर्देव आकर मिले और उन्हें कसाई काल ब्रह्म की चंगुल से मुक्त कराया। इन महापुरुषों में धनी धर्मदास जी, सिख धर्म के प्रवर्तक नानक जी, संत दादू जी, संत मलूकदास जी, संत गरीबदास जी, संत घीसा दास जी, महर्षि स्वामी रामानंद जी, महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत नामदेव जी आदि शामिल हैं। इन सभी महापुरुषों ने कभी हठयोग नहीं किया, बल्कि 'सहज समाधि' (सहज ध्यान) की, जिसका अर्थ है कि उन्होंने एक तत्वदर्शी संत से नामदीक्षा प्राप्त की और फिर सच्चे मोक्ष मंत्रों का जाप किया और परमात्मा द्वारा बताई गई भक्ति की निर्धारित नियम-मर्यादा में रहकर शाश्वत लोक सतलोक में स्थायी निवास प्राप्त किया। उनमें से किसी ने भी हठ योग/ध्यान साधना नहीं की। उन सभी के परिवार थे, वे अपनी आजीविका के लिए काम करते थे और साथ में शास्त्रोक्त भक्ति साधना करते थे। श्री गुरुग्रंथ साहिब में गुरूनानक जी की वाणी में कहा गया है कि,

नाम खुमारी नानका, चढ़ी रहे दिन रात।।
नानक नाम चढ़दी कला, तेरे बहाने सबदा भला।।

सन् 1398 में जब कबीर परमेश्वर जी काशी में प्रकट हुए थे तो उन्होंने भक्ति करने के साथ-साथ जीवनयापन के लिए बुनाई (जुलाहे) का काम करके एक मिसाल कायम की थी। उन्होंने आँख या कान बंद करके ध्यान नहीं किया। उन्होंने उपदेश दिया कि सच्चे मंत्रों के जाप से ईश्वर की प्राप्ति होती है। हठ योग करना एक गलत साधना है। कबीर परमेश्वर कहते हैं,

कोई सतगुरु संत कहावे, जो नैनन अलख लखावै।
आँख ना मूंदे, कान ना रूंधैर ना अनहद उलझावै।
जो सहज समाधी बतावै।।

वहीं पवित्र श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 17 श्लोक 5 व 6 में हठयोग का निषेध किया गया है। पवित्र ग्रंथ इस बात का प्रमाण देते हैं कि तत्वदर्शी संत सच्चा आध्यात्मिक ज्ञान प्रदान करते हैं और सच्चे मोक्ष मंत्र प्रदान करते हैं। साधकों को अपना कल्याण कराने के लिए उनकी शरण लेनी चाहिए।

Gita Adhyay 17 Shlok 5-6

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 17 श्लोक 5, 6

लेकिन सवाल उठता है कि वर्तमान समय में जब कुकुरमुत्तों की तरह इतने सारे आध्यात्मिक गुरु समाज में हों, तो यह कैसे पहचाना जाए कि सच्चा आध्यात्मिक संत कौन है, जिसकी शरण में जाकर मानव को मोक्ष/निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है? तो तत्वदर्शी संत की पहचान भी हमारे पवित्र सद्ग्रंथों में दी गई है। तो चलिए जानते हैं तत्वदर्शी संत की क्या पहचान है?

हम एक तत्वदर्शी संत को कैसे खोज सकते है?

तत्वदर्शी संत की पहचान करने का तरीका पवित्र श्रीमद्भगवदगीता अध्याय 15 श्लोक 1-4, 16 व 17 में बताया गया है। हालांकि, आपके काम को आसान बनाने के लिए हम यहाँ आपको बताना चाहेंगे कि वर्तमान में संत रामपाल जी महाराज (बरवाला-हिसार, हरियाणा, भारत) वे तत्वदर्शी संत हैं, जिसका श्रीमद्भगवद्गीता में उल्लेख किया गया है। कबीर परमेश्वर ने तत्वदर्शी संत की पहचान बताते हुए गीता जी के इन श्लोकों को सरल शब्दों में इस तरह कहा है,

कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।

तो अपना समय बर्बाद किए बिना उनसे दीक्षा लें और आत्मज्ञान, शांति और शाश्वत आनंद के सच्चे मार्ग पर आगे बढ़ें। अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए जरूर पढ़ें, पुस्तक 'ज्ञान गंगा'

सहज समाधि (सहज ध्यान) से होती है एकमात्र पूजनीय परमात्मा कबीर जी की प्राप्ति

परमेश्वर कबीर जी अपनी अमृत वाणी में बताते है कि सहज ध्यान से ही परमेश्वर की प्राप्ति होती है। साधक को ईश्वर के प्रति अपनी निष्ठा पर दृढ़ रहना चाहिए और अन्य किसी देवता की पूजा नहीं करनी चाहिए। सूक्ष्मवेद में कहा गया है,

ज्यों पतिव्रता पति से राति, आन पुरुष नहीं भावै।
बसे पीहर में ध्यान प्रीतम में, ऐसे सूरत लगावै।।

भक्तों को 'सहज समाधि' में 'सूरत-शब्द-अभ्यास' का अभ्यास करना होता है, जिसका अर्थ है सहज ध्यान। गुरु जी अर्थात तत्वदर्शी संत साधक को जो भी मंत्र देते है, उस मंत्र पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। ईश्वर का स्मरण हर समय यानी चलते हुए, खाते हुए, काम करते हुए, यात्रा करते समय करते रहना है। संतों के अनुसार यह सहज ध्यान साधना है और समस्त ब्रह्मांडों के रचयिता कबीर परमेश्वर की प्राप्ति इसी विधि से होती है, जोकि मनुष्य के भक्ति करने का एकमात्र उद्देश्य है।

निष्कर्ष

एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें हम आध्यात्मिक जागृति लाकर शास्त्रोक्त विधि के अनुसार आसानी से परमात्मा के नाम व गुणों का ध्यान करते हैं सहज ध्यान कहलाता है। यदि पूर्ण संत की शरण ग्रहण करके सही विधि से ध्यान किया जाए तो इस ध्यान या मंत्र जाप से ऋग्वेद मण्डल 10 सूक्त 161 मंत्र 2, 5 सूक्त 162 मंत्र 2, सूक्त 163 मंत्र 1-3 के अनुसार घातक और असाध्य रोग भी ठीक हो जाते हैं तथा साधक की आयु भी बढ़ सकती है। साथ ही, सहज ध्यान से व्यक्ति पूर्ण मोक्ष प्राप्त कर लेता है, जो हठ योग से पाना असंभव है। उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि मनमानी ध्यान साधना या समाधिस्थ होने से आंतरिक शांति और मोक्ष प्राप्त नही हो सकता है।

ध्यान का मूल सार अत्यंत समर्पित विचारों और कर्मों के द्वारा परमात्मा से जुड़े रहना है, जिसे "सहज-समाधि" के रूप में जाना जाता है। एक तत्वदर्शी संत के मार्गदर्शन अनुसार चलकर और दिव्य सिद्धांतों के अनुरूप जीवन जीने से वास्तविक आंतरिक शांति, आत्मज्ञान और सदा रहने वाली परम शांति यानि पूर्णमोक्ष प्राप्त की जा सकती है।

गरीब, जैसे हाली बीज धुनि, पंथी सें बतलाय। 
जामैं खंड परै नहीं, मुख सें बात सुनाय।।114।।


सरलार्थ:– परमात्मा कबीर जी ने अपनी प्रिय आत्मा संत गरीबदास जी को तत्त्वज्ञान पूर्ण रूप में बताया था। संत गरीबदास जी ने उसे बताया है।

परमात्मा कबीर जी का भक्त नाम का जाप करे तथा नाम के स्मरण में ध्यान लगाए। सतलोक के सुख को याद करके रह-रहकर उसकी प्राप्ति के बाद के आनंद की कल्पना करे। सतलोक के ऊपर ध्यान रहे। स्मरण करे, तब नाम पर ध्यान रहे। इसे सहज समाधि कहते हैं। उदाहरण बताया हैं।

किसान हल चलाता हुआ बीज बो रहा होता है। कई किसानों के खेत एक गाँव से दूसरे गाँव को जाने वाले रास्ते पर होते हैं। किसान बीज भी बो रहा होता है। रास्ते पर चलते (पंथी) पैदल यात्री से बातें भी कर रहा होता है। बीज के दाने उसी प्रकार जमीन में बो रहा होता है। उसके बीज बोने के ध्यान में कमी नहीं आती। बिना बात करे जिस औसत से दाने छोड़ रहा होता है, यात्री से बातें करते समय भी वह उसी औसत से बीज के दाने छोड़ता रहता है। उसमें अंतर नहीं आता। इसे सहज समाधि कहा जाता है। (114)