(विद्येश्वर संहिता अध्याय 6 अनुवादक दीन दयाल शर्मा, प्रकाशक रामायण प्रैस मुम्बई, पृष्ठ 67 तथा सम्पादक पंडित रामलग्न पाण्डेय ‘‘विशारद‘‘ प्रकाशक सावित्र ठाकुर, प्रकाशन रथयात्र वाराणसी, ब्रांच - नाटी इमली वाराणसी के विद्येश्वर संहिता अध्याय 6, पृष्ठ 54 तथा टीकाकार डाॅ. ब्रह्मानन्द त्रिपाठी साहित्य आयुर्वेद ज्योतिष आचार्य, म.ए.,पी.एच.डी.,डी.एस.,सी.ए.। प्रकाशक चैखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, 38 यू.ए., जवाहर नगर, बंगलो रोड़, दिल्ली, संस्कृत सहित शिव पुराण के विद्येश्वर संहिता अध्याय 6 पृष्ठ 45 पर)
श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी के पास आए। उस समय श्री विष्णु जी लक्ष्मी सहित शेष शैय्या पर सोए हुए थे। साथ में अनुचर भी बैठे थे। श्री ब्रह्मा जी ने श्री विष्णु जी से कहा बेटा, उठ देख तेरा बाप आया हूँ। मैं तेरा प्रभु हूँ। इस पर विष्णु जी ने कहा आओ, बैठो मैं तुम्हारा पिता हूँ। तेरा मुख टेढ़ा क्यों हो गया। ब्रह्मा जी ने कहा - हे पुत्र! अब तुझे अभिमान हो गया है, मैं तेरा संरक्षक ही नहीं हूँ। परंतु समस्त जगत् का पिता हूँ। श्री विष्णु जी ने कहा रे चोर ! तू अपना बड़प्पन क्या दिखाता है ? सर्व जगत् तो मुझमें निवास करता है। तू मेरी नाभि कमल से उत्पन्न हुआ और मुझ से ही ऐसी बातें कर रहा है। इतना कह कर दोनों प्रभु आपस में हथियारों से लड़ने लगे। एक-दूसरे के वक्षस्थल पर आघात किए। यह देखकर सदाशिव (काल रूपी ब्रह्म) ने एक तेजोमय लिंग उन दोनों के मध्य खड़ा कर दिया, तब उनका युद्ध समाप्त हुआ। (यह उपरोक्त विवरण गीता प्रैस गोरखपुर वाली शिव पुराण से निकाल रखा है। परन्तु मूल संस्कृत सहित जो ऊपर लिखी है तथा अन्य दो सम्पादकों तथा प्रकाशकों वाली शिव पुराण में सही है।)
श्री शिव महापुराण (अनुवाद कर्ता: पं. ज्वाला प्रसाद जी मिश्र प्रकाशक, मुद्रक:- खेमराज, श्री कृष्णदास प्रकाशन मुम्बइ, अध्यक्षः श्री वैंकटेश्वर प्रैस खेमराज कृष्ण दास मार्ग, मुम्बई) के विद्येश्वर संहिता के अध्याय 9 व 10 पृष्ठ 14 से 18 पर लिखा है कि युद्ध कर रहे ब्रह्मा तथा विष्णु के मध्य में जो प्रकाशमय स्तम्भ प्रकट हुआ था। उस के अन्त को न पा कर दोनों थक चुके तब उस स्तम्भ से वह ईश्वर साकार हुआ। उसको देखते ही विष्णु ने कांपते हुए हाथों से उनके चरण पकड़ लिए। कहा मुझे स्तम्भ का अन्त नहीं पाया। ईश्वर बोले वत्स विष्णु आपने सत्य कहा है। इस प्रकार सत्य कहने से शिव विष्णु पर बहुत खुश हुए। अपनी समानता विष्णु को दी। (विद्येश्वर संहिता अध्याय 7 पृष्ठ 14)
ब्रह्मा ने झूठ बोला कि मैंने स्तम्भ का अन्त पा लिया है। इसलिए शिव ने (जो स्तम्भ से प्रकट हुआ था) भैरो की उत्पति की उस से कह कर ब्रह्मा का पांचवा मुख कटा दिया। जिससे ब्रह्मा ने झूठ बोला था। तब उस शिव ने ब्रह्मा तथा विष्णु को कहा कि तुमने अज्ञान से अपने को ईश (प्रभु) माना यह बड़ा अद्धभुत हुआ अर्थात् तुम प्रभु नहीं हो। इसी को दूर करने को ही मैं रण स्थान में आया हूँ। मैं इस सब का ईश्वर हूँ यह संसार मेरा है। (विद्येश्वर संहिता अध्याय 9 पृष्ठ 7) फिर विद्येश्वर संहिता अध्याय 10 पृष्ठ 18 पर लिखा है कि शिव बोला हे पुत्रों (ब्रह्मा-विष्णु) आपने यह कृत्य (सृष्टी-स्थिति) अपने तप से प्राप्त किया है। मैंने प्रसन्न होकर तुम्हें दिया है। इसी प्रकार दूसरे दो कृत्य रूद्र तथा महेश को दिए हैं। परन्तु अनुग्रह कृत्य कोई भी पाने को समर्थ नहीं है। रूद्र संहिता अध्याय 6 पृष्ठ 17 पर लिखा है कि विष्णु ने बारह हजार दिव्य वर्षों तक तप किया। फिर बहुत समय तक दारूण तप किया परन्तु अपने पिता शिव अर्थात् काल ब्रह्म की प्राप्ति नहीं हुई।
विचार करें - श्री शिव पुराण, श्री विष्णु पुराण तथा श्री ब्रह्मा पुराण तथा श्री देवी महापुराण में तीनों प्रभुओं तथा सदाशिव (काल रूपी ब्रह्म) तथा देवी (शिवा-प्रकृति) की जीवन लीलाऐं हैं। इन्हीं के आधार से सर्व ऋषिजन व गुरुजन ज्ञान सुनाया करते थे। यदि कोई पवित्र पुराणों से भिन्न ज्ञान कहता है वह पाठ्य क्रम के विरुद्ध ज्ञान होने से व्यर्थ है।
उपरोक्त युद्ध का विवरण पवित्र शिव पुराण से है, जिसमें दोनों प्रभु पाँच वर्ष के बच्चों की तरह झगड़ रहे हैं। वे कहा करते हैं कि तू मेरा बेटा, दूसरा कहा करता है तू मेरा बेटा, मैं तेरा बाप। फिर एक - दूसरे का गिरेबान पकड़ कर मुक्कों व लातों से झगड़ा करते हैं। यही चरित्र त्रिलोक नाथों का है।
उपरोक्त पुराण के उल्लेख से यह भी सिद्ध हुआ कि (1) ब्रह्मा-विष्णु तथा महेश ईश (प्रभु) नहीं हैं। (2) यह भी सिद्ध हुआ कि ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश से भिन्न चैथा काल ब्रह्म है। ये तीनों उस काल ब्रह्म अर्थात् सदा शिव के पुत्र हैं। (3) यह भी सिद्ध हुआ कि काल ब्रह्म पहले तप कराता हे फिर उन्हीं के तप के प्रतिफल में इन्हें सृष्टी-स्थिति, संहार का कार्य भार सौंपता है।
यही कारण है कि श्री विष्णु पुराण में चतुर्थ अंश के अध्याय 1 श्लोक 86 (गीता प्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) में पृष्ठ 231 पर श्री ब्रह्मा जी ने कहा है ‘‘मद्रूपमास्थाय सृजत्यजो यः स्थितौ च योऽसौ पुरूषस्वरूपी। रूद्रस्वरूपेण च योऽति विश्वं धते तथानन्तवपुस्समस्तम् ( 86)
हिन्दी अनुवाद:- जो मेरा रूप धारण कर संसार की रचना करता है। स्थिती के समय जो पुरूष (विष्णु) रूप है जो रूद्र(शिव) है। रूप से विश्व का ग्रास कर जाता है एवं अनंत रूप से सम्पूर्ण जगत् को धारण करता है।’’ (लेख समाप्त)
तीनों पुराणों (श्री ब्रह्मा पुराण, श्री विष्णु पुराण तथा श्री शिवपुराण) का प्रारम्भ तो काल रूपी ब्रह्म अर्थात् ज्योति निरंजन से ही होता है जो ब्रह्मलोक में महाब्रह्मा, महाविष्णु तथा महाशिव रूप धारण करके रहता है तथा अपनी लीला भी उपरोक्त रूप में करता है। अपने वास्तविक काल रूप को छुपा कर रखता है तथा बाद में विवरण रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी तथा तमगुण शिव जी की लीलाओं का है। उपरोक्त ज्ञान के आधार से पवित्र पुराणों को समझना अति आसान हो जाएगा।