कागभुशुण्डि की कथा: जब साधारण मानव से श्रापवश बनना पड़ा कागभुशुण्डि


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संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है कि काकभुशुण्डि परमज्ञानी रामभक्त हैं। रावण के पुत्र मेघनाथ ने राम से युद्ध करते हुए राम को नागपाश से बाँध दिया था। देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़, जो कि सर्पभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त नागों को प्रताड़ित कर राम को नागपाश के बंधन से छुड़ाया। राम के इस तरह नागपाश में बँध जाने पर राम के भगवान होने पर गरुड़ को सन्देह हो गया। गरुड़ का संदेह दूर करने के लिए देवर्षि नारद ने उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेजा। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा संदेह भगवान शंकर दूर कर सकते हैं। भगवान शंकर ने गरुड़ को उनका संदेह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि जी के पास भेज दिया। अन्त में कागभुशुण्डि जी ने राम के चरित्र की कथा सुना कर गरुड़ के संदेह को दूर किया।

कागभुशुण्डि की सत्य कथा पांचवें वेद यानि सूक्ष्म वेद के अनुसार

कागभुशुण्डि नामक एक भक्त हुए हैं। उनका मुख तो कौवे जैसा चोंच वाला है और शेष शरीर देवताओं वाला अर्थात् मनुष्य सदृश है। एक दिन गरुड़ जी (श्री विष्णु जी का वाहन) तथा कागभुशुण्डि एक स्थान पर इकट्ठे हुए। दोनों महान आत्माओं में आपसी परिचय हुआ। तब गरूड़ जी ने पूछा हे कागभुशुण्डि जी! आपके पास बैठने से मुझे अनोखी शान्ति मिलती है? आपकी भक्ति की महिमा सब देवता बताते हैं, आपसे मिलने का सौभाग्य आज प्राप्त हुआ है। आपका सानिध्य पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया है, आपके शरीर की कान्ति देखकर मालूम होता है जैसे कोई भिन्न चन्द्रमा उदय हो गया हो। 

परिचय के दौरान गरूड़ जी ने कागभुशुण्डि जी को अपने बारे में बताने को कहा

गरूड़ जी ने कागभुशुण्डि जी से कहा, आपकी शीतलता का वर्णन नहीं किया जा सकता। हे कागभुशुण्डि जी! आपको यह भक्ति तथा गति कैसे प्राप्त हुई? मेरी जिज्ञासा की प्यास को कृप्या शान्त करें। कागभुशुण्डि जी ने बताया कि हे खगेश! एक समय मुझे मानव शरीर प्राप्त था, उससे पहले के असंख्य मानव जीवन, भक्ति के बिना व्यर्थ कर दिए थे। हमारा माता-पिता, दो भाई तथा दो बहनों का परिवार था। एक बार दुर्भिक्ष (अकाल) गिरा, त्राहि-त्राहि मच गई। भूख के कारण मनुष्य-मनुष्य को खाने लगा। उसी दुर्भिक्ष के कारण मेरे माता-पिता तथा सब भाई-बहन भूख के कारण मर गए। मैं युवा था, इसलिए कई दिन तक भूख सहन कर गया। मैं उस नगरी को त्यागकर मालुदेश की अवन्तिका नगरी में चला गया। वहां पर दुर्भिक्ष नहीं था। भरपेट भोजन किया, परन्तु परिवार नाश होने का दर्द हृदय में शूल की तरह चुभता था, रो-रोकर आंसुओं रहित हो चुका था। वह परिवार स्वपन था या वास्तविक था, यह विश्वास नहीं हो रहा था।

उसी समय एक शिवालय में परमात्मा की कथा की वाणी कानों में पड़ी, कोई रूचि नहीं बनी, मैंने सोचा कोई परमात्मा वगैरह नहीं है, सब गलत बात है, मैं उठकर चल पड़ा। जब उस मन्दिर के सामने से गुज़रने लगा तो वहाँ भोजन-भण्डारा अर्थात् लंगर का खाना तैयार हो रहा था, मुझे भोजन खाना था। इसलिए भोजन तैयार हो, तब तक समय बिताने के लिए श्रोताओं में बैठ गया। पण्डित जी भगवान शिव की कथा सुना रहे थे। मेरे मन में आया कि चल उठ, यहाँ तो सिर दर्द हो गया। लेकिन मुझे रात्रि व्यतीत करनी थी, इसलिए नहीं उठा, बाद में सब श्रोता चले गए। पण्डित जी बहुत नेक तथा दयालु थे। उन्होंने मेरे से पूछा कि बेटा! आप नहीं गए, क्या आप बाहर के रहने वाले हैं? मैंने कहा जी, मेरा इस संसार में न कोई गांव और न घर है, न परिवार है। मैंने अपनी दुःख भरी कथा सुना दी। पंडित जी की आँखें भर आई और सीने से लगाकर बोला बेटा जिसका कोई नहीं होता, उनका भगवान होता है। आप यहाँ मंदिर में रहो, सेवा करो और सत्संग सुनो। फिर दीक्षा लेकर अपना मानव जीवन सफल करो। एक दिन सब संसार छोड़कर जाएंगे, यहाँ न कोई रहा है, न कोई रहेगा, चिंता त्याग कर मनुष्य जीवन का मूल कार्य संभाल बेटा!

जब मनुष्य की आत्मा पर पाप गहरे हो जाते हैं तो परमात्मा में रूचि नहीं होती

कागभुसण्डी जी ने कहा, हे गरुड़ देव! मैंने छः महीनों तक लगातार पंडित जी के सत्संग सुने। परंतु ऐसे लगता था जैसे मलेरिया के रोगी को भोजन (कड़वा) लगता है। पंडित जी प्रतिदिन कहते बेटा! दीक्षा ले, तब तेरा जीवन सफल होगा। मैं कहता रहता कि अवश्य दीक्षा लूंगा गुरु जी, परन्तु अभी नहीं। हे गरुड़ देव! मेरे पूर्व जन्म के पापों का इतना दुष्प्रभाव था कि छः महीनों तक हरि चर्चा सुनने के पश्चात् जाकर एक दिन न चाहते हुए दीक्षा ले ली। जो कथा गुरु जी सुनाया करते थे, वो मुझे भी याद हो गई, गुरु जी गृहस्थी थे। वे रात्रि में घर चले जाते थे। सुबह पूजा करने देवालय में आते थे, कुछ देर कथा करते थे। गुरु जी की अनुपस्थिति में मैं कथा किया करता था। मैं युवा था, मेरी आवाज़ भी सुरीली थी। श्रोतागण मेरी प्रशंसा किया करते थे, कहते थे कि आप तो गुरु जी जैसी ही कथा करते हो, अधिकतर यही कहते थे कि चेला गुरुजी से बढ़ गया, पंडित जी से भी अच्छे तरीके से कथा करता है। श्रोताओं के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर मैं अहंकारी हो गया। मुझे अभिमान हो गया, जो मेरे नाश का कारण बना। 

एक दिन मैं गुरु जी के आने से पहले मन्दिर के आँगन में बैठा कथा कर रहा था। श्रोता मुग्ध होकर सुन रहे थे। पंडित जी मन्दिर में प्रविष्ट हुए। पहले जब भी गुरु जी मंदिर में आते थे तो मैं खड़ा होकर सत्कार करता था। उस दिन श्रोता खड़े हो गए परन्तु मैं बैठा रहा, बैठे-बैठे प्रणाम कर दिया। गुरू जी महान थे। उन्होंने मेरी इस कृतघ्नता की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया, सीधे भगवान शिव की मूर्ति के सामने जाकर आरती करने की तैयारी करने लगे।

कागभुशुण्डि को शिव जी ने एक लाख वर्ष तक नरक में रहने का श्राप दिया था

आरती प्रारम्भ की ही थी, उसी समय भगवान शिव ने आकाशवाणी की। उनकी आवाज बहुत भयानक थी, कहा हे धूर्त! तूने मेरे परम भक्त, तेरे गुरुदेव का अनादर किया है, खड़ा होकर सत्कार नहीं किया। जब तू अपने गुरु जी का अनादर कर सकता है तो तू मेरा क्या सत्कार करेगा। मुझे तेरे जैसे भस्मासुरों की आवश्यकता नहीं है। गुरु को इष्टदेव का स्वरूप मानकर भक्ति करनी चाहिए। इष्ट देव यह अनुमान लगाता है कि जो भक्त जैसा मेरे प्रतिनिधि संत (गुरू) से बर्ताव करता है, वैसा ही मेरे साथ करेगा। अब तू एक लाख वर्ष तक नरक में रहेगा।

शिव जी से प्रार्थना की, शिव जी ने कहा नरक में यमदूत तंग नहीं करेंगे

कागभुशुण्डि ने बताया कि हे खगेश! यह आकाशवाणी मेरे गुरु जी ने सुनी तो मुझे बुलाया और कहा कि बेटा! क्या गलती कर दी। जिस कारण भगवान कुपित हुए, क्षमा याचना कर भगवान के आगे। गुरु जी ने मेरे लिए भगवान शिव जी से क्षमा मांगी, कहा, हे प्रभु! आपका बच्चा है, इसको क्षमा करो दाता! बहुत देर तक विनय करने के पश्चात् भगवान शिव की आकाशवाणी हुई कि इस पापी प्राणी के लिए क्षमा का स्थान नहीं है, लाख वर्ष नरक में रहना पड़ेगा। गुरु जी ने पुनः स्तुति की। तब भगवान शिव ने कहा कि तेरे गुरूदेव जी की अर्ज से मैं प्रसन्न हूँ, लेकिन जो वचन मैंने बोल दिया वह वापिस नहीं हो सकता। तेरे गुरु जी के कारण इतनी राहत तुझे देता हूँ कि नरक में तुझे यम के दूत तंग नहीं करेंगे परन्तु रहना पड़ेगा नरक में ही। (उदाहरण के लिए जैसे किसी व्यक्ति को सज़ा हो जाए और वह कारागार में रहता है। यदि कोई मंत्री उसका जानकार हो तो वह जेल उसके लिए कष्टदायक नहीं रहती। सब प्रशासन उसकी सहायता करता है। लेकिन रहना पड़ता है जेल में ही। सज़ा पूरी होने पर ही जेल से छूट सकता है।) कागभुशुण्डि ने बताया कि मैं नरक में एक लाख वर्ष तक रहा, परंतु भगवान शिव की कृपा से यमदूतों ने मुझे कोई यातना नहीं दी।

एक लाख वर्ष नरक भोगने के बाद फिर से मानव जीवन मिला

हे खगेश! फिर मेरा जन्म मानव का हुआ। मेरी आत्मा में भक्ति का बीज पड़ चुका था। एक मित्र के बार-बार कहने से मैं एक सत्संग में गया। मेरा हठी स्वभाव तथा नरक के प्रभाव से बहुत लम्बे समय में दीक्षा लेने की इच्छा बनी। फिर एक दिन लोमस ऋषि कथा कर रहे थे। मैं कथा सुनने गया। उस दिन परमात्मा के सर्गुण होने का प्रमाण सुनाया जा रहा था। मैंने अपने अज्ञान के कारण लोमस ऋषि से कहा कि सर्गुण तो नाशवान है, मैं तो निर्गुण परमात्मा की भक्ति करना चाहता हूँ। यदि आपको ज्ञान है तो बताओ? लोमस ऋषि ने कहा कि सर्गुण बिना निर्गुण को कैसे जाना जाएगा। जैसे आम के बीज (गुठली) को दिखाकर कोई कहे कि इस बीज में सामने खड़े बहुत बड़े आम के पेड़ जैसा इस गुठली में पेड़ है और इस गुठली (आम के बीज) जैसी लाखों गुठली हैं तो अज्ञानी नहीं मान सकता। जब आम का बीज बोया जाएगा, आम का वृक्ष बनेगा। तब यह निर्गुण रूप की महिमा समझी जाएगी। इसलिए सूक्ष्मवेद में कहा है कि :

सर्गुण बिना निर्गुण क्या गावै, निर्गुण पद नजरों नहीं आवै। जैसे वृक्ष बीज के मांही, जब उगा तब नजरों आहीं।।

लोमस ऋषि ने कागभुशुण्डि को श्राप दिया, काग चंडाल के घर जन्म होगा

कागभुशुण्डि ने बताया कि हे गरुड़ देव! मैंने अपनी अज्ञानता के कारण इस उदाहरण को नहीं समझा और अधिक वाद-विवाद अज्ञान आधार से करने लगा। तब लोमस ऋषि जी ने मुझे श्राप दे दिया कि तू काग चंडाल के घर जन्म लेगा, तू चण्डाल व्यक्ति है। यह श्राप लोमस ऋषि से सुनकर मैं बहुत दुःखी हुआ। लेकिन मुझे क्रोध नहीं आया अपितु अति अधीन होकर विनती की, कि हे ऋषिवर! मुझसे गलती हुई है, क्षमा करो। हे दाता! क्षमा करो! मेरी आधीनी व विनती से प्रभावित होकर लोमस ऋषि ने कहा कि मैं तेरी विनती से प्रसन्न हूँ। परन्तु जन्म तो तेरा काग चण्डाल के घर पर ही होगा। मैंने प्रार्थना कि, हे ऋषि जी! एक आशीर्वाद दे दें कि मेरा कहीं भी जन्म हो, मुझे परमात्मा की भक्ति की भूल न पड़े। लोमस ऋषि ने कहा तथास्तु, तेरे को भक्ति याद रहेगी।

कागभुशुण्डि रूप में जन्म हुआ

हे गरुड़ देव! फिर एक दिन श्री ब्रह्मा जी की पत्नी अपनी हँसनी को कागचंड के पास गर्भ धारण कराने ले गई। मेरा जन्म हँसनी से कागचंड के बीज से हुआ। मेरी ऊपर की चोंच तो आप देख रहे हैं, काग (कौवे) जैसी है और शेष शरीर देवताओं जैसा है। 

पूर्ण परमात्मा का ज्ञान प्राप्त हुआ

मैं भगवान विष्णु का पूजन करता था। भगवान शिव की भी भक्ति किया करता था। एक दिन एक तत्वदर्शी सन्त जोगजीत का सानिध्य प्राप्त हुआ। मैंने पहले बहुत गलतियाँ की थी। जिसके डर से मैं उस संत जोगजीत जी से बहुत विनम्रता से पेश आया। उनका ज्ञान सुना, मेरी आँखें खुल गई। उस महात्मा ने श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी से ऊपर परमात्मा बताया। पहले तो उनकी सब बातें अविश्वसनीय लगी, परन्तु जब भगवानों से चर्चा की तो तीनों ने कहा कि वह परम संत है। वह जो ज्ञान बता रहे हैं, वह तत्वज्ञान है। जिस सतपुरूष (परम अक्षर ब्रह्म) का वे ज्ञान सुनाते हैं, वह सबकी पहुँच से बाहर है। 

उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना व्यर्थ है। यह वचन तीनों (ब्रह्मा, विष्णु तथा शिवजी) के मुख से सुनकर उस संत के प्रति विश्वास दृढ़ हो गया कि कोई परम पुरुष है। संत जी का यह ज्ञान सत्य है तो यह भी सत्य ही होगा कि मेरे पास (संत जोगजीत के पास) उस परम अक्षर ब्रह्म की प्राप्ति का मन्त्र है, उसकी साधना से उसकी प्राप्ति सरलता से हो जाएगी।

हे गरुड़ देव! मैंने महात्मा जोगजीत ( पूर्ण परमात्मा कबीर साहेब जी ही जोगजीत रूप में आकर कागभुशुण्डि से मिले थे) जी से दीक्षा ले ली। उसके पश्चात् आज तक मैं उनके बताए नाम का जाप कर रहा हूँ जिससे मुझे आज यह स्थिति प्राप्त हुई है।

पाठकों से निवेदन है कि कागभुसण्ड जी को केवल प्रथम मन्त्र ही प्राप्त है क्योंकि सम्पूर्ण साधना के सम्पूर्ण मन्त्र अब कलयुग के 5505 वर्ष सन् 1997 में उजागर करने थे।

 ‘‘कबीर सागर‘‘ के अध्याय ‘‘स्वसमबेद बोध‘‘ के पृष्ठ 121

(1483) पर लिखा है तथा इसमें परमेश्वर कबीर जी ने स्पष्ट किया है कि जब कलयुग 5505 वर्ष बीत जाएगा। तब मैं अपना अंश भेजूंगा, सारा संसार नाम दीक्षा लेकर शांति से रहा करेगा। घर-घर में मेरे ज्ञान की चर्चा होगी। सभी प्राणी मेरे उस परम पद के भेदी हो जाएँगे, जहाँ जाने के बाद फिर जन्म नहीं होता। यह वचन उस समय सत्य होगा जब कलयुग 5505 वर्ष (सन् 1997 में) बीत जाएगा। 

‘‘कबीर सागर‘‘ के ‘‘स्वसमबेद बोध‘‘ अध्याय के पृष्ठ 171

(1533) में स्पष्ट किया है कि :- जब कलयुग 5500 वर्ष बीत जाएगा तब एक महापुरुष सत्य आदेश सत्य साधना बताकर सत्यनाम व सार नाम देकर सर्व सृष्टि का उद्धार करेगा। सर्व मानव उसके द्वारा बताए ज्ञान को सुनकर विचार-विमर्श करके तुरंत यथार्थ भक्ति ग्रहण करेंगे, किसी में कपट, चतुराई नहीं रहेगी। सर्व पंथ उस एक यथार्थ कबीर पंथ में आकर मिल जाएंगे और केवल एक ‘‘यथार्थ कबीर पंथ‘‘ ही चलेगा। अन्य सर्व पंथ उस मेरे अंश द्वारा चलाए पंथ में ऐसे मिल जाऐंगे जैसे नदियाँ अपने आप वेग के साथ निर्बाध जाकर समुद्र में मिलकर एक समन्दर ही बन जाती हैं। वैसे ही उस ‘‘यथार्थ कबीर पंथ‘‘ में सर्व पंथ आकर मिलेंगे, सत्य नाम तथा सार शब्द की भक्ति करके मोक्ष प्राप्त करेंगे। वह पंथ संत रामपाल दास जी महाराज द्वारा चलाया गया है। अब वह सत्यनाम तथा सारनाम दिया जा रहा है। वह सम्पूर्ण मोक्ष मंत्र मेरे (संत रामपाल दास के) पास हैं। अब वह 1997 से दीक्षा लेने वालों को विधिवत प्रदान किये जा रहे हैं।

पवित्र गीता में लिखा है, यही आदेश वेदों में है

यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 में कहा है कि ओम् नाम का स्मरण कार्य करते-करते करो, विशेष तड़फ के साथ स्मरण करो, मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य जान कर स्मरण करो। सूक्ष्मवेद में लिखा है कि :-

“भजन कर राम दुहाई रे, भजन कर राम दुहाई रे।
 जन्म अनमोला तुझे मिला, नर देही पाई रे।। 

कबीर, लूट सको तो लूटियो, रामनाम की लूट। 
फिर पीछे पछताओगे, प्राण जाहिंगे छूट।।

कबीर, हरि की भक्ति बिन, धिक् जीवन संसार।
 धूवैं जैसा धौलहर, जात न लागै वार।।

मानव शरीर प्राप्त प्राणी कर्मोंनुसार भक्ति मार्ग पर लगते हैं

जो प्राणी मानव शरीर से पुनः मानव शरीर प्राप्त करता है, वह शीघ्र भक्ति करने लग जाता है। जो प्राणी क्रमानुसार 84 लाख प्रकार के प्राणियों के शरीरों में कष्ट भोगकर मानव शरीर प्राप्त करता है, वह भक्ति नहीं करता। यदि उसको भक्ति की प्रेरणा की जाती है तो शीघ्र स्वीकार नहीं करता। गुरू-गुरू में बहुत अन्तर है, जैसे कागभुसण्ड जी का प्रथम गुरू पण्डित जी केवल तमगुण भगवान शिव की भक्ति का मार्ग दर्शन करता था। फिर लोमस ऋषि केवल ब्रह्म साधना की प्रेरणा करते थे। परंतु ब्रह्म का साकार स्वरूप श्री विष्णु जी को ही मानते थे।

फिर जोगजीत (कबीर साहेब जी) जी गुरू मिले जिनके पास संपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान तथा पूर्ण मोक्ष मार्ग था। जिससे कागभुशुण्डि जी मोक्ष के अधिकारी हुए। कागभुशुण्डि जी को अब जब भी मानव शरीर पृथ्वी पर प्राप्त होगा, तब उसको पुनः सतगुरु जी मिलेंगे, उसको सम्पूर्ण मोक्ष मन्त्र देकर कल्याण करेंगे। कुछ समय उपरांत ऊपर के लोकों के देवता भी देवलोक छोड़कर पृथ्वी पर जन्म लेंगे, अपना कल्याण कराएंगे। पूरे गुरु से ही पूर्ण मोक्ष सम्भव है।  मानव शरीर प्राप्त प्राणी को अपना उद्देश्य याद रखना चाहिए। भक्ति करके अपना कल्याण कराना चाहिए। 

सूक्ष्म वेद में लिखा है कि :-

यह सौदा फिर नाहीं सन्तों, यह सौदा फिर नाहीं। 
लोहे जैसा ताव जात है, काया देह सराही।। 

तीन लोक और भुवन चतुर्दश, सब जग सौदे आहीं। दुगने-तिगुने किए चौगुने, किन्हूँ मूल गवाहीं।।

यह दम अर्थात् श्वांस जिस दिन समाप्त हो जाऐंगे। उसी दिन यह शरीर रूपी पिंड छूट जाएगा। फिर परमात्मा के दरबार में पाप-पुण्यों का हिसाब होगा। भक्ति न करने वाले या शास्त्र विरुद्ध भक्ति करने वाले को यम के दूत भुजा पकड़कर ले जाएंगे, चाहे कोई किसी देश का राजा भी क्यों न हो, उसकी पिटाई की जाएगी। संत गरीबदास को परमेश्वर कबीर जी मिले थे। उनकी आत्मा को ऊपर लेकर गए थे। सर्व ब्रह्माण्डों को दिखाकर सम्पूर्ण आध्यात्म ज्ञान समझाकर वापिस शरीर में छोड़ा था। सन्त गरीब दास जी आँखों देखा हाल ब्यान कर रहे हैं कि :- हे मानव! आपको नर शरीर मिला है जो नारायण अर्थात् परमात्मा के शरीर जैसा अर्थात् उसी का स्वरूप है। अन्य प्राणियों को यह सुंदर शरीर नहीं मिला। 

इसके मिलने के पश्चात् प्राणी को आजीवन भगवान की भक्ति करनी चाहिए। ऐसा परमात्मा स्वरूप शरीर प्राप्त करके सत्य भक्ति न करने के कारण फिर चौरासी लाख वाले चक्र में जा रहा है, धिक्कार है तेरे मानव जीवन को! मुझे तो उस दिन की चिंता बनी है, डर लगता है कि कहीं भक्ति कम बने और उस परमात्मा के दरबार में पता नहीं इज्ज़त रहेगी या नहीं। मैं तो भक्ति करते-करते भी डरता हूँ कि कहीं भक्ति कम न रह जाए। आप तो भक्ति ही नहीं करते। यदि करते हो तो शास्त्र विरुद्ध कर रहे हो। तुम्हारा तो बुरा हाल होगा और मैं तो राय देता हूँ कि ऐसा सतगुरु चुनो जो जन्म-मरण के दीर्घ रोग को मिटा दे, समाप्त कर दे। जो सत्य भक्ति नहीं करते, उनका क्या हाल होता है मृत्यु के पश्चात्। 

आस-पास के कुल के लोग इकट्ठे हो जाते हैं। फिर सबकी एक ही मसलति अर्थात् राय बनती है कि इसको उठाओ। (उठाकर शमशान घाट पर ले जाकर फूँक देते हैं, लाठी या जैली की खोद (ठोकर) मार-मारकर छाती तोड़ते हैं। सम्पूर्ण शरीर को जला देते हैं। जो कुछ भी जेब में होता है, उसको निकाल लेते हैं। फिर शास्त्रविधि त्यागकर मनमाना आचरण कराने और करने वाले उस संसार से चले गए जीव के कल्याण के लिए गुरू गरुड़ पुराण का पाठ करते हैं।) तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) में कहा है कि अपना मानव जीवन पूरा करके वह जीव चला गया। परमात्मा के दरबार में उसका हिसाब होगा। वह कर्मानुसार कहीं गधा-कुत्ता बनने की पंक्ति में खड़ा होगा। मृत्यु के पश्चात गरुड़ पुराण का पाठ उसके क्या काम आएगा। यह व्यर्थ का शास्त्र विरुद्ध क्रियाक्रम है। उस प्राणी का मनुष्य शरीर रहते उसको भगवान के संविधान का ज्ञान करना चाहिए था। जिससे उसको अच्छे-बुरे का ज्ञान होता और वह अपना मानव जीवन सफल करता। 

प्रेत शिला पर जाय विराजे, फिर पितरों पिण्ड भराहीं। 
बहुर श्राद्ध खान कूं आया, काग भये कलि माहीं।।

तीन गुण क्या हैं?

ब्रह्मा, विष्णु और शिव तीनों देवता तीन गुण हैं। रजोगुण ब्रह्मा के प्रभाव से जीव के 84 लाख प्रजातियों के शरीर बनते हैं। रजस प्रभाव जीव को संतानोत्पत्ति के लिए प्रजनन करने को मजबूर करके, विभिन्न योनियों में प्राणियों की उत्पत्ति कराते हैं।

सतोगुण विष्णु जीवों (उनके कर्मों के अनुसार) का पालन-पोषण करते हैं और सतोगुण (सत्व) के प्रभाव जीव में प्रेम और स्नेह विकसित करके, इस अस्थिर लोक की स्थिति को बनाए रखते हैं। तमोगुण शिव विनाश का प्रतिनिधित्व करते हैं। तमोगुण (तमस) के प्रभाव की भूमिका प्राणियों को अंततः नष्ट करने की है। इन सभी का सृष्टि के संचालन मे योगदान है।

अर्थात प्राणी, इन तीन गुणों रजोगुण - ब्रह्मा जी, सतोगुण - विष्णु जी, तमोगुण - शिव जी को ही सर्वश्रेष्ठ मानकर इनकी भक्ति करके दुखी हो रहे है । संपूर्ण विश्व के भाई बहनों से दोनों हाथ जोड़कर विनम्र निवेदन है कि ‘‘जगतगुरू तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी की शरण में शीघ्र अतिशीघ्र आएं और नाम दीक्षा लेकर अपना कल्याण करवाएं।