चांचरी, खैंचरी, भूचरी, अगोचरी व उनमनी जैसी पाँच मुद्राएं, अमृत क्रिया व कुंडलिनी शक्ति क्या हैं, क्या इनको करने से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है?

चांचरी, खैंचरी, भूचरी, अगोचरी व उनमनी जैसी पाँच मुद्राएं, अमृत क्रिया व कुंडलिनी शक्ति क्या हैं, क्या इनको करने से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है?

 

सतयुग से लेकर अब कलयुग तक प्रत्येक मानव भगवान को प्राप्त करने, जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था के कष्ठ से छुटकारा पाने और पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है। इस प्रयत्न में ऋषि, मुनियों और तपस्वियों ने हजारों, लाखों वर्षों तक घोर तप भी किया, कई प्रकार की क्रियाएँ कीं, अपने शरीर को हठयोग करके गलाया भी जिससे की उन्हें परमात्मा प्राप्ति हो जाये। अफसोस! लेकिन परमात्मा प्राप्ति का उनका यह प्रयत्न विफल रहा। साथ ही हठयोग करने के साथ चांचरी, खैंचरी, भूचरी, अगोचरी व उनमनी जैसी कठिन मुद्राओं, अमृत क्रिया को सिद्ध किया और यहाँ तक की कुंडलिनी शक्ति भी जागृत कर ली फिर भी जन्म मृत्यु से मुक्ति नहीं मिल सकी अर्थात उनका पूर्ण मोक्ष नहीं हो सका और न ही परमात्मा मिला।

 

जबकि हमारे धर्मशास्त्र श्रीमद्भागवत गीता, चारों वेदों में परमात्मा प्राप्ति का और जन्म-मृत्यु, वृद्धावस्था के कष्ट से सदा के लिए छुटकारा पाने का सरल भक्ति मार्ग बताया गया है। सहज भक्ति विधि को करने में किसी भी तरह के हठ योग की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि सच्चे मंत्रों के जाप से ये सभी क्रियाएँ स्वतः सिद्ध हो जाती हैं। आइये इस लेख में इन्हीं पाँच मुद्राओं खैंचरी, चांचरी, अगोचरी, भूचरी और उनमनी के विषय में जानते हैं तथा इनसे होने वाली उपलब्धियों और परमात्मा प्राप्ति का सहज और सरल भक्ति मार्ग कौन-सा है?

 

पाँच मुद्राएं कौन-कौन सी हैं?

 

कबीर सागर के 29वें अध्याय, "पंच मुद्रा" में कबीर परमेश्वर ने पाँच मुद्राओं और इनसे होने वाली उपलब्धियों के विषय में विस्तारपूर्वक बताया है। कबीर साहेब जी की अमृतवाणी :- 

 

संतो शब्दई शब्द बखाना।।
शब्द फांस फँसा सब कोई शब्द नहीं पहचाना।।
प्रथमहिं
ब्रह्म स्वं इच्छा ते पाँचै शब्द उचारा। 
सोहं, निरंजन, रंरकार, शक्ति और ओंकारा।। 
पाँचै तत्व प्रकृति तीनों गुण उपजाया। 
लोक द्वीप चारों खान चौरासी लख बनाया।। 
शब्दइ काल कलंदर कहिये शब्दइ भर्म भुलाया।। 
पाँच शब्द की आशा में सर्वस मूल गंवाया।। 
शब्दइ ब्रह्म प्रकाश मेंट के बैठे मूंदे द्वारा। 
शब्दइ निरगुण शब्दइ सरगुण शब्दइ वेद पुकारा।। 
शुद्ध ब्रह्म काया के भीतर बैठ करे स्थाना। 
ज्ञानी योगी पंडित औ सिद्ध शब्द में उरझाना।। 
पाँचइ शब्द पाँच हैं मुद्रा काया बीच ठिकाना। 
जो जिहसंक आराधन करता सो तिहि करत बखाना।। 
शब्द निरंजन चांचरी मुद्रा है नैनन के माँही। 
ताको जाने गोरख योगी महा तेज तप माँही।। 
शब्द ओंकार भूचरी मुद्रा त्रिकुटी है स्थाना। 
व्यास देव ताहि पहिचाना चांद सूर्य तिहि जाना।। 
सोहं शब्द अगोचरी मुद्रा भंवर गुफा स्थाना। 
शुकदेव मुनी ताहि पहिचाना सुन अनहद को काना।। 
शब्द रंरकार खेचरी मुद्रा दसवें द्वार ठिकाना। 
ब्रह्मा विष्णु महेश आदि लो रंरकार पहिचाना।। 
शक्ति शब्द ध्यान उनमुनी मुद्रा बसे आकाश सनेही। 
झिलमिल झिलमिल जोत दिखावे जाने जनक विदेही।। 
पाँच शब्द पाँच हैं मुद्रा सो निश्चय कर जाना। 
आगे पुरुष पुरान निःअक्षर तिनकी खबर न जाना।। 
नौ नाथ चौरासी सिद्धि लो पाँच शब्द में अटके। 
मुद्रा साध रहे घट भीतर फिर ओंधे मुख लटके।। 
पाँच शब्द पाँच है मुद्रा लोक द्वीप यमजाला। 
कहैं कबीर अक्षर के आगे निःअक्षर का उजियाला।।

 

 

पूर्णब्रह्म कबीर साहेब जी ने निम्न अमृतवाणी में बताया है कि सभी संत जन शब्द (नाम/मंत्र) की महिमा सुनाते हैं। शब्द सतपुरुष यानी पूर्णब्रह्म का भी है व ज्योति निरंजन (काल) का प्रतीक भी शब्द ही है। इन शब्दों यानि नामों को पहचानना है कि कौन सा शब्द ज्योति निरंजन (काल) की साधना का है और कौन सा शब्द सत्यपुरुष अर्थात पूर्णब्रह्म का है। कबीर साहेब जी ने बताया है कि ज्योति निरंजन, ओंकार, सोहं, ररंकार और शक्ति ये पांच शब्द (नाम) हैं जोकि चांचरी, भूचरी, अगोचरी, खैंचरी और उनमनी ये पांच प्रकार की मुद्राएं प्राप्त करवाते हैं। लेकिन इन पाँच नामों और इनसे प्राप्त होने वाली पाँच मुद्राओं से साधक को जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्ति नहीं मिलती यानी उसका पूर्ण मोक्ष नहीं होता है क्योंकि ये पांचों नाम काल (ज्योति निरंजन) की भक्ति साधना के प्रतीक हैं। जिनके विषय में घट रामायण के रचयिता हाथरस वाले तुलसीदास जी ने अपनी पुस्तक "घट रामायण" के प्रथम भाग, पृष्ठ न. 27 में कहा है -  

 

पाँचों नाम काल के जानौ तब दानी मन संका आनौ। 
सुरति निरत लै लोक सिधाऊँ, आदिनाम ले काल गिराऊँ। 
सतनाम ले जीव उबारी, अस चल जाऊँ पुरुष दरबारी।।

 

चांचरी मुद्रा

 

ज्योति निरंजन शब्द (मंत्र) यह चांचरी मुद्रा को प्राप्त करवाता है। इस चांचरी मुद्रा को योगी गोरखनाथ ने बहुत अधिक तप करके प्राप्त किया था जोकि साधारण व्यक्ति के बस की बात नहीं है। जिससे गोरखनाथ जी काल ब्रह्म तक ही साधना करके सिद्ध बन गए और सिद्ध पुरुष के रूप में प्रसिद्धि को प्राप्त हुए। लेकिन गोरखनाथ जी जन्म-मृत्यु के चक्कर से मुक्त नहीं हो पाए इसीलिए ज्योति निरंजन नाम का जाप करने वाले साधक काल (ब्रह्म) के जाल से नहीं बच सकते अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकते हैं।

 

भूचरी मुद्रा

 

ओंकार यानी ओम (ॐ) नाम का जाप करने से साधक भूचरी मुद्रा की स्थिति में आ जाता है। इस मुद्रा को महर्षि वेदव्यास ने कठिन साधना करने के बाद प्राप्त किया था। लेकिन वे भी काल जाल से नहीं बच सके अर्थात उनका भी पूर्ण मोक्ष नहीं हो सका।

 

अगोचरी मुद्रा

 

अगोचरी मुद्रा की प्राप्ति सोहं नाम के जाप से होती है जिससे साधक काल के लोक में बनी भंवर गुफा में पहुँच जाते हैं जिसकी साधना सुखदेव ऋषि ने की थी, जिन्हें शुकदेव ऋषि के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि शुक यानि तोते के शरीर को त्यागने पर उन्हें मानव शरीर प्राप्त हुआ था। ऋषि सुखदेव जी इस साधना के बाद भी केवल श्री विष्णु जी के लोक में बने स्वर्ग तक ही पहुँच पाए। उनका भी जन्म-मृत्यु का चक्कर समाप्त नहीं हुआ।

 

खैंचरी मुद्रा

 

ररंकार नाम (शब्द/मंत्र) के जाप से खैंचरी मुद्रा की प्राप्ति होती है जिससे साधक दसवें द्वार यानि सुष्मणा तक पहुँच जाते हैं। तीनों देवताओं श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु श्री शिव जी ने ररंकार शब्द को ही सत्य मान कर साधना की और काल के जाल में उलझे रहे। जिससे उनका भी जन्म-मृत्यु होता है। प्रमाण के लिए पढ़िए संक्षिप्त देवीभागवत पुराण (गीताप्रैस गोरखपुर से प्रकाशित) के तीसरे स्कन्ध के अध्याय 4-5 में श्री विष्णु जी माता दुर्गा की स्तुति करते हुए कहते हैं कि हे मातः! आप शुद्ध स्वरूपा हो, यह सारा संसार तुम्हीं से उद्भासित हो रहा है, मैं (विष्णु), ब्रह्मा और शंकर तो जन्मते-मरते हैं, हमारा तो आविर्भाव (जन्म) तथा तिरोभाव (मृत्यु) हुआ करता है, हम अविनाशी नहीं हैं। देवी महापुराण के इस उल्लेख से यह सिद्ध होता है कि श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शंकर जी तीनों नाशवान हैं।

 

उनमनी मुद्रा

 

कबीर जी ने अपनी अमृतवाणी में बताया है कि शक्ति शब्द, उनमनी मुद्रा को प्राप्त करवाता है, जिसको राजा जनक ने प्राप्त किया था परन्तु इससे उनकी मुक्ति नहीं हुई। {संत रामपाल जी महाराज बताते हैं कि वर्तमान में कई संतों ने पाँच नामों में शक्ति शब्द की जगह सत्यनाम जोड़ दिया है जबकि सत्यनाम कोई जाप नहीं है। ये तो सच्चे नाम की तरफ इशारा करता है जैसे सत्यलोक को सच्च खण्ड भी कहते हैं ऐसे ही सत्यनाम, सच्चा नाम है। केवल सत्यनाम-सत्यनाम जाप करने का नहीं है। सत्यनाम दो मंत्रों से मिलकर बनता है जिसे पूर्णसंत/तत्वदर्शी संत ही बता सकता है।

 

राजा जनक वाली आत्मा कलयुग में गुरु नानक जी के रूप में जन्मी फिर उन्हें परमात्मा कबीर जी बेई नदी के पास, तलवंडी में मिले। उन्हें सच्चखंड (सत्यलोक) दिखाया और सत्यनाम व सारनाम प्रदान किया तब जाकर गुरुनानक देव जी (राजा जनक वाली आत्मा) का मोक्ष हुआ। "भाई बाले वाली जन्म साखी" में साखी अजीत रंधावे (अजीता रंधावा) दी में पृष्ठ संख्या 423 पर इस बात का प्रमाण देती है कि श्री गुरुनानक देव जी का पूर्व जन्म त्रेतायुग में राजा जनक का था और गुरुनानक देव जी और कबीर साहेब जी की पूरी वार्ता का विवरण कबीर सागर (स्वसमबेद बोध) पृष्ठ न. 158-159 और कबीर सागर (अगम निगम बोध, बोध सागर) पृष्ठ नं. 44 में है।

 

पांचों मुद्राओं को करने से जन्म मृत्यु के कष्ट से नहीं मिलती मुक्ति

 

कबीर परमेश्वर जी ने बताया है कि इन पाँच शब्दों (नामों/मंत्रों) की साधना करने वाले नौ नाथ तथा चौरासी सिद्ध भी इन्हीं पांचों मुद्राओं चांचरी, भूचरी, अगोचरी, खैंचरी व उनमनी तक सीमित रहे तथा शरीर यानी घट में ही धुनि सुनकर आनन्द लेते रहे। वास्तविक सत्यलोक (अमरलोक) {जिसे श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में शाश्वत स्थान यानी सदा रहने वाला अविनाशी स्थान और वेदों में जिसे ऋतधाम यानी सत्यधाम कहा गया है} तो शरीर यानी पिण्ड से और अण्ड (ब्रह्मण्ड) से पार है। जिसके विषय में कबीर साहेब जी ने "कर नैनों दीदार महल में प्यारा है" शब्द में कहा है - 

 

आदि माया कीन्ही चतूराई, झूठी बाजी पिंड दिखाई।
अवगति
रचना रची अँड माहीं, ताका प्रतिबिंब डारा है।।
शब्द
बिहंगम चाल हमारी, कहैं कबीर सतगुरु दई तारी।
खुले
कपाट शब्द झनकारी, पिंड अंडके पार सो देश हमारा है।।

 

 

इसलिए इन पांचों नामों के जाप से और कठिन घोर तप के प्रयत्न से खैंचरी, भूचरी, चांचरी, अगोचरी और उनमनी जैसी मुद्राओं को प्राप्त करने वाले साधक भी फिर ओंधे मुख लटके यानी माता के गर्भ में आए अर्थात् उनका जन्म-मृत्यु का कष्ट समाप्त नहीं हुआ। कबीर साहेब जी ने बताया है कि जो भी उपलब्धि इस शरीर में होगी वह तो काल (ब्रह्म) तक की ही है क्योंकि पूर्ण परमात्मा का निज स्थान सत्यलोक तथा उसी परमात्मा के शरीर का प्रकाश तो परब्रह्म आदि से भी अधिक तथा बहुत दूर है। उसके लिए तो पूर्णसंत ही पूरी साधना बताएगा जो पाँच नामों (शब्दों) से भिन्न होती है और शास्त्रों से प्रमाणित होती है। कबीर परमेश्वर ने पूर्णसंत (सतगुरु) की पहचान बताते हुए कहा है;- 

 

 

संतों सतगुरु मोहे भावै, जो नैनन अलख लखावै।। 
ढोलत ढिगै ना बोलत बिसरै, सत उपदेश दृढ़ावै।।
आंख
ना मूंदै कान ना रूदैं, ना अनहद उरझावै। 
प्राण पूंज क्रियाओं से न्यारा, सहज समाधि बतावै।।

 

 

अमृत क्रिया, स्वांस क्रिया और कुंडलिनी शक्ति क्या है?

 

प्रत्येक मानव के शरीर में कई प्रकार की नाड़ियां होती है और इस मानव शरीर में ही खून के अलावा अमृत भी बनता है। हमारे शरीर के अंदर तालु के ऊपर एक छोटा खाली स्थान (vacuum place) है जहां हमेशा अमृत भरा रहता है। इस स्थान को मानसरोवर भी कहा जाता है। जहां से वह अमृत नाभि में आता है। जहां एक कुंडलिनी शक्ति है जिसे संतों ने नागिनी कहा है उसकी दो जिभ्या हैं सर्प जैसी। वह नागिनी व्यावहारिक रूप से ऊपर को मुँह करे हुए नाभि के पास खड़ी है। जोकि उस अमृत को ग्रहण करती है जिससे अमृत शरीर में नहीं जा पाता और नागिनी अमृत को चूसकर नष्ट कर देती है। जिसकी वजह से मनुष्य को भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी सताती है।

 

नाभि के पास हमारे शरीर की सभी नाड़ियां इकट्ठी होती हैं। जहां नाड़ियों का एक बंध होता है जिसे कुंडलिनी शक्ति (नागिनी) लपेटे हुए होती है जैसे कि वृक्षों पर बेल होती है। यह नागिनी अमृत को नाड़ियों में नहीं जाने देती। स्वांस क्रिया के अभ्यास करने से नागिनी का मुंह नीचे को हो जाता है और नागिनी मूर्छा जाती है जिससे नाड़ियों पर उसकी जकड़न ढीली हो जाती है। जिससे वह अमृत ग्रहण करने योग्य नहीं रहती और अमृत पूरे शरीर में जाने लगता है। जब खेंचरी मुद्रा द्वारा जिभ्या (जिह्वा) को उल्टा करके तालु में लगाने का प्रयास करते हैं तब नाड़ियां कसती हैं जो मस्तिष्क और जिभ्या से संबंधित होती हैं। तालु के ऊपर एक छोटे से स्थान पर जहां अमृत भरा रहता है जोकि बेर (बेरी) के आधे हिस्से के बराबर होता है। उसके ठीक नीचे एक वॉल (सुराख/छिद्र) है और उसके ऊपर एक नाड़ी टिकी हुई है जो उस वॉल के सुराख को रोक रही है।

 

जिभ्या को उल्टा करके तालु में लगाने के अभ्यास करने से वह सुराख थोड़ा खुल जाता है और अमृत जिस रास्ते से नाभि में आता है वह नागिनी के हाथ नहीं लगता या ओवरफ्लो होकर भी अमृत नाभि तक जाता है तो नागिनी के हाथ नहीं लगता जिससे अमृत पूरे शरीर में व्याप्त हो जाता है। इस तरह यह अमृत क्रिया सिद्ध होती है। इससे भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी सहन करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। जोकि साधारण मनुष्य के लिए कर पाना बहुत ही कठिन है।

 

श्रृंगि ऋषि और दशरथ पुत्री शांता की कथा

 

एक समय श्रृंगि (श्रंगी/शृंगी) ऋषि ने कर्म सन्यासी बन कर वर्षों तक जंगल में हठयोग (मनमाना घोर तप) किया और खैंचरी मुद्रा के अभ्यास से अमृत क्रिया को सिद्ध कर लिया। जिससे उन्हें अल्प आहार का अभ्यास हो गया। वे वृक्ष की ओर मुख करके साधना करते तथा पूरे दिन में एक बार वृक्ष की छाल पर जिह्वा से चाटते थे। बस यह आहार था। फिर कुछ वर्षों के बाद श्रृंगि ऋषि अयोध्या के बाहर नज़दीकी जंगल में आकर बैठ गए तथा अपनी साधना का प्रदर्शन करने लगे। जिससे अयोध्यावासियों के लिए वे एक विशेष चर्चा तथा आकर्षण का कारण बन गए।

 

एक दिन राजा दशरथ की पुत्री शांता {अर्थात राम (रामचंद्र) जी की बड़ी बहन जोकि रामचंद्र जी से बहुत पहले जन्मी थीं} भी अपने पिता से आज्ञा लेकर श्रृंगि ऋषि के दर्शनार्थ गई। वह श्रृंगि ऋषि के स्वरूप को देखकर आसक्त हो गई। जिसके बाद राजा दशरथ की बेटी शांता, श्रृंगि ऋषि को उठाने का प्रयत्न करने लगी। किसी ने बताया कि जहाँ यह ऋषि जिह्वा से छाल को चाटता है वहां कुछ शहद लगा दो तथा साथ में खाना ले जाना। जब यह आँखें खोले तो इसे खाना खिलाना। फिर यह ज्यादा समाधिस्थ नहीं हो पाएगा। शांता ने ऐसा ही किया। श्रृंगी ऋषि जी को शहद के लगने से आनन्द आया तथा कई बार छाल को चाटा। दूसरे दिन आँखें खोली तथा खीर खाई। 

 

 

जिसके बाद राजा दशरथ श्रृंगी ऋषि को पहुँचा हुआ योगी मान कर घर ले गए और गुरु बनाया। पुत्र प्राप्ति के लिए प्रार्थना की, तब श्रृंगी ऋषि ने राजा दशरथ को एक पुत्रोष्टि यज्ञ करवाने की सलाह दी। दिन निश्चित हुआ। उसी दौरान श्रृंगि ऋषि से शांता का प्रेम सम्बन्ध हो गया। परंतु राजा दशरथ ने मना कर दिया कि हम क्षत्रिय हैं, यह ब्राह्मण है इसलिए यह विवाह असंभव है। उसके बाद एक ऋषि ने दशरथ जी की लड़की शांता को गोद लिया। फिर उनका विवाह कर दिया गया। जिसके बाद श्रृंगि ऋषि अपनी पत्नी शांता को लेकर दूर जंगल में रहने चला गया। वहाँ कुटी बनाकर रहने लगा। जिसका प्रमाण श्री तुलसीदास कृत रामायण के बाल काण्ड ‘रामकलेवा‘ में पृष्ठ नं. 274 की निम्न साखियों में है - 

 

बोली सिद्धि सुनहु रघुनन्दन, तुम हमार नन्दोई। 
एक बात तुम सौ हम पूछें, लला न राखहु गोई।। 
होत ब्याह सम्बन्ध सबन कौं, अपनी ही जातिहि माही। 
निज बहिनी श्रृंगी ऋषि को, तुम कैसे दियौ विवाही।। 
की उनको मुनीश लै, भाग्यौ की बौई संग लागी। 
ऐसी बात बतावहु लालन, तुम रघुवंश अदागी।।

 

इन क्रियाओं (मुद्राओं और शक्ति क्रियाओं) को करने से क्या लाभ होता है?

 

जैसा कि आपने इस लेख में ऊपर पढ़ा कि हठयोग यानी मनमाना घोर तप द्वारा स्वाँस क्रिया के अभ्यास से कुंडलिनी शक्ति जागृत होती है तथा खेंचरी मुद्रा के अभ्यास से अमृत क्रिया सिद्ध हो जाने पर भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी को सहन करने की क्षमता प्राप्त होती है। लेकिन इन क्रियाओं से न ही परमात्मा मिलता है और न ही जन्म-मृत्यु से मुक्ति मिलती है। बल्कि पवित्र गीता अध्याय 17 श्लोक 5 व 6 में मनमाने घोर तप (हठयोग) करने वालों को गीता ज्ञान दाता ने अज्ञानी, आसुर स्वभाव वाले बताया है। 

 

तथा ये क्रियाएँ शास्त्र विरुद्ध मनमाना आचरण मात्र हैं जिनसे लाभ नहीं होता है। इस विषय में श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में कहा गया है कि शास्त्रविधि को त्यागकर जो व्यक्ति मनमाना आचरण करता है उसे न कोई लाभ होता है, न सुख प्राप्त होता है और न ही परमगति यानि मोक्ष मिलता है।

 

परमात्मा प्राप्ति की सहज भक्ति विधि 

 

आदरणीय गुरुनानक देव जी, आदरणीय धर्मदास जी, आदरणीय दादू जी, आदरणीय मलूकदास जी, आदरणीय घीसादास जी और आदरणीय संत गरीबदास जी आदि जितने भी संतों ने परमात्मा को पाया है अर्थात मोक्ष प्राप्त किया है। उन्होंने पूर्ण परमात्मा को पाने का सहज और सरल भक्ति मार्ग बताया है जिसमें काम करते करते नाम (मंत्र) का सुमिरन करना होता है। संत गरीबदास जी ने कहा है कि - 

 

नाम उठत नाम बैठत, नाम सोवत जाग रे। 
नाम खाते नाम पीते, नाम सेती लाग रे।।

 

इसी विषय में यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 में कहा गया है कि काम करते-करते नाम का स्मरण कर तथा पवित्र गीता अध्याय 8 श्लोक 7 में गीता ज्ञान देने वाला प्रभु काल कहता है अर्जुन तू युद्ध भी कर और मेरा स्मरण भी कर।

 

सत्यनाम और सारनाम के जाप से होगा पूर्ण मोक्ष

 

श्रीमद्भागवत गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में सच्चिदानंद घन ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) अर्थात पूर्ण परमात्मा की भक्ति के लिए "ओम् तत् सत्" इस तीन मंत्र के जाप (सुमिरन) का निर्देश किया गया है। जिसके सुमिरन की तीन प्रकार की विधि बताई गई है। इसमें ओम (ॐ), गीता अध्याय 8 श्लोक 13 से स्पष्ट है कि यह ब्रह्म (काल) का मंत्र है तथा "तत्" और ‘‘सत्’’ मंत्र तो सांकेतिक है, वास्तविक मंत्र तो इससे भिन्न है। इसमें ओम् व तत् मिलकर सत्यनाम बनता है और सत् जोकि सारनाम की ओर संकेत करता है। जिसे पूर्ण संत यानि तत्वदर्शी संत ही बता सकता है और वे तत्वदर्शी संत ही सत्यनाम और सारनाम के जाप करने की विधि बताते हैं। इन नामों के जाप करने से साधक का पूर्ण मोक्ष हो जाता है।

 

तत्वदर्शी संत की पहचान 

 

इन पूर्ण मोक्षदायक मंत्र सत्यनाम और सारनाम (ओम् तत् सत्) को प्रदत्त करने का अधिकारी केवल परमात्मा द्वारा नियुक्त पूर्ण तत्वदर्शी संत ही होता है जिसकी पहचान गीता अध्याय 15 के श्लोक 1 में स्पष्ट की गई है कि यह संसार रूपी पीपल का वृक्ष है जिसकी ऊपर को जड़ तो पूर्ण ब्रह्म यानि परम अक्षर ब्रह्म है। नीचे को तीनों गुण रूपी शाखाएँ हैं। जो संत इस संसार रूपी उल्टे लटके हुए वृक्ष के सभी अंगों की जानकारी रखता है, वह वेद के तात्पर्य को जानने वाला है यानि वह तत्त्वदर्शी संत (पूर्णसंत/पूर्णगुरु) है। जिसे संत भाषा में सतगुरु भी कहते हैं। 

 

पवित्र गीता के अध्याय 15 श्लोक 1-4, 16 व 17 को परमेश्वर कबीर जी ने अपनी अमृत वाणी में सरल भाषा में इस प्रकार बताया है -

 

कबीर, अक्षर पुरुष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार।
तीनों
देवा साखा हैं, पात रूप संसार।।
कबीर
, हमहीं अलख अल्लाह हैं, मूल रूप करतार।
अनंत
कोटि ब्रह्मांड का, मैं ही सृजनहार।।

 

वहीं संत गरीबदास जी महाराज ने सतगुरु के लक्षण बताते हुए कहा है कि जो संत चारों वेदों (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद व अथर्ववेद) छः शास्त्रों और अठारह बोध (एक बोध = 18 पुराण) से प्रमाणित ज्ञान देता है वह वास्तव में पूर्ण संत, सतगुरु होता है। संत गरीबदास जी महाराज की वाणी है कि;- 

 

गरीब, सतगुरु के लक्षण कहूं , मधुरे बैन विनोद। 
चार बेद षट शास्त्र, कह अठारा बोध।।

 

जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज से प्राप्त करें सच्चे मंत्र

 

वर्तमान समय में पूरी पृथ्वी में परमात्मा कबीर जी द्वारा नियुक्त और अधिकारी पूर्ण तत्वदर्शी संत, संत रामपाल जी महाराज जी हैं जो सभी धर्मशास्त्रों से प्रमाणित अद्वितीय आध्यात्मिक ज्ञान को विश्व के समक्ष पेश कर रहे हैं। जिनको पवित्र गीता में बताये गए भक्ति मंत्र ओम्-तत्-सत् के रहस्य का ज्ञान है अर्थात उनके पास पूर्ण मोक्षदायक मंत्र सत्यनाम और सारनाम मौजूद हैं। जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज से नाम दीक्षा लेकर मर्यादा में रहकर परमेश्वर कबीर जी की सतभक्ति करने से अमृत क्रिया स्वतः ही सिद्ध हो जाती है। साथ ही हमारे शरीर में मौजूद सात कमल (चक्र) - मूल कमल, स्वाद कमल, नाभि कमल, हृदय कमल, कंठ कमल, त्रिकुटी कमल और सहंस्र कमल जिनमें यहाँ के प्रधान देवी देवताओं का वास होता है वे खुल जाते हैं। जिसके लिए किसी भी हठयोग (तपस्या) करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। तथा सत्यनाम और सारनाम प्राप्त साधक को सदा के लिए जन्म-मृत्यु के कष्ट से मुक्ति मिल जाती है यानी उसका पूर्ण मोक्ष हो जाता है।

 

अतः आप सभी भक्त समाज से प्रार्थना है कि जगतगुरु तत्वदर्शी संत रामपाल जी महाराज जी से नाम दीक्षा लेकर सत्यनाम और सारनाम प्राप्त करें और मर्यादा में रहकर सतभक्ति करें व पूर्ण मोक्ष को प्राप्त करें। अधिक जानकारी के लिए गूगल प्ले स्टोर से Sant Rampal Ji Maharaj App डाऊनलोड करें या आप Sant Rampal Ji Maharaj यूट्यूब चैनल पर सत्संग भी सुन सकते हैं।

 

FAQ 

 

1. पाँच मुद्राओं के नाम क्या हैं?

 

चांचरी, भूचरी, अगोचरी, खैंचरी और उनमनी।

 

2. क्या पांच में से कोई भी मुद्रा को करने से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है?

 

नहीं, बल्कि इन मुद्राओं को करने वाला साधक भी जन्म मृत्यु में आता है अर्थात 84 लाख योनियों का कष्ट उठाता है। उसका पूर्ण मोक्ष नहीं होता।

 

3. किस नाम (मंत्र) के जाप से कौन सी मुद्रा प्राप्त होती है?

 

ज्योति निरंजन से चांचरी मुद्रा, ओम नाम से भूचरी मुद्रा, सोहं शब्द से अगोचरी मुद्रा, ररंकार शब्द से खेंचरी मुद्रा और शक्ति (श्रीयम्) से उनमनी मुद्रा की प्राप्ति होती है।

 

4. क्या हठ योग यानी समाधिस्थ होना सही है?

 

गीता अध्याय 17 श्लोक 5 व 6 के अनुसार हठ योग यानी समाधिस्थ होना, घोर तप को तपना (तपस्या) शास्त्र विरुद्ध है। जिसके करने से कोई लाभ नहीं होता।

 

5. पूर्ण मोक्ष कैसे मिलेगा?

 

तत्वदर्शी संत से सत्यनाम और सारनाम प्राप्त करके जोकि सच्चे नाम मंत्र की ओर संकेत करते हैं और मर्यादा में रहकर सतभक्ति करने से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होगा।