क्या गीता जी का नित्य पाठ करने का या दान करने का कोई लाभ नहीं


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प्रश्न - क्या गीता जी का नित्य पाठ करने का कोई लाभ नहीं ? जो दान करते हैं जैसे कुत्ते को रोटी, भूखे को भोजन, चिटियों को आटा, तीर्थों पर भण्डारा आदि करते हैं, क्या यह भी व्यर्थ है?

उत्तर - धार्मिक सद्ग्रन्थों के पठन-पाठन से ज्ञान यज्ञ का फल मिलता है। यज्ञ का फल कुछ समय स्वर्ग या जिस उद्देश्य से किया उसका फल मिल जाता है, परन्तु मोक्ष नहीं। नित्य पाठ करने का मुख्य कारण यह होता है कि सद्ग्रन्थों में जो साधना करने का निर्देश है तथा जो न करने का निर्देश है उसकी याद ताजा रहे। कभी कोई गलती न हो जाए। जिस से हम वास्तविक उद्देश्य त्याग कर गफलत करके शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण (पूजा) न करने लग जाऐं तथा मनुष्य जीवन के मुख्य उद्देश्य की याद बनी रहे कि मनुष्य जीवन का मूल उद्देश्य आत्म कल्याण ही है जो शास्त्र अनुकूल साधना से ही संभव है।

जैसे एक जमींदार को वृद्धावस्था में पुत्र की प्राप्ति हुई। किसान ने सोचा जब तक बच्चा जवान होगा, अपने खेती-बाड़ी के कार्य को संभालने योग्य होगा, कहीं मेरी मृत्यु न हो जाए। इसलिए किसान ने अपना अनुभव लिख कर छोड़ दिया तथा अपने पुत्र से कहा कि पुत्र जब तू जवान हो, तब अपने खेती-बाड़ी के कार्य को समझने के लिए इस मेरे अनुभव के लेख को प्रतिदिन पढ़ लेना तथा अपनी कृषि करना। पिता जी की मृत्यु के उपरान्त किसान का पुत्र प्रतिदिन पिता जी के द्वारा लिखे अनुभव के लेख को पढ़ता। परन्तु जैसा उसमें लिखा है वैसा कर नहीं रहा है। वह किसान का पुत्र क्या धनी हो सकता है ? कभी नहीं। वैसे ही करना चाहिए जो पिता जी ने अपना अनुभव लेख में लिखा है। ठीक इसी प्रकार पवित्र गीता जी के पाठ को तो श्रद्धालु नित्य कर रहे हैं परन्तु साधना सद्ग्रन्थ के विपरीत कर रहे हैं। इसलिए गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 के अनुसार व्यर्थ साधना है।

जैसे तीनों गुणों (रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी) की पूजा गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 में मना है तथा श्राद्ध निकालना अर्थात् पितर पूजा, पिण्ड भरवाना, फूल (अस्थियां) उठा कर गंगा में क्रिया करवाना, तेरहवीं, सतरहवीं, महीना, छःमाही, वर्षी आदि करना गीता अध्याय 9 श्लोक 25 में मना है। व्रत रखना गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में मना है। लिखा है कि हे अर्जुन ! योग (भक्ति) न तो बिल्कुल न खाने वाले (व्रत रखने वाले) का सिद्ध होता है, ... अर्थात् व्रत रखना मना है।

भूखों को भोजन देना, कुत्तों आदि जीव-जन्तुओं व पशुओं को आहार कराना आदि बुरा नहीं है, परन्तु पूर्ण संत के माध्यम से उनकी आज्ञा अनुसार दान तथा यज्ञ आदि करना ही पूर्ण लाभदायक है।

जैसे एक कुत्ता कार के अंदर मालिक वाली सीट पर बैठकर यात्रा करता है। कुत्ते का ड्राईवर मनुष्य होता है। उस पशु को आम मनुष्य से भी अधिक सुविधाऐं प्राप्त होती हैं। अलग से कमरा, पंखा तथा कुलर लगा होता है आदि-आदि।

जब वह नादान प्राणी मनुष्य शरीर में था, दान भी किया परन्तु मनमाना आचरण (पूजा) के माध्यम से किया जो शास्त्र विधि के विपरीत होने के कारण लाभदायक नहीं हुआ। प्रभु का विधान है कि जैसा भी कर्म प्राणी करेगा उसका फल अवश्य मिलेगा। यह विधान तब तक लागू है जब तक तत्वदर्शी संत पूर्ण परमात्मा का मार्ग दर्शक नहीं मिलता।

जैसा कर्म प्राणी करता है वैसा ही फल प्राप्त होता है। इस विद्यान के अनुसार वह तीर्थों तथा धामों पर या अन्य स्थानों पर भण्डारे द्वारा तथा कुत्ते आदि को रोटी डालने के कर्म के आधार पर कुत्ते की योनी में चला गया। वहाँ पर भी किया कर्म मिला। कुत्ते के जीवन में अपनी पूर्व जन्म की शुभ कर्म की कमाई को समाप्त करके गधे की योनी में चला जाएगा। उस गधे के जीवन में सर्व सुविधाऐं छीन ली जायेंगी। सारा दिन मिट्टी, कच्ची-पक्की ईंटे ढोएगा। तत्पश्चात् अन्य प्राणियों के शरीर में कष्ट उठाएगा तथा नरक भी भोगना पड़ेगा। चैरासी लाख योनियों का कष्ट भोग कर फिर मनुष्य शरीर प्राप्त करता है। फिर क्या जाने भक्ति बने या न बने। जैसे धाम तथा तीर्थ पर जाने वाले के पैरों नीचे या जिस सवारी द्वारा जाता है उसके पहियों के नीचे जितने भी जीव जंतु मरते हैं उनका पाप भी तीर्थ व धाम यात्री को भोगना पड़ता है। जब तक पूर्ण संत जो पूर्ण परमात्मा की सत साधना बताने वाला नहीं मिले तब तक पाप नाश (क्षमा) नहीं हो सकते, क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेश, ब्रह्म (क्षर पुरुष/काल) तथा परब्रह्म (अक्षर पुरुष) की साधना से पाप नाश (क्षमा) नहीं होते, पाप तथा पुण्य दोनों का फल भोगना पड़ता है। यदि वह प्राणी गीता ज्ञान अनुसार पूर्ण संत की शरण प्राप्त करके पूर्ण परमात्मा की साधना करता तो या तो सतलोक चला जाता या दोबारा मनुष्य शरीर प्राप्त करता। पूर्व पुण्यों के आधार से फिर कोई संत मिल जाता है। वह प्राणी फिर शुभ कर्म करके पार हो जाता है।

इसलिए उपरोक्त मनमाना आचरण लाभदायक नहीं है।


 

FAQs : "क्या गीता जी का नित्य पाठ करने का या दान करने का कोई लाभ नहीं"

Q.1 प्रतिदिन भगवद गीता जी का पाठ करने से क्या लाभ होता है?

भगवत गीता जी का प्रतिदिन पाठ करने से ज्ञान यज्ञ का फल मिलता है। ज्ञान यज्ञ के फल से थोड़े समय के लिए स्वर्ग प्राप्त भी हो सकता है। इससे जीवन में अन्य लाभ भी मिल सकते हैं लेकिन प्राणी का मोक्ष नहीं होता। पूर्ण मोक्ष प्राप्त करने के लिए मनुष्य को तत्वदर्शी संत की शरण में जाना चाहिए।

Q.2 भगवद गीता जी के ज्ञान को जीवन में कैसे लागू कर सकते हैं?

कुछ साधक प्रतिदिन पवित्र गीता जी का पाठ करते हैं लेकिन फिर भी वे पवित्र गीता जी के अनुसार भक्ति नहीं करते हैं। इसलिए ऐसी साधना करने का कोई आध्यात्मिक लाभ नहीं है। इस का प्रमाण गीता अध्याय 16 श्लोक 23, 24 में है जिसे शास्त्र विरुद्ध मनमानी पूजा कहा गया है। नित पाठ करने के साथ साथ गीता के गूढ़ ज्ञान को तत्वदर्शी संत से समझना भी अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि गीता जी में कहा गया है कि व्यक्ति को पूर्ण परमेश्वर की शरण लेनी चाहिए, सिर्फ वे ही पूजनीय हैं। इसका प्रमाण आप गीता अध्याय 18 श्लोक 62, 64 और 66 में भी देख सकते हैं।

Q. 3 क्या हम अपनी मर्ज़ी से कहीं भी दान कर सकते हैं?

हमें दान अवश्य करना चाहिए लेकिन सच्चे संत के बताए अनुसार ही दान करना चाहिए क्योंकि अगर दान हमारे धार्मिक ग्रंथों में बताए अनुसार न किया जाए तो वह लाभ नहीं देता। अधिक जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें पुस्तक गीता तेरा ज्ञान अमृत।


 

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Rajan Kumar

मैं गरीबों को दान देता हूं, भूखों को भोजन खिलाता हूं और कई सामाजिक कल्याण के कार्य भी करता हूं। मेरा मानना है कि जरूरतमंदों की मदद प्रत्येक व्यक्ति को अपना कर्तव्य मानकर करनी चाहिए क्योंकि ऐसा करने सेे भगवान खुश होते हैं।

Satlok Ashram

सभी इंसानों में दयालुता और इंसानियत का भाव होना जरूरी है। भगवान तो ईमानदारी, विनम्रता और प्रत्येक प्राणी के प्रति प्रेमभाव और दया रखने से खुश होते हैं। एक सच्चे संत के बताए अनुसार किया गया दान ही लाभकारी होता है। इसलिए सभी मनुष्यों को तत्वदर्शी संत की शरण लेनी चाहिए, सच्ची भक्ति करनी चाहिए। उसके बाद मुक्ति प्राप्त करने का लक्ष्य बनाना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य जो तत्वदर्शी संत पर आश्रित हो जाता है उसे किसी के द्वारा किए गए दान पर निर्भर रह कर पेट भरने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती क्योंकि परमात्मा उसे दो रोटी अपने आप देंगे।भगवान तभी खुश होते हैं जब हम सतभक्ति करते हुए अपना निर्वाह करते हैं.

Suraj Singh

मैं हर महीने 'एकादशी' पर भोजन भंडारा करता हूं क्योंकि दान मोक्ष प्राप्त करने का तरीका है।

Satlok Ashram

अपनी इच्छा से दिया गया दान व्यर्थ है। फिर यह तभी लाभ देता है, जब इसे किसी तत्वदर्शी संत के बताए अनुसार किया जाए। इसके अलावा एकादशी जैसे अवसरों पर दान करना मनमानी पूजा है क्योंकि ऐसा करना किसी भी पवित्र ग्रंथ में नहीं कहा गया है।

Sneha Patil

मैं प्रतिदिन गीता जी का पाठ करता हूं क्योंकि इसका अभ्यास करने से मुझे मोक्ष की प्राप्ति होगी।

Satlok Ashram

यह धारणा बिल्कुल गलत है क्योंकि प्रतिदिन गीता का पाठ करने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती बल्कि सही मंत्रों के जाप और सतभक्ति करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में बताए अनुसार भक्ति करने से मुक्ति मिलती है। लेकिन इसके लिए व्यक्ति को तत्वदर्शी संत की शरण प्राप्त करनी चाहिए। इसका प्रमाण गीता अध्याय 15:1-4 में भी है।