कबीर परमेश्वर के जीवित प्रमाण, जगन्नाथ पुरी में कबीर चबूतरा और द्वारिका में कबीर कोठा

कबीर परमेश्वर के जीवित प्रमाण, जगन्नाथ पुरी में कबीर चबूतरा और द्वारिका में कबीर कोठा

कबीर परमेश्वर, आज से लगभग 625 वर्ष पूर्व भारत की पवित्र भूमि में आध्यात्मिक शिक्षा का केंद्र कहे जाने वाले काशी शहर से बाहर बने लहरतारा तालाब में ज्येष्ठ मास की शुक्ल पूर्णिमा विक्रम संवत् 1455, सन् 1398 को ब्रह्ममुहूर्त में नवजात शिशु के रुप में कमल के फूल पर प्रकट हुए थे। जिसके बाद उन्होंने लीलामय छोटी आयु से ही सत्यज्ञान का प्रचार करना प्रारंभ कर दिया था। जिस किसी भी तीर्थ स्थल, धाम आदि में आत्म कल्याण के उद्देश्य से श्रद्धालु जाया करते थे। परमेश्वर कबीर जी उसी स्थान में पहुँच जाते थे और भ्रमित श्रद्धालुओं को शास्त्रानुकूल साधना से परिचित कराते थे। 

जिससे कुछ श्रद्धालु उनके दिए गए तत्वज्ञान को समझकर यथार्थ भक्ति मार्ग प्राप्त कर आत्म कल्याण करवाया करते थे। जिन स्थानों पर जाकर कबीर प्रभु ने लोगों को सदोपदेश दिया था। आज भी वहाँ उनके जीवित प्रमाण विद्यमान हैं। आइये इस लेख में जानते हैं कबीर परमेश्वर के जीवित प्रमाण जिन्हें कबीर चबूतरा और कबीर कोठा नाम से जाना जाता है।

जगन्नाथपुरी में कबीर चबूतरा, कबीर प्रभु की समर्थता का जीवित उदाहरण

कबीर चबूतरा, उड़ीसा प्रांत के जगन्नाथपुरी में समुद्र के किनारे स्थित है। यह वह स्थान है जहां से कबीर परमेश्वर ने मंदिर को तोड़ने से समुद्र को रोका था। जिसके बाद ही जगन्नाथ मंदिर की स्थापना हो सकी थी। अब जानते हैं इस घटना को विस्तार से।

कैसे बना जगन्नाथ मन्दिर?

उड़ीसा प्रांत में एक इन्द्रदमन नाम का राजा था। वह भगवान श्री कृष्ण जी का अनन्य भक्त था। एक रात्रि को श्री कृष्ण जी ने राजा को स्वपन में दर्शन देकर कहा कि जगन्नाथ नाम से मेरा एक मन्दिर बनवा दे। इस मन्दिर में मूर्ति पूजा नहीं करनी है। केवल एक संत छोड़ना है जो दर्शकों को पवित्र गीता अनुसार ज्ञान प्रचार करे। समुद्र तट पर वह स्थान भी दिखाया जहाँ मन्दिर बनाना था। जिसके बाद राजा ने उस स्थान पर मन्दिर बनवा दिया जो श्री कृष्ण जी ने स्वपन में समुद्र के किनारे पर दिखाया था। मन्दिर बनने के बाद समुद्री तुफान उठा, मन्दिर को तोड़ दिया। निशान भी नहीं बचा कि यहाँ कोई मन्दिर था। ऐसे ही राजा ने पाँच बार मन्दिर बनवाया। पाँचों बार समुद्र ने मंदिर तोड़ दिया।

राजा ने निराश होकर मन्दिर न बनवाने का निर्णय ले लिया और सोचा कि न जाने समुद्र मेरे से कौन-से जन्म का प्रतिशोध ले रहा है। कोष रिक्त हो गया, मन्दिर बना नहीं। कुछ समय उपरान्त पूर्ण परमेश्वर कबीर साहेब (कविर्देव) ज्योति निरंजन (काल) को दिए वचन अनुसार राजा इन्द्रदमन के पास आए तथा राजा से कहा आप मन्दिर बनवाओ। अबकी बार समुद्र मन्दिर नहीं तोड़ेगा। राजा ने कहा संत जी मुझे विश्वास नहीं है। मैं भगवान श्री कृष्ण (विष्णु) जी के आदेश से मन्दिर बनवा रहा हूँ। श्री कृष्ण जी समुद्र को नहीं रोक पा रहे हैं तो आप क्या कर पाओगे। पाँच बार मन्दिर बनवा चुका हूँ, कोष भी खाली हो गया है। 

अब मन्दिर बनवाना मेरे वश की बात नहीं। परमेश्वर ने कहा इन्द्रदमन जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्मांडो की रचना की है, वहीं सर्व कार्य करने में सक्षम है, अन्य प्रभु नहीं। परमेश्वर कबीर जी अपने आप को छुपाते हुए कहते हैं कि मैं उस परमेश्वर की वचन शक्ति प्राप्त हूँ। मैं समुद्र को रोक सकता हूँ। राजा ने कहा कि संत जी मैं नहीं मान सकता कि श्री कृष्ण जी से भी कोई प्रबल शक्ति युक्त प्रभु है। मुझे विश्वास नहीं होता तथा न ही मेरी वित्तीय स्थिति मन्दिर बनवाने की है। संत रूप में आए कविर्देव (कबीर परमेश्वर) ने कहा राजन् यदि मन्दिर बनवाने का मन बने तो मेरे पास आ जाना, मैं अमूक स्थान पर रहता हूँ। अब के समुद्र मन्दिर को नहीं तोड़ेगा। यह कह कर कबीर प्रभु चले आए। उसी रात्रि में श्रीकृष्ण जी ने फिर राजा इन्द्रदमन को दर्शन दिए तथा कहा इन्द्रदमन एक बार फिर मंदिर (महल) बनवा दे। जो तेरे पास संत आया था उससे सम्पर्क करके सहायता की याचना कर वह ऐसा वैसा संत नहीं है। उसकी भक्ति शक्ति का कोई वार-पार नहीं है।

कबीर चबूतरा का निर्माण

राजा इन्द्रदमन नींद से जागा, स्वपन का पूरा वृतान्त अपनी रानी को बताया। रानी ने कहा प्रभु कह रहे हैं तो आप मत चूको। प्रभु का महल फिर बनवा दो। राजा रानी को अपनी विवशता बताता है कि अब तो राजकोष भी खाली हो चुका है। प्रभु श्रीकृष्ण का मंदिर कैसे बनवाऊँगा। मैं तो धर्म संकट में फंस गया हूँ। रानी ने कहा मेरे पास गहने रखे हैं। उनसे आसानी से मन्दिर बन जायेगा। आप यह गहने लो तथा प्रभु के आदेश का पालन करो। जिसके बाद राजा इन्द्रदमन उस स्थान पर गया जो परमेश्वर ने संत रूप में आकर बताया था। संत रूपी कबीर प्रभु को खोज कर समुद्र को रोकने की प्रार्थना की। प्रभु कबीर जी ने कहा कि इन्द्रदमन जिस ओर से समुद्र उठ कर आता है, वहाँ समुद्र के किनारे एक चौरा (चबूतरा) बनवा दे। जिस पर बैठ कर मैं प्रभु की भक्ति करूंगा तथा समुद्र को रोकूंगा। राजा ने एक बड़े पत्थर से कारीगरों से चबूतरा बनवाया, परमेश्वर कबीर जी उस पर बैठ गए।

कबीर प्रभु ने मंदिर तोड़ने से समुद्र को रोका 

जिसके बाद राजा इन्द्रदमन ने छठवीं बार मन्दिर बनवाना प्रारम्भ किया और कुछ समय उपरांत वह मंदिर बनकर तैयार हो गया। लेकिन मंदिर तैयार होने के कुछ दिन पश्चात् पहले की तरह मंदिर को तोड़ने के लिए लगभग 40 फुट ऊँचा समुद्र का जल उठा जिसे समुद्री तुफान कहते हैं तथा बहुत तेजी से मन्दिर की ओर चला। सामने कबीर परमेश्वर चौरा (चबूतरे) पर बैठे थे। अपना एक हाथ उठाया जैसे आशीर्वाद देते हैं, समुद्र उठा का उठा रह गया तथा पर्वत की तरह खड़ा रहा, आगे नहीं बढ़ सका। विप्र रूप बनाकर समुद्र आया तथा चबूतरे पर बैठे प्रभु से कहा कि भगवन आप मुझे रास्ता दे दो, मैं मन्दिर तोड़ने जाऊंगा। कबीर प्रभु ने कहा कि यह मन्दिर नहीं है। यह तो महल (आश्रम) है।

इस में विद्वान पुरुष रहा करेगा तथा पवित्र गीता जी का ज्ञान दिया करेगा। आपका इसको विध्वंस करना शोभा नहीं देता। समुद्र ने कहा कि मैं इसे अवश्य तोडूंगा। प्रभु ने कहा कि जाओ कौन रोकता है? समुद्र ने कहा कि मैं विवश हो गया हूँ। आपकी शक्ति अपार है। मुझे रास्ता दे दो प्रभु। परमेश्वर कबीर साहेब जी ने पूछा कि आप ऐसा क्यों कर रहे हो? विप्र रूप में उपस्थित समुद्र ने कहा कि यह श्रीकृष्ण त्रेतायुग में जब श्री रामचन्द्र रूप में आया था तब इसने मुझे अग्नि बाण दिखा कर बुरा भला कह कर अपमानित करके रास्ता मांगा था। मैं वह प्रतिशोध लेने जा रहा हूँ।

परमेश्वर कबीर जी ने कहा कि प्रतिशोध तो आप पहले ही ले चुके हो। आपने द्वारिका को डूबो रखा है। समुद्र ने कहा कि प्रभु अभी पूर्ण नहीं डूबा पाया हूँ, आधी रहती है। वहाँ भी कोई प्रबल शक्ति युक्त संत सामने आ गया था जिस कारण से मैं द्वारिका को पूर्ण रूप से नहीं डुबो पाया। अब भी कोशिश करता हूँ तो उधर नहीं जा पा रहा हूँ। उधर मुझे बांध रखा है। तब परमेश्वर कबीर ने कहा वहाँ भी मैं ही पहुँचा था। मैंने ही वह अवशेष बचाया था। अब जा शेष बची द्वारिका को भी निगल ले, परन्तु उस यादगार को छोड़ देना, जहाँ श्री कृष्ण जी के शरीर का अन्तिम संस्कार किया गया था। 

उसी स्थान पर अब द्वारिकाधीश का बहुत बड़ा मन्दिर बना दिया गया है। परमेश्वर ने यह यादगार प्रमाण के लिए छोड़ने को समुद्र से कहा था जिससे लोगों को पता लग सके कि वास्तव में श्री कृष्ण जी की मृत्यु हुई थी तथा वह पंच भौतिक शरीर छोड़ गये थे। नहीं तो आने वाले समय में लोग कहेंगे कि श्री कृष्ण जी की तो मृत्यु ही नहीं हुई थी। समुद्र ने आज्ञा प्राप्त कर शेष द्वारिका को भी डूबो दिया। परमेश्वर कबीर जी ने कहा अब आप आगे से कभी भी इस जगन्नाथ मन्दिर को तोड़ने का प्रयत्न नहीं करना तथा इस महल (मंदिर) से दूर चला जा। समुद्र प्रभु की आज्ञा मानकर प्रणाम करके मन्दिर से लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर हट गया। इस तरह श्री जगन्नाथ जी का मन्दिर अर्थात् धाम स्थापित हुआ और जिस चबूतरे पर बैठकर कबीर प्रभु ने समुद्र को मंदिर तोड़ने से रोका था। उस चबूतरे को "कबीर चबूतरा" के नाम से जाना जाता है। परमात्मा कबीर जी की समर्थता का यह प्रमाण जगन्नाथ पुरी में आज भी विद्यमान है।

जगन्नाथ मंदिर निर्माण व कबीर परमात्मा की महिमा का शब्द

अर्ध रात्रि बीत गई थी, स्वपन में दीखे घनश्याम ।
इन्द्रदमन एक मन्दिर बनवा दे
, जगन्नाथ हो जिसका नाम।।टेक।।
सुन राजा एक भवन बनवा दे,
संग समन्दर गहरा हो। 
गीता जी का ज्ञान चलै वहां, विद्वान कथा कोई कह रहा हो।।
ना मूर्ति ना पाखण्ड पूजा,
वो सहज स्वभाव से रह रहा हो। 
योग युगत की विधि बतावै, जिससे मन इन्द्रि पर पहरा हो।। 
कलियुग में जो नाम जपैगा, उसके सरेंगे सारे काम।।1।।
पाँच बार मन्दिर बनवाया,
श्री कृष्ण जी के कहने से। 
मन्दिर टूटा अवशेष बचा ना, तेज समुन्द्र बहने से।।
कहै कबीर अब मन्दिर बनावाओ,
यो टूटै ना मेरे रहने से। 
छठी बार मन्दिर बनवाया, राजा न राणी के गहने से।।
कहै कृष्ण पूर्णब्रह्म कबीर यही है,
इसके चरणों में कर प्रणाम।।2।।
कहै कबीर एक चौरा बनवाओ,
जहां राम नाम लौ लाऊँगा।
जिस पर बैठ समुन्द्र को रोकूं
, और मन्दिर को बचाऊँगा।।
कहै समुन्द्र उठो भगवन,
मैं समुन्द्र तोड़ने जाऊँगा। 
राम रूप में इसने मुझे सताया, वो बदला लेना चाहूँगा।।
अग्नि बाण से रास्ता मांगा,
कह्या था मुझे नीच गुलाम।।3।।
कृष्ण जी की पुरी द्वारका,
उस पर ला कर लावो घात।
इधर समुन्द्र बहुर जो आया,
तो ठीक नहीं रहगी बात।।
एक मील सागर हटगा,
जोड़ कर के दोनों हाथ।
पुरी द्वारका डुबो लई थी,
कृष्ण जी की बिगाड़ी जात।।
पर्वत की ज्यों रूका समुन्द्र,
जगन्नाथ का बन गया धाम।।4।।
वृद्ध कारीगर बन कर आए,
बन्दी छोड़ कबीर करतार।
हाथ पैर प्रतीमा के रह गए,
धक्के से दिए खोल किवार।।
अछूत रूप में साहिब आए,
खड़े हुए थे बीच द्वार। 
पांडे जी ने धक्का मारा, कह करके नीच गंवार।।
कोढ लाग्या पांडा रोवै,
काया का गलगा सब चाम।।5।।
चरण धो पांडे न पीये,
ज्यों की त्यों फिर हो गई खाल। 
कहै कबीर सुनो सब पांडा, यहां छुआ-छात की ना चाले चाल।। 
जै कोई छुआ-छात करैगा, उसका भी योही होगा हाल। 
एक पतल मैं दोनों जीमैं, पांडा गुलाम रामपाल।।
इसमें कौन सा भगवान बदल गया,
वोहे कृष्ण वोहे राम।।6।।

जीवित प्रमाण, द्वारिका पुरी में कबीर कोठा

श्री कृष्ण जी के समक्ष सर्व यादव आपस में लड़कर मर गए थे जो कुछ बचे थे, वे स्वयं श्री कृष्ण जी ने मुसलों से मार डाले जिसका प्रमाण विष्णु पुराण अध्याय 37 पाँचवा अंश पृष्ठ 409 से 414 में है तथा श्रीकृष्ण जी के पैर के तलुए में विषाक्त तीर मारकर एक मछुआरे शिकारी ने श्रीकृष्ण का वध किया था। 

जिसके बाद श्रीकृष्ण जी के शरीर का अंतिम संस्कार द्वारिका से बाहर किया गया था। उस स्थान पर ही वर्तमान में गुजरात के द्वारिकापुरी में द्वारिकाधीश का मन्दिर बना है। कुछ समय बाद श्रद्धालु उस यादगार को देखने जाने लगे। फिर वहाँ पर पूजा प्रारम्भ हो गई। विक्रम संवत् 1505 (सन् 1448) में कबीर परमेश्वर जी द्वारिका पहुँचे और समुद्र के किनारे जहां गोमती नदी सागर में आकर मिलती है, उसके पास एक बालू रेत के टीले (कोठा) अर्थात् मिट्टी के ढ़ेर पर बैठकर तीर्थ भ्रमण पर आने वाले श्रद्धालुओं को तत्वज्ञान सुनाया करते थे।

जानिए कबीर कोठा की महिमा

परमेश्वर कबीर जी उन श्रद्धालुओं से प्रश्न करते थे कि आप यहां किसलिए आए हो? उन श्रद्धालुओं का उत्तर होता था कि द्वारिकाधीश के दर्शन करने आए हैं। उनकी नगरी को देखने आए हैं। भगवान से आशीर्वाद लेने आए हैं जिससे हमारा कल्याण हो। परमेश्वर कबीर जी समझाते थे कि भोले श्रद्धालुओं आप द्वारिकाधीश श्री कृष्ण की मूर्ति के दर्शन से कल्याण की अपेक्षा करके दूर-दूर से द्वारिका नगरी में आए हो। 

यहां पर श्रीकृष्ण जी का ही सर्वनाश हो गया, तो आपको क्या प्राप्त होगा? आत्म कल्याण अर्थात जन्म मृत्यु से छुटकारा तथा सांसारिक सुख प्राप्त करना है तो वह शास्त्रानुकूल भक्ति से होगा, जोकि मैं बताता हूँ। इस तरह कबीर परमेश्वर ने भ्रमित श्रद्धालुओं को सत्य ज्ञान समझाकर यथार्थ भक्ति दी। 

वहीं परमेश्वर कबीर जी जिस स्थान पर बैठकर भ्रमित श्रद्धालुओं को सदोपदेश किया करते थे। उस स्थान पर लोगों ने एक गोलाकार चबूतरा (कोठा) बना दिया जिसे आज हम "कबीर कोठा" के नाम से जानते हैं। कहा जाता है कि सन् 1448 जब कबीर जी द्वारिका नगरी में गए थे तब से आज तक यानी करीब 575 वर्ष हो चुके हैं उस बालू रेत के टीले (कोठे) यानी कबीर कोठे को समुद्र की लहरों ने छुआ भी नहीं है । समुद्र में ज्वार भाटा आता है। तब भी समुद्र की लहरें कबीर कोठे की ओर नहीं जाती हैं। जोकि परमेश्वर कबीर जी का जीवित प्रमाण है कि वे पूर्ण परमात्मा हैं।

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