गीता सार

गीता सार

गीता ज्ञान एक महत्वपूर्ण ज्ञान है जो कि काल ब्रह्म ने दिया। गीता ज्ञान दाता अध्याय 11 श्लोक 32 में स्वयम अर्जुन को ज्ञात करवाता है कि वो काल और और इस वक्त यहाँ सब को नष्ट करने के लिए प्रवृत हुआ है। अर्जुन भी उस काल को देख कर काँपने लग जाता है।  

सभी संतों का ऐसा मानना है कि गीता ज्ञान श्री कृष्ण जी ने दिया। इसी को आधार मान कर उन संतों ने गीता के अर्थ का अनर्थ कर दिया और गीता के रहस्य को नहीं जान पाये। संत रामपाल जी महाराज एक तत्वदर्शी संत हैं जिन्होंने इस ज्ञान को पुर्नतह सुलझा कर भक्त समाज के सामने प्रस्तुत किया है। 

नीचे कुछ श्लोक दिये हैं जो कि गीता के रहस्य को उजागर करते हैं। कृपया ज्ञान ग्रहण कीजिये। 

गीता ज्ञान दाता ने स्वयम को नाशवान बताया है 

गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 2 श्लोक 12, अध्याय 4 श्लोक 5, अध्याय 10 श्लोक 2 में अपने आप को नाशवान यानि जन्म-मरण के चक्र में सदा रहने वाला बताया है। कहा है कि हे अर्जुन! तेरे और मेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। तू नहीं जानता, मैं जानता हूँ। अपने जन्म को गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 4 श्लोक 9 में आलोकिक बताया है जो कि सत्य है लेकिन उसने ये स्पष्ट कर दिया कि वो जन्म मरण में है। 

गीता ज्ञान दाता ने अविनाशी परमात्मा किसी और को कहा है जो कि वास्तव में परमात्मा है 

अध्याय 15, श्लोक 16 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि इस संसारमें दो प्रकार के भगवान हैं नाशवान और अविनाशी परंतु गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि वास्तव में अविनाशी परमात्मा तो इन दोनों (क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरूष) से दूसरा ही है। वही तीनों लोकों में प्रवेश करके सर्व का धारण पोषण करता है। वही वास्तव में परमात्मा कहा जाता है।   

गीता अध्याय 8 श्लोक 20 से 22 में गीता ज्ञान दाता ने किसी अन्य पूर्ण परमात्मा के विषय में ज्ञान कहा है जो वास्तव में अविनाशी परमात्मा है।

गीता ज्ञान दाता ने स्वयम को परम अक्षर पुरुष से उत्पन्न बताया है 

गीता अध्याय 3 श्लोक 14 से 15 में स्पष्ट है कि ब्रह्म काल की उत्पति परम अक्षर पुरूष से हुई है। वही परम अक्षर ब्रह्म ही यज्ञों में पूज्य है। (ये ब्रह्म काल ही गीता ज्ञान दाता है)

गीता ज्ञान दाता ने किसी और पूर्ण परमात्मा को अपना इष्ट देव बताया है

गीता अध्याय 18 के श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ने अर्जुन को किसी और पूर्ण परमात्मा कि शरण में जाने को कहा है।

गीता अध्याय 18 के श्लोक 66 में भी गीता ज्ञान दाता ने अर्जुन को अपने से अन्य परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जाने को कहा है।

गीता जी के अध्याय 18 के श्लोक 64 तथा अध्याय 15 के श्लोक 4 में स्वयं गीता ज्ञान दाता कह रहा है कि हे अर्जुन! मेरा उपास्य देव (इष्ट) भी वही परमात्मा (पूर्ण ब्रह्म) ही है तथा मैं भी उसी की शरण हूँ तथा वही सनातन स्थान (सतलोक) ही मेरा परम धाम है।

ऐसा काल ब्रह्म ने इसलिए कहा है क्योंकि ब्रह्म भी वहीं (सतलोक) से निष्कासित है।

वास्तविक भक्ति विधि के लिए गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) किसी तत्वदर्शी संत की खोज करने को कहता है

गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में गीता ज्ञान दाता किसी तत्वदर्शी संत की खोज करने को कहता है। इस से सिद्ध होता है कि गीता ज्ञान दाता (ब्रह्म) द्वारा बताई गई भक्ति विधि पूर्ण नहीं है तथा अधूरी है।

अपनी भक्ति के विषये में गीता ज्ञान दाता ने क्या कहा है तथा गति को अनुत्तम क्यूँ कहा है

  • गीता अध्याय 8 श्लोक 5 तथा 7 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति करने को कहा है तथा अर्जुन को ये भी कहा है की "युद्ध भी कर, निःसंदेह मुझे प्राप्त होगा", परंतु पहले  ही स्पष्ट कर दिया है कि जन्म-मृत्यु दोनों की बनी रहेगी।
  • गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति का मंत्र अध्याय 8 के श्लोक 13 में बताया है कि मुझ ब्रह्म की भक्ति का केवल एक ओम (ॐ) अक्षर है। इस नाम का जाप अंतिम श्वांस तक करने वाले को इससे मिलने वाली गति यानि ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। 
  • गीता अध्याय 8 के श्लोक 16 में स्पष्ट किया है कि ब्रह्मलोक में गए साधक भी लौटकर संसार में जन्म लेते हैं।

इस से गीता ज्ञान दाता ने सिद्ध किया है कि उसकी भक्ति करने से जन्म मृत्यु का चक्र बना रहेगा तथा मोक्ष कि प्राप्ति नहीं होगी। स्पष्ट किया है कि युद्ध जैसे भयंकर कर्म भी करने पड़ेंगे जिस कारण से काल ब्रह्म के पुजारियों को न तो शांति मिलेगी और न सनातन परम धाम की प्राप्ति होगी।

क्यूंकि ॐ मंत्र की सब से उत्तम प्राप्ति ब्रह्मलोक है, और ये ब्रह्मलोक भी नाशवान है इसलिए अध्याय 7 श्लोक 18 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति से प्राप्त होने वाली गति को अनुत्तम अर्थात अश्रेष्ठ बताया है क्यूंकि इस भक्ति से जन्म मृत्यु का रोग नहीं कट सकता। 

पूर्ण परमात्मा कि भक्ति के विषये में गीता ज्ञान दाता ने ॐ तत सत मंत्र कहा है 

अपने विषये मैं काल ब्रह्म ने स्पष्ट किया है कि उसका मंत्र ॐ है। लेकिन गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में पूर्ण  परमात्मा का मंत्र ॐ तत सत बताया है। 

गीता अध्याय 17 श्लोक 23-28 में विस्तृत ज्ञान दिया है। तत्वज्ञान संत रामपाल जी ने समझाया है जो यह है कि 

  • ओम मंत्र क्षर पुरूष की भक्ति का है।
  • तत मंत्र सांकेतिक है, यह अक्षर पुरूष की साधना का है
  • तथा सत मंत्र भी सांकेतिक है। यह परम अक्षर पुरूष की साधना का है।

इन तीनों मंत्रों के जाप से पूर्ण मोक्ष प्राप्त होता है।

गीता ज्ञान दाता ने स्पष्ट किया है की मनमुखी भक्ति से कोई लाभ नहीं होता 

गीता अध्याय 16 श्लोक 23 में गीता बोलने वाले काल ब्रह्म ने कहा है की मनमुखी साधना बिलकुल भी लाभदायक नहीं हैं। 

गीता अध्याय 16 श्लोक 23

जो साधक शास्त्रविधि को त्यागकर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है वह न सिद्धि को प्राप्त होता है न उसे कोई सुख प्राप्त होता है, न उसकी गति यानि मुक्ति होती है अर्थात् शास्त्र के विपरित भक्ति करना व्यर्थ है। 

गीता अध्याय 16 श्लोक 24 में काल ब्रह्म ने कहा है कि कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें शास्त्र ही प्रमाण है। शस्त्र से काल ब्रह्म का अभिप्राय है वेद और गीता। वेद और गीता के अनुसार ही भक्ति करने से लाभ है।

गीता अध्याय 6 श्लोक 16 में लिखा है कि हे अर्जुन यह योग (साधना) न तो अधिक खाने वाले का, न बिल्कुल न खाने (व्रत रखने) वाले का सिद्ध होता है। अर्थात व्रत रखना साश्त्र्विरुद्ध साधना है और व्यर्थ है।

गीता ज्ञान दाता वास्तव में काल अर्थात ब्रह्म है 

अध्याय 11 श्लोक 32 में पवित्र गीता जी को बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि ‘हे अर्जुन यह मेरा वास्तविक काल रूप है'।

अध्याय 11 श्लोक 47 स्पष्ट किया है की ये मेरा वास्तविक रूप आज से पहले किसी ने नहीं देखा है और न ही कोई देख सकता है। ये अनुग्रह कर के मैंने तुझ को दिखाया है। 

तत्वदर्शी संत के विषय में गीता ज्ञान दाता ने क्या कहा है 

गीता अध्याय 15 श्लोक 1 में गीता ज्ञान दाता ने तत्वदर्शी संत की पहचान बताई है कि वह संसार रूपी वृक्ष के प्रत्येक भाग का ज्ञान कराएगा। 

गीता अध्याय 15 श्लोक 1

गीता का ज्ञान सुनाने वाले प्रभु ने कहा कि ऊपर को पूर्ण परमात्मा आदि पुरुष परमेश्वर रूपी जड़ वाला नीचे को शाखा वाला अविनाशी विस्त्तारित, पीपल का वृक्ष रूप संसार है जिसके छोटे-छोटे हिस्से या टहनियाँ पत्ते कहे हैं उस संसार रूप वृक्ष को जो सर्वांगों सहित जानता है वह पूर्ण ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी है।

गीता अध्याय 15 के श्लोक 4 में कहा है कि उस तत्वदर्शी संत के मिल जाने के पश्चात् उस परमेश्वर के परम पद की खोज करनी चाहिए अर्थात् उस तत्वदर्शी संत के बताए अनुसार साधना करनी चाहिए जिससे पूर्ण मोक्ष (अनादि मोक्ष) प्राप्त होता है। गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि मैं भी उसी की शरण में हूँ।

गीता अध्याय 8 श्लोक 17 में गीता ज्ञान दाता ने परब्रह्म के विषये में ज्ञान दिया है और उसकी दिन और रात्रि की अवधि बताई है और कहा है कि जो इस भेद को जानता है वो तत्वदर्शी है। 

गीता अध्याय 8 श्लोक 17

अक्षर पुरूष यानि परब्रह्म का जो एक दिन है उसको एक हजार युग की अवधि वाला और रात्रि को भी एक हजार युग तक की अवधि वाली तत्व से जानते हैं वे तत्वदर्शी संत परब्रह्म के दिन-रात्रि के तत्व को जानने वाले हैं।

तीनों गुण काल ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं तथा उन गुणो से जो हो रहा है उसका निमित भी ब्रह्म ही है  

गीता अध्याय 7 श्लोक 12 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म कह रहा है कि तीनों देवताओं द्वारा जो भी उत्पति, स्थिति तथा संहार हो रहा है इसका निमित्त मैं ही हूँ। परन्तु मैं इनसे दूर हूँ।

कारण है कि काल को शापवश एक लाख प्राणियों का आहार करना होता है। इसलिए मुख्य कारण अपने आप को कहा है तथा काल भगवान तीनों देवताओं से भिन्न ब्रह्म लोक में रहता है तथा इक्कीसवें ब्रह्मण्ड में रहता है। इसलिए कहा है कि मैं उनमें तथा वे मुझ में नहीं हैं।

गीता अध्याय 7 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता कहता है कि इन गुणोंके कार्यरूप सात्विक श्री विष्णु जी के प्रभाव से, राजस श्री ब्रह्मा जी के प्रभाव से और तामस श्री शिवजी के प्रभाव से तीनों प्रकारके भावोंसे यह सारा संसार - प्राणिसमुदाय मुझ काल के ही जाल में मोहित हो रहा है अर्थात् फंसा है इसलिए पूर्ण अविनाशीको नहीं जानता।

गीता अध्याय 7 श्लोक 14 में बताया है कि यह अलौकिक अर्थात् अति अद्ध्भूत त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर हैऔर जो केवल मुझको ही निरंन्तर भजते हैं वे इन से ऊपर उठ जाते हैं।

गीता अध्याय 7 श्लोक 15 में बताया है कि तीनों गुणो यानि ब्रह्मा, विष्णु और शिव कि भक्ति करने वाले मनुष्यों में नीच हैं, असुर स्वभाव वाले हैं, दूषित कर्म करने वाले हैं, मूर्ख हैं और वो मेरी भक्ति नहीं करते।  

गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 का भावार्थ है कि जो साधक स्वभाव वश तीनों गुणों रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी तक की साधना से मिलने वाले लाभ पर ही आश्रित रहकर इन्हीं तीनों प्रभुओं की भक्ति से जिन का ज्ञान हरा जा चुका है वे राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्यों में नीच, शास्त्र विधि विरुद्ध भक्ति रूपी दुष्कर्म करने वाले मूर्ख मुझ ब्रह्म को भी नहीं भजते