सत साहिब।
सतगुरु देव की जय,
कबीर साहिब जी की जय,
गरीबदास जी महाराज जी की जय,
स्वामी रामदेव महाराज जी की जय हो,
बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो।
सर्व संतों की जय,
सर्व भक्तों की जय,
धर्मी पुरुषों की जय,
श्री काशी धाम की जय, श्री छुड़ानी धाम की जय,
श्री करोंथा धाम की जय, श्री बरवाला धाम की जय। सत साहेब।।
गरीब न्योली नाद सुभान गति, लड़े भुजंग हमेश। जड़ी जानो नाम जगदीश है, विष नहीं व्यापै शेष।।
संत गरीबदास जी महाराज परमात्मा से प्राप्त अध्यात्म ज्ञान को कितने सुंदर तरीके से प्रमाण के साथ पेश करते हैं कि, परमेश्वर कबीर जी का जो नाम है यह, ऐसा ज़बरदस्त है कबीर साहेब ने बताया कि, कबीर जैसे फनपति मंत्र सुन, राखे फन सिकोड़। ऐसे वीरा मेरे नाम से, काल चले मुंह मोड़।। यह तो कबीर साहेब ने स्वयं बताया जैसे फनपति सर्प और गारड़ू के मंत्र को सुनकर उससे इतना डर जाता है कि अपने फन को इकट्ठा करके भागने की चेष्टा करता है।
ऐसे मेरे नाम से, कबीर नाम से, उस सच्चे मंत्र से यह काल चले मुंह मोड़।।
ऐसे काल दूर भाग जाता है। गरीबदास जी कहते हैं,
यम किंकर कर जोड़ चले तिस देख रे। धर्मराय के अंक मिटावे लेख रे।। जीव जुनी नहीं जाहीं, बांह ठाडे गई। दरगह मंज हजूर, पकड़ छेकी बही।।
गरीबदास जी आंखों देखा परमात्मा की शक्ति का वर्णन करते हैं कबीर जी का, की उनको देखकर यम के दूत हाथ जोड़कर और दूर चले जाते हैं और फिर परमात्मा ने धर्मराज के दरबार में जाकर मेरी बही निकाली। बही वह बुक, वह pad (पैड-बही) जिस पर account (अकाउंट-लेखा) लिखा था और परमात्मा ने कहा यह मुझे दो। यह मेरा भक्त हो गया, इसने मेरी दीक्षा ले ली। वह पैड फाड़ दी दाता ने वहीं पर और फेंक दी कूड़े में।
दरगह मंज हजूर पकड़ छेकी बही। जीव जूनी नहीं जाहीं, बांह ठाडे गही।
की कबीर साहब ने जिसकी बांह पकड़ ली, जिसका हाथ पकड़ लिया, जिसको शरण दे दी वह जीव लख 84 प्रकार की योनियों में नहीं जाएगा।
बांह ठाडे गही। ठाडे।
ठाडा मतलब तगड़े, समर्थ, शक्तिशाली ने हमारी बांह पकड़ ली, हमें शरण दे दी। ठाडे की परिभाषा थोड़ी सी बताता हूं आपको क्योंकि बच्चों कोई भी हम प्रसंग सुनते हैं उसके साथ उसका जो लिंक होता है वह कथा का होना अति आवश्यक है। अन्यथा उसका कोई प्रयोजन नहीं रहता। काफी समय पहले की बात है एक भक्त परमात्मा कबीर जी की शरण में था। संत गरीबदास जी के माध्यम से और पुराने समय में खेती किसानी जो होती थी वह केवल वर्षा पर निर्धारित होती थी और कोई नहर वगैराह नहीं थी। नहीं उसका कोई पानी लगता था। बारिश हो जाती थी कुछ एक क्षेत्र में, तो उसमें किसान अपना उसको संवार कर, बीज बो दिया करते थे। ज़मीन ज़्यादा हुआ करती थी उस समय।
उस भगत की बहन के क्षेत्र में वर्षा हो गई। वहां से message (मैसेज-संदेश) आया की हमारे यहां बारिश हो गई है और सभी खेत एकदम बाहने योग्य हो गये। बोने योग्य हो गए हैं। Help (हेल्प-मदद) के लिए आओ। वह अपने बैल, अपना हल लेकर चला गया। उसको दूसरे खेत में भेज दिया। स्वयं उसका जो जीजा था बहन का बटेऊ (पति) वह अपने बैल लेकर दूसरे खेत में चला गया। जिस खेत में वह भगत गया दिन में हल चलाया।
दोपहर के समय कुछ समय रेस्ट देते हैं बैलों को। पेड़ के नीचे चला गया। फिर वहां देखा आसपास एक तालाब थी, छोटी सी तलैया (जोहड़ी) उसमें कुछ पेड़ वगैराह थे। पानी था। बैलों को पानी पिलाने चला गया तो वहां एक मंढ़ी बनी हुई थी। यादगार सी, छोटी सी, चबूतरा सा बनाकर उस पर एक भेली गुड़ की रखी थी। (भेली पहले 5 किलो का इकट्ठा ही बनाया करते वह विशेषकर चढ़ाने के लिए होता था भेंट।) अपने देवी-देवताओं को किसान चढ़ाते थे। बोल देते थे पहले ही। फसल का पहला वह 5 किलो ऐसे पीर के चढ़ाएंगे। वह पीर की मंढ़ी थी। तो वह एक ही पत्थर सा था मोटा 5 किलो का, पांच सेर का। उसको उठा लाया वह भगत। कुछ स्वयं खाया, कुछ बैलों को खिला दिया।
अपना काम करके शाम को घर पर आ गया। सो गया। रात्रि के 12:00 बजे के आसपास एक साढे चार फीट का, टोपी सिर पर, सफेद कपड़े, दाढ़ी जैसे मुसलमान वेशभूषा हो। आकर उससे 10 फीट दूर खड़ा होकर और कहने लगा-तूने मेरा गुड़ कैसे खा लिया? तेरी हिम्मत कैसे हो गई? तू ठाडे की शरण में है इसलिए बच गया। नहीं तुझे मारता और तेरे दोनों बैलों को मारता मैं। मेरी पार नहीं बसाई और बिल्कुल लाल आंख कर रखी और बहुत गुस्से में था। ऐसे कहकर वह चला गया।
भगत को भी फिर थोड़ा सा एहसास हुआ यह क्या मुश्किल थी? बाकी इतना तो विश्वास था की समर्थ की शरण में हूं इस तरह के कुतरूओं का कोई जुगाड़ नहीं। फिर भी मन में था कहीं यह बात हुई तो हुई क्यों? ऐसा क्या कारण हो गया? उसने अपनी बहन से पूछा। की बहन ऐसे-ऐसे उस मंढ़ी पर गुड़ चढ़ा रखा था आपके खेत में। किसकी बना रखी है वह? आपके खेत के बराबर में। जोहड़ी पर, तालाब पर।
तो उसकी बहन बोली क्या बात हो गई भाई? की वहां एक भेली चढ़ा रखी थी किसी ने गुड़ की, रखी थी मैं उठा लाया। वहां कुत्ते खाते उसको। कुछ बैलों को खिला दी, कुछ स्वयं खा ली। उसकी बहन बोली अरे! क्यों जुल्म कर दिया तुने? क्यों उठा लाया तू वहां से? रोने लग गई ऐसे सुनते ही। भाई बोल्या मेरी तो सुन ले सारी। वह एक इतने चार, साढ़े चार फीट का आदमी होगा और सफेद कपड़े पहन रहा, ऊपर टोपी, मुसलमान टाइप सा था और मेरे से 10 फीट दूर खड़ा हो गया।
रात को आया और ऐसे बोला! तेरी हिम्मत कैसे पड़ गई मेरा गुड़ उठा लाया? तूने खा कैसे लिया? मैं बोल्या नहीं, वह स्वयं ही बोलता रहा। ऐसे बोल्या तू ठाडे की शरण में है। नहीं! तुझे मारता और तेरे दोनों बैलों को मारता। लाल आंख कर रखी थी और ऐसे कहकर चला गया वापस। वह बहन फूट-फूट कर रोने लगी। अरे! तू मेरा काला मुंह करवा देता। क्या जवाब देती मां को? और ऐसे है वैसे है। तुझे वही गुड़ मिला था खाने को। हमारे गुड़ की कमी है यहां पर और बुरी तरह लग गई रोने। हाय! बचा कैसे मेरा भाई? अपने पति को भी लड़ने लग गई। तुने क्यों भेजा यह उस साइड में? तुने उधर क्यों नहीं भेजा? तुने बताना चाहिए था इसको। वह भाई बोल्या ऐं तेरी अब भी अकल पर पर्दा गिर रहा है।
वह तेरा शेर हाथ जोड़कर गया और ऐसे कहे तू ठाडे की शरण में है इसलिए बच गया। नहीं मार ही देता मुझे। तू रोए जाती पीछे से और अब मुझे जिंदे जी रोने लग रही पागल कहीं की। इतनी भी अकल पर पर्दा गिर गया तुम्हारे। मैं किसकी शरण में हूं पता है? मैं यह रिक्वेस्ट करू हुं तुमसे तुम भी आ जाओ। नहीं इन भूतों से ऐसे ही डर-डर मर जाओगी।
तो बच्चों! यम किंकर कर जोड़ चले तिस देख रे।
बच्चों! आत्मा फूट-फूट कर आती है। चारों युग में संत पुकारे, कूक कहा हम हेल रे। हीरे माणिक मोती बरसें, यह जग चुगता ढेल रे।।
यह कंकर चुगने की आदत हो रही है इनको।
यम किंकर कर जोड़ चले, तिस देख रे। धर्मराय की बंध मिटावे, लेख रे।।
जीव जूनी नहीं जाहिं, बांह ठाड़े गही। (ठाडे ने) दरगह मंज हजूर, पकड़ छेकी बही।।
सुन्न मंडल सतलोक अगमपुर धाम है। धन्य बंदी छोड़ कबीर तुम्हारा नाम है।।
बच्चों! इस परमपिता के प्रेम में, ऐसे गजब के ज्ञान, ऐसे समर्थ की शरण में आत्मा भावुक हो जाती है रोका नहीं जाता। सौ-सौ शुक्र मनाते हैं अपने गुरुदेव का। हे बंदी छोड़! हे परमपिता! कैसे शरण में दी आपने। कैसा सुंदर राह बता दिया। नहीं यूं ही ब्रान माटी राखों ये भूतड़े और इनको पूजे भी जाते और दुर्गति भी ऐसे की ऐसे रहनी थी और गीता कहती है, “भूत पूजोगे, भूत बनोगे।” परमात्मा की यह सूक्ष्म वेद की वाणी कहती है;
भूत रमे सो भूत है, देव रमे सो देव। राम रमे सो राम है, सुन सकल सुर भेव।।
प्रसंग चल रहा है;
कबीर, जैसे फनपति मंत्र सुन, राखे फन सिकोड़। ऐसे बीरा मेरे नाम से, काल चले मुंह मोड़।।
पारख के अंग की अमर ग्रंथ की प्रथम वाणी है;
गरीब, न्योल नाद सुभान गति, लड़े भुजंग हमेश। जड़ी जानो नाम जगदीश है, विष नहीं व्यापै शेष।।
जैसे एक नेवला होता है सारा 9 इंच का प्राणी और वह 10 फुट के सांप को, सर्प को, भुजंग को मार देता है। कैसे मार देता है? उसके पास एक trick (ट्रिक-युक्ति) है। उसके पास एक जड़ी होती है। एक नागदमन जड़ी होती है जंगल में। उसको सूंघता है, उसमें smell (स्मैल-सुगंध) आती है। वह सर्प को उस समय छेड़ता है जब वह जड़ी के आसपास होता है। वह झाड़-बोझड़ों के अंदर होती है। वह सर्प को छेड़ता है सर्प ऐसे फन उठा लेता है और वह जाकर एकदम वह जड़ी स्वांस में भर लेता है स्मेल और आकर उस सर्प के सामने होकर थोड़ी सी दूरी से छोड़ देता है जिधर से हवा चल रही हो, सर्प की तरफ जा रही हो उस साइड में हो जाता है वह। सर्प को उससे चक्कर आने शुरू हो जाते हैं उस स्मैल से। उसका जी घबराता है और वह भागने की चेष्टा करता है। नेवला फिर उसकी गर्दन पर बैठ जाता है, मूंडी पर पीछे से और मुंह के ऊपर फिर वह स्मैल छोड़ता ही रहता है। उसको अचेत करके फिर पकड़ कर उसको मार डालता है, काट देता है।
तो बच्चों! गरीबदास जी ने बताया कि कबीर परमेश्वर का यह सच्चा नाम, सतनाम और सारनाम। सारनाम है। यह है important (इंपोर्टेंट-मुख्य) चीज़। सतनाम भी बहुत शक्ति हो जाती है इन दोनों के मेल से। जैसे दो जड़ियां को मिला दिया जाए उसका कुछ अलग से strong (स्ट्रांग-सशक्त) दवाई बन जाती है medicine (मेडिसिन-दवाई) और तीसरी मालिक मिले। मालिक का जो सारनाम है वह तो कहना ही क्या। तो हमारा जो मोक्ष जो होगा इन सभी मंत्रों के जाप से होगा। यह हमारी साधना है। पूजा हमारी सारनाम है।
बच्चों! जैसे एक छोटा सा नेवला उस जड़ी की ताकत से, smell (सुगंध) की ताकत से जो स्वांस में भर कर लाता है इतने तगड़े लंबे सर्प को कंडम कर देता है। ऐसे ही परमात्मा के इस नाम के सिमरन स्वांस के द्वारा करने से। फिर बताया कि,
गरीब, न्योल नाद सुभान गति, लडें भुजंग हमेश। और जड़ी जानो नाम जगदीश है।
जगदीश सारी सृष्टि के मालिक का जो असली नाम है वह जड़ी है। वह नागदमन जड़ी है। अब जैसे सतनाम भी बहुत ताकत रखता है यह हमारी साधना है। जैसे प्रथम मंत्र, सतनाम यह साधना है। सारनाम हमारी पूजा है। पूजा और साधना में अंतर होता है। कबीर साहेब जी हमारा पूज्य हैं। साधना वह होती है जैसे, हमें जल की आवश्यकता है तो हैंडपंप लगाते हैं। हैंडपंप के लिए बोकी और पाइप। बोकी मारते रहते हैं, मिट्टी बाहर डालते रहते हैं। सतनाम की बोकी स्वांस-उस्वांस से मार कर जब वह पानी के लेवल पर पहुंच जाती है वह बोर, तब उसमें पाइप लोवर करके फिर उसके ऊपर एक मशीन बांधी जाती है वह सारनाम है और मशीन से फिर उसको चलाया जाता है। वह हमारा पूज्य ईष्ट है, वह सारशब्द है, जो हमें चाहिए था। वो ऐसे मिलेगा, वो सुख परमपिता-परमात्मा के सच्चे दरबार का। तो गरीबदास जी कहते हैं, वो मंत्र, वो जो सारनाम है वो जड़ी जानो, नाम जगदीश है। परमात्मा जगदीश कबीर साहेब का सारनाम, वो नागदमन जड़ी बूटी है।
वो कालदमन और विष नहीं व्यापै शेष।।
छोटे से सांप की बात छोड़ो, शेषनाग जो सबसे बड़ा ताकतवर, एक हज़ार फन का फनधर है यानी काल एक हज़ार भुजा का ताकतवर है यह भी निकट नहीं आ सकता।
बच्चों! किस्मत सराहया करो अपनी। सौ-सौ गुण गाया करो। गरीबदास जी कहते हैं;
गरीब, साधो सेती मस्करी, यह चोरों नाल खुशहाल। मल अखाड़ा जीतेंगे, ये युगन युगन के माल।।
माल, wrestler (रेसलर), पहलवान इन नकली गुरुओं से तो खुश है सारा संसार।
साधो सेती मस्करी, इन चोरों नाल खुशहाल।।
ओय होय! इन चोरों से, झूठे गुरुओं से खुश और साधु संतों के मज़ाक करते हैं।
यह मल अखाड़ा जीतेंगे, युगन-युगन के माल।।
आप हो वह युगन-युगन के माल।
बच्चों! आपको बहुत बार प्रमाण दिए जाते हैं देता ही रहूंगा आखिरी स्वांस तक क्योंकि Syllabus (सिलेबस-पाठयक्रम) ही यह है। टीचर सारा साल सिलेबस पढ़ाता है। उल्टा-सुलटा, उन्हीं को ही रट्टा लगवाता है और तब बच्चे सफल होते हैं। परमात्मा युगों से आपके साथ हैं।
सतयुग में राजा अंभरीष एक बहुत बड़े धार्मिक राजा हुए हैं और खूब यज्ञ किया करते थे, भंडारे करते थे। ब्राह्मणों को खूब धन-दान करते थे। लागड़ गऊ बांटा करते थे। हज़ार-हज़ार लागड़ गऊ बांटते थे। लागड़ मतलब बच्चे वाली, ब्याही हुई दूधवाली। भोजन-भंडारे करवाते थे। दक्षिणा देते थे जैसा भी लोकवेद सुना था, गुरु जी ने बताया था, ऋषियों ने। वह सारा कुछ करते थे। परमात्मा वहां भी साथ रहते हैं। उनकी इज्ज़त रखते हैं भक्ति की और बीच-बीच में उनको समझाने की चेष्टा की। कोई ऋषि रूप बनाकर अंभरीष जी को सच्चा मार्ग बताया, खूब ध्यान से सुना और नाम लिया। लेकिन वे ऋषि वहां सैकड़ों और मालिक एक। आखिर में राजा अंभरीष भी हाथ खड़े कर गया। मालिक की साधना छोड़ दी। और वोह ऋषियों वाली, वो शुरुआत कर दी। इतने अच्छे भगत विष्णु जी के बने हुए थे।
तो बच्चों! अब हंसी भी आती है, दुख भी होता है।
गरीब, वेद पढ़ें, पर भेद ना जानें। यह बाचें पुराण अठारहा। और पत्थर की पूजा करें, भूल गए सृजनहारा।।
वेद पढ़ा करते ऋषि उस समय। केवल वेद। पुराण तो इनकी अपनी रचनाएं हैं फिर जैसा समझा, लिखते चले गए और सारा वेद के विरुद्ध साधना करते थे। करते और कराते थे। विष्णु जी की पूजा करें और गीता क्या कहती है जो चारों वेदों का सारांश है, विष्णु तीन गुणों में से एक सतगुण हैं। इन तीनों गुणों की भक्ति तक त्रिगुणमयी माया के द्वारा जिसका ज्ञान हरा जा चुका है। यानी इसी तक सीमित हैं, जो राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए मनुष्य में नीच, दुषित कर्म करने वाले मूर्ख, यह मेरी भक्ति भी नहीं करते। तो अंभरीष वही साधना करता था लेकिन पिछले संस्कार किसी जैसे अब यह चल रहा है भक्तियुग।
बच्चों! आप इन बातों को बार-बार सुनोगे तो आपके दिल में समा जाएंगी, यह कहानी। सच्चाई यह है। अब यह भक्ति काल शुरू हो गया। मोक्ष काल समझो। इसमें हज़ारों वर्षों तक चलेगा, अरबों भगत बच्चे बेटा-बेटी पार होंगे। यह चलेगा, लाखों वर्ष और भी चलेगा। लेकिन वह साधना करते रहेंगे लेकिन उनका विश्वास इतना नहीं बनेगा। वो फिर यहीं रह जाएंगे काल के जाल में। उन्ही में से फिर क्योंकि उनकी भक्ति ज़बरदस्त है शास्त्र अनुकूल है। अगले सतयुग में उन्हीं पुण्यआत्माओं को काल जन्म देगा उनको पहले ऊपर के लोकों में रखेगा।
ऊपर के लोकों में, स्वर्ग में, देवता हज़ारों-लाखों वर्षों वहां रहेंगे। यानी यह एक कोहलू जैसा चक्कर है, एक चेन है, यह चेन। उस चेन पर जैसे डाल देते हैं। ब्रह्मलोक में गए, फिर चक्कर काटते-काटते विष्णुलोक, शिवलोक सारे अपने कर्म फोड़कर, भोगकर, खत्म करके, फिर भी उनके पुण्य इतने बच जाते हैं की सतयुग में जन्म देते हैं उनको और सतयुग में भी अच्छे पुण्यकर्मी फिर राजा बनते हैं और वह भक्ति, यह वाली भक्ति की कसक और वह शेष बची ताकत फिर भी साथ रहती है और इस कारण से भगवान को भी उनके साथ रहना पड़ता है।
ज्यों बच्छा गऊ की नजर में, ऐसे सांईं को संत। भक्तों के पीछे फिरे, वह भगत वच्छल भगवंत।।
कबीर, जो जन मेरी शरण है, ताका हूं मैं दास। गेल-गेल लाग्या फिरूं, जब तक धरती आकाश।।
तो अपने इस विधान अनुसार अंभरीष से मिले। ठीक है एक बार तो यह बात इतनी गजब की है सारी ठीक-ठीक लगती है। लेकिन माहोल खराब होता है। यह ज्ञान बताने वाला एक होता है, दूसरा समर्थक नहीं होता। कुछ दिन में वह भूल जाते हैं और ऋषि लोग बहका देते हैं। कहां से यह बातें करते हो वेदो में ऐसा कहीं नहीं है। वेदों में ऐसा नहीं है। अब दास जो कहना चाहता है फिर अगले जन्म उस भक्ति से वह अंभरीष राजा स्वर्ग गया। स्वर्ग में अपने पुण्य भोगे। फिर त्रेतायुग में फिर राजा जनक के रूप में वही आत्मा ने जन्म लिया वहां भी खूब भक्ती की।
विष्णु के कट्टर पुजारी वही भावना, वही भाव फिर भरा हुआ था। परमात्मा फिर भी मिले उनको। लेकिन राजा और सिद्धियां, इतने ठाठ-बाट और बहकाने वाले वो गुरु निरे (बहुत) ऋषि। हमारी ऐसी घिस कांड़ (निकाल) रखी है काल ने हम ऐसे मूर्ख बना रखे हैं थोड़ा सा भी सुख हो जा, कोई प्रभुता, कोई पद प्राप्त हो जाए हम खुद भगवान बन जाते हैं। लेकिन पिछली धार्मिकता के अनुसार हम कुछ धार्मिक भी बने रहते हैं। लेकिन रहते है वहीं के वहीं और अंभरीष राजा इतने अच्छे भक्त थे। पिछली सिद्धि शक्ति, मालिक की वह भक्ति की सही थी।
एक बार दुर्वासा ऋषि ने उनके ऊपर सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। दुर्वासा कहता था की तू यह साधना छोड़ दे, मैं बताऊं वह कर। अंभरीष ने हां तो भर ली, पर छोड़ी नहीं। अगली बार गया उसने गुस्सा हो गया। कि तू माना नहीं मेरी बात? तेरा सिर काट दूंगा। इतना गुस्सा, सुदर्शन चक्र छोड़ दिया। सुदर्शन चक्र राजा अंभरीष के पैर छूकर और दुर्वासा को मारने के लिए वापिस चल पड़ा। दुर्वासा भागता फिरे। तीन लोक में कहीं उसको गुफा नहीं मिली, जहां बच जावे। कोई संरक्षक नहीं पाया। परमात्मा कबीर जी ने विष्णु रूप बनाया। एक सभा लगा दी एक मिनट में क्या कर्म नहीं कर दे ये पल में।
दुर्वासा ने देखा यह भगवान विष्णु बैठे हैं वहीं पहुंच गया और कांपे। डांक ठोक रखी। मुझे बचा लो, भगवान बचाओ मुझे, सुदर्शन चक्कर मुझे मारेगा। परमात्मा बोले क्या गुस्ताखी कर दी? क्यों मार रहा है यह तेरे को? फिर वह सारी कहानी बता दी। भगवान बोले की भक्ति के भाव से चलो। यह ताकत से नहीं चलता यह मार्ग। अपना ज्ञान दो कोई माने ठीक है नहीं माने, मत नहीं मानो। मुझे बचाओ भगवान, मुझे बचाओ। उस समय सुदर्शन चक्र रुक गया, खड़ा हो गया दूर भगवान की शक्ति से। डर के देख के। तो दुर्वासा को विश्वास हो गया कि यहां बचाव हो सकता है। माफ़ करो, मुझे माफ़ करो। परमात्मा बोले अंभरीष के पैर पकड़। वह बचाएगा तुझे इससे। मैं नहीं बचाऊंगा।
हाथ जोड़े। हे भगवान! आपके दरबार में मैं नहीं बचूंगा, कहां भेजो? हे दाता! मुझे तो रास्ते में मारेगा। बोला जा वहीं जान बचेगी तेरी। अंभरीष के चरणों में गिरा वह जिसने 56 करोड़ यादव मार दिए थे एक वचन में। कहते हैं, अपनी देसी कहावत है, “हमारे यहां (शेर ने सवा शेर ज़रूर टकराया करें ज़्यादा बकवास करने वाले को)” अंभरीष के चरणों में माथा रखा उसने। मेरी जान बख्शो महाराज! जान बख्शो। बक्श दो। अंभरीष राजा बोले महाराज! मैने कुछ नहीं कहा। तेरा कर्म तुझे मिला और सुदर्शन चक्र हाथ से पकड़ लिया राजा अंभरीष ने और off (ऑफ-बंद) कर दिया। शांत हो गया। बोल्या ले, लेजा तेरी तोप और भक्ति के भाव रहना चाहिए इंसान को।
बच्चों! अंभरीष राजा की इतनी महिमा हो गई ऋषि भी हैरान थे जो उनके गुरु लोग थे। बंदी छोड़ कहते हैं,
“मन तू सुख के सागर बस रे, और ना ऐसा यश रे।। तू सुख के सागर बस रे।
ये झूठे यशों में कुछ नहीं धरया (रखा)। वहां सतयुग में महिमा हो गई फिर राजा जनक बन गए। राजा जनक, वही आगे बाबा नानक बने। जब एक सुखदेव नाम के बाल ब्रह्मचारी मां के गर्भ से भक्ती ले रहे थे और आकाश में उड़ जाने की सिद्धि थी। उस हल्दी की गांठ से पंसारी बन जाते हैं ये। अब अपने बराबर किसी को नहीं समझते। राजा जनक के पैरों में पड़के (गिरकर) स्वर्ग तक जाने का ब्योंत (जुगाड़) करवाया। वो मोक्ष तो बहुत दूर की बात है वह तो मार्ग ही अलग है।
गरीब सुखदेव ने चौरासी भुगती, बना पजावे खर वो। तेरी क्या बुनियाद प्राणी, तू पैंडा पंथ पकड़ वो।।
की सुखदेव जैसे ऋषि जिसकी तूती बोला करती सारे देवता भी उसका सम्मान करते थे की बड़ा पहुंचा हुआ है। वह भी फिर चौरासी लाख योनियों में गया। राजा जनक से दीक्षा ली। पहले तो यह कहता था मैं बाल ब्रह्मचारी, ब्राह्मण ऋषि।
जनक विदेही राजा भाई। कैसे शीश निवाऊं जाई।। सुखदेव बोले ज्ञान विवेका। हमने स्त्री का मुख नहीं देखा।।
और राजा के 10,000 रानियां। तो गरीबदास जी कहते हैं,
गोरख से ज्ञानी घने, ये सुखदेव जति जहान। वह अपने आप को जति मान रहा था।
और सीता सी बहू भार्या, संत दूर अस्थान।। संत के घर बहुत दूर है। इन बातों से नहीं की इसने विवाह करवा रखा है, इसका यह हो रहा था यह संत कैसे हो सकता है ? 10,000 रानी थीं फिर भी उस नकली से तो वह भी अच्छा था राजा जनक।
बच्चों! यह मूल ज्ञान है। यह निचोड़ है, निष्कर्ष है, यह तत्वज्ञान है और राजा जनक रूप में बहुत ज़्यादा यज्ञ किये बहुत प्रमाण हैं पुराणों में। बहुत धर्म भंडारे लगाए। यानी दूध वाली गाय बांटी साधू संतों को। तो वह धर्म-पुण्य बन गए। अब देखो, काल कैसे ठगी करता है।
बच्चों! सारे point (पॉइंट-बिंदू) याद रखने पड़ेंगे। बिना मतलब अपने धन को खोया नहीं करते। राजा जनक और सुखदेव विमान में बैठकर स्वर्ग जाने लग रहे। रास्ते में 12 करोड़ आत्माएं नर्क में तंग पा रही थी। हाहाकार मचा, रोवें। राजा जनक ने कहा यह आवाज़ कहां से आ रही है चिल्लाने की? रोको मेरा विमान रोको। रोक दिया।
उनको बताया गया कि यहां एक नर्क है उसमें 12 करोड़ आत्माएं जीव अपने कर्मदंड भोग रहे हैं, पाप। राजा ने कहा इनको छोड़ दो। इनको कष्ट मत दो। तो वहां जो उनके साथ गए थे देवदूत-यमदूत वह कहने लगे जी! यहां आपका हुकुम नहीं चलता। यहां का राजा धर्मराज है। उसके आदेश से सब कुछ होता है। बोला या मुझे इस नर्क में डाल दो, मुझे भी यही छोड़ दो। नहीं इनको निकालो। धर्मराज तक बात गई। धर्मराज जी वहां आए, बात सुनी।
धर्मराज बोले राजन! अपने-अपने कर्मों का फल सबको भोगना पड़ता है। ऐसे नहीं कुछ हो सकता। तो राजा अकड़ गया। भाव यानी एक परमार्थी भाव परमार्थ भी हिसाब का होना चाहिए। बकवाद में कोई परमार्थ नहीं चला करे। की या तो मुझे यहां छोड़ दो या इनको साथ लो मेरे। तब धर्मराय ने एक विकल्प निकाला की, आप अपने पुण्य दे दो इनको आधे या जितना चाहते हो उतने समय तक इनको आपके साथ वहां स्वर्ग में भेज देंगे। राजा ने 50% (पचास प्रतिशत) पुण्य दान कर दिए। सबको बैठाकर, 12 करोड़ आत्माओं को विमान में बैठाकर और स्वर्ग ले गए।
बच्चों! सुखदेव ने यह गलती करी नहीं। वो तो आज तक स्वर्ग में है और वो राजा जनक ने आधे पुण्य खत्म कर दिए। बाकी के पुण्य स्वर्ग में पल्ला झाड़कर, खाकर, खर्चकर खो खंडा कर बाबा नानक रूप में जन्मे। पहले राजा थे, दो जन्मो में। दुनियाभर के नौकर होते थे और फिर hand to mouth (हैंड टू माऊथ-मुश्किल से गुज़ारा करना) हो गए। खुद नौकर लगे फिर नवाब के मोदी खाने में। गोदाम में।
अब बच्चों! अब हमने सावधानी ऐसे भी बरतनी है अपने नाम को, अपने भक्ति को नष्ट नहीं करें, किसी पर भावुक होकर। एक बता रहा था की, मैंने अपने भाई दुखी हो रहा था उसको अपने पुण्य दे दिए, भक्ति दे दी। वह तो ठीक हो गया। मेरी दुर्गति हो रही है। बुरा हाल हो रहा है। बहुत दिक्कत हो गई, बीमारी हो गई।
आगे से आगे दुख होने लग गए। तो यह बकवाद नहीं चलें। मर्यादा जो बनाई है उसको संभालो। तो कहने का भाव यह है आपको इस पॉइंट पर लाना चाहता हूं अब, राजा जनक, राजा थे। राजा अंभरीष राजा थे, वही बाबा नानक बने, खुद नौकर लगे राजा के। अब यहां आकर हमारी बात रुकती है।
की साधो सेती मस्करी, ये चोरां नाल खुशहाल। मल अखाड़ा जीतेंगे, यह युगन-युगन के माल।।
यानी भक्ति की चाहत, भगवान की चाहत उनमें तब भी थी पर exercise (एक्सरसाइज़-क्रिया) गलत थी। अब परमात्मा फिर मिले उनको आकर के। अब वह भौतिक धन में निर्धन थे। पर अध्यात्म धन के भरे पड़े थे। पिछले पुण्य गजब के थे भक्ति वाले। एक तो धर्म-कर्म किए होते हैं, वह और एक होती है भक्ति की शक्ति। वह ऐसी की ऐसी रुक रही थी उसकी। वह पुण्य खत्म कर दिए थे उसने। तो वह भक्ति, उस कारण से परमात्मा फिर आकर मिले। अब वह हैंड टू माऊथ था सुन ली। राजा होता तो तब भी नहीं सुनता।
तो बच्चों! आज आप चाहे कितने ही निर्धन हो और कितने ही धनवान हो आप उस मालिक के सच्चे बच्चे हो पिछले जन्म-जन्मांतर से आप भक्ति करते हुए आ रहे हो। अब परमात्मा ने अपना वह धन देखना है।
कबीर, सब जग निर्धना, धनवंता नहीं कोई। धनवान वाको जानिए, जिसपे राम नाम धन होए।।
आपके पास वह राम नाम का धन भरा पड़ा है और जैसे सुकुच मीन मिलता नहीं भाई, स्वांति सीप सब हेले जाहिं।। ओय होय! सुकुच मीन सतगुरु हो आया जिन परमात्मा का भेद बताया। जैसे सीप और मोती का उदाहरण दिया जाता है की स्वांति भी मिल गई सीप को ऊपर की बूंद, मोती भी बन गया। लेकिन एक सुकुच मीन यदि उसमें टक्कर नहीं मारें उसने खोले नहीं तो वह मोती अंदर ही गल जावे और वह सीप भी मर जावे।
तो बच्चों! यह भक्ति धन तुम्हारा अबकी बार भी ऐसे ही गल मर जाता। सतगुरु नहीं मिलता तो। तो अब आपका वह मोती सुरक्षित है। अब कहते हैं सुकुच मीन सतगुरु हो आया, जिन परमात्मा का भेद बताया।।
तो बच्चों! फिर बाबा नानक को मालिक ऊपर लेकर गए और उनको वह सच्चा राह बताया। उसके बाद उनकी ज़िंदगी बदल गई। नहीं तो पहले वकील हो रहे थे काल के। सुने नहीं थे।
अब बच्चों! बाबा नानक जी हिंदू धर्म में जन्मे थे। खत्री गोत्र था और भगवान विष्णु, कृष्ण, राम कुर्बान थे इनके ऊपर। गीता का पाठ बृजलाल पांडे से पढ़ा करते थे और गीता पढ़ते थे। दाता मिले तो खूब तर्क-वितर्क किये। आखिर में बोले आंखों देखूं तो मानूं। तो परमात्मा ने Eye Witness (आई विटनेस-ग्वाह) भी बनाने थे। बेई नदी सुल्तानपुर के साथ से बह रही है। सुल्तानपुर में बाबा नानक की बड़ी बहन विवाह रखी थी। वहां अपनी बहन के वहां रहते थे। नौकरी करते थे नवाब के।
सुबह-सुबह स्नान करने जाया करते थे नदी पर। वहां परमात्मा ने दो-तीन मीटिंग की। तीसरी बार जब आए ऐसे बोला आंखों देखूं तो मानूं। बात सारी समझ में आ गई । गीता बार-बार देख ली। पढ़ ली की सच्चाई भगवान कोई और है और चाह भी रहे थे। पर पुराना ज्ञान और कोई ऐसा समर्थक नहीं की यह बात सच्ची है। तो वह कहने लगा की आंखों देखूं तो मानूं। कबीर साहेब और बाबा नानक जी, परमात्मा समकालीन थे। बाबा नानक जी का जन्म सन 1469 में हुआ। Sixty nine (सिक्सटी नाइन-उनहत्तर) 1469 और 1539 में वह शरीर छोड़ कर गए और परमात्मा जी 1518 में गए।
तो 1469 से 1518 तक समकालीन थे। तब आखों देखा सतलोक, तीन दिन तक। नानक साहेब जी का शरीर कहीं और छुपा गए, उनकी आत्मा को लेकर गए, फिर छोड़ा तीसरे दिन। उसके बाद तो दुनिया बदल गई उनकी। वह सब पूजाएं त्याग। मालिक की शरण में आ गए। घर में विरोध, सारे समाज में विरोध। उसके पिता भी बहुत दुखी हो गए की तू क्या पैदा हो गया हमारे? देवी-देवताओं को ऐसा गलत बोलता है। तो बहुत परेशान हुए लेकिन जब आंखों देख ली कौन सुने किसकी। शूरवीर होते हैं संत। संत, सिपाही और शेर पीछे नहीं हटते।
तो बच्चों! यह सारा ज्ञान सत्संग से होता है। परमात्मा का और उस प्यारी आत्मा का। आत्मा और परमात्मा नानक साहेब का सत्संग हुआ। सत्संग से बात स्पष्ट हुई। अब पारख के अंग की वाणी सुनाता हूं कुछ।
साधो सेंती मस्करी, ये चोरों नाल खुशहाल। मल अखाड़ा जीतेंगे, यह युगन-युगन के माल।।
अब वह बाबा नानक युगन-युगन के माल थे और वही जीते। डटकर खड़े हो गए जब ज्ञान समझ में आ गया, सारा संसार। मीराबाई थी युगन-युगन की माल।
सत्संग में जाना नहीं छूटे माँ यो जलकर मरो संसार।
तो बच्चों! इस स्थिति में तुम्हें आना पड़ेगा एक दिन। तब दाता राजी होगा और यह ज्ञान खुद देता है भगवान और वह आत्मा जो इसको सुनकर कुर्बान हो जाती है। वह महान आत्मा होती है।
गरीब, हंस गवन करते नहीं, मानसरोवर छाड़। कौवे उड़-उड़ जात हैं, खाते मासा हाड़।।
हंस और कौवे और बुगले सब पक्षी कहलाते हैं। हंस उस मानसरोवर को नहीं छोड़ता जहां उसका आहार मोती होते हैं और कौवे वहां रुके नहीं क्योंकि उनको तो जगह-जगह जाकर मांस खाना, हाड़ खाने, हाड़ों का मांस चाटना। किसी पशु के जख्म में चोंच मारना यह कौवे जैसी वृत्ति के लोगों का स्वभाव होता है की दुखी उनका अपना उल्लू सीधा हो, स्वार्थ सिद्ध हो बाकि अगला कितना ही दुखी हो। यह कौवे जैसे जीव होते हैं। अब यहां बताते हैं, कबीर साहेब कहते हैं;
गरीब हंस गवन करते नहीं, मानसरोवर छाड़। कौवे उड़ उड़ जाते हैं, खाते मांसा हाड़।। गरीब मानसरोवर मुक्ति फल, मुक्ता हल्के ढेर। कौवा आसन ना बंधे, जे भूमि दीन सुमेर।। गरीब कौवा रूपी भेख है, नहीं प्रतीत यकीन। अड़सठ का फल मेट कर, भए दीन बेदीन।। गरीब हंस दशा तो साध हैं, सरोवर है सत्संग। मुक्ताहल वाणी चुगें, फिर चढ़त नवेला रंग।।
अब स्पष्ट कर दिया की यह सत्संग जो है, यह मानसरोवर है और भगत साध यह हमारे हंस हैं और कौवे, बुगले, तो मेंढक, मछली, अड़ंगा, कुबाड़ बकवाद करते हैं और हंस केवल मोती खाता है। इसी प्रकार निर्विकार जो भगत आत्मा बन गए बेटा या बेटी वह हंस जैसे हैं वह केवल मालिक की वाणी, परमात्मा की भक्ति और धर्म-कर्म रूपी मोती खाते हैं और फिर यह मोती खाकर यानी सत्संग वचन सुनकर फिर चढ़त नवेला रंग।
एक अजब-गजब, रंग, रंग जाता है उसकी आत्मा में। आत्मा इतनी मजबूत हो जाती है जैसे बाबा नानक की हो गई। जैसे मीराबाई की हो गई। ऐसी आपकी भी होवेगी। इस सत्संग से होवेगी।
बच्चों! यह सत्संग मिला ही नहीं था अपने को आज तक। यह परमात्मा की कलम तोड़ कृपा आप पर देखो रे यह कहां से होने लग रही रे। उस मालिक ने उस परमात्मा ने कहे यह वचन। याद कर लो की,
सतगुरु जो चाहवे सो करहीं। चौदंह कोटि दूत यम डरहीं।। यह जो चाहे सो करलो यह प्रमाण देख लो। यह कर दिया। ऊत भूत जम त्रास निवारे, और चित्रगुप्त के कागज फाड़े।।
पुण्य आत्माओं! धन्य हैं आपके माता-पिता जिनसे जन्म हुआ और धन्य है आपकी किस्मत, धन्य है आपकी पिछली करणी और धन्य है आपके इस समय को, की आपका जन्म इस समय में हुआ है। इस मालिक के प्रयत्न को, दास के इस प्रयत्न को हल्के में ना लेना।
पुण्यआत्माओं! उस दाता की अमर कथा आपके हृदय में भर रहा हूं। यह अमृत आहार आपको करवा रहा हूं। बच्चों! कुर्बान हो जाओ। समय पहचान लो। यह टाइम बार-बार नहीं हाथ आयेगा आपके। यह सांसारिक धंधे तो कर-कर मर लिए। इनमें फिर भी पूरा नहीं पटता। इस मालिक की तरफ ध्यान ज़्यादा दो। हर चीज़ में बरकत दिखा दूंगा न्यारी-न्यारी। परमात्मा आपको मोक्ष दे। आपको समय दे इस अनमोल रत्न, इस मानसरोवर में नहाने का आत्मा के मैल कटाने का।
सत साहिब।।