सतगुरु देव की जय।
बंदी छोड़ कबीर साहेब की जय।
बंदी छोड़ गरीबदास जी महाराज की जय।
स्वामी रामदेवानंद जी गुरु महाराज जी की जय हो।
सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो।
सर्व संतों की जय। सर्व भक्तों की जय। धर्मी पुरुषों की जय। श्री काशी धाम की जय। श्री छुड़ानी धाम की जय। श्री करोंथा धाम की जय। श्री बरवाला धाम की जय।
सतसाहेब
गरीब नमो नमो सत्य पुरुष कूं, नमस्कार गुरु कीन्हीं। सुरनर मुनिजन साधवा, संतों सर्वस दीन्हीं।। सतगुरु साहिब संत सब, दंडोत्तम प्रणाम। आगे पीछे मध्य हुए तिंकू जा कुर्बान।।
बच्चों! धन्य हैं आपके माता-पिता जिनसे आपका जन्म हुआ। धन्य हैं आपके पिछले जन्मों की भक्ति और संयम। उसी के परिणामस्वरूप, आज आप परमात्मा की शरण में आए हो।
लख बर शूरा झूझही, लख बर सांवत देह। लख बर जती जहान में, तब सतगुरु शरणां ले।।
भावार्थ है की आप इतने अच्छे धर्म-कर्म वाले व्यक्ति रहे हो लेकिन मोक्ष नहीं मिला। मोक्ष ना मिलने का कारण परमात्मा पर अविश्वास रहा। जिस भी धर्म, मज़हब, जाति के अंदर हम जन्मे, हम अपनी क्रियाओं को उत्तम मानते रहे। परमात्मा के ज्ञान से प्रेरित होकर कुछ दिन भक्ति ज़रूर की। लेकिन एक से अनेक, अधिक नहीं थे हम। फिर हम रह जाते थे। लेकिन यह परमात्मा हमारे पिता हैं, कबीर साहब हमारे सच्चे साथी हैं। हमारे एकमात्र हितैषी हैं काल के इन 21 ब्रह्माण्ड रूपी नरक में।
बच्चों! आज कबीर साहब कहते हैं;
यह झुठे सुख को सुख कहे, यह मान रहा मनमोद। यह सकल चबीना काल का कुछ मुख में कुछ गोद।।
हम इस झूठे सुख को सुख मान रहे हैं, थोड़ा सा धन हो गया, कार कोठी हो गई, बेटा-बेटी हो गई और फिर सारा दिन बकवादों से अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता। धन जोड़ लूं , हेराफेरी कर लूं और अधिक पैसा हो जाता है। राजनीति में आ जाऊं यानी महिमा की भूख बनी रहती है और यह हमारे जन्म-मरण का मुख्य कारण है। जैसे आप धर्मदास जी के प्रसंग में सुन रहे हो कितनी तड़प थी, कितना धन था लेकिन कुछ भी बन ले, राजा भी बन ले। महाराजा बन ले। सेठ बन ले और चाहे गरीब-निर्धन बन। अब निर्धन को तो वैसे ही संतुष्टि नहीं। वो चाहता धन चाहिए, धन है तो सुख है। जिसके संतान नहीं है, वो चाहता है संतान है तो सुख है। कोई चाहता हैरा सेठ, धन वाला सोचता है कि मुझे कोई सुख नहीं। सुख तो इन राजे-महाराजाओं को होता है। राजे- महाराजाओं को तो सुपने में भी सुख नहीं होता।
बच्चों! यह बात जिस दिन आपके हृदय में बैठ जाएगी कि यह सुख है ही नहीं। रात को भी नींद नहीं आती इन राजाओं को, नेताओं को। लेकिन कुछ दिन कमांड चलती है इनकी। इसी में फूले रहते हैं। फिर यह भी सोचते हैं कि स्वर्ग में सुख होगा। स्वर्ग के राजा इंद्र वो भी महा दुखी। 24 घंटे tension (टेंशन-चिंता) रहती है। के कोई तप करले और कोई तेरे इस राज ने छीन ना ले। स्वर्ग का राजा नीचे यज्ञ करके या तप करके बनता है और उसमें एक शर्त होती है कि तेरे शासन के दौरान, तेरे शासनकाल में, यदि कोई पृथ्वी पर ऐसा तप कर लेगा जो खंड ना हो, कुछ समय निर्धारित है और सौ अश्वमेध यज्ञ निर्बाध कर गया तो तेरी पदवी को छीन लिया जाएगा और उसको यह पद दिया जाएगा।
तो बच्चों! उस राज को बनाए रखने के लिए इंद्र कती (बिल्कुल) हद भी पार कर देता है, अति कर देता है। इज्ज़त-बेइज्ज़ती का सवाल भी नहीं रहता। एक प्रसंग आता है, मारकंडे गोसाईं तपस्या कर रहे थे, बंगाल की खाड़ी में। इंद्र को पता चला कि एक साधक मारकंडे, बहुत ज़बरदस्त तप कर रहा है और कुछ दिनों में उसका तप संपूर्ण होने वाला है और तेरी गद्दी जाएगी। उसने अपने देवता गुप्त रूप में गुप्तचर छोड़े होते हैं, इंद्र ने अपनी पत्नी भेजी। उसका धर्म, खंड करने के लिए। कती अंत हो जाता है, आदमी जब अपनी पत्नी को परपुरुष के पास भेजता है।
यहां कती गिरावट की अंत आ जाती है। इतना ज़लील होना पड़ता है और इस राज्य को बनाए रखने के लिए और वो भी हार जाती है। फिर इंद्र जाता है। यह लंबी कथा है फिर कभी बताएंगे। मार्कंडेय ऋषि इंद्र की पदवी को टारगेट करके तप नहीं कर रहा था। यह ऋषि क्या करते रहते हैं, ओम नाम का जाप करते और तप, यह दोनों करते हैं। तप तो इन्होंने ब्रह्मा जी से लिया। ब्रह्मा जी कमल के फूल पर बैठे थे जब वो होश में आए। कमल जल पर होता है, कमल का फूल। सब जगह जल ही जल था। आकाशवाणी हुई कि तप करो यह आकाशवाणी उसने भगवान की मानी। 1 हज़ार वर्ष तक तप किया। फिर आकाशवाणी हुई सृष्टि रचो। यानि जीव उत्पत्ति करो।
तो कहने का भाव यह है बच्चों! फिर बाद में इनको वेद मिले। ब्रह्मा ने वेद पढ़े। यह सारे ब्राह्मण ब्रह्मा की संतान हैं। इनका सबका गुरु ब्रह्मा जी है। ब्रह्मा जी ने इनको बताया ओम नाम का जाप वेद में लिखा है। बच्चों! ब्रह्मा जी ने वेदों को पढ़ा। उसमें यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 15 में ओम नाम है। चारों वेदों में कहीं और दूसरा नाम नहीं और ना दोबारा ओम का ज़िक्र है। इन्होंने ओम नाम तो वेदों से ले लिया और तप आकाशवाणी मान ली भगवान की। ब्रह्मा जी ने। उसी ऋषियों ने उसी आधार पर साधनाएं कीं। मारकंडे भी वही डले ढो रहा था।
उसको इतना ज़रूर पता था कि इंद्र का राज एक आने का नहीं। ओम के जाप से ब्रह्म लोक प्राप्ति होती है। तो वो ओम नाम का जाप करता था, उधर से वो तप भी करता था। ओम नाम के नाम से ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में गीता बोलने वाला प्रभु कहता है,
ॐ, इति, एकाक्षरम्, ब्रह्म, व्याहरण, मम, अनुस्मरण, यः, प्रयाति, त्यजं, देहम्, सः, याति, परमाम्, गतिम्।।
मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम नाम है। जो इसका अंतिम सांस तक, भक्ति करते हुए शरीर छोड़कर जाता है वो ओम नाम से मिलने वाली परम गति यानी ब्रह्म लोक को प्राप्त होता है। “ब्रह्म लोक को प्राप्त होता है”, यह कहां प्रमाण है? श्रीदेवी महापुराण छठे अध्याय में श्रीदेवी जी, दुर्गा जी राजा हिमालय को बताती है। राजा हिमालय कहता है, कि “मुझे मोक्ष मार्ग बताओ।” वो देवी का परम भक्त था। देवी ने राजा हिमालय को बताया कि ओम नाम का जाप कर इससे ब्रह्म की प्राप्ति होवेगी। दिव्य आकाश रूपी ब्रह्म लोक में रहता है।
इति सिद्धं। ओम नाम के जाप से ब्रह्म लोक प्राप्ति है। गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में लिखा है कि ब्रह्म लोक में गए साधक भी पुनरावृति के अंदर हैं। दोबारा जन्म-मृत्यु में आते हैं। अब जो भी, जो साधना कर रहा है उसको अति उत्तम मानकर, कर रहा है। ना तो करे कोनी (नहीं करें) इच्छा ही नहीं बने उसकी। बताओ! इनको यह नहीं पता तुम कर कै (क्या) रहे हो? इसका प्रतिफल क्या होगा?
एक कथा सुनाऊं, छोटा सा चुटकुला। सच्चाई है, चुटकुला नहीं उदाहरण। दास के पास, एक बहन दूसरी बहन को ले के आई। उसका पति शराब पिया करता और रोज़ पीटे, झगड़ा रखे। तो जो लेकर आई थी, उसका पति भी इतना नालायक था। परमात्मा ने दया करी वो सुधर गया और तगड़ी भक्ति करन (करने) लग गया। खूब सुधर गया, चर्चा हो गई गांव में। तो वो बहन बोली ‘जी मैं तो अपनी बहन को देखकर आई हूं जिसके सारे सुख हो गए।’ मैंने कहा, “बेटी आपके भी होंगे। आपको यह हमारी मर्यादा का पालन करना पड़ेगा।” वो बोली जी, ‘मैं व्रत ना छोड़ूं।’ वो 16 शुक्रवार के व्रत करती हूं। 16 शुक्रवार के व्रत करने हैं, अभी 5-6 हुए हैं मेरे। मैं बोला, “हमारा नाम लेना है तो बेटी सब त्यागने पड़ेंगे। यह व्रत रखती किस उद्देश्य से है, के लाभ होगा आपको?” फिर पता बताई थी किसी ने, कि तेरा पति शराब छोड़ देगा। पहले 16 शुक्रवार के व्रत के प्रतिफल बताऊं के हों से। इसका लाभ क्या है? यह आन उपासना, यह डले ढोने वाले क्या बताते हैं? के एक बहन का पति प्रदेश में गया था और वह तीन चार साल तक आया नहीं।
उसने किसी ज्योतिषियों से दिखाया, पत्रे हाथ दिखाए। किसी ने बता दिया कि तेरा पति तुझे भूल चुका है। तेरी याद नहीं रही। माता संतोषी के व्रत रख 16, तेरा पति वापस आ जाएगा। उसने व्रत रखने शुरू किये शुक्रवार के, सोलहवें दिन, सोलहवें व्रत वाले दिन वापस आ गया। यह है इसका फल। और मैं बोला तेरा पति रोज़ आवे और रोज़ कूटे। गाड़ेगी उसे बता, के फूंकेंगी। बुद्धि कहां बिक गई तुम्हारी। तने (तुझे) तो रखना ही नहीं चाहिए। दो-चार दिन नहीं आवे तो बढ़िया। पिटाई तो ना होवे।
कहने का भाव यह है बच्चों!
इन गुरुआं गाम बिगाड़े संतों। गुरुआं गाम बिगाड़े। ऐसे कर्म जीव के ला दिए ईब झड़े नहीं झाड़े।।
तो मार्कंडेय ऋषि इंद्र से कहता है, इंद्र तू ये इंद्र की पदवी छोड़ दे। अगले जन्म में गधा बनेगा। इंद्र कहता है कि जी फेर की फेर देखी जाएगी। ईब तो मौज करन (करने) दो। बता हमारी बुद्धि यहां तक सेट हो चुकी है। फिर के देखेगा? फिर तो कुम्हार देखेगा। कड़ में मारेगा लठ, ढ़ाई मन का रखेगा सामान फिर कमर पर। मार्कंडेय ऋषि उसको कहता, तू मेरे वाली साधना कर ले। तुझे ब्रह्म लोक पहुंचा दूंगा। बच्चों! वो कहते हैं ना,
भेड़ की लाज वो गोडयां तले तले।
ये कहीं जा लो। इनका यह इतना ज्ञान है और इतनी उनकी अंतिम भक्ति है। अब प्रसंग चल रहा है धर्मदास जी का। यह डले धर्मदास जी ने खूब ढो लिए थे और जब आंख खुली। ओये होये होये! अब परमात्मा उनको छोड़कर चले गए। दोनों पति-पत्नी देखते ही रह गए। आंखो में आंसू टपक रहे थे। ओझल हो गए भगवान, जब गली से अंदर आए और आकर खूब रोए, अंदर बैठकर। के ईब (अब) पता नहीं आवेंगे (आएंगे) कि ना आएंगे। ना ये नाम गाम बताते। यह भी कमाल हो गया। परमात्मा फिर आते हैं। आए तो धर्मदास जी ने बोले, खुशी मनाई, चरण पकड़ के बहुत कुछ प्रश्न-उत्तर किये। आखिर में कहने लगे धर्मदास जी हे प्रभु!
अविगत कला तुम्हारी, हम हैं कीट जीव व्यभिचारी। सतलोक तुम वर्ण सुनावा, शोभा पुरुष हंसन सतभावा।
हे परमात्मा! आपने सतलोक बताया। आपने परमात्मा की शोभा बताई। वहां रहने वाले हंसों का भी बड़ा गज़ब का सुख बताया।
कैसन देश राज व आही, चित् इच्छा प्रभु देखन ताही।।
के वो कैसा देश है? कैसा लोक है? मेरा मन करता है मैं उसने देखूं। परमात्मा बोले, ‘धर्मदास ये निर्घनी काया। निर्घनी, ये बेकार, इसमें अड़ंगा भरा पड़ा है। काम, क्रोध, लोभ, विष्टा, थूक, ब्लड, टट्टी, पेशाब इसमें कैसे दर्शन होंगे! उस भगवान के। मैं जो बताता हूं, तू ऐसे भक्ति शुरू कर दे और जब शरीर छोड़कर जाएगा तो आपको परमात्मा के दर्शन हो जाएंगे। सतलोक भी देखिए और वहां सारे अपने बहन-भाईयो में खुशी ते (से) रहना।’
धर्मदास, यह निर्घनी काया, यह तन पुरुष दर्श कीमे पाया।।
इस तन में भगवान कैसे दिखेगा?
तन ठिका जो पूरा हो भाई, सतलोक तुम देखो जाईं।
जब तेरा ये शरीर का समय पूरा हो जाएगा, ये जीवन फिर इसको छोड़कर सतलोक देख लिए जाकर।
धर्मदास यह चरण निहोरा, है प्रभु तृषा मिटा हो मेरा। चरण टेक प्रभु बिन विहोई, पुरुष दर्श बिन कल नहीं मोही।।
दोनों चरण पकड़कर, धर्मदास न्यू (ऐसे) बोला हे भगवान! एक बार दिखा दो। मेरी यह भगवान के दर्शन की प्यास मिटा दो। उसके दर्शन के बिना एक पल की भी चैन नहीं होगी। परमात्मा बोले, “भाई मैं ही हूं वो प्रभु। सारी सृष्टि का मालिक मैं हूं। मैं आपका गुरु हूं। दीक्षा दी धर्मदास जी को फिर। मैं आपका गुरु हूं। मैं आपका भगवान हूं। मैं सतपुरुष हूं और मेरा ही नाम कबीर है।” लेकिन उसके यह बात समझ में नहीं आई और बार-बार यही कहने लगा के भगवान के दर्शन करा दे। भगवान के दर्शन करा दो। जब मेरी आत्मा मानेगी।
बच्चों! विचार करो। पहले हम किसी की भी भक्ति शुरू कर दी राम की, कृष्ण की, शंकर भगवान की, विष्णु भगवान की, किसी की भी और सब स्वर्ग बताया करते, कदे कही हमने कभी के स्वर्ग दिखाओ जब मानूंगा और जब ठीक ठिकाना आता है यह मन अड़ियल घोड़े की तरह अड़ कर खड़ा हो जाता है। इसने केवल बकवाद करवानी, अच्छे राह पर लगते समय सौ-सौ बाधा पैदा करता है। यह मन अड़ रहा था।
गुप्त भये प्रभु अविगत ताता, धर्मदास मुख आवे न बाता।।
जब इतनी ज़िद्द करी, परमात्मा अंतर्ध्यान हो गए और धर्मदास वो मुंह खुले रह गया। ना हां करे, ना बोले या के बनी। क्या कहने लगा।
मैं मतिहीन कुमति मोहे लागा। मोहि सम कौन है जग में अभागा। मैं मूर्ख प्रतीत ना कीन्हा। अ साहब कह मैं न ही चीन्हा। अब कौन विधि दर्शन पाऊं, दर्शन बिना मैं प्राण गवाऊं।। चरणों दक बिन करुं न दरासा, तजूं शरीर कहे धर्मदासा।
अब क्या कहता है। मैं बड़ा निकम्मा, मैं दुष्ट आत्मा, मतिहीन। कितना मुंह ला लिया भगवान ने मेरे को और देख मैं कितनी ज़िद्द कर गया। मेरे जैसा निर्भाग धरती पर नहीं। मैं मूर्ख, मैंने भगवान पर विश्वास नहीं किया, फिर वह रोवै बुरी तरह। इस मन की यह गंदी आदत है।
अब कौन विधि दर्शन पाऊं। दर्शन बिना में प्राण गवाऊं। चरणों दक बिन करूं न ग्रासा।।
जब लग उनके चरण धोकर नहीं पी लूंगा, मैं अन्न नहीं खाऊंगा।
तजूं शरीर कहे धर्म दासा। नहीं तो मरूंगा।
दिवस सात लग अन्न न खावा। भजन अखंड नाम लौ लावा। जो नाम दिया था उसमें डटकर भक्ति करता रहा। ना कुछ खाया ना पीया।
सातवें दिन प्रभु प्रगट दिखाए। धर्मदास पद गया भुलाए।।
सातवें दिन परमात्मा आए। धर्मदास ने पैर तड़पते हुए, पड़े पड़े ने पैर पकड़ लिए।
धड़हीन स्वासा निपट अधीरा। पड़े चरणन में अक्षीण शरीरा।।
शरीर बहुत कमज़ोर हो गया था। धरती पर पड़े-पड़े ने सरक कर मालिक के चरण पकड़ लिए।
कर गए साहेब ताही उठावा। शीष हाथ दे अंक मिलावा।।
परमात्मा ने उस पर अपने हाथ का सहारा देकर उसको खड़ा किया और अपने सीने से लगाया।
धर्मदास चरणोंदक लीन्हा। चरण पखार आचमन कीन्हां।।
धर्मदास ने फिर उठकर जल लाया, परमात्मा के चरण धोकर पीए। परमात्मा बोले हे धर्मदास! प्रसाद कुछ पाओ, कुछ खा लो। कर प्रसाद तो मो पे आओ।
मेरे पास आओ फिर मैं तुझे सारा ज्ञान बताऊंगा। तो धर्मदास ने जल्दी-जल्दी कुछ खाया। उसको यह टेंशन थी कि कदे (कहीं) चले ना जां (जाएं) थोड़ा बहुत खाया, पानी पीकर फट दे ने (जल्दी से) आकर बैठ गया।
धर्मदास के सरनाई, सुन प्रभु अगर अपार सात दिवस कहां रहे, कौन देश पगडार।।
तो परमात्मा से पूछने लगा भगवान आप कहां रहे। कैसे-कैसे रहे? कहां गए? फिर उसी बात पर आकर अड़ गया। हे प्रभु!
चिंता गण कर मोरा, पुरुष दर्श दे करो निहोरा। हे प्रभु चिंता गण मोरा पुरुष दर्श दिखाओ करूं निहोरा।।
मैं हाथ जोड़ूं, आपके निहोरे निकालूं। मुझे भगवान के दर्शन दिखा दो। परमात्मा कहते,
“धर्मदास यह हठ का करहूं। मानो शब्द शीष पर भरहूं।।”
मैं जो कहूं वह मान ले तू। हमरे गहे पुरुष पे जहे। बिना गहे वहां जा न पहे। अब मेरे नाम को तू ठीक से जप। मैं मिल गया, गुरु के बिना उस भगवान की प्राप्ति नहीं हो सकती।
हम सों पुरुष ऐसा आही, जल तरंग जल अंतर नाहीं।।
के भगवान में और मेरे मैं इतना अंतर समझ ले, इतना भी अंतर नहीं है जैसे समुद्र से लहरें उठती हैं, लहर और जल अलग नहीं होता। बच्चों! धर्मदास जी को खूब समझाने की चेष्टा की।
के हमरी सूरत गहो चित लाई।
तभी पुरुष, मेरे को भगवान रूप समझो तब मालिक की प्राप्ति होगी।
शिष्य हृदय प्रतीत अस आने, गुरु और पुरुष भिन्न नहीं जाने।।
गुरु और परमात्मा को अलग नहीं समझे, तो शिष्य में ऐसी श्रद्धा होनी चाहिए।
जब लो चित् अस रीति न आवे।
जब लग ऐसा भाव नहीं होगा।
तब लग जीव लोक नहीं सिधावे। धर्मदास चित बहु सकाने चरण टेक हो विनती ठाने।।
सारा कुछ कह लिया भगवान ने, पर उसने अपनी बात को ऊपर रखा। परमात्मा भी चाहते थे कि मैं एक अपना eye-witness (आई विटनेस-चश्मदीद) तैयार करूं।
हे प्रभु! सत कहूं तोहे पांही। तुमते कुछ तुष्तांही नाहीं। मोरे तुम पुरुष हो स्वामी। यम ते छुड़ाओ अंतर्यामी। हो प्रभु वरणो लोक की शोभा, तातें आदि मोर मन लोभा।
आपने इतना सुंदर लोक बताया, वहां के इतने सुख बताए तो इसलिए मैं देखना चाहता हूं। तब लीला बहुत हम देखा। आपके चमत्कार मैंने बहुत देख लिए।
पुरुष दर्श बिन र रहे रेखा। भगवान के दर्शन नहीं कर लूंगा इतने मेरे मन का दोष निकले नहीं। जो किंकर पर हो दयाला तो छिन्न में होएगा परसाला।।
कि मेरे दिल का कांटा जब निकलेगा, जब आप यह दया कर दोगे। तब परमात्मा ने कहा, ‘धर्मदास ठीक है चलो।’ बच्चों! उस समय परमात्मा कबीर जी और धर्मदास अकेले उस एक बगीची सी थी, उसमें थे दोनों जने थे। धर्मदास जी की आत्मा को लेकर परमात्मा ऊपर चले गए। पीछे से लोगों ने देखा। घर वालों ने जाकर देखा, धर्मदास आया नहीं क्या हो गया? वह बेहोश पड़ा, जैसे कोमा में होता है। मरा नहीं। 3 दिन तक ऐसा रहा। मालिक को ऊपर लेकर गया ।
धर्मनी, जो ऐसो चित किन्हा तन तद लोक परवीना।
छोड़, इस शरीर को चल मेरे साथ।
राखो तन गोड़ ले हंसा। तां पहुंचे जा काल ही संसा। क्षण एक में पहुंचे जाई। अविगत लीला लखे कोई भाई। शोभा लोक देख सुख माना और उदित असंख शशि और भाना।।
इतना प्रकाश उस लोक का जैसे असंख सूर्य और चांद उदय हो गए हों। परमात्मा कबीर जी जिंदा बाबा के रूप में थे। जब सतलोक में पहुंचे और जब उस परमात्मा के महल के सामने, सतलोक में संत्री खड़ा था। परमात्मा बोले भाई, यो मृत लोक से हंस आए है धर्मदास इनका नाम है और इनको वहां परमात्मा के दर्शन कराओ, सतपुरूष के। द्वारपाल ने एक और भगत को बुलाया और कहा कि इनको सतपुरूष के दर्शन करा कर लाओ। महल में ले जाओ, दरबार में, जब वह लेकर चला जब धर्मदास जी को बहुत से भक्त और आ गए हंस-हंसिनी।
यानी जैसे यहां भक्त कहते हैं वहां हंस कहते हैं। भगतमती कहते हैं वहां हंसिनी कहते हैं। हंस का अर्थ है, हंस एक पक्षी है जो बुगले जैसा होता है कती same to same (सेम टू सेम-हूबहु)। लेकिन उसका गुण यह होता है वह मांस मछी नहीं खाता भूखा मर जाएगा केवल मोती खाता है अर्थात संत भगत वह होता है जो सब बकवाद छोड़ दे, केवल राम नाम के मोती सेवा, सुमरण, दान करें। उनको हंस कहते हैं। तो काफी हंस इकट्ठे होकर आ गए भगत हंस और हंसिनी भगत और भगतमति। बच्चों! जैसे दास बताता रहता है जो बच्चे स्कूल में सुख लेना चाहते हैं और वहां बकवादोंं में लगे रहते हैं वे सदा दुखी होते हैं। अपनी पढ़ाई पूरी करके बढ़िया नौकरी मिल जाए फिर नाचो गाओ वहां सुख लो सारा।
नाचने गाने का मतलब यहां पृथ्वी लोक पर तो रहना ही नहीं। भाव यह है कि जब आप सतलोक चले जाओ तो वहां मौज करियो सारी ये। यहां काहे का नाचना और कित का गाना। एक पल में पता नहीं के हो जा। तो जैसे सतलोक में दूसरे धर्म वाले कई कहते हैं सतलोक की महिमा बताते हैं, के सतलोक में प्रकाश ही प्रकाश है, वहां और कुछ है ही नहीं। वहां आत्मा उसमें ऐसे मिल जाती है जैसे बूंद समुद्र में। यह पूरा राधा स्वामी वाला पंथ, सच्चा सौदा वाले, सिरसा वाले, गुरुदेव वाले और भी सब यही रट ला रहे हैं वहां कुछ नहीं है और आंखों देखा धर्मदास क्या बताता है? वाणी पढ़ता हूं, यह वैसे लिखी हुई है पुराने समय की। शुद्ध नहीं है इतनी। लेकिन अर्थ गजब का है इसका। कहते हैं;
जित देखा जगमग झलकाई। देखत हर्षित भए यह भाई।।
धर्मदास ने जहां देखा इतनी सुंदरता, इतनी सुंदरता, प्रकाश में गजब का नूर, चमक, देख देख खुश हो रहा है।
द्वारपाल हंस जो रहिया, ता मैं एक हंस से कहिया। ए हंस! तुम जाओ लिवाई, पुरुष दरश दे आनो भाई।।
इसको, धर्मदास को ले जाओ, परमात्मा के दर्शन करा कर वापिस यहीं ले आना।
चले लिवाए जब पुरुष पे जहां, अचानक हंस वो आए तब ही, वहां बहुत से अचानक और हंस आ गए भक्त।
करत कोलाहल मंगल चारा, शोभा अद्भुत अंग अपारा।
ओहो! उनके जो वहां पर भगत आए और भक्तनी आई उनके इतने गजब के सुंदर शरीर, देखते ही बने। उनके गले में रत्नों की माला और जगमग देह, बहुत गजब का, बहुत सुंदर कपड़े पहन रखे।
अमरचीर शोभा दर मांही, हंसन भाल शोभा के वर्णूं।
धर्मदास कहता है, कि उन हंसों के माथे की शोभा क्या बताऊं? बहुत गजब की।
रवि करतार वर्णूं, षोडस चंद्र भाल छिभी लहू।
यानी 16 चंद्रमा का प्रकाश हो उनके माथे की इतनी चमक थी, इतना नूर था।
हंस कांति प्रतिरूप प्रकाशा, हीरामणि उदित हो रासा।
उनके शरीर की इतनी गजब की शोभा थी प्रत्येक की, रूम रूम की जैसे मोती चमक रहे हों। उनके शरीर का प्रकाश
षोडष रवि हंसन छवि मोहा, देह प्राण सब अमृत शोभा।।
उनके शरीर की प्रकाश शोभा 16 सूर्यों के प्रकाश जितनी थी। अब वहां भगवान के दरबार में पहुंच जाते हैं वो लेकर के
सिंहासन से भी देखत मनमोहा। ओहो! सुरति हंस अग्राणे अगाने, सतपुरुष शक्ल देखत हर्षाने।।
वहां लेकर गए नाचते गाते हुए। जब उसने भगवान को देखा धर्मदास जी ने, इतना गजब का प्रकाश, एक रूम, शरीर के बाल की चमक, करोड़ सूर्य, करोड़ चांद मिला दे,
एक रोम रवि शशि कोटिसा।
एक रूम की शोभा करोड़ सूर्य और चंद्रमा जैसी।
पुरुष प्रकाश सतलोक अंजोरा, तहां ना पहुंचे निरंजन चौरा।।
के उस सतलोक का इतना सुंदर प्रकाश है, वहां ऐसी व्यवस्था है कि वहां यह काल निरंजन, यह चोर नहीं जा सकता। यानी इसका वहां भय नहीं है। अब सुनो 4-5 पंक्तियों में कमाल कर दिया।
पुरुष कबीर देखया एक भाई, धर्मदास पुनः रहे लग जाई।।
वहां पर, परमात्मा जो सतलोक का मालिक, असंख ब्रह्मांड के तख्त पर, सिंहासन पर विराजमान था। वो वही सूरत थी, उनके साथ धरती से, नीचे से आया था। ओहो! देखो यह तो लिखा है कबीर सागर में, वह सुना रहा हूं और वास्तविकता आपको बताई कि परमात्मा स्वयं उसको साथ लेकर गए और वो चँवर करने लगे उसके ऊपर, हमने इसका रस निकालना है, सारांश निकालना है, कबीर सागर का बहुत अड़ंगा कर रखा है इन्होंने। फिर भी हमने निष्कर्ष देखना है।
जब धर्मदास जी ने देखा कि यह कबीर इनका सेवक है और यह है भगवान। उस समय रूप दो थे। जब परमात्मा खड़े हुए और जिंदा बाबा वाला रूप उस तख्त पर विराजमान हुआ बच्चों! जिसको धर्मदास भगवान मान रहा था, वो खड़े हुए, सतपुरूष और परमात्मा जिंदा बाबा वाले वेष में सिंहासन पर विराजमान हुए और वो चँवर लेकर, खुद परमात्मा उस कबीर, जिंदा बाबा पर, ले कर करने लगे। धर्मदास का आश्चर्य का ठिकाना नहीं, के भगवान यो है कि यह है। इतने में वह जिंदा बाबा में समा गए जिसको सतपुरूष दिखाई दे रहे थे और वो शोभा, ज्यों कि त्यों, जिंदा बाबा वाले शरीर की हो गई। अब कहते हैं,
पुरुष कबीर देख्या एक भाई, धर्मदास बहुत ही लज्जाई। वहां मुझे प्रतीत नहीं आई। हे परमात्मा! कैसे कुमक हिम में छाई।
धर्मदास कहता है, वहां मुझे विश्वास नहीं हुआ। ये महाराज कह रहे थे भगवान, “मैं परमात्मा हूं, मैं सारी सृष्टि का रचने वाला हूं, मेरा नाम कबीर है। असंख ब्रह्मांड का स्वामी हूं।” अब धर्मदास जी कहते हैं, ‘हे भगवान!
कबीर पुरुष, एक यहां छिपाए सतपुरूष जग दास कहाए। धाय चरण गौ अति सकुचाई, हे प्रभु हम परिचय तब पाई।।
हे परमात्मा! अब आपको मैंने पिछाण (पहचान) लिया।
ये शोभा कसु वहां छुपाओ और कस जग में प्रगट दिखावा।
आपने यह शोभा वहां क्यों छुपा रखी है? वहां क्यों नहीं दिखाते इस लीला को? यह अपनी असलियत को, आपके वास्तविक शरीर की शोभा को। परमात्मा बोले,
धर्मनी जो वही छवि जग, जाऊं तो यह विकल्प निरंजन राव।
यदि, मैं इस शोभा युक्त नीचे जाऊं तो काल निरंजन पागल हो जाए और मैंने उसको वचन दे रखा है कि मैं अपना ज्ञान समझा कर, जीव को लाऊंगा और वैसे बच्चों! परमात्मा आज हमने ले जा। हम टिक नहीं सकते वहां पर। भूल जाओ इन बातां ने (बातों को)। यह तो कहन सुनन कहन की बातें हैं। उदाहरण देता हूं कबीर साहब कहते हैं,
“हम मोहम्मद को वहां ले गयो। इच्छा रूपी सतलोक नहीं रहयो। उल्ट मोहम्मद महल पठाया गुज बिरज एक कलमा लाया।।”
यानी हम हजरत मोहम्मद जी को ऊपर लेकर गए थे। के यह समझ गया तो इन सबने, जो इसने लाखों तैयार करे थे, सबको बता देगा। लेकिन नीचे प्रभुता घणी (ज़्यादा) हो गई थी। संगत कुर्बत खूब हो गई थी उसकी और उसके ऊपर प्रभुता पाकर, भूल गया भगवान को। नहीं इच्छा हुई। तो वापस छोड़ गए। कुछ दिन पाछे (पीछे) आप भी मर गया और वह प्रभुता भी रह गई। काल का इतना अजब गजब जाल है बच्चों! तो धर्मदास जी से बोले कि आप नीचे जाओ। धर्मदास जी बोले भगवान! की वहां ना भेजो। यहीं रख लो मेरे दाता! और इस नरक में मत भेजो। अब मैं नहीं जाऊं, दाता! वहां पर।
परमात्मा बोले भाई, ऐसे नहीं बात बनेगी। वहां तूं जा। चिंता ना कर। मैं तेरे साथ रहूंगा और सतभक्ति दूंगा, उससे आपकी भक्ति गजब की बन जाएगी और भक्ति युक्त होकर यहां आएगा, वैसे से यहां ठिकाना नहीं मिलेगा तेरे को और दूसरी बात है कि तूने सब कुछ देखा है। नीचे ओरों को बता, तेरे भाई बहनों को विश्वास होगा। धर्मदास कहता है,
“मोहे राख लियो महाराज हमसे बिगड़ी है। मोहे राख लियो महाराज हमसे बिगड़ी है। बिगड़ी है महाराज हमसे बिगड़ी है महाराज हमसे बिगड़ी है। हमें ना घालो महाराज काल की नगरी है। तुम ना भेजो महाराज काल की नगरी है।।”
रोवे बुरी तरह। जैसे किसी ने आग में धकाया करें, ज़बरदस्ती, मर तू। अर न्यूं कहे, ‘राख लो महाराज, हम गंदे इंसान सें (हैं)। अब पता चला उन सारे भक्तां (भक्तों) ने बताओ कि तुमने ऐसी गलती करी थी भाई। इसलिए दुख पा रहे हो। के हमने खुद बिगाड़ी है अपनी किस्मत। हमें रख लो दाता! ना भेजो मेरे मालिक! पैर पकड़े रोवे।
परमात्मा बोले, भाई ऐसा ना कर वापस चल और वहां पर तेरे साथ रहूंगा भक्ति कर, कोई दिक्कत नहीं आने दूंगा मैं तेरे को, चिंता ना कर तेरे पीछे-पीछे नहीं फिरूं था मैं और यह सारे ठाठ मैंने दे रखे थे तेरे को वहां पर। ना काल तुम्हारा कचूमर निकाल दे 1 मिनट में। धर्मदास को फिर हौंसला हुआ और तीसरे दिन शरीर में वापिस आया। आसपास सारे रिश्तेदार भी आ गये तीन दिन में। सारा गांव, क्यों सेठ था, पैसे वाला था, लोग चंवर दें बैठे। ना मरता ना जिंदा। इसका कै (क्या) हाल हो गया। परमात्मा ने बताया, मैं काशी में हूं। एक जुलाहे का काम करता हूं। मेरा नाम कबीर है। मेरा गुरु रामानंद जी हैं स्वामी रामानंद जो वहां के प्रसिद्ध संत हुआ करते थे। धर्मदास जी सचेत हुए, उठे तो देखा चारों तरफ हाहाकार मच रहा। जिंदा हो गए तो एकदम खुशी की लहर आ गई। आमनी भी रोवे। तो वह कहने लगा, क्या हो गया तुमको? वो बोले आप तो मर गए थे। ना मरों में थे ना जीवों थे। अचेत पड़े थे, बेहोश थे।
हमको tension (टेंशन-चिंता) हो गई थी के मरेंगे। तब उसको विश्वास आया, नहीं तो स्वपना माने वो। यह मन इतना दुष्ट है, इतना उल्टा चाले (चलता) है। जब ठीक ठिकाने की तरफ चलता है जीव, परमात्मा कसर नहीं छोड़ते यह उसका बाप है। तो तब धर्मदास को विश्वास हुआ कि रे तेरे की, सचमुच मैं तो सचखंड गया, सतलोक गया था। फिर उनको बतान लगा सारी। मैं वहां गया था, जिंदा बाबा भगवान हैं खुद हैं। सारी सृष्टि के रचने वाले हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तो उनके सामने कुछ भी नहीं हैं और रिश्तेदार आए थे वो चले गए।
पागल हो गया, बांडन (बोलने) दे। जिंदा हो गया शुकर है। लेकिन जिसको लागे वो तन जाने। धर्मदास काशी पहुंचे और देखें एक जुलाहे के रूप में बैठे, वही सूरत ज्यों कि त्यों। चरणों में पड़ गए। आसपास के, कालोनी के लोग आ गए। जुलाहे, बताना, पूछे यह कौन है? यह धर्म सेठ ऐसे ऐसे काशी का प्रसिद्ध सेठ है। ना वहां का बांधवगढ़ का। और सब न्यूं (ऐसे) कहें देख! कैसे पागल हो रहे लोग इस नीरू के पुत्र को भगवान मानते हैं। इनकी अकल पर पत्थर पड़े यानी यह जुलाहे भी यह बात बोलें। जो देखे वो यही कहे। धर्मदास जी ने चरण पकड़ के छोड़े नहीं। परमात्मा गलती बहुत हो गई। हे दयालु! माफ करो। जब परमेश्वर ने उसको कहा बच्चा!
तेरा दोष नहीं इस काल ने सब की बुद्धि फेर रखी है और जो भी यह सारा संसार आपको दिखाई देता है यह कुछ भी नहीं है एक सेकंड में मृत्यु हो जाती है इंसान की और फिर कुत्ते, गधे बनाकर छोड़ देता है यह। इसने तो सच्ची भक्ति करने नहीं देनी या सच्ची भक्ति या जैसी भी आस्था, मैं ही जीवों की बनाए रखें हूं। उस टाइम तो धर्मदास जी सारी माने था। कोई बात ही नहीं रही। अब परमात्मा बोले धर्मदास अब आप अपने घर जाओ और बच्चा मैं वहीं आऊंगा तुम्हारे पास। धर्मदास बोला, जी आईयो, मेरे बेटे ने भी समझाइये और आमनी ने भी सतनाम दियो। बेटा, भाई मैं आऊंगा पक्का। धर्मदास चले गए।
परमात्मा ने वहां आमनी को नाम दिया और धर्मदास जी बोले मेरा एक पुत्र है नारायण दास उसको भी समझाओ। धर्मदास जी ने नारायण दास बुलाया, के आजा भाई गुरुजी आए हैं, भगवान आ रहे हैं। बैठ गया। परमात्मा ने जो ज्ञान सुनाया, उठकर चल पड़ा। फिर बुलाए तें भी नहीं आया अगली बार।
भगवान ने खूब कह लिया, बुला ला भाई, तेरे बेटे ने नाम दे दूंगा। धर्मदास गया, बेटा आजा नारायण दास, कल्याण हो जाएगा, काल के जाल में फंस गए। वह कहता है, ‘पिताजी आपकी मति मारी गई। इस जुलाहे ने आपको बुद्धि भ्रष्ट कर दिया। देवताओं को छोटा बताता है ये। ये देवताओं की निंदा करता है। मैं ना इसके दर्शन भी करूं।’ धर्मदास ने खूब कह लिया, पर लड़का माना नहीं। धर्मदास जी रोने लगे, अब महाराज के चरणों में आकर। दाता! एक ही पुत्र है मेरा और यह काल के मुंह में जाएगा। दया करो दाता! इसको शरण में ले लो दाता। हे भगवान! मैं बहुत दुखी हूं। परमात्मा बोले, “बेटा मैं समझाऊं, तू समझावे और इसकी मां समझावे।
ईब (अब) तुम्हारे से ज़्यादा हमदर्द कौन हो सकता है? जब यह आपकी नहीं मानता तो भाई इसको छोड़ दो।” हे महाराज! न्यूं के छोड़ा जा से। हे महाराज समझाओ इसने। परमात्मा बोले, भाई यू काल का दूत भेज रखा है तेरे घर पर, कती चबूतरे के बांध रखा है तू, यह बात मान ले मेरी। अब काल का दूत कहा। धर्मदास को दुख होया इस बात का। हाय! एकलोते पुत्र ने भगवान, गुरु जी काल का दूत क्यों बतावे हैं।
परमात्मा बोले, “कित से तेरा बेटा, कहां पर है? उसको एक बार ले आ यहां पर।” धर्मदास बोले, बेटा चाल (चल) तू कुछ ना सुनिए बैठ जा उडे (वहां) बस। वो आ गया। परमात्मा ने उसकी तरफ ऐसे आशीर्वाद वाला हाथ किया और धर्मदास से बोला देख इसे, यह है तेरी इस body (बॉडी-शरीर) के अंदर, इस शरीर के अंदर यू काल बैठा है, उसकी शक्ल देखी उसने छोरे की, अंदर से जो वास्तविकता थी उस काल के दूत की। ओच्छा माथा, लंबे दांत, विकराल शरीर। परमात्मा बोले, “यू बैठा है इसके अंदर। यू काल का दूत है। यह कभी भी नाम नहीं लेगा, ना तेरे साथ चलेगा। जब धर्म दास बोला, नारायण दास जा बेटा, जा जा कर ले काम, कर ले काम। चरणों में पड़ गया भगवान! मेरा तो बीज नष्ट हो गया। हे भगवान! मेरा तो वंश क्यूकर (कैसे) चलेगा? बता यह काल पैदा हो गया। परमात्मा बोले, “वंश ने के चाटेगा तू! पीछा छुटवाले यहां से बेटा। के करेगा इस वंश का। यह तो काल,
खाई खुराकां पहन पोशाकां यहां यम का बकरा पलता है।
लेकिन हमारे जो रंग चढ़ रहा है। लोग के कहेंगे? फलाना के कहेगा। संतान ना हुई तो इस संपत्ति ने कौन। कई बीमारी बांध रखी हैं। कई रोग ला रखे हैं काल ने। परमात्मा बोले ठीक है तेरे को मैं अपना बच्चा, अपना हंस दूंगा और आज से एक साल के बाद, तेरे घर में पुत्र उत्पन्न होगा उसका नाम चूड़ामणि रखना।”
उस समय बताते हैं, धर्मदास की उम्र 80 साल की हो चुकी थी और आमनी देवी वृद्ध हो लीये थे। ईब धर्मदास के या विश्वास ना हो। हे मालिक! हे परमात्मा! इस उम्र में कैसे बच्चे होंगे हमारे? हम कति वृद्ध हो चुके हैं। तब दाता ने कहा, “देख उधर देख, तेरे आंगन में, एक छोटा सा बच्चा ऊपर से आया।
आंगन में हाथ पैर मारे न्यूं। एक पत्ते के ऊपर लेट गया आकर, साथ आया पत्ता उसके। यह तेरे घर में एक साल के बाद आ लेगा।” इतने में वह अंतर्ध्यान हो गया। कुछ विश्वास, कुछ अविश्वास। परमात्मा की रज़ा हुई। आमनी को गर्भ रहा, नवें महीने, 10वें महीने बच्चा हो गया। नाम चूड़ामणि रखया और तू कुल की चिंता करता था। तेरा 42 पीढ़ी तक, तेरा वंश चलेगा, चिंता ना कर। जब उसका दिल डटया।
बच्चों! गजब की बातें हैं। तुम्हें, धीरे-धीरे इसको पूरी सुन लोगे, इस कथा को, आपके बहुत से अंधेरे हट जाएंगे। अब परमात्मा ने, जब चूड़ामणि सियाणा होया, उसको दीक्षा दी। उसी को। धर्मदास जी को भी गुरु पद दे दिया था। पर बोला तू किसी ने मंत्र न दिए ये। सारा सारनाम तक दे दिया उसको और कसम खवा दी कि यह नाम किसी को नहीं बताएगा। जब धर्मदास डगमग देखे, तो उसके लड़के को गुरु पद दे दिया, चूड़ामणि को।
केवल पांच नाम, ये सात में से 5 बीच-बीच के दिए और बेटा इसी को तू आगे देता रहा करना। तेरे को गुरु पद दे दिया। परमात्मा की कोशिश थी यह मंत्र करते रहेंगे इनको मनुष्य जीवन मिलते रहेंगे। भगवान की आस्था इनमें बनी रहेगी। कुछ लाभ होते रहेंगे और इस बिचली पीढ़ी तक लाना था हमको। लेकिन धर्मदास को बता दिया था के काल मेरे नाम से 12 पंथ चलाएगा।
इन सारी गलत साधना करवाएगा और तेरे वंशज, तेरे परिवार वाले, छठी पीढ़ी में जाकर ये असली नाम भी छोड़ देंगे। एक टकसारी पंथ होगा उसकी साधना शुरू कर देंगे। जो एक आने की भी नहीं होगी। ईब सारे धर्मदास वाले, दामाखेड़ा वाली गद्दी में वो टकसारी वाले की साधना चल रही है। वो पांच नाम भी गए। फिर धर्मदास रोने लग गया। हे मालिक! इनका उद्धार कैसे होगा? परमात्मा बोले, “मैंने कुल दिया तेरे ते (को) 42 वंश ते, उद्धार उसका होगा जो मैं भेजूंगा एक संत, भगत, अपना दास, उससे तेरे पीढ़ी वाले नाम लेंगे, या सारा संसार नाम लेगा सबकी मुक्ति हो जाएगी। बच्चों! परमात्मा की असीम रजा है आप यह सत्यनारायण कथा सुन रहे हो और सुनते रहो, मुश्किल से यह अमर कथा मिली है सुनने को। मालिक आपको मोक्ष दे। सदा सुखी रखे।
सत साहेब