आज का विशेष संदेश संत रामपाल जी महाराज जी के उन सत्संग प्रवचनों का अंश है जो उन्होंने आज से 27 साल पहले यानी की 1997 में हरियाणा के जींद जिले में फरमाए थे।
11 से 17 दिसंबर 1997 में हुए समागम से लिया गया भाग नंबर 9 आज आपके सामने प्रस्तुत कर रहे हैं। यह विशेष संदेश इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जो ज्ञान 1997 में संत रामपाल जी महाराज भक्त समाज को दे रहे थे वह आज हमारे सभी पवित्र शास्त्र भी प्रमाणित कर रहे हैं। यह सब इसलिए भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि गीता जी, वेद, कुरान, बाइबल इन सब सदग्रंथों को संत रामपाल जी महाराज ने सन 2000 में हरियाणा के रोहतक जिले में स्थित करोंथा आश्रम बनने के बाद जांचा था। इससे पहले संत रामपाल जी महाराज संत गरीबदास जी महाराज द्वारा रचित अमर ग्रंथ यानी की सूक्ष्मवेद से सत्संग प्रवचन करते थे इससे यह सिद्ध होता है कि जिस सूक्ष्म वेद का ज्ञान कबीर साहेब जी ने गरीबदास जी महाराज के माध्यम से बुलवाया वह ज्ञान सभी पवित्र शास्त्रों से मेल खाता है। यह बात हम इसलिए भी कह रहे हैं क्योंकि हमारे पवित्र शास्त्रों में तीन चरण में नाम दीक्षा देने के बारे में बताया गया है और यही तीन चरण में दी जाने वाली नाम दीक्षा संत रामपाल जी महाराज 1997 से अपने अनुयायियों को दे रहे हैं।
इस विषेश संदेश में यह भी स्पष्ट है कि चौथे चरण में सारशब्द दिया जाएगा। सारशब्द दीक्षा नहीं है। यह तो क्रिया को समझना है ताकि इस साधना को अधिक कारगार यानी प्रभावशाली बना सकें। आज का यह विशेष संदेश संत रामपाल जी महाराज पर उनके अनुयायियों के विश्वास को और दृढ़ करेगा क्योंकि आज जब भक्त समाज ने पवित्र शास्त्रों को देखा तो उन्होंने पाया की 27 साल पहले संत रामपाल जी महाराज ने जो ज्ञान बताया था वह हमारे पवित्र शास्त्रों में ज्यों का त्यों मिल रहा है। आज के इस विशेष संदेश में "दान की महिमा" के बारे में भी विशेष ज्ञान सुनने को मिलेगा। तो आईये सुनिए संत रामपाल जी महाराज द्वारा 11 से 17 दिसंबर 1997 में किया गया विशेष संदेश भाग 9।
बंदी छोड़ सतपुरुष स्वरूप कबीर साहेब तथा उन्हीं के अवतार बंदी छोड़ गरीबदास जी महाराज की अमृतमयी वाणी का खुलासा, सरलार्थ, भावार्थ व सारांश, आज तीसरा दिन है सतगुरु की कृपा से। बंदीछोड की वाणी के अंदर वो रहस्य छुपा हुआ है जो की आम भक्त, आम संत के बस की बात नहीं कि इसमें से वो रहस्य को निकाल सकें। उनकी अपनी कृपा जिस पर हो जाती है वही इस बात को ढूंढ सकता है, की सतगुरु महाराज इस वाणी के माध्यम से हमें कै (क्या) समझाना चाहते हैं? कथा कोई सुना रहे हैं और उसके अंदर समझा कोई और बात रहे हैं । रामायण सुनाते हैं, महाभारत सुनाते हैं इनकी इसमें इन्होंने आवश्यकता भी नहीं थी लेकिन फिर भी लिखनी पड़ी क्योंकि एक तो यह यथार्थता पैदा की हमारे मन के अंदर की सतगुरु महाराज जो कह रहे हैं वो सत्य है क्योंकि आज से लाखों वर्ष पहले की रामायण ज्यों की त्यों उन शास्त्रों से मिलती है जबकि गरीबदास महाराज कतई (बिल्कुल) अनपढ़ थे, कोई शास्त्र का ज्ञान, उन्होंने अक्षर ज्ञान नहीं था। वह पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन वह परमात्मा थे इस बात को उन्होंने सिद्ध किया।
आज से लाखों वर्ष पहले कि जो भी घटनाएं घटी और जो शास्त्र प्रमाण देते हैं हिंदू और मुसलमान धर्मों के वह ज्यों के त्यों बंदी छोड़ ने लिखवाए। यह प्रमाण करने के लिए कि मैं जो कह रहा हूं वो सत्य है यही कबीर साहेब ने लाखों वर्ष पहले की और साथ में योगियों की वह उपलब्धियां जो की युग बीत जाते हैं उनको जब प्राप्त होती है वह ज्यों की त्यों बंदी छोड़ ने सारा कुछ इसके अंदर वर्णन करके दिया है। उन योगियों की उपलब्धियां बताई कि कौन सा ऋषि ने क्या उपलब्धी की? क्या साधना की? उसके प्रति उसने क्या उसके प्रति पाया फलस्वरूप? और फिर उससे आगे उसके साथ क्या बना? यह भी बंदी छोड़ ने इसमें लिख रखा है। तो इससे हमें ज्ञान होता है कि सतगुरु कबीर साहेब व गरीबदास महाराज एक ही थे। सिर्फ नाम की भिन्नता थी। शक्ति में कोई अंतर नहीं था। दोनों की वाणी जबकि हम कबीर सागर पढ़ते हैं और फिर बंदी छोड़ गरीबदास जी महाराज का ग्रंथ साहेब पढ़ते हैं वह ज्यों की त्यों वाणियां हैं कबीर सागर के अंदर। एक विस्तृत ढंग से महाराज ने खोल-खोल कर बहुत लंबे ढंग से लिख रखा है और इन ग्रंथ साहेब के अंदर गरीबदास जी ने उसी की यथार्थता थोड़े से में यानी कुछ दोहों के रूप में और तकरीबन सारा ही वर्णन ज्यों का त्यों दे दिया। यह बंदी छोड़ की कृपा से पहली बार, ऐसी हिम्मत, उनकी कृपा से हमने की। की सतगुरु की वाणी को खोलकर सुनाया जाए ताकि इसके रहस्य को समझ सकें। आप पांच-चार बार लगातार सुन लोगे इस महाराज के खुलासे को तो फिर जब कहीं पर भी पाठ हुआ करेगा सतगुरु की वाणी का आप इतने आनंद से सुना करोगे फिर बार-बार कथाएं सुनने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी सिर्फ एक दोहे को पढ़ा, सुना आपकी आत्मा में वो खुशी, वो कथा सारी घूम जाएगी की बंदी छोड़ यहां पर क्या कहना चाहते हैं। एक ही दोहे में पूरी कथा याद आ जावेगी। जैसे रामायण की कथा आती है तो उसमें एक अन्नदेव की आरती है महाराज की छोटी उसमें, कहते हैं;
रावण मांगन गया चून। और तांते लंक भई बैरून।।
एक ही दोहे से पूरी रामायण हमारे दिमाग में घूम गई।
की, रावण मांगन गया चून। तांते लंक भई बैरून।।
रामायण का जिसको ज्ञान से (है) इतना ही दोहा काफी है। वह सारी कथा का उसको, एकदम एक सेकंड में सुमिरन हो गया और वह पूरा लाभ आपको प्राप्त हुआ जो की कथा का हुआ करे। कथा सुनने का बहुत लाभ होता है। बंदी छोड़ ने रस बनाकर उसको कूट कर, कितना बड़ी बूटी होती है उस बूटी को वो इतना विस्तृत है बूटी का और फिर विस्तार है उसको काटा, उसको काट कर उसका रक निकाला, कूटकर, छेतकर, उसके फलों को और फिर वह कितना बना दिया एक बोतल में। एक घूंट पियो, पूरी जड़ी का लाभ मिल जाएगा। इसी-इसी प्रकार कथा श्रवण का बहुत लाभ होता है जब हम अन्नदेव की आरती खाना खाने के बाद करते हैं हम चाहे किसी के भी घर पर खाना खाते हैं उस खाने वाले को पूरा लाभ दे आते हैं। जब हम अन्नदेव की आरती कर देते हैं। अन्न देव की आरती में के आवे से (क्या आता है)?
रोटी मांगी गोरखनाथ। रोटी बिना ना चले जमात।। रोटी कृष्ण देव कूं पाई। तांते संहस 88 की खुद्या मिटाई।।
अब देखो कितनी बड़ी कथा है इसमें की, दुर्योधन के भेजे हुए, सिखाए हुए दुर्वासा जी पांडवों को श्राप देने के उद्देश्य से वन में चले जाते हैं। जिस समय पांडव वनवास घूम रहे थे। 14 वर्ष का वनवास उन्होंने मिला हुआ था, जुए में। तो वहां पर क्या किया दुर्वासा ने जाकर! शाम के समय ऐसे देखा की अब सबने भोजन खा लिया उन पांडवों ने, उस समय जाकर के कहते हैं कि हम भोजन खायेंगे। वैसे तो लिखा है कि द्रोपदी के पास एक इतना ऐसा पात्र था जो कि सूर्य देव की उपासना से उसे प्राप्त हुआ था कि द्रोपदी रोटी नहीं खावे चाहे वह कितनों को खिला देवे। चाहे तीनों लोक रोटी उसमें भोजन खा लें उसका भंडारा नहीं टूटै था उस बर्तन में, और जब द्रोपदी खा लेती थी तो उसमें कुछ नहीं बचा करता था। इसी प्रकार कहते हैं कि जो खाना परोसन वाली, खिलाने वाली हैं, अब तो नहीं रहा, पहले ऐसा ही होता था बुढ़िया पाछे (पीछे) खाया करती सबको खिला करके जो भोजन परोसा करती थी। उसमें बरकत हो जाती थी। आस्था और श्रद्धा और नियमता ठीक थी उनकी। तो वो अब उस समय भी असर था आज भी है अगर उस नियम को पुगा करके हम फिर शुरू कर दें तो वही ज्यों का त्यों आज भी है। परमात्मा मे अंतर नहीं आया।
हमारी आत्मा में अंतर आ गया है मलिन हो चुकी है। अविश्वसनीय हो गए हम, हमें विश्वास नहीं रहा परमात्मा के ऊपर। तो जाकर कहा के भाई रोटी खाऊंगा दुर्वासा ने कहा और मेरे साथ 88,000 ऋषि और आए हैं सबको भोजन खिलाना है। अब भाई सहम गए सारे के सारे। द्रोपदी से प्रार्थना करी की द्रौपदी! आज तो जुल्म हो गया और हमें मालूम है वह क्यों आया है दुर्वासा, दुर्योधन का सिखाया हुआ आया है। उसका भेजा हुआ आया है कि उनको श्राप देकर आओ और भाई आज तेरे हाथ में हमारी इज्जत है द्रोपदी कुछ कृपा कर दे। वह कहने लगी जी! अब कुछ नहीं हो सकता मैंने खाना खा लिया है अगर खाना खाने से पहले ऋषिदेव आ जाते तो बेशक कोई चिंता नहीं थी और अब मेरे बस की बात नहीं है। अब पांचों पांडव सोच करते हैं, चिंता करते हैं की अब क्या बनेगा। द्रोपदी अर्ज करती है भगवान कृष्ण से। उसी समय सतपुरुष कबीर साहेब कृष्ण रूप बनाकर आते हैं क्योंकि जहां पर महाराज कहते हैं;
दास गरीब साहेब, "दुःख ते धड़े" जहां किसी के साथ जुल्म होता है वहां पूर्ण ब्रह्म परमात्मा आकर के मदद करते हैं नहीं तो यह काल इनको खत्म कर दे। भक्ति उठ जावे यहां से खत्म हो जावे कोई भक्ति को चाहवे भी नहीं और यह तो चाहता है काल की भक्ति नहीं करे कोई, किसी प्रकार।
लेकिन बंदी छोड़ इस भक्ति की आस्था जमाए (बनाए) रखने के लिए खुद आकर प्रकट होते हैं। कबीर साहेब ने खुद नरसिंह रूप बनाया था। अब इन बातों का अविश्वास न्यूं (इसलिए) होगा क्योंकि हमने यही सुना है कि विष्णु भगवान ने ही नरसिंह रूप धारण किया अब हम आपको इसका बहुत लंबा चौड़ा उदाहरण देकर बतावाएंगे। कई ऐसा, होता है कि हमारे गुरुदेव तलवंडी भाई में रहते थे। वहां पर एक उग्रवादियों के समय में, रास्ते में, एक लाला जी तलवंडी का, उग्रवादियों ने पकड़ लिया उसकी मोटरसाइकिल भी, उसमें कुछ उघाई करके आ रहा था शाम को दिन ढलने को हुआ था। सर्दियों के, थोड़ी थोड़ी सर्दियों के दिन थे।
तो रास्ते में पकड़ लिया उनको मोटरसाइकिल वहीं डाल दी, उसको जीप में बैठा ले गए। जाकर ईखों में बांध दिया। बांध दिया। उन्होंने शराब पी रखी थी दोनों उग्रवादियों ने, तो उसको बांध करके वह निश्चिंत हो गए कि अब इसको फिर देखेंगे इसको खत्म करेंगे, सुबह इससे पूछेंगे कहां पैसा रखा है इसने? एक तो दारू पीकर वहीं लौट गया एक साइड में। एक चला गया कहीं दूसरे स्थान पर किसी कोठडे-काठडे (कमरे) कोठे में सोने के खातिर (लिए)। तब उस लालाजी ने, उस भक्त ने अर्ज की हे परमात्मा! हे गुरुदेव! आज मेरी जान बचाओ मालिक! कहते हैं बहुत तड़प हुई, तो उसी समय हमारे गुरुदेव वहां पर प्रकट हो जाते हैं अब यह बात समझने की फिर स्वयं ही समझ में आ जाएगी आपके कि किसने नरसिंह रूप बनाया था? उसी समय उन्होंने देखा की महाराज जी खड़े हैं और उसके सारे जो बंधन बांध रखे थे, उसको जूड़ रखा था वह स्वयं ही खुल गए। खुल गए एकदम, देखे हैं महाराज जी खड़े हैं और बहुत वृद्ध दिख रहे हैं। ऐसे बोले गुरुदेव! आप कैसे आए यहां पर? हे महाराज! हे बंदी छोड़! हे स्वामी जी! आप किस तरह आए महाराज? कहने लगे आ मेरे साथ। चल तुम्हारे घर। की महाराज मुझे तो यह भी नहीं मालूम घर किधर है? यहां तो रास्ते का भी नहीं पता, जाएं किस साइड में? की मेरे पीछे आजा। पीछे-पीछे कीचड़ में से, पानी में से, ईखों में से निकल कर और तलवंडी मंडी में आकर उनके घर के गेट आगे छोड़कर कहने लगे अपने घर को जा। रात के समय उनके घर वालों ने सब रिश्तेदारियों में टेलीफोन कर-कर पूछ लिया कि वह कहां हैं? किसी ने नहीं बताया कि हमारे यहां कोई नहीं आया वह तो नहीं आया उसने समझ लिया कि वह खत्म हो चुका है अब नहीं जीवेगा क्योंकि शाम के समय कोई भी बाहर रह गया उसको मृत मान लिया जाता था ऐसा खतरनाक समय चल रहा था पंजाब में। तो उसने आकर किवाड़ खड़खड़ाया।
अब किवाड़ कौन खोलें? वहां 5 बजे मंडी में सारी में ताला लग जाया करता था सब अपने अंदर घुस जाया करते थे। आवाज़ दी । घर वालों ने देखा आवाज़ तो आ रही है अपने वाले कि फिर ऊपर से देखा उन्होंने की कहीं इनके साथ उग्रवादी तो नहीं है इनको ले आए हों पकड़कर और आवाज दिला रहे हों। वह अकेला खड़ा दिख्या (दिखा)। उसी समय भागे आएं सीढ़ियों में से और किवाड़ खोल दिया एकदम ऊपर ले जाकर फिर बंद कर लिया। उनसे पूछा कि कहां थे? उसने बताया कि हम उग्रवादियों ने पकड़ लिया था मेरे को। फिर कैसे आए? कि गुरुजी ने छुटवाया।
बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज की जय हो।।
कहते हैं गुरुजीयों ने छुड़वाए। गुरुजी गए थे वहां पर मुझे खोल कर लाए, नहीं आज मैं मार दिया जाता। तो महाराज जी उन दिनों बीमार चल रहे थे बड़े महाराज। कुटिया में थे तलवंडी। तो कहने लगे वह सारा परिवार सुबह-सुबह हे सतगुरु! आपने रक्षा कर दी हे बंदी छोड़! हे गुरुदेव! हे स्वामी जी! आपकी कृपा से हमारा लड़का बच गया। हे महाराज! आपको कैसे मालूम हुआ आप वहां पहुंच गए? अब वह ऐसे कह रहे हैं अरे! क्या कह रहे हो तुम? मुझे ध्यान अच्छी तरह बताओ कहना क्या चाह रहे हो? कौन मर गया? कौन बच गया? उन्होंने फिर सारी बताई कि महाराज आपको ज्ञान नहीं आप वहां गए और इस बच्चे को लाए निकाल कर। ऐसे बोले भाई बंदी छोड़ थे ये कबीर साहेब, गरीबदास जी थे।
अरे! मेरे से उठा भी नहीं जाता मैं कहां जाऊं था बावलों। अब देखिएगा कि वो अपने हंस को बढ़ाई देते हैं और काम उसके बदले में स्वयं कर जाते हैं क्योंकि वो अगर उस गुरु की बेइज्ज़ती होती है तो बंदी छोड़ की बेइज्ज़ती होती है। भक्ति से उठ जाएगा इंसानों का यह मन। तो इसलिए बंदी छोड़ आकर के अब हम यह भी नहीं कह सकते कि हमारे गुरुजी ने नहीं छुटवाया? क्योंकि प्रत्यक्ष गुरुजी और यह भी नहीं कह सकते की सतपुरुष ने नहीं छुटवाया? अब जो उसके बदले में आकर रक्षा करते हैं तो उसमें और उसमें कोई अंतर नहीं है। अंतर है भी नहीं और मानना भी नहीं चाहिए।
"जिस पर साहेब राजी तांहि को तू बंद"।।
उसी पर बंदगी कर जिस पर परमात्मा प्रसन्न हो रहा है। यह तो एक मोटे उदाहरण हैं यहां पर जैसे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री जिस पर राजी हैं, जिस व्यक्ति पर, उससे मेल करने से सारे काम सरेंगे। इसी प्रकार जिस पर परमात्मा बंदी छोड़ प्रसन्न हैं उसी की शरण में रहने से आपको लाभ मिलेगा। वैसे चाहे उसके बरने (गेट) आगे बैठे रहो सारा दिन कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तो इसी प्रकार हम यथार्थता को भूलकर हम अपने उन्हीं मनमुखी साधनों को अपना लेते हैं जिसके परिणामस्वरुप हम फिर 84 लाख के गेड (चक्कर) में आकर और बंदी छोड़ इतने दयालु हैं यह फिर ढूंढ लेते हैं दुःख-सुख पाकर। देखिए! अब कहां-कहां से आपको इकट्ठा कर लिया हमारे जैसे तुच्छ जीव को और यह अपनी शक्ति प्रदान कर दी। हम जाकर के जगह-जगह उनकी वाणी का ढिंढोरा पीटते हैं उनकी गवाही देते हैं बंदी छोड की कसम खा-खा कर कहते हैं की इसके बराबर शक्ति नहीं भाई! तो आज यहां अपने हंसों को फिर इकट्ठा कर लिया तो मैं आपसे यही प्रार्थना करता हूं कि यह मौका बार-बार नहीं मिलेगा। किसी भी अनजान व्यक्ति की बातों में नहीं आना अब। सबसे पहला आपको दुःखदाई यह होगा कि किसी की बात में आकर के अपने इस उद्देश्य को भूल मत जाना। ढाई सौ वर्ष हो गए गरीबदास जी यहीं थे बंदी छोड़ और वही छुड़ानी गांव और महाराज का शास्त्र भी यही था। वो चुप रहे बंदी छोड़। देखते रहे कबीर साहेब भी कहते हैं कि,
जै तू चाहे राम को पाक्या सेती खेल। और काच्ची सरसों पीड़ के भाई खल होवे ना तेल।।
वो कच्चा काम नहीं करते बंदी छोड़। ठीक है कोई पाठ करवाता है थोड़ा बहुत लाभ मिल जाएगा वह भी गुरु के बिना नहीं। अगर ऐसा होता हमने देखा है कि किसी के वो भक्तजन हम भी उनके साथ आया जाया करते थे वे किसी के पाठ एक बार कर आया करते तो 10 साल तक पाठ उनके नहीं हुआ करता। 10-5 साल में कहीं कोई विवाह-शादी होती तो बेशक से उनके मन में आ जाता कि भाई जो है ना पाठ भी करवायेंगे। कई बार वह भी चूक जाया करते थे। तो आज बंदी छोड़ की कृपा है कि हमारी यह पुण्य आत्मा साल में तीन-तीन, चार-चार पाठ करवा लेते हैं एक तो आसानी से हो जाता है। एक तो स्वयं ही करवा देते हैं बंदी छोड़। ऐसा सुख दे हैं आत्मा ऐसे कुर्ला (तड़फ) उठे है बंदी छोड़ के नाम पर ज़रूर करना चाहिए पाठ।
यह पीछे यहां पर डिप्टी कमिश्नर थे जो कल आए हुए थे अब डायरेक्टर हैं ये हरियाणा के लोकल बॉडीज़ के। ये यहां पर श्री गुलाब सिंह जी स्त्रोत आइ.ए .एस। तो इन्होंने मेरे ख्याल में यह नवंबर में शुरू किए थे हमने पहला पाठ नवंबर 96 में किया और अप्रैल-मई में यह चले गए थे ट्रांसफर होकर के डायरेक्टर बनकर। अब देख लो सात महीने में पांच पाठ करवाए थे इन्होंने और फिर एक कुटिया में करवाया।
अब पिछली की हुई कमाई तो उनके सामने है कि ये आज एक राजा हैं और अगली फिर दोनों हाथों शुरू कर दी, बंदी छोड़ की वाणी का। तो इससे सिद्ध होता है कि बंदी छोड़ प्रसन्न हैं की जो हम कार्य कर रहे हैं और इसका परिणाम यही हुआ की आपको यहां पर अवसर भी देते हैं, हिम्मत भी देते हैं और समय भी देते हैं और धन भी देते हैं। आपकी अपने आप ही आस्था बन जाएगी। तो यह कच्चा काम नहीं करते बंदी छोड़।
तो इन्होंने ढाई सौ वर्ष इंतज़ार करनी पड़ी की कोई इस बात को समझकर और नीयत से इसमें छल कपट नहीं चलता, इसमें पॉलिटिक्स राजनीति को बंदी छोड़ पसंद बिलकुल नहीं करता। यह हमने आज़मा कर देख रखी है। अगर मैं भी कसूर करूंगा तो मेरा वहीं दोनों बात है अपनी छतरी अपनी छाया हटा लेगा ऊपर से और भाई ऐसे ही वही बात है घर से बाहर निकलते पाला पड़े है ही कर्म का। जाड़ा लगेगा, सर्दी लगेगी। इसी प्रकार सतगुरु अपनी छत्रछाया में अपने बच्चे को छाती के लगाकर रखते हैं। जिस प्रकार छोटे से बच्चे को मात-पिता और दादा गुदड़े (रिजाई) में लपेट कर रखा करें की कहीं इसको सर्दी ना लग जा। तो ऐसे हमारे को बंदी छोड़ जब उसकी शरण आ जाते हैं इस प्रकार रखे हैं। पर हमारी कुमत जो है यह थोड़ी नहीं। चौथे युग में आ गए यह इकट्ठी होती- होती आ रही है। महाराज कहते हैं;
युगन-युगन की वासना हुई इकट्ठी आन। निर्मल कैसे होएगा कोई संत लगा नहीं कान।।
तो बात यही है हमारा कहने का तात्पर्य है कि जो 40 साल से वहां पर पापड़ बेल रहे थे उनकी करनी में अंतर था। उनकी कथनी कुछ और करनी कुछ रही। यहां पर कथनी थोड़ी हो, करनी अधिक हो। तब परमात्मा बंदी छोड़ प्रसन्न होते हैं। इनको सारा पता है हम सोच क्या रहे हैं? और करेंगे क्या? हम इससे क्या छुपा सकते हैं। जीता दास, घीसा पंथ के अंदर, घिसा संत का एक परम शिष्य हुआ है। वो कहते हैं अपने गुरु को परमात्मा स्वरुप समझ कर चले। तो वह कहते हैं;
"मेरे परदे के मैहल में पिया जी। अपने गुरु को कहते हैं और आपसे कहां लकोलो जिया जी"
पर्दे तक के आप मेरे जानने वाले हो। अब आप से मैं क्या छुपा सकता हूं मालिक? तो इस प्रकार हमारा भाव बना रहे कि हम ईश्वर से कुछ नहीं छुपा सकते वह सारी जानते हैं। तो यही कारण रहा की सारे हरियाणे में मुश्किल से साल भर में मेरे ख्याल में 5-4 पाठ किसी-किसी के हुआ करते थे। वह भी पिछली कोई रिवाज बनी हुई हो, तो वह हो जाता था। आज बंदी छोड़ की कृपा से एक महीने में 25 और 26-27 पाठ होते हैं। वह भी हम एक-दो अपने किसी कारण की जो है ना रेस्ट के लिए टाल कर देते हैं नहीं तो 30 के 30 पाठ हम कर सकते हैं और इसी परिणामस्वरूप आज मार्च तक हमारे पाठ आगे जा लिए जबकि पहले तो हम किया करते तीन दिन में, तीन दिन के हिसाब से चला करता मैं। अब पाठ तो 3 दिन का ही होता है लेकिन मैं सिर्फ एक रात्रि में जा सकता हूं।
शाम को जाने पाता हूं मध्य के दिन शाम के समय। तो पाठ उसी दिन शुरू हो जाता। जैसे आज पाठ एक शुरू हुआ, तो कल दूसरा हो जाएगा, परसों तीसरा हो जाएगा। पाठ रोज़ एक प्रकाश हो जाता है।
इसके हिसाब से सोचियो 1 साल में 300-300 पाठ, 400-400, 350 पाठ हो जाते हैं। तो अब आप देखियो! बंदी छोड़ दोनों हाथों बरसने लग रहे हैं। हरियाणा, पंजाब और दिल्ली इसमें सतगुरु की विशेष रजा होने लग रही है। यह तो शुरू से ही ऐसे थे बंदी छोड़ आज से नहीं, सतयुग से चले आ रहे हैं। सतयुग से पहले के भी हैं यह तो। जब कुछ भी नहीं था, तब भी बंदी छोड़ कबीर साहेब थे, गरीबदास जी थे। सतसुकृत नाम से सतयुग में आए। त्रेता में आए मुनिंदर नाम से, द्वापर में करूणामय नाम से और कलयुग के अंदर बंदी छोड़ आज कबीर नाम से आए हुए हैं। अवतार तो इनके और भी होते रहेंगे जैसे गरीबदास जी उन्हीं का अवतार थे लेकिन महिमा कबीर साहेब की रहेगी। एक नाम ही चलता है इनका, शक्तियां उनकी आती रहेंगी, नाम बदलते रहेंगे।
समय-समय पर आकर के अपने हंसों को फिर इकट्ठा करते रहेंगे। हम तो बंदी छोड़ के नौकर हैं। जिस प्रकार एक कुबाड़िया होता है सेठ शाहूकार वह कबाड़ी का काम करता है, वह अपने नौकर को जिसको वह 10-20, 30 रूपए, 50 रोज के देता है उसको क्या करता है, एक चुंबक दे देता है डोर के बांध कर और वह उस चुंबक को ऐसे घिसराते चलते हैं। ऐसे रखते चलते हैं उस चुंबक के साथ लोहे के कण जो की रेत में मिले हुए हों उसके चिपक जाते हैं और वह क्या करता है वह नौकर उसको उतार कर अपनी झोली में डाल लेता है फिर चुंबक रखना शुरू कर देता है। शाम तक दस-बीस किलो लोहा वह लाकर के कबाड़िया को दे देता है।
इसी प्रकार बंदी छोड़ ने अपने नाम रूपी, वाणी रूपी चुंबक हमें दे रखा है, हम हर गांव में इसको रख-रख कर देख रहे हैं जो बंदी छोड़ के हंस यानी अनुकूल व्यक्ति हैं, जो अधिकारी जीव हैं वह तो सतगुरु की बात सुनते ही चिपक जाते हैं और जो कबाड़ हैं जो की वह नहीं, नहीं उनके अनुकूल नहीं है सतगुरु का हंस उसको हम 100 बार कह लें जब भी नहीं हमारी बात सुन सकता क्योंकि जिस प्रकार लोहे को लकड़ी पर सौ बार रख ले और किसी चीज़ पर रख ले, वह नहीं पकड़ेगा। तो बंदी छोड़ के जो प्यारे हंस है वह हर गांव से इकठ्ठे होकर के आज देख लो कहां-कहां से आकर के और ढाई-तीन साल के अंदर-अंदर बंदी छोड़ की कृपा से हजारों की तादाद में भक्त जन इकट्ठे हो गए। एक परिवार में शुरू होता है सारा परिवार बंदी छोड़ की शरण में आ जाता है और अभी यहीं हो रहा है इसके विपरीत की एक व्यक्ति भी बिगड़ गया तो सारे परिवार का वही हाल हो जाएगा। तो सावधानी ज़्यादा है इसमें। अपने अहंकार, मान को खोकर रखें।
मिट्टी समझ ले जैसे कल उदाहरण दिया था तो इसी प्रकार दासभाव हमारे अंदर आ जाना चाहिए। तो कहना हम यह चाह रहे थे कि वो कृष्ण भगवान जब वहां पहुंचे बंदी छोड़ कृष्ण रूप बनाकर के जाते हैं। अब देखिएगा की परम शक्ति जो है वह भगवान कृष्ण के भी साथ है कबीर साहेब भगवान विष्णु-ब्रह्मा के साथ भी हैं। भगवान शंकर जी के साथ भी हैं क्योंकि यह तीनों उनके शिष्य हैं और हमारे से तो वह बहुत अच्छी आत्मा हैं परमात्मा इसीलिए कहलाते हैं, उनमें दया भी ज़्यादा है। वह सहनशील भी ज़्यादा हैं। वह तीनों के तीनों ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी बंदी छोड़ के शिष्य हैं।
कहते हैं हमने ब्रह्मा को नाम दिया, ओम मंत्र दे रखा है ब्रह्मा को। विष्णु को नाम दिया, हरियम नाम विष्णु को दे रखा है और शंकर भगवान को सोहं मंत्र दे रखा है सतगुरू ने। और वही मंत्र हम फिर उनके अनुसार भी जाप कर रहे हैं। तो उनका जो असली नाम है वह अभी इनको नहीं दिया क्योंकि इनमें वह भाव उत्पन्न नहीं हुआ तो बेशक हम पहला मंत्र देते हैं। वही परंपरा है। उस मंत्र के बाद फिर देखते हैं कि इसमें कुछ आस्था बढ़ी है तो हम स्वांस का सुमिरन दे देते हैं और भी ज़्यादा वह परख की जाती है कि इसमें कितनी आस्था बढ़ ली है? उसके बाद उसको सारनाम दिया जाता है। आस्था के साथ उसकी कमाई देखी जाती है। कमाई का अलग पता लग जाता है हमें की, इसमें कमाई है के नहीं है? इतना बंदी छोड़ ने शीशा दे रखा है। तो उसको सारनाम दिया जाता है। वैसे नहीं दें चाहे कितना ही प्यारा हो, चाहे गाली मानो, चाहे राज़ी रहो, वो उसकी इच्छा। तो इसी प्रकार सतगुरु महाराज ने कहा नाम के बाद फिर शब्द दिया जाता है। सारशब्द। वो तो बहुत ही कती (बिल्कुल) ऐसे तपा कर और परख कर बिल्कुल घिस निकल ले है जीव की जब दी जाती है। बंदी छोड़ यह बता देंगे की अब यह अधिकारी हो चुका है। तो वह तीनों के तीनों भी बंदी छोड़ के हंस हैं। यानी महाराज कहे हैं की,
"सतगुरु ताना तानियां" गरीबदास जी कहते हैं की सतगुरु ने ताना तनियां और तीनों वे राछ रछीड़ा हैं। राछ रछीड़ा। यह ताना बनाने की वस्तु को सामान को राछ कहा करें, रछीड़ा कहा करें। की यह जो तीनों ब्रह्मा, विष्णु, महेश के द्वारा यह सृष्टि यहां की रचवाई है और यह तीनों राछ रछीड़ा हैं। यानी एक तो बनावे हैं। एक पालन-पोषण करता है और एक संहार करता है। यह तीनों राछ रछीड़ा हैं सतगुरु के है।
तो यहां पर भगवान कृष्ण के रूप में सतगुरु महाराज आते हैं और आकर के कृष्ण भगवान पूछे हैं क्योंकि अब कृष्ण का ही रोल चलेगा अब जैसे ऊपर से हुकुम आया एसपी ने ही जाना है। तो वहां एसपी ही जाएगा दूसरे मोटे अक्षर में यहीं समझ लो की हुकुम प्रधानमंत्री का है या मुख्यमंत्री का है। लेकिन उस मौके पर एसपी जाएगा। वो अपना कार्य वहां पर पूरा कर रहा है। तो वह कार्य उसी के जिम्मे है। उसी के द्वारा ही करवाया जाएगा प्रधानमंत्री आकर, एसपी वाला काम नहीं करेगा। उसमें अपनी शक्ति भेज देगा। हुकुम शक्ति है।
जाइये आप वहां पर यह काम कर दीजिए फिर उसको क्या टाल कर सके (मना नहीं कर सकता) है। वह जो चाहे अपना नियम अनुसार कर देगा। तो यहां पर सतगुरु महाराज के हुकुम से समझो या उनका स्वरूप समझो। वही खुद आ जाते हैं, प्रकट हो जाते हैं वहां भी कृष्ण बैठा है और वहां भी प्रकट हो गए कृष्ण जी के रूप में जैसे गुरुजीयों का उदाहरण मैंने आपको दिया था। तो आकर के द्रोपदी कहती है भगवन! बहुत दुखी हो गए। क्या बात है भाई? की दुर्वासा 88,000 ऋषि लेकर आ गया भगवन और हमें श्राप देना चाहता है। तो भगवान कृष्ण भी कहते हैं कि पहले मुझे भोग लगवाओ द्रोपदी! भोजन खिलाओ। तब मैं जाकर के आपको कोई सहयोग दे सकता हूं।
अब वह कहने लगी महाराज! रोटी का ही झगड़ा है क्योंकि मेरे पास एक पात्र है सूर्यदेव का दिया हुआ। अगर मैं भोजन नहीं खाती, तो इतने तो, मैं कितने ही आ जाओ न, मैं भोजन दे सकती हूं लेकिन मैं भोजन खा चुकी हूं अब मैं असमर्थ हूं उसमें कुछ नहीं बचा है कृपा हमारी दुविधा को हमारी मुसीबत को दूर करो मालिक! कहने लगा द्रोपदी!
"ढूंढ द्रोपदी, ढूंढ कोई भोजन का किरका। प्रथम करूं आहार फिर मेटूं मुनिजन की तृखा।।
पहले मैं आहार करूंगा। भोजन करूंगा। कहते हैं, "जबहीं द्रोपदी पात्र दिखलाया, तो उसमें एक साग का पत्ता लगा हुआ था उस पात्र में, उस बर्तन में।
तो घोल पिया जगदीश वहां मुनिजन अफराया"।।
उसको घोलकर ऐसे बोले इसमें पानी डालकर और ले आ। थोड़ा-थोड़ा चरचरा सा एक साग का पत्ता लगा हुआ हरे साग का। उसको पी गए। कहते हैं, वहां पीते ही और वहां पर मुनिजन अफरा दिए। 88,000 छिका दिए। ऐसे पेट पाटन (फटने) को हो गया। भीम को कहा कि जाओ, उनको बुला कर लाओ। की आओ भोजन कर लो ऋषिदेव। तब जाता है भीम। वहां देखे है कि ऋषि जी करड़ें छिक रहे हों (जैसे बहुत ज़्यादा छिक रहे हों) और लोटन लाग रहे हैं, ऐसे मरोड़ें मार रहे हैं (लोट रहे हैं) की किसी तरह ये हज़म हो जावे कि घणा ही (ज़्यादा) खा लिया। तो जाकर भीमसेन कहते हैं कि चलो ऋषिदेव! भोजन तैयार है। जो-जो आपने कहा था वही भोजन बनवाया है। कै (क्या) कहा था?
की आज के बोये आम अंगूरा। कामधेनु का दूध कपूरा।। आज के बोए धान मंगाओ और मानसरोवर का जल ल्याओ।।
मतलब नहीं होने की चीज़ आज ही बोवे, आज ही आम लगे और जब मैं खाऊं ऋषि बोले। आए थे ना कुबद्ध करन खातिर (करने के लिए)। उन्होंने कौन सा भोजन खाना था। तो बोला जी चलो सारा सौदा तैयार हो रहा है। ऋषि जी ऐसे बोले भाई भीमसेन हम तो बिल्कुल छिक लिए बिलकुल गुंजाइश नहीं रह रही। कोई रोटियां का नाम लेवे है बल्कि उल्टी गिरने को हो जाती है इतने ज़्यादा छिक रहे हैं हम तो। तो कहने लगा महाराज भोजन तैयार है। की तुम्हारे कौन आया है? वह कहने लगा जी हमारे भगवान कृष्ण आए हैं। तो ऐसे बोला भाई हम तो छिक लिए और भगवान करे थारे दुश्मन मरियो। आशीर्वाद दे दिया। आया था श्राप देने और दिलवा दिया आशीर्वाद। कहने लगा भगवान करे तुम्हारे दुश्मन मरियो। दुश्मन उनके कौरव। महाराज कहते हैं,
"दुर्वासा के श्राप की लगी अपूठी लात"।।
उल्टी लात कौरवों को ही लग गई। तो इस प्रकार बंदी छोड़ ने इसमें रहस्य छुपा रखा है कि इसको समझने की कोशिश करें। तो यहां लिखा है कि,
रोटी कृष्ण देव कूं पाई। संहस्र 88 की खुद्या मिटाई।।
अब यह इतनी बड़ी कथा एक चौपाई में बंदी छोड़ ने भर दी। अब आपको ज्ञान हुआ जब भी इस वाणी को सुनोगे, पढ़ोगे इस आरती को तब ही वह पूरी कथा घूम जाएगी। तो पूरी कथा का आप समझिए कि इस एक आरती को गा देने से, यह इतनी कथा आपने कर दी, उस घर में जिसमें आप रोटी खाकर आते हो। यह इतनी कथा आपने कर दी। इन कथाओं का फल उनको मिलेगा। आपकी करनी में ते (से) कोई कमी नहीं होगी। आपने इन कथाओं के बदले एक टूक खा लिया उनके। बाकी भजन सुमिरन आप कर रहे हो वह आपका बिल्कुल नहीं बिगड़े ज्यों का त्यों बना रहेगा। कितना गज़ब बंदी छोड़ ने रहस्य डाला है की इस कलयुग में बच सकते हो तो ऐसे बच सकते हो।
तो यहां कहते हैं अब संत किसे कहते हैं? जो संत वही है चाहे बच्चा है, चाहे बडा (बड़ा) है, संत वही है जो इन क्रियाओं को अपनाकर सही ढंग से नियम से चले वह संत है और इन भक्तों को जो यह आरती करते हैं खाना खाकर, आरती ज़रूर करनी चाहिए। चाहे मन-मन में कर दिये। चाहे बोलकर कर लिए। आपके ऊपर कोई उस घर में जिसमें आप खाना खाते हो, कोई आपके ऊपर उसका ऋण नहीं चढ़ेगा और इसके कर देने से उनको उन कथाओं का लाभ पूरा मिलेगा। देख कितने ढंग से बंदी छोड़ की कृपा हमारे ऊपर हुई है, इस घोर कलयुग में।
एक कथा को करने के लिए 30-30 दिन लगाया करते पंडित जी। 30 दिन में भोग लगा करता। 41 दिन में भोग लगा करता था उस एक कथा का और रामायण शुरू कर देते तो रामायण बढ़ा कर, चढ़ा कर कितनी ही कह लो उसने और अब बंदी छोड़ 15 कथा एक ही अन्नदेव की आरती में उस घर में रोज़ दो-दो बार कर देते हैं हम। तीन बार खाना खाते हैं तीन बार ही करते हैं। तो यहां लिखा है कि,
तंदुल विप्र कु दिए देख। रचि सुदामा पुरी अलेख।।
अब यह भी कथा कृष्ण और सुदामा की कितनी विस्तृत और कितनी रोचक है। की भई देखो! भोजन का भोग लगवाया था तंदुल। तंदुल कहें हैं (कहते है) चावलों को। भगवान कृष्ण को सुदामा जी ने जब चावल खवा (खिला) दिए तो उसके बदले में उसकी सुदामा पुरी रची। नहीं तो नहीं रची क्योंकि पहले भी तो प्रेम था, पहले क्या वह जानै (जानते) नहीं थे की सुदामा हमारा प्यारा है, दुखी हो रहा है।
पर जब तक वह भोग नहीं लगवा लिया चावलों का, मुट्ठी भरकर नहीं खा लिया भगवान कृष्ण ने, तब तक वो कुछ नहीं कर सके (सकता) था। समर्थ होते हुए भी नहीं कर सके था। इसी प्रकार बंदी छोड़ हमें बताते हैं, आप बंदी छोड़ का पाठ करवाओ उसके नाम पर कुछ दान, धर्म करो तो मैं करूंगा। यह उनसे परम समर्थ हैं। कृष्ण भगवान से असंख गुणा ज़्यादा शक्तिमान कबीर साहेब हैं। पर यह भी फेल हो जाएंगे अगर आप कुछ दान-पुण्य नहीं करोगे सतगुरु के नाम पर। फिर यह आपके उन दुखों को दूर करेंगे जो की कहीं भी नहीं हुआ करते। तो इसलिए इस पाठ और भोग का महत्व बता रहे हैं साथ में। एक कथा के द्वारा पता नहीं कितने प्रकार की आपको शिक्षा दे रहे हैं।
तंदुल विप्र कु दिए देख। रची सुदामा पुरी अलेख।। आधीन विदुर के भोजन पाई। कैरों बूढ़े मान बढ़ाई।। मान बढ़ाई से हैं दूर। आजिज के हैं सदा हजूर।।
अब कहते है एक गरीब ब्राह्मण के घर में, गरीब विदुर भगत के घर में, रोटी खा ली। कौरवों के वह 36 प्रकार के व्यंजन छोड़ दिये, वहां नहीं खाए भगवान ने। परमात्मा प्रसन्न कहां होता है? कि जहां पर वह सच्चा प्रेम देखता है। आधीनी भाव, दासातन हो। एक बहुत लंबा विस्तार से (है की),
भक्ति करें बिन भाव रे, सो कोने काजा। और विदुर के जीमन चले गए, तज दुर्योधन राजा।।
भगवान कृष्ण विदुर के भोजन खाने चले गए। राजा दुर्योधन के वो मेवा, मान, मिठाई नहीं खाई। मेवा वगैरा जो ला रखी थी। तो कबीर साहेब भी कहते हैं की,
खीर खांड पकवान मिले, भाई साकट संग नहीं जा। और लुखा सुखा भगत का, रुचि रुचि भोग लगा।।
साकट के घर में रोटी खान (खाने) नहीं जा, चाहे उड़े वो (वहां)) क्या में, कितनी ही अच्छी व्यवस्था कर राखी हो और लूखा-सूखा अपने भगत का उसी में आनंद मना लेवे। वह सुखी होगा भक्त संत जो है। तो कहते हैं,
थाल नहीं था विदुर के, धनी जीमे दोना। और व्यंजन छत्तीसों छोड़कर, पाया साग अलूणा।।
अलूणा जिसमें नून नहीं था। नमक नहीं था और वह हरा साग खाकर बंदी छोड़ ने यानी भगवान कृष्ण ने खुशी मनाई।
मान बढ़ाई से हैं दूर ,आजिज के हैं सदा हजूर। बूक बाकला दिए विचार। भए चकवे कई एक बार।।
बूक बाकला बाकली बनाया करते। एक बार अकाल पड़ गया था बहुत भयंकर। अन्न खत्म हुआ। एक राजा ने अपनी नगरी में, कई नगरियों में जगह-जगह पर, बड़े-बड़े शहरों में बाकली बनवा दिया करते दो समय। उनका समय fix (फिक्स- सुनिश्चित) कर रखा था कि इस समय से इस समय तक बाकली एक बूगटा बूक यानी एक बूक ऐसे डाल दिया करते थे। झोली में डलवाकर उसको खाओ अपना। दूसरी नहीं मिला करती उसको और समय फिक्स था की इतने समय के दौरान कोई आ गया तो ठीक है फिर नहीं होगा।
तो वहां भंडारे पर एक भगत गया उसने देखा कि बूक उसके डाल दी फिर देखा उसमें कढ़ाहे में की अब खत्म हो चुका है। दो-चार का रह रहा है और पांच-सात मेरे पीछे थे। तो वह पांच-सातों के हिसाब से उन्होंने थोड़ा-थोड़ा करके उनको बांट दिया और कह दिया भाई भंडारा अब बंद हो गया। वह जब जा रहा था तो रास्ते में एक और भक्त आवे था और वह इतना भूखा था, उठा जा, चले, फिर बैठ जावे। चले, फिर बैठ जावे। उसको मालूम था कि यहां भंडारा चला हुआ है। तो वह जो आखिरी लेकर आया था उसने देखा कि भंडारा खत्म हो चुका और बंद हो चुका। उससे वह पूछ बैठता है जो बेचारा चल भी नहीं सके था भंडारे की तरफ जा रहा था। कहने लगा भाई भंडारा चल रहा है? वो यह बोला भाई बंद हो लिया। वो कती (बिल्कुल) एकदम की भई आज तो रात पूरी हो नहीं सकती आज तो मर जाऊंगा।
एकदम हक्का सा मान कर और गिर गया। तो वह बोला भाई ऐसे मत करे ले मेरे पास है तू यह ले ले और वह उससे भी भूखा। उसने भी दो-तीन दिन हो गए थे रोटी खाए। उस भूखे के आगे वह अपनी बूक यानी वह बाकली कर दी की ले लेले। वह तो इतना भूखा मरे था की एकदम सारे ने मुंह लगाकर उठाया ही नहीं। उसी के आंजले में फटाफट सारे ने खा गया और वह देखता रहा। की इसने छीक लेन दे देखी जागी अपनी तो जो बनेगी। उसकी जान बचा दी। वह अपना पड़ गया। सुबह फिर आंख खुली अपना रोटी खाकर जान बचाई। कहते हैं उस एक बूक बाकला ने उसको जीवनदान दे दिया, उस दूसरे को जो की मरे था बिलकुल और आप भी बहुत भूखा था। अपनी परवाह नहीं करी। तो उसके बदले में वो जिसने बूक बाकली दी थी, उस दूसरे भूखे को, जिसकी जान बचाई थी, उसके बदले में वह व्यक्ति कई बार चक्रवर्ती राजा हुआ। एक बूक बाकली देने से, पर ऐसी व्यवस्था में देवे जो कि आप भी मरने को हो रहा, पर उसकी जान ज़्यादा बेहतर समझी। की भाई देखी जाएगी हमने तो। जब इस बेचारे पर उठा जाता, ना बैठा जाता। तो कहते हैं उसके बदले में कई बार चक्रवर्ती राजा हुआ उस दान के बदले में। तो यहां बंदी छोड़ कहते हैं कि,
बूक बाकला दिए विचार और भए चकवे कई एक बार।।
अब एक वाणी में इतनी गहराई छीपी हुई है कि कई बार चक्रवर्ती राजा वह बना।
विट्ठल होकर रोटी, पाई। रामदेव की कला बधाई।।
यह विट्ठल होकर के भगवान ने जो है ना विष्णु भगवान ने, नामदेव का दूध पी लिया था। रोटी खा ली थी। महाराज कहने लगे भाई रोटी चोपड़ नहीं रखी। कुत्ता लेकर भाग लिया। नामदेव रोटी खा रहा था। कुत्ता बनकर आ गया और उसने वह विट्ठल भगवान दिखे, लोगों ने कुत्ता दिखे। छालना पकड़ें जा। नामदेव कहे भाई महाराज जी, यह तो बिना चोपड़ी है थोड़ा चोपड़ लगवा लो। घी लेकर घीलड़ी पीछे- पीछे भागा जा और यह कहैं अच्छा बावला यह भगतजी कुत्ते को यह कहे महाराज जी और कुत्ता रोटी खाए जा। कुत्ता रुक गया। रोटी चोपड़ी। दोनों ने रोटी इकट्ठी खाई। लोग यह कहें कुत्ते गैल रोटी खावे। उनको कुत्ता दिखे और उसको भगवान नज़र आवे, विट्ठल रूप में। विट्ठल भगवान एक विशेष मूर्ति है वहां पर इसमें महाराष्ट्र के अंदर है। तो वहां विट्ठल भगवान के नाम से जैसे यहां पर कृष्ण की मूर्ति है वहां पर विट्ठल की मूर्ति बनाकर के वह लोग पूजते हैं। तो कहते हैं,
विट्ठल होकर रोटी पाई। नामदेव की कला बधाई।। धना भगत को दिया बीज, जाका खेत निपाया रीझ।।
धन्ना भगत जी ने बीज बांट दिया था। बीज। अब देखो कहने को तो हम भी कहते हैं और आप भी कह दोगे की धन्ना भगत ने देख बेचारे ने बीज दे दिया था पर बीज का बांटना कोई बालकों का खेल नहीं है। कह तो देना आसान है हम भी कथा सुना दे हैं पर करके देखो इस काम ने। जब पता चले। फिर उसके बदले में प्रतिक्रिया देखियाे भगवान की, उस परमात्मा की। अब हम तो लाख रुपये में भी 2000 देते समय छह बार सोचेंगे देवें के नहीं देवें? और कथा कहे और सुनें और सुनावां। चलो कोई नहीं सुनने से ही ज्ञान होगा, विश्वास भी होगा।
धन्ना भगत जावे था। कई साल में तो बारिश हुई। पहले ऐसी ही बारिश हुआ करती कभी-कभी। उसकी घरवाली ने कहा कि लो जी भगत जी! यह ज्वार बोया और चलने लगा जब वह ज्वार धड़ी पक्की ऐसे बोली देख कहीं इन्हें राह में बांट जा तू। इसने बो आइये, नहीं बालक भूखे मर जावेंगे और हम भी। मुश्किल से बारिश हुई है। वह बोला नहीं बोकर आऊंगा। उसने जाकर के रास्ते में जावे था बंदी छोड़! अब यहां फिर वही रहस्य आता है जहां जिसको उभारना है, बंदी छोड़ बिना कोई उभर नहीं सका आपको 100 प्रमाण दूंगा ऐसे-ऐसे और प्रमाणित करके दिखाएगें बंदी छोड़ की वाणी को की कबीर साहेब आते हैं ‘जब तत बग जा है जीव का’। नहीं यह काल इनकी फिर दुर्गति कर देता है इन जीवों की। एक बार भक्ति करा दे, तीसरे में लूट ले दूसरे में, चोथे में कुत्ता बना कर छोड़ दे चल भाई घूम। फिर आ जाना कभी भक्ति करने को दिल करे तो। तो वहां सतगुरु महाराज 4-5 साधुओं के साथ साधारण से भक्त रूप में और आप भी राम-राम-राम-राम करते हुए जाने लग रहे और राम-राम का उच्चारण सुना तो धन्ना भगत जी ने देखा भगत जी आवे सें। भगत जिओं भगत जिओं, राम-राम भगत जिओं। वो खड़े हो गए। वह तो आ ही रहे थे बंदी छोड़ ऐसी कृपा करने के लिए। कहने लगे कहां से आए हो? की भाई तीन दिन हो गए रोटी नहीं मिली मरे हैं भूखे।
कहां से आए भगत जी, कहां जावे थे। हमने कोई इस राजस्थान में पानी पिलाने वाला भी नहीं मिलता। रोटी तो दूर की बात है और पहले ऐसा ही होता था। रोटी नहीं मिला करती थी इस बागड़ी area (एरिया-क्षेत्र) में। आदमी-आदमी ने रोटी नहीं दिया करता, अपनी बांध के ले जाया करते थे। सब जगह ही था वहां क्या! ऐसे बोले भगत जी हम तो मरने को हो रहे हैं बिल्कुल! असल में तो शाम पूरी नहीं हो आज, हमारे प्राण निकल जाएंगे। तीन दिन हो गए रोटी नहीं मिली है। तो वह कहने लगा महाराज जी! मेरे पास तो यह ज्वार है थोड़ी सी। यह देख लो महाराज। की ला भाई ज्वार दे दे भगत जी। हम तो मरे हैं भूखे। बैठकर चारों ने किलो-किलो ज्वार फटाफट खा गए उसकी आंखों आगे। भूखा मरता पता नहीं क्या खा जावे। कहते हैं बाढ़ कूट-कूट कर खाई लोगों ने। बोदी बाढ़ को कूटकर जब पेट भरा।
नहीं तो आंत काट जा आपस में एक दूसरे ने, खत्म हो जाए आदमी। तो ज्वार खा गए। धन्ना बैठा-बैठा खुशी से खिला कर भी मन में ये नहीं आई तने ज्वार खिला दी घर के क्या कहेंगे। की बोन की कही थी बो दिया है। भगत तो अपने हिसाब से बोवे हैं और जगत अपने हिसाब से बोवे है। आ गया वापस कांकर इकट्ठी करी खेत में डाल दी और निकाल दिए मोटे-मोटे से जाइये। घरवाली बोली की बो आया? की बो आया। अब झूठ भी नहीं। वह अपने हिसाब से बोकर आया है। जगत अपने हिसाब से बोवे था। धर्म भी बोना होता है। असली बोना तो ये है जो की हम धन धर्म पर लगाते हैं। अब महीने दो महीने के बाद देखे हैं, लोगों के तो ज्वार हो रही गोडे-गोडे यानी तीन, दो-दो, ढाई-ढाई फीट और भगत जी के उग रही बेल और उसमें ऐसे मोटे-मोटे तुम्बे जिसके इकतारे बनते हैं। पड़ोसन ने आकर बताया आए, थारे तो बेल उग रही है। ज्वार नहीं है? की नहीं ज्वार का तो पौधा भी नहीं उसमे एक भी पौधा नहीं। अब उसके जमा गोडे तो गए टूट। की इसने खाली मैं तो। इस भगत जी ने करा नास। यह भी कहीं करके आया है जरूर।
उससे वहां नहीं बोली क्यों रोज की रोज माथा मारा इसकी गेल। पहले देखकर आऊंगी। खेत में जाती है देखती है। वही बात, ऐसे मोटे-मोटे तुंबे लग रहे उसका एक बार तो बिल्कुल बुरा हाल हो गया। पारा शिखर में, बहुत काली मानी (दुःख माना)। की जुल्म कर दिया इसने तो, दुनिया के तो ज्वार खड़ी और देख हमारे ये। वह लेकर एक तूम्बा घर को आ गई। आकर अपने पति यानी भगत धन्ना के ऊपर बहुत क्रोधित सा होकर कहने लगी की ज्वार बोई थी? की हां बोई थी। की झूठे! ये देख! ये मतीरे लग रहे। ये बालक तने खावेंगे के? ऐसे कहकर उसके सिर में मारा। सिर तो गया बचा वो धरती पर लग गया, फूट गया, दो टुक होते ही उसमें से धड़ी पक्की ज्वार निकली।
बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज की जय हो।
इसने देखकर और वह एक बार तो धन्ना की तरफ देखै। जो टेढ़ी गर्दन करें ऐसे लेट रहा था अपना सिर बचावन की तरह। और दूसरी तरफ वह धड़ी पक्की ज्वार जो जमीन पर बिखर गई थी उसने देखे। कहने लगी महाराज यह ज्वार कैसे आ गई इसमें? की मुझे नहीं पता भाग्यवान कैसे आ गई। वह मालिक जाने और वह करने वाला जाने। उसने वह ज्वार इक्ट्ठी करी क्यों टोटा बहुत था दुख बहुत था। घर ने रख दी। लेकर गठड़ एक चद्दर बहुत बड़ी सी की गठड़ी बांध कर लाऊंगी। सारे मतिरो में पावेगी फिर तो। मतीरे इतने लग रहे उपरा तली पड़े। और बिछा कर चद्दर वह पागल सी होगी। जैसे कंगले को धन दिख जा। भूखे को भजन दिख जा। और वह भी इतना। पागल सी हो गई मारे रख के उसने मतीरे ने एक चादर पर एक मारे मोगरा उसके दो टुक हो जावे। वहां डाल दे।
फिर उठाकर लावे ढेर लगा दिया इतना ऊंचा। और आसपास के देखे की यह ज्वार कहां से आवे है ? इसमें ज्वार कहां से आवे है ? अड़ोसी - पड़ोसी सारे इकट्ठे हो गए। देखे हैं की भई धना के तुम्बां में ज्वार निकले है। गांव इकट्ठा हो गया। सारे फोड़ - फोड़ देखें। वह ढेर लग गया इतना लंबा। पूरी रास होगी। कहते हैं उसी समय धना भी पहुंच गया। कहने लगा भाग्यवान बेईमाना मत करिये। अपना अपना ले जाना जितना तेरे घर में जरूरत है साल भर का फालतू मत ले जाना। तो वह कहने लगी नहीं सारी ले जाऊंगी। की नहीं सारी नहीं ले जाएगी। अपने-अपने हिसाब का लेजा। वह लेगी 2 गट्ठर ढोए, 3 ढोए, 4 ढोए और सबको को ये बोला भाई पूरा गांव ले जाओ। ले जाओ अपना ।
सारा गांव ले जाओ जिसको जितनी आवश्यकता है इतनी ले जाओ फालतू मत ले जाइयो। तो कहते हैं की जब वह पांचवा-छठा चक्कर करने लग गई पूरी गठड़ बांध ली। और गाली देती जा अपने पति ने। की तू नाश करावेगा हमारी ज्वार ने सारे गांव में बांटने लग रहा। गठरी रखे जा रही वहां दो - तीनों ने उठवाई थी उसको। घर पहुंची जब 2 किलो रह गया उस गठड़ी में। उसके सिर पर 2 किलो ज्वार रह गई। तो वह एकदम हैरान रह गई। धन्ना बोला भगतमति मैंने पहले ही कहा था तेरी जितनी जरूरत है वह तेरी आ गई फालतू नहीं ला सकती तू। क्यों लाऊं क्यों नहीं फिर जाऊंगी फिर गई। फिर आई मरती गांव तक बोझ। दाना नहीं रहा उसमें खाली वह चद्दर चदर रह गई। फिर उसने सब्र कर लिया की बात तो कुछ और ही है। अब नहीं छेड़ती मैं इसने। तो इसी प्रकार सारे गांव ने कहते हैं वह ज्वार ढोई आवश्यकता अनुसार अपनी।
बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज की जय हो।
तो इसी प्रकार कहते हैं,
धन्ना भगत कुं दिया बीज। जाका खेत निपाया रीझ।।
अब बीज का बांटना कोई बच्चों का खेल नहीं है कोई बांट कर देखो। पर महाराज कहते हैं, ऐसे नहीं, कहीं कोई कल ही डाल आवे। प्रथम नियम से बंधे, गुरु धारण करें। पूरा गुरु यानी सब जिसके ऊपर पूरी परमात्मा की रज़ा हो, उससे नाम ले। फिर करनी करें और करनी करके फिर ऐसा मौका आवे, फिर करके देखियो। महाराज कहते हैं;
करणी कर जरना जरे, सो साधु सरपोष।
यानी करनी करें, यह करनी कर रखी थी पहले धन्ना ने फिर वह काम किया तो, फिर तमाशा देखें उसका। हम तो अपनी बीती हुई बात कह रहे हैं भगत जी लोक दंतकथा नहीं है यह। हमने जो आजमाया सतगुरु की कृपा से वही आपको सुना रहे हैं। अब देखो! यह प्रोग्राम जो बंदी छोड की कृपा से हो रहा है इसमें कोई भ्रम नहीं रहेगा आपके। साल भर का आपको मसाला मिल जाता है। फिर महीने में सत्संग होता है उसमें जरूर आओ। घर-घर में पाठ करवाओ। साल भर में एक पाठ ज़रूर करवा लेना। ज़रूर करवाया करो। जिसका ब्योत नहीं हो पाता, हाथ जोड़े बंदी छोड़ के आगे। यह ना समझना कि हम आपको जैसे कई कहते हैं की धाम पर जाना नहीं चाहिए। खूब जाना चाहिए। हम तो बल्कि प्रथम कहते हैं की बंदी छोड़ का एकमात्र धाम।
पर धाम से जो लाभ है वह जब लाभ देगा जब आप गुरु की आज्ञा में चलोगे। तो यहां कहा है की एक जैसे आपका नहीं बात बनती है, पाठ नहीं करवा पाते हैं। कोई ना कोई आंट बने से (दिक्कत बनती है) तो सतगुरुओं के आगे अर्ज करो। खूब अर्ज करो। बंदी छोड़ हमारे भी दया करो। ऐसा नहीं हो पाता तो हमारे पास भी कभी हो जावे जिक्र किसी कारण से तो हम भी रोवे बंदी छोड़ के आगे। अर्ज उन्हीं से करनी है तो इस प्रकार फिर एक दिन आपकी बंदी छोड़ सुन लेंगे और कथा होनी शुरू हो जाएगी।
मानसरोवर हंस है रंग होरी हो, मोती करें आहार राम रंग होरी हो। गरीबदास ल्यौलीन है रंग होरी हो, आवागवन निवार राम रंग होरी हो।। गरीबदास गल ल्यौलीन है रंग होरी हो, आवागवन निवार राम रंग होरी हो।।
बोल सतगुरु देव की जय।
सतसाहेब