यथार्थ भक्ति बोध


यथार्थ भक्ति बोध

यथार्थ भक्ति बोध | भूमिका

परमात्मा से सब होत है, बन्दे से कुछ नाहीं।
राई से पर्वत करें, पर्वत से फिर राई।।
रामनाम की लूट है, लूटि जा तो लूट।
पीछे फिर पछताएगा, प्राण जाहिंगे छूट।।
भक्ति बिना क्या होत है, भ्रम रहा संसार।
रति कंचन पाया नहीं, रावण चलती बार।।
कबीर, सब जग निर्धना, धनवन्ता ना कोए।
धनवन्ता सोई जानिए, जा पै राम नाम धन होय।।

‘‘भक्ति बोध’’ नामक पुस्तिका के अन्दर परमेश्वर कबीर जी की अमृतवाणी तथा परमेश्वर कबीर जी से ही प्राप्त तत्वज्ञान सन्त गरीबदास जी की अमृतवाणी है। जिस वाणी का पाठ प्रतिदिन नियमित करना होता है। जिस कारण से इसको ‘‘नित्य-नियम’’ पुस्तिका भी कहा जाता है। इस पुस्तक में लिखी अमृत वाणी का पाठ उपदेशी को तीन समय करना पड़ता है।

सुबह पढ़ी जाने वाली अमृतवाणी को (1) ‘सुबह का नित्य नियम‘ कहते हैं। यह रात्रि के 12 बजे से दिन के 12 बजे तक कर सकते हैं। वैसे इसको सुबह सूर्योदय के समय कर लें।

(2) ‘असुर निकंदन रमैणी‘ दिन के 12 बजे के बाद रात्रि के 12 बजे से पहले (जब भी समय लगे) किया जाने वाला पाठ है। वैसे इस पाठ को दिन के 12 बजे से 2 बजे तक किया जाने का विधान है। फिर भी कार्य की अधिकता से समय के अभाव में ऊपर लिखे समय में भी कर सकते है। लाभ समान मिलता है।

(3) ‘‘संध्या आरती’’ यह पाठ शाम को सूर्यास्त के समय करना चाहिए। विशेष परिस्थितियों में रात्रि के 12 बजे तक भी कर सकते हैं। लाभ समान मिलता है। यह वाणी दोहों, चौपाइयों, शब्दों के रुप में बोली गई हैं। इसमें ‘पद्य’ भाग में राग तथा पद के अनुसार वाणी बोली जाती है। यह अमृतवाणी क्षेत्राीय भाषा में है जिससे भावार्थ को समझना जन साधारण के वश की बात नहीं है। इस अमृतवाणी की भाषा साधारण है, परन्तु रहस्य गहरा है। तत्वदर्शी सन्त ही इस अमृतवाणी का यथार्थ अनुवाद कर सकता है। जैसे श्री मद्भगवत गीता के श्लोक हैं, ऐसे ही भक्ति बोध में लिखी अमृतवाणी के दोहे (श्लोक) हैं। श्री मद्भगवत गीता को लिखे लगभग 5500 वर्ष हो चुके हैं। सैंकड़ों अनुवादकों ने वर्षों पूर्व हिन्दी या अन्य भाषाओं में अनुवाद भी कर रखा है। परन्तु किसी का अनुवाद भी प्रकरण के अनुरुप नहीं है। जिस कारण से अर्थों के अनर्थ कर रखे हैं।

उदाहरण: गीता अध्याय 7 श्लोक 18 तथा 21 में ‘‘अनुत्तम’’ शब्द है जिसका अर्थ अति-उत्तम किया है जबकि ‘‘अनुत्तम’’ का अर्थ अश्रेष्ठ (घटिया) होता है। उत्तम का अर्थ श्रेष्ठ होता है। इसके विपरित ‘‘अनुत्तम’’ का अर्थ अश्रेष्ठ है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में ‘व्रज’ शब्द है जिसका अर्थ ‘जाना’ होता है। सर्व गीता अनुवादकों ने ‘व्रज’ का अर्थ आना किया है। उदाहरण के लिए जैसे अंग्रेजी के शब्द Go का अर्थ जाना होता है। यदि कोई Go का अर्थ आना करता है तो वह अनर्थ कह रहा है।

इसी प्रकार परमेश्वर कबीर जी की वाणी तथा सन्त गरीबदास जी की वाणी का यथार्थ अनुवाद तत्वदर्शी सन्त ही कर सकता है। इस ‘भक्ति-बोध’ का हिन्दी अनुवाद किया जाएगा क्योंकि वर्तमान में सर्व बच्चे हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषी हो गए हैं। आने वाले समय में सन्तों की वाणी जो अधिकतर क्षेत्राीय भाषा में बोली गई है, इसको यथार्थ रुप में जानना बहुत कठिन हो जाएगा। अनुवादकर्ता दोनों जुबानों का अनुभव रखता है। वर्तमान में विश्व में एकमात्र तत्वदर्शी सन्त है। अनुवादकर्ता का जन्म दिनाँक 08 सितंबर 1951 में हुआ था। इस कारण से आज सन् 2013 में अनुवाद करने जा रहा हूँ तो सर्व क्षेत्राीय भाषा के शब्द जो अमृतवाणी में है, उनके अर्थ अच्छी तरह जानता हूँ। फिर भी अनुवाद में कोई त्रुटि रह जाये तो क्षमा चाहूँगा। वैसे त्रुटि की तो गुंजाइश ही नहीं है।

- संत रामपाल जी महाराज
(लेखक-अनुवादक)

भक्ति बोध का अर्थ ‘‘परमात्मा की पूजा का ज्ञान’’ (भक्ति, पूजा, अर्चना) प्रेम भक्ति से मोक्ष होता है। आध्यात्म मार्ग में ‘पूजा’ के साथ ‘साधना’ शब्द भी मुख्य रुप से सुना जाता है।

अब प्रश्न उठेगा: क्या ‘पूजा’ और ‘साधना’ भिन्न है?

उत्तर: हाँ, पूजा और साधना भिन्न होते हुए भी दामन-चोली का साथ है। उदाहरण: जैसे हमें जल की अति आवश्यकता है। जब प्यास सताती है तो जल के अतिरिक्त कुछ भी याद नहीं आता। उसकी प्राप्ति कैसे हो या तो जल की दरिया हो या सरोवर हो जो जल का स्त्रोत है। दरिया हमारे निवास स्थान से दूर होने के कारण हम प्रतिदिन वहाँ से जल नहीं ला सकते। सरोवर भी दूर ही होता है। फिर आवश्यकता पड़ी कि कुआं खोदा जाए। अब वर्तमान में नल (हैंडपम्प) अधिक उपयोगी सिद्ध हुआ है।

प्यासा व्यक्ति ‘जल’ प्राप्ति की इच्छा करता है। उसके लिए कुआँ खोदने या नल लगाने का कार्य करता है तब इच्छित वस्तु (जल) प्राप्त होती है। पूजा तथा साधना का भेद-अभेद जानने के लिए उपरोक्त विवरण से प्रमाण लेते हैं:- जल प्राप्ति की इच्छा तो ‘पूजा’ जानें तथा कुआं खोदने तथा नल लगाने के लिए की गई क्रिया को साधना जानें।

इसी प्रकार प्रभु प्यासे भक्त की परमात्मा प्राप्ति की प्रबल इच्छा को पूजा कहते हैं। परमात्मा प्राप्ति के लिए की जाने वाली आध्यात्मिक क्रियाओं को साधना कहते हैं।

प्रश्न: साधना में कौन-सी आध्यात्मिक क्रियाएं करनी होती हैं

उत्तर: (क) पाठ (ख) यज्ञ (ग) तप (घ) जप

(क) पाठ:

सद्ग्रन्थों का स्वाध्याय पाठ कहलाता है। जैसे श्री मद्भगवत गीता के श्लोकों को प्रतिदिन पढ़ना। कुछ भक्त कहते हैं कि हम प्रतिदिन गीता के एक अध्याय का पाठ करते है। कुछ भक्त (साधक) वेद मन्त्रों का नित्य पाठ करते हैं। कुछ भक्त किसी सन्त की अमृतवाणी से कुछ पाठ या शब्दों का नित्य पठन-पाठन करते हैं।

मुसलमान भक्त कुरान शरीफ से कुछ वाणी (आयतें) पढ़ते हैं या पाँच समय निमाज (प्रभु स्तुति) करते हैं। यह सब पाठ कहलाता है। किसी ग्रन्थ का अखण्ड पाठ करना या वैसे आदर से किसी समय ग्रन्थ को पढ़ना, वेदों या गीता को पढ़ना यह सब भी पाठ साधना ही कहलाती है। ज्ञान ग्रहण के उद्देश्य से ग्रन्थों को पढ़ना भी पाठ साधना ही कही जाती है। इसे ज्ञान यज्ञ भी कहा जाता है। यज्ञ: यज्ञ का अर्थ है धार्मिक अनुष्ठान। मुख्यतः यज्ञ पाँच हैं:

  1. धर्म यज्ञ
  2. ध्यान यज्ञ
  3. हवन यज्ञ
  4. प्रणाम यज्ञ
  5. ज्ञान यज्ञ।

1- धर्म यज्ञ:

 धर्म यज्ञ कई प्रकार से की जाती है। जैसे भूखे को भोजन कराना, पक्षियों को दाना-पानी डालना, पशुओं के लिए पीने के पानी की व्यवस्था करना, पशुशालाएं बनवाना, मनुष्यों के लिए प्याऊ (पीने के पानी की व्यवस्था करना) बनवाना, धर्मशाला बनवाना, निर्धनों को कम्बल दान करना या अन्य वस्त्रा दान करना, धार्मिक भोजन भण्डारे करना। प्राकृतिक आपदाओं (अकाल गिरना, बाढ़ आना) में खाद्य पदार्थों और दवाईयों के लिए दान करना, दुर्घटनाग्रस्त व्यक्तियों की सहायता करना आदि-आदि अनेकों प्रकार से धर्मयज्ञ की जाती है। परन्तु आध्यात्म मार्ग में धर्म यज्ञ पूर्ण गुरु के द्वारा की जाती है। वह वास्तव में धर्म यज्ञ होती है।

कबीर, गुरु बिन माला फेरते, गुरु बिन देते दान।
गुरु बिन दोनों निष्फल है, पूछो वेद पुराण।।

प्रश्न: क्या गुरु धारण किए बिना धर्म यज्ञ का कोई लाभ नहीं है

पहले तो बताया है कि उपरोक्त सर्व धर्मयज्ञ कहलाती हैं। अब कहा कि गुरु बिन धर्म (दान) यज्ञ वास्तविक नहीं होती अर्थात् वास्तविक नहीं है तो लाभ भी वास्तविक नहीं होगा। कृप्या स्पष्ट करें।

उत्तर: गुरु धारण करने के पश्चात् धर्म (दान) यज्ञ का पूर्ण लाभ मिलता है क्योंकि पूर्ण गुरु शास्त्रोक्त विधि से भक्ति कर्म (साधना) करता है। उसमें एक नाम जाप यज्ञ भी करता है। जिस का विस्तारपूर्वक विवरण आगे लिखा जाएगा। यदि गुरु धारण किए बिना मनमर्जी से कुछ धर्म किया तो उसका फल भी मिलेगा क्योंकि जैसा कर्म मानव करता है, उसका फल परमात्मा अवश्य देता है, परन्तु न तो मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है और न ही मानव जन्म मिलना सम्भव है। बिना गुरु (निगुर) धार्मिक व्यक्ति को किये गये धर्म का फल पशु-पक्षी आदि की योनियों में प्राप्त होगा। जैसे हम देखते हैं कि कई कुत्ते कार-गाड़ियों में चलते हैं। मनुष्य उस कुत्ते का ड्राईवर होता है। वातानुकुल कक्ष में रहता है। विश्व के 80 प्रतिशत मनुष्यों को ऐसा पौष्टिक भोजन प्राप्त नहीं होता जो उस पूर्व जन्म के धर्म के कारण कुत्ते को प्राप्त होता है। मनुष्य जन्म में किए धर्म (पुण्य-दान) को कुत्ते के जन्म में प्राप्त करके वह प्राणी फिर अन्य पशुओं या अन्य प्राणियों का जन्म प्राप्त करता है। इस प्रकार 84 लाख प्रकार की योनियों को भोगता है। कष्ट पर कष्ट उठाता है। यदि वह मनमुखी धर्म करने वाला धार्मिक व्यक्ति कुत्ते के जीवन में धर्म का फल पूरा करके सूअर का जन्म प्राप्त कर लेता है तो उसको अब कौन-सी सुविधा प्राप्त हो सकती है। यदि उस प्राणी ने मानव शरीर में गुरु बनाकर धर्म (दान-पुण्य) यज्ञ की होती तो वह या तो मोक्ष प्राप्त कर लेता। यदि भक्ति पूरी नहीं हो पाती तो मानव जन्म अवश्य प्राप्त होता तथा मानव शरीर में वे सर्व सुविधाऐं भी प्राप्त होती जो कुत्ते के जन्म में प्राप्त थी। मानव जन्म में फिर कोई साधु सन्त-गुरु मिल जाता और वह अपनी भक्ति पूरी करके मोक्ष का अधिकारी बनता। इसलिए कहा है कि यज्ञों का वास्तविक लाभ प्राप्त करने के लिए पूर्ण गुरु को धारण करना अनिवार्य है।

कबीर, सतगुरु (पूर्ण गुरु) के उपदेश का, लाया एक विचार।
जै सतगुरु मिलता नहीं, तो जाते यम द्वार।।
कबीर, यम द्वार में दूत सब, करते खैंचातान।
उनसे कबहु ना छूटता, फिरता चारों खान।।
कबीर, चार खान में भ्रमता, कबहु न लगता पार।
सो फेरा (चक्र) सब मिट गया, मेरे सतगुरु के उपकार।।
कबीर, राम कृष्ण से कौन बड़ा, तिनहुं भी गुरु कीन्ह।
तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे आधीन।।

ध्यान यज्ञ

ध्यान के विषय में आम धारणा है कि एक स्थान पर बैठकर हठपूर्वक मन को रोकने का प्रयत्न करने का नाम ध्यान है।

पूर्व के ऋषियों ने लम्बे समय तक हठयोग के माध्यम से ध्यान यज्ञ किया। उन्होंने शरीर में परमात्मा को खोजने, परमात्मा के दर्शन के लिए ध्यान यज्ञ किया। शरीर में प्रकाश देखा जिसको ईश्वरीय प्रकाश (Divine Light) कहते हैं। अन्त में ऋषियों ने अपना अनुभव बताया कि परमात्मा निराकार है। ध्यान अवस्था में परमात्मा का प्रकाश ही देखा जा सकता है। विचार करने की बात है कि कोई कहे कि सूर्य निराकार है। केवल सूर्य का प्रकाश देखा जा सकता है। यह बात कितनी सत्य है। इसी प्रकार आज तक सर्व ध्यानियों का अनुभव है। कुछ वर्षों तक ध्यान-समाधि करने के पश्चात् फिर सामान्य जीवन जीते थे तथा परमात्मा की अन्य साधना भी ऋषि लोग किया करते थे। यह ध्यान नहीं हठ योग के द्वारा कठिन तप होता है। जो श्री मद्भगवत गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में बताया है कि जो मनुष्य शास्त्राविधि रहित घोर तप को तपते हैं। अहंकार और दम्भ (पाखण्ड) से युक्त कामना, आसक्ति और बल के अभिमान से युक्त हैं। (17/5) वे शरीर रुप में स्थित कमलों में स्थित प्राणियों के प्रधान देवताओं को और शरीर के अन्दर अन्तःकरण में स्थित मुझ ब्रह्म को भी कृश करने वाले हैं। उन अज्ञानियों को तू आसुर (राक्षस) स्वभाव वाले जान। (17/6) भावार्थ है कि जो ध्यान हठ योग के माध्यम से ऋषि लोग क्रिया करते थे, वह किसी वेद या चारों वेदों के सारांश श्री मद्भगवत गीता में करने को नहीं कहा है। यह ऋषियों का सिद्धियाँ प्राप्त करने मनमाना आचरण है। इससे परमात्मा प्राप्ति नहीं है क्योंकि गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि शास्त्रा विधि को त्यागकर जो मनमाना आचरण करते हैं उनको न तो सुख प्राप्त होता है, न कोई कार्य की सिद्धि होती है, न उनकी गति (मोक्ष) होती है अर्थात् व्यर्थ। (16/23) इससे तेरे लिये अर्जुन कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण हैं। उपरोक्त उल्लेख से स्पष्ट हुआ है कि ऋषियों द्वारा किया गया ध्यान शास्त्राविधि रहित होने से व्यर्थ है।

प्रश्न उठता है कि वे ऋषि जन तो वेदों के पूर्व विद्वान थे। उन्होंने यह गलती क्यों की?

उत्तर है: श्री देवीपुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित केवल हिन्दी, सचित्र मोटा टाईप) में चौथे स्कंद पृष्ठ 414 पर लिखा है कि ‘‘सत्य युग’ के ब्राह्मण वेद के पूर्ण विद्वान थे और देवी आराधना किया करते थे। प्रिय पाठको! यह उल्लेख देवी पुराण का है। आप जी को बता दें कि ‘‘गीता शास्त्र चारों वेदों का सारांश है। आप जी गीता को तो आसानी से पढ़ तथा जाँच सकते हो। गीता में कहीं पर भी श्री देवी की पूजा करने का आदेश नहीं है। इससे सिद्ध हुआ कि चारों वेदों में भी श्री देवी (दुर्गा जी) की पूजा का विधान नहीं है। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि सत्ययुग के ब्राह्मण (ऋषि) वेद के विद्वान नहीं थे। फिर त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलयुग के ऋषियों ब्राह्मणों का क्या कहना इनका ज्ञान तो सत्ययुग के ब्राह्मणों से न्यून ही है। इसी प्रकरण में पृष्ठ 414 पर श्री देवी पुराण में यह भी स्पष्ट किया है कि ‘‘सत्य युग में जो राक्षस माने जाते थे, कलयुग में ब्राह्मण उन राक्षसों जैसे हैं। यह भी लिखा है कि सत्ययुग की अपेक्षा त्रोता के ब्राह्मणों को कम ज्ञान था। इसी प्रकार प्रत्येक युग में ज्ञान की हानि होती आई है।

श्री देवी पुराण के सातवें स्कंद के पृष्ठ 562-563 पर ‘‘राजा हिमालय को ज्ञानोपदेश करते समय स्वयं श्री देवी जी (दुर्गाजी) ने कहा है कि राजन! और सब बातों को छोड़ दे, (मेरी भक्ति भी त्यागकर) केवल ‘ब्रह्म’ की भक्ति कर जिसका ओम् (ऊँ) नाम है। इससे उस ब्रह्म को प्राप्त हो जाओगे जो दिव्य आकाश रुपी ब्रह्मलोक में रहता है’’। उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध हुआ कि सत्ययुग से लेकर कलयुग तक के ऋषि (ब्राह्मण) वेद ज्ञानहीन थे। पूर्ण अज्ञानी थे। जिस प्रकार ऋषिजन श्री देवीपूजा करते थे जो शास्त्र विरुद्ध पूजा थी। इसी प्रकार ध्यान जो हठ योग से करते थे वह भी शास्त्रा विधि रहित होने से व्यर्थ साधना थी।

प्रश्न: यह हठ तप करके ध्यान का प्रचलन कैसे हुआ?

उत्तर: श्री देवी पुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी) के तीसरे स्कंद में पृष्ठ 113-116 पर लिखा है कि ‘‘अपने पुत्र नारद के सृष्टि उत्पत्ति सम्बन्धी प्रश्न का उत्तर देते समय श्री ब्रह्मा जी ने बताया कि जिस समय मेरी उत्पत्ति हुई, मैं कमल के फूल पर बैठा था। चारों और केवल समुद्र का जल था, और कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं हो रही थी। आकाशवाणी हुई कि तप करो, मैंने एक हजार वर्ष तक तप किया। फिर आकाशवाणी हुई कि सृष्टि करो।’’

विचार करें:- जिस समय ब्रह्मा जी को उपरोक्त आकाशवाणी हुई, उस समय तक ब्रह्मा जी को वेदों की प्राप्ति नहीं हुई थी। वेद तो बाद में सागर मंथन में प्राप्त हुए थे। वेदों में उपरोक्त आकाशवाणी वाला तप करने को नहीं कहा है, यह ऊपर प्रमाणित हो चुका है। जो तप ब्रह्माजी ने स्वयं (एक हजार वर्ष तक) किया, वह शास्त्रानुकुल साधना नहीं है। यह मनमाना आचरण है जो भ्रमित करने के लिए काल ब्रह्म ने गुप्त रुप से उच्चारण करके ब्रह्माजी को करने के लिए कहा था। श्री ब्रह्मा जी को वेद प्राप्त हुए। वेदों से ओम् (ऊँ) नाम जाप के लिए चुन लिया। (यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 से ओम् मन्त्र लिया गया है) वेदों में वर्णित यज्ञों से एक हवन यज्ञ चुन ली। इसी का अनुष्ठान अधिक करने लगे। जबकि पाँचों यज्ञ करने से पूर्ण लाभ होता है। जैसे कार चारों पहियों से चलती है। एक पहिया निकाल कर लिये फिरने वाला यह कहे कि यह कार-गाड़ी है तो उसकी बुद्धि के स्तर को आसानी से समझा जा सकता है। इसी प्रकार उन ऋषियों के ज्ञान को जानकर उनके द्वारा की गई साधना को जाना जा सकता है। सत्ययुग से लेकर आज तक के ऋषिजन ब्रह्मा जी द्वारा बताया हठ योग द्वारा ध्यान दूसरे शब्दों में मनमाना घोर तप करते रहे। जिस कारण से उनको परमात्मा प्राप्ति नहीं हुई। उनके द्वारा किया गया हठपूर्वक घोर तप आज तक ‘‘ध्यान यज्ञ’’ नहीं है। कुछ साधक कहते हैं कि एकान्त स्थान पर बैठकर आँखें बन्द करके या खुली रखकर मन को सिर के ऊपर के भाग के नीचे केन्द्रित करने की कोशिश करें और अन्त में विचार शुन्य हो जाओ। मन किसी भी वस्तु या विचार पर केन्द्रित न रहे। कोई संकल्प-विकल्प न उठे। अन्त में यह विचार करें कि मैं आत्मा हूं, यह शरीर मैं नहीं हूँ, मन भी मैं नहीं हूँ। सिर के ऊपर के भाग में सिमट जाओ जिसको ब्रह्माण्ड कहते हैं। कुछ कहते हैं कि ध्यान की अन्तिम अवस्था में केवल एक ही विचार रह जाता है कि मैं ब्रह्म हूँ ‘‘अहम् ब्रह्मास्मि।’’

विचार करें:- ध्यान का अर्थ है कि अपने मन को किसी वस्तु पर केन्द्रीत करना। जैसे कभी-कभी हम कहीं दूर स्थान पर खड़े अपने प्रिय मित्र को देख रहे होते हैं, यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि लगता है वह मेरा मित्र ही है। उस समय उसके आगे से कई व्यक्ति तथा मोटरसाईकिल आदि चले जाते हैं, परंतु उसका ध्यान केवल अपने मित्र की पड़ताल करने में लगा होने के कारण अन्य को नहीं देख रहा था। यह ध्यान की वास्तविक स्थिति है। जैसे कभी-कभी हम किसी बात का चिन्तन कर रहे होते हैं और सड़क पर खड़े होते हैं। बस ने आकर वहीं रुकना होता है जहाँ हम खड़े चिन्तन कर रहे थे। गाड़ी हॉर्न भी देती है लेकिन हम सुन नहीं पाते हैं। अन्य व्यक्ति हाथ पकड़कर सचेत करता है कि एक तरफ हो जा, गाड़ी के लिए रास्ता छोड़ दे। यह ध्यान की वास्तविक स्थिति है। जैसे

पतिव्रता पति से राती, आन पुरुष नहीं भावै।
बसै पीहर में सुरति प्रीत में, ऐसे ध्यान लगावै।।

जैसे पतिव्रता स्त्री अपने मायके चली जाती है तो उसका ध्यान अपने पति में ही रहता है। उससे प्राप्त सुख को रह-रहकर चिन्तन करती रहती है। सोचती रहती है कि कभी क्रोध नहीं करता, मेरा कितना ध्यान रखता है, कहते ही सर्व वस्तु ला देता है, कितना सुन्दर है, अब क्या कर रहा होगा आदि-आदि अपने पति के गुणों का चिन्तन करके मस्त रहती है। उस लड़की के उस चिन्तन को ही ध्यान कहा जाता है।

अन्य उदाहरण: एक समय एक युवती अपने पति का चिन्तन करती हुई जा रही थी। एक स्थान पर एक मौलवी साहब चद्दर बिछाकर नमाज कर रहा था। लड़की अपने होने वाले पति-प्रेमी से मिलने जा रही थी। वह रास्ता त्यागकर सीधी शीघ्र जाने के लिए जंगल से गुजर रही थी। उस लड़की का पैर मौलवी जी की चद्दर पर रखा गया। मौलवी जी ने नमाज छोड़कर लड़की को धमकाया कि तुझे दिखाई नहीं देता, मेरी चद्दर पर पैर रखकर अपवित्र कर दिया। लड़की ने उत्तर दिया कि मौलवी जी मैं अपने प्रेमी-पति के ध्यान में खोई थी। मुझे तो पता ही नहीं चला कि मेरा पैर आपकी चद्दर पर टिक गया। आप अपने अल्लाह से सच्चा प्यार नहीं करते। आपका ध्यान अल्लाह में नहीं, चद्दर में था। आपका ध्यान सही होता तो मेरे पैर का पता ही नहीं चलता।

ध्यान यज्ञ का अन्य प्रमाण:

जैसे नटनी चढ़ै बांस पे, नटवा ढोल बजावै।
इधर उधर से निगाह बचाकै, सुरति बांस पै लावै ||

भावार्थ है कि कौतुक दिखाने वाला नट तथा उसकी पत्नी (नटनी) खेल करते हैं। एक लगभग 8-9 फुट लम्बा बाँस नटनी हाथ में लेकर एक सिरा जमीन पर रखकर खड़ी हो जाती है। उसका पति ढ़ोल बजाता है। नटनी बाँस के ऊपर चढ़ने लगती है। नटनी का ध्यान ढ़ोल की आवाज पर नहीं होता और न ही आसपास खड़े खेल देखने वालों पर। इसका पूरा ध्यान बाँस पर लगा होता है।

यदि नटनी का ध्यान जरा-सा भी बाँस से हट जाए तो धड़ाम से पृथ्वी पर बाँस सहित गिरे। अपने कौतुक में सफलता प्राप्त नहीं कर पाएगी। खेल देखने वाले लोग तालियाँ बजा रहे होते हैं, फिर भी नटन इनके शोर को नहीं सुनती। उसका ध्यान केवल बाँस पर ही रहता है। इसी प्रकार परमात्मा के गुणों का चिन्तन ध्यान यज्ञ कहलाता है। यह वास्तविक ‘‘ध्यान यज्ञ’’ है।

परमात्मा के गुण:-

कबीर पौ फाटी पगड़ा भया, जागी जीया जून।
सब काहु कूं देत हैं, प्रभु चौंच समाना चून।।

मर्द गर्द में मिल गए, रावण से रणधीर।
कंश केशो चाणूर से, हिरणाकुश बलबीर।।
तेरी क्या बुनियाद है, जीव जन्म धर लेत।
गरीब दास हरि नाम बिना, खाली रह जा खेत।।

कबीर, साहिब से सब होत है, बन्दे से कुछ नाहीं।
राई से पर्वत करें, पर्वत से फिर राई।।

कबीर हरि के नाम बिना, नारि कुतिया होय।
गली-गली भौंकत फिरे, टूक ना डाले कोय।।

परमात्मा सर्व सुख दाता है। सर्व संकट मोचनहार है। निर्धन को धन, बांझ को पुत्र, कोढ़ी को सुन्दर काया, अन्धे को आँख, बहरे को कान, गूंगे को जुबान परमात्मा प्रदान कर देता है।

गरीब भक्ति बिन क्या होत है, भ्रम रहा संसार।
रति कंचन पाया नहीं, रावण चलती बार।।

उपरोक्त परमात्मा के गुणों पर विचार करते रहना ‘‘ध्यान यज्ञ’’ कहलाता है। जो पूर्व में अन्य द्वारा बताया तथा किया जाने वाला हठ योग ध्यान नहीं है, ध्यान की परिभाषा ही नहीं है। किसी वस्तु पर मन को केन्द्रित करना ध्यान कहलाता है। यह ध्यान की परिभाषा है। जो कहते हैं कि संकल्प-विकल्प सब समाप्त हो जाए और सोचना भी समाप्त हो जाए, विचार शुन्य हो जाना ध्यान की अन्तिम स्थिति है।

विचारणीय विषय है: जब चिन्तन ही समाप्त हो गया तो फिर ‘ध्यान’ कहाँ रहा जिस समय विचार शुन्य हो जाएगा तो मन को किस पर केन्द्रित किया। विचार शुन्य हो ही नहीं सकता। मन को केवल प्रभु के गुणों के चिन्तन में केन्द्रित करने को ध्यान कहा जाता है।

वर्तमान में शिक्षित वर्ग ने एक मैडिटेसन (Meditation) शब्द पकड़ रखा है। कहते हैं कि कुछ समय योगा करता हूँ, मैडिटेन करता हूँ, विचार रोककर मन को शान्त करता हूँ, मन को शक्ति मिलती है। यह केवल अपने मन को संतोष देने के लिए है। मन को रोका नहीं जा सकता। मन को अन्य विचारों से हटाकर कुछ देर अच्छे विचारों पर लगाया जा सकता है। मन के चिन्तन की गति को धीमा किया जाता है। उसी से मन को कुछ आराम मिल जाता है। लेकिन जो केवल योगा (योग-आसन) करते हैं, उनका समय व्यर्थ जाता है और जो परमात्मा के गुणों का चिन्तन करते हैं, उनको ध्यान यज्ञ का फल भी मिलता है और योग भी हो जाता है। यह कहना कि योगा में मैडिटेसन (ध्यान) करके मन को रोकता हूँ। यह भ्रम है। वह ध्यान भी व्यर्थ है। इसलिए गुरु से दीक्षा लेकर फिर परमात्मा के गुणों का चिन्तन करना ही ध्यान (Meditation) है। इसी में मानव जीवन की सफलता है।

3- ‘‘हवन यज्ञ’’

गाय या भैंस के घी को अग्नि में स्वाह करना ‘‘हवन यज्ञ’’ कहलाता है। पूर्व के ऋषि तथा वर्तमान में आचार्य तथा ऋषि व सन्त साधक हवन करने के लिए लकड़ी का प्रयोग करते हैं। यह शास्त्रोक्त विधि नहीं है। शास्त्राविधि अनुसार हवन करने के लिए रुई की बाती बनाकर मिट्टी या धातु के बर्तन (कटोरे) में रखकर भैंस या गाय का घी जलाकर मंगलाचरण पढ़कर अग्नि प्रज्वलित की जाती है। यह ‘हवन यज्ञ’ है। इसके साथ वेद मन्त्र या अमृतवाणी का उच्चारण भी किया जा सकता है। वैसे बिना वाणी या मन्त्रोच्चारण के भी शास्त्राविधि अनुसार रुई ज्योति में घी डालकर जलाने से ‘हवन यज्ञ’ हो जाता है क्योंकि घी के जलने से लाभ होता है।

लकड़ी जलाकर यदि हवन किया जाता है तो कार्बन डाई ऑक्साईड अधिक निकलती है। एक क्विन्टल घी को हवन करने के लिए 10 कि-ग्राम लकड़ी जलती है। रुई 100 ग्राम एक क्विन्टल घी को हवन कर देती है। इसमें कार्बन डाई ऑक्साईड नाम मात्र ही बनती है। ज्योति यज्ञ करने का प्रमाण ऋग्वेद मण्डल 8 सूक्त 46 मन्त्र 10 में है।

रुई की बाती बनाकर कटोरे में खड़ा कर दिया जाता है। फिर घी डालकर मंगलाचरण पढ़ते-पढ़ते ज्योति प्रज्वलित की जाती है। यह दो प्रकार की होती है। देवी-देवताओं के उपासक टेढ़ी ज्योति जलाते हैं। गीता अध्याय 7 श्लोक 12 से 15 तथा 20 से 23 में अन्य देवताओं की पूजा करना व्यर्थ कहा है। यह टेढ़ी ज्योति यज्ञ की परम्परा प्राचीन है। प्रत्येक हिन्दु के घर में दोनों समय (सुबह और शाम) ज्योति यज्ञ किया जाता, यह हवन यज्ञ प्रत्येक के घर में होता था। वर्तमान में बीसवीं सदी में कुछ पंथों का उत्थान हुआ है।

1- राधास्वामी पंथ आगरा (U.P) से चला है जिसके प्रवर्तक थे श्री शिवदयाल सिंह सेठ जी निवासी पन्नी गली आगरा शहर। (उत्तर प्रदेश भारत) इसी पंथ की एक शाखा ब्यास नदी के किनारे पंजाब प्रान्त में चली है जिसके संस्थापक थे जयमल सिंह रिटायर्ड फौजी। राधास्वामी डेरा बाबा जयमल सिंह ब्यास से एक शाखा सिरसा शहर (हरियाणा) में बेगु रोड़ पर चली। जिसके संस्थापक थे श्री खेमामल जी उर्फ श्री शाह मस्ताना जी महाराज जिन्होंने पंथ का नाम बदलकर ‘‘सच्चा सौदा’’ रख दिया तथा ‘‘धन धन सतगुरु तेरा ही आसरा’’ का नारा प्रचलित किया। इसकी स्थापना सन् 1948 में श्री शाहमस्ताना जी के कर कमलों द्वारा की गई थी। इसी की अन्य शाखाएं गंगवा (जिला-हिसार) तथा जगमाल वाली (जि- सिरसा) हरियाणा प्रान्त में चल रही हैं। राधास्वामी पंथ की अन्य शाखाएं 1- जय गुरुदेव पंथ मथुरा में श्री तुलसी दास जी द्वारा चलाया गया।

2- गाँव दिनौद जिला भिवानी में श्री ताराचन्द जी द्वारा चलाया गया। ये सब 20वीं शताब्दी में पनपे हैं। लगभग पूरे भारत वर्ष में फैल चुके हैं। इनके अतिरिक्त निरंकारी पंथ, ब्रह्मा कुमारी पंथ, हंसा देश पंथ (1- सन्त श्री सतपाल जी, 2- संत श्री प्रेम रावत उर्फ बालयोगेश्वर का पंथ) ये भी उपरोक्त पंथों की तरह भारत वर्ष के साथ-साथ अन्य देशों में भी फैल चुके हैं। उपरोक्त पंथों ने सत्य भक्ति अर्थात् शास्त्रोक्त साधना का नामोनिशान मिटा दिया है। इन पंथों ने ज्योति यज्ञ (हवन यज्ञ) को मना कर रखा है। कहते हैं कि बाहर की ज्योति से मोक्ष नहीं है। शरीर के अन्दर की ज्योति को जगाना है। राधास्वामी पंथ व इसकी शाखाओं का मानना है कि वेद तथा गीता को हम नहीं मानते। हम तो संतों की वाणी को सत्य मानते हैं। वेद व गीता भी तो ऋषियों ने लिखे हैं। उन ऋषियों को ऊपर के मण्डलों का ज्ञान नहीं था। इसलिए वेदों तथा गीता में ऊपर के मण्डलों का ज्ञान नहीं है। हमारी भक्ति साधना तो त्रिकुटी स्थान से प्रारम्भ होती है। हमारे सन्त श्री शिवदयाल से पहले किसी को भी ऊपर के रुहानी मण्डलों की चढ़ाई व साधना का ज्ञान नहीं था। श्री शिवदयाल सिंह सेठ महाराज राधास्वामी का ज्ञान व सत्संग वचनों का संग्रह पुस्तक ‘‘सार वचन कार्तिक राधास्वामी’’ नाम की पुस्तक में लिखे हैं। ज्ञान इस प्रकार है:- सब से ऊपर राधास्वामी धाम है, यही सच्चे साहिब का नाम है। इससे दो स्थान नीचे सतनाम का स्थान है। इसी ‘‘सतनाम’’ को सन्तों ने सतलोक, सारनाम, सत्पुरुष, सारशब्द, सतनाम कहा है।’’

प्रिय पाठकों से निवेदन है कि यह ज्ञान श्री शिवदयाल सिंह जी राधास्वामी का है। जिससे पूर्वोक्त सर्व पंथ निकले हैं। यह ऐसा ज्ञान है जैसे कोई कहे कि कार को पैट्रोल, सड़क, ड्राईवर, शहर तथा कार कहा जाता है। यह व्याख्या मूर्ख व्यक्ति कर सकता है जिसने कभी कार सड़क, शहर तथा पैट्रोल व ड्राईवर न देखा हो और अन्त में डींग मारता हो कि मैं शहर में जाता हूँ, वहाँ कार में घूमता हूँ। कार सड़क पर पैट्रोल से चलती है, ड्राईवर चलाता है। यह किसी से सुन कर बताता है। जब उससे पूछो कि कार कैसी है, पैट्रोल, सड़क, पेट्रोल कैसा है, ड्राईवर कैसा है जिसने कभी कुछ देखा ही न हो, केवल सुना हो वह भी अधूरा। ऐसे ही अज्ञानी से सुना अज्ञान तो वह ऐसी ही व्याख्या करेगा जैसे उपर बताई है। कार को शहर, सड़क, पैट्रोल, ड्राईवर भी कहते हैं। ऐसा ही अनुभव है श्री शिवदयाल सिंह सेठ महाराज जी राधास्वामी का जिसने कहा है कि ‘‘राधास्वामी मुकाम’’ से दो स्थान नीचे ‘सतनाम’ का स्थान है। इसी सतनाम को सतलोक, सारनाम, सार शब्द, सत पुरुष और सतनाम कहा जाता है। वास्तव में ‘सतनाम’ तो साधना का मन्त्र है जिसमें दो अक्षर हैं (ओम् + तत् जो सांकेतिक है) सारनाम व सार शब्द ये भी साधना के मन्त्र हैं। सतलोक वह स्थान है जहाँ पर परमात्मा रहते हैं। ‘सत्पुरुष’ यह परमात्मा का विशेषणात्मक नाम है, सत् पुरुष का अर्थ है ‘अविनाशी परमात्मा’। अब पाठकजन आसानी से समझ सकते हैं कि राधास्वामी पंथ तथा उसकी शाखाओं का ज्ञान कैसा है फिर उनकी भक्ति की साधना कैसी होगी उनको क्या उपलब्धि हुई होगी राधास्वामी कोई धाम नहीं है और न साहेब अर्थात् परमात्मा का नाम है। इससे सिद्ध हुआ कि इन उपरोक्त व पूर्वोक्त पंथो ने शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचारण (मनमानी साधनायें) प्रारम्भ कर रखा है जो व्यर्थ है।

प्रमाण: श्री मद्भगवत गीता अध्याय 16 श्लोक 23-24 में कहा है कि जो व्यक्ति शास्त्राविधि को त्यागकर मनमाना आचरण (मनमानी साधना) करते हैं, उनको न तो सुख प्राप्त होता है, न कोई कार्य में सिद्धि प्राप्त होती है और न उनकी गति (मोक्ष प्राप्ति) होती है अर्थात् व्यर्थ साधना है।(गीता अध्याय 16 श्लोक 23) इससे तेरे लिए हे अर्जुन! कर्तव्य और अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्रा ही प्रमाण हैं। कौन-सी साधना करनी चाहिए, कौन-सी नहीं करनी चाहिए, वह शास्त्रों से ही जानें। किसी के शास्त्रा विरुद्ध ज्ञान के आधार से मनमाना आचरण करना व्यर्थ है। (गीता अध्याय 16 श्लोक 24)

शाखा जिनको भक्ति के लिए आधार माना जाना चाहिए:-

  1. चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद),
  2. श्री मद्भगवत गीता,
  3. सूक्ष्म वेद अर्थात् तत्वज्ञान जिसके विषय में गीता अध्याय 4 श्लोक 32 व 34 में कहा है। वह परम अक्षर ब्रह्म द्वारा अपने मुख कमल से कहा ज्ञान है जिसे सचिदानन्द ब्रह्म की वाणी (कबीर वाणी) भी कहा जाता है। ये शास्त्र हैं भक्ति के लिए की जाने वाली साधना तथा आध्यात्म ज्ञान के लिए।

इनके अतिरिक्त अन्य 18 पुराण हैं जो ज्ञान प्राप्ति व सूक्ष्म वेद के ज्ञान की पुष्टि में सहयोगी हैं। इनमें सम्पूर्ण शास्त्रानुकुल ज्ञान नहीं है। उपरोक्त सर्व पंथों में ‘हवन यज्ञ’ करने को मना किया जाता है तो यह शास्त्रा विरुद्ध मनमाना आचरण है। गलत साधना है। इन पंथों में साधना के नाम जाप के मन्त्र भी शास्त्रों के विपरीत हैं। इनका ज्ञान आगे जाप यज्ञ में किया जाएगा। हवन यज्ञ जो शास्त्राविधि त्यागकर किया जाता है, उससे हानि अधिक लाभ कम होता है।

1- हवन यज्ञ जो शास्त्राविधि त्यागकर किया जाता है, वह हवन कुण्ड बनाकर लकड़ियां जलाकर ही घी डालकर किया जाता है। जिससे कार्बन डाई ऑक्साइड अधिक निकली है। जबकि ज्योति यज्ञ में नाम मात्र दूषित वायु निकलती है। पूर्व समय में ऋषि (ब्राह्मण) लोग राजाओं के घर पर हवन यज्ञ का अनुष्ठान किया करते थे। लगभग 10 फुट गहरा और 10 फुट चौड़ा व लम्बा पक्का हवन कुण्ड तैयार करते थे। उसमें एक मन (लगभग 40 कि-ग्रा-) लकड़ी डालकर चारों और बैठकर ब्राह्मण घी डालते रहते थे। अग्नि प्रज्वलित होती रहती थी। यह शास्त्राविधि रहित साधना इसलिए करते थे कि राजाओं के घर किसी वस्तु का अभाव नहीं होता था। राजा लोक भी धार्मिक होते थे। वे अधिक धर्म करने में विश्वास रखते थे। ऋषिजन राजाओं को खुश करने के लिए शास्त्राविधि से हवन यज्ञ (ज्योति यज्ञ जो ऋग्वेद 8 सूक्त 46 मन्त्र 10 में है उसको) को त्यागकर मन की योजना अनुसार हवन कुण्ड बनाकर हवन यज्ञ करने लगे। फिर यह परम्परा बन गई जो अब सत्य लग रही है, परंतु जन साधारण में शास्त्राविधि अनुसार ज्योति यज्ञ से हवन परम्परा अभी तक जीवित थी जो वर्तमान में पूर्वोक्त पंथों ने उससे भी वंचित कर दिया है।

पौराणिक सत्य कथा: एक समय राजा दक्ष ने हवन यज्ञ का अनुष्ठान कराया। उस समय बहुत बड़ा हवन कुण्ड तैयार किया गया। उस यज्ञ में श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु सहित अनेकों देवता व ब्राह्मण तथा ऋषिजन आए थे, परंतु श्री शिवजी नहीं बुलाए गए थे क्योंकि राजा दक्ष की पुत्राी पार्वती जी ने अपने पिता की इच्छा के विपरीत भगवान शिव से विवाह किया था। जिस कारण से राजा दक्ष ने पार्वती से कहा था कि कभी मेरे घर पर न आना। जिस कारण से पार्वती विवाह के पश्चात् अपने पिता के घर नहीं आई थी। इसीलिए राजा दक्ष ने अपनी पुत्राी पार्वती तथा दामाद शिव को आमन्त्रिात नहीं किया था।

किसी बात पर भगवान शिव अपनी धर्मपत्नी पार्वती जी से नाराज हो गए और उससे बातें करना तथा पत्नी व्यवहार करना बन्द कर दिया। पार्वती जी को निश्चय हो गया कि अब शिवजी मेरे से कभी प्रसन्न नहीं होंगे। लड़की को ऐसे समय में अपने पिता का ही घर नजर आता है। इसलिए शेष जीवन बिताने के लिए अपने पिता दक्ष के घर आ गई। वहाँ पर हवन यज्ञ चल रहा था। पिता ने अपनी पुत्राी पार्वती का अपमान किया, कहा कि तुझे किसने बुलाया है, क्यों आई इस बात से क्षुब्ध होकर पार्वती जी ने हवन कुण्ड में छलाँग लगा कर आत्महत्या कर ली। लाभ के स्थान पर हानि हो गई। यदि ज्योति यज्ञ (बाती बनाकर रुई पर घी डालकर यज्ञ) किया होता तो पुत्राी नहीं मरती क्योंकि कुछ समय उपरान्त पिता तथा पुत्राी का क्रोध समाप्त हो जाता तथा बहुत बड़ा अनर्थ बच जाता। इसलिए शास्त्राविधि अनुसार साधना करना ही श्रेयकर है। यह हवन यज्ञ करना भी अनिवार्य है।

 4- ‘‘प्रणाम यज्ञ’’

भक्ति व साधना उसी साधक की सफल होती है जिसमें नम्रता (आधीनी) होती है, दास भाव होता है।

गरीब, आधीनी के पास है पूर्ण ब्रह्म दयाल।
मान बड़ाई मारिए बे अदबी सिरकाल।।
दासा तन में दर्श है सब का होजा दास।
हनुमान का हेत ले रामचन्द्र के पास।।
विभिषण का भाग बड़ेरा, दास भाव आया तिस नेड़ा।।
दास भाव आया बिसवे बीसा, जाकूं लंक देई बकशीशा।।
दास भाव बिन रावण रोया, लंक गंवाई कुल बिगोया।।
भक्ति करी किया अभिमाना, रावण समूल गया जग जाना।।
ऐसा दास भाव है भाई। लंक बखसते बार ना लाई।।
तातें दास भाव कर भक्ति कीजै, सबही लाभ प्राप्त कीजै।।
गरीब बेअदबी भावै नहीं साहब के तांही,
अजाजील की बन्दगी पल मांहे बहाई।।

 उपरोक्त अमृतवाणी सूक्ष्मवेद की है। इनका भावार्थ है कि भक्त में विनम्रता होनी चाहिए। जिस कारण से भक्त की भक्ति सफल होती है। यदि भक्त साधना भी करता है और अहंकार भी रखता है तो उसकी साधना व्यर्थ हो जाती है। उदाहरण दिए हैं कि:-

हनुमान जी भगवान भक्त थे। श्री रामचन्द्र जी के साथ अति आधीन होकर रहते थे। जिस कारण से श्री रामचन्द्र जी अपने प्रिय विनम्र भक्त से विशेष प्यार करते थे। रावण लंका देश का राजा था। उसने श्री शिव जी (तमगुण) की भक्ति भी की और अहंकार भी अत्यधिक रखा। जिस कारण से श्रीलंका का राज्य भी गँवाया तथा कुल का नाश भी कराया। इसके विपरीत रावण का भाई विभिषण था जो विनम्र था तथा मुनीन्द्र ऋषि से दीक्षित भी था। जिस कारण से श्री रामचन्द्र जी ने लंका का राज्य विभिषण नम्र भक्त को बखशीश कर दिया, मुफ्त में दे दिया। इसलिए परमात्मा से सर्व लाभ लेने के लिए दासभाव अर्थात नम्रतापूर्वक भक्ति करनी चाहिए।

एक अजाजील नाम का साधक था। वह केवल प्रणाम यज्ञ किया करता था। उसने अपने जीवन में ग्यारह अरब बन्दगी (प्रणाम) किये। जब भगवान के लोक में गया, तब भगवान विष्णु ने उसकी परिक्षा ली तो उसका अभिमान समाप्त नहीं था। उसने भगवान की आज्ञा का पालन अहंकारवश नहीं किया। जिस कारण से उसकी सर्व प्रणाम यज्ञ का फल नष्ट हो गया तथा पुनः पृथ्वी पर जन्म लेकर पशु-पक्षियों की योनियों में भटकने लगा। आधीनी भक्त का गहना होता है। आधीन बनने के लिए ‘प्रणाम यज्ञ’ करना अति अनिवार्य है। सूक्ष्मवेद में तथा गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है कि पूर्ण मोक्ष मार्ग तत्व ज्ञान (सूक्ष्मवेद) में सम्पूर्ण लिखा है। सूक्ष्मवेद स्वयं सच्चिदानन्द घन ब्रह्म (परम अक्षर ब्रह्म) अपने मुख कमल से बोलता है। वह तत्वज्ञान तत्वदर्शी सन्तों को ज्ञात होता है। इसलिए उस तत्वज्ञान की प्राप्ति के लिए तत्वदर्शी सन्तों को दण्डवत प्रणाम करके नम्रतापूर्वक प्रश्न करने से तत्वदर्शी सन्त तत्वज्ञान का उपदेश करेंगे। गीता ज्ञान दाता ने गीता अध्याय 18 श्लोक 65 में कहा है कि अर्जुन! मुझ में मतवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करने वाला हो, मुझको प्रणाम कर, ऐसा करने से तू मुझे ही प्राप्त होगा। इस प्रकरण से स्पष्ट है कि पूर्ण परमात्मा की भक्ति करने के लिए दण्डवत् प्रणाम करना होता है तथा ब्रह्म तक की भक्ति करने वाले केवल करबद्ध होकर नमस्कार (प्रणाम) करते हैं।

हमने पूर्ण ब्रह्म की भक्ति करनी है। इसलिए हम दण्डवत् प्रणाम करते हैं। यह प्रणाम यज्ञ है। तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) में कहा गया है इस दण्डवत् प्रणाम से अहंकार नष्ट होता है। पृथ्वी पर पेट के बल लेटकर दोनों हाथों को सामने सिर के ऊपर को फैलाकर पैर आपस में मिलाकर पैर के पंजे पर थोड़ा सा पंजा चढ़ाकर पैर तथा हाथ जोड़कर प्रभु को दण्डवत् प्रणाम करके प्रणाम यज्ञ का अनुष्ठान करते हैं जो अहंकार को समाप्त करता है और प्रणाम यज्ञ का लाभ मिलता है। सूक्ष्मवेद में कहा है:-

कबीर, गुरु को कीजिए दण्डवतम्, कोटि कोटि प्रणाम।
कीट न जाने भृंग कूं, करले आप समान।।
कबीर गुरु गोविन्द कर जानिए, रहिए शब्द समाय।
मिले तो दण्डत बन्दगी, नहीं पल-पल ध्यान लगाय।।
कबीर, दण्डवत गोविन्द गुरु, बन्दू अविजन सोय।
पहले भये प्रणाम तिन, नमो जो आगे होय।।
गरीब सतगुरु साहेब सन्त सब, दण्डवत्म प्रणाम।
आगे पीछे मध्य भए, तिनकूं जा कुर्बान।।

इस प्रकार सूक्ष्मवेद में (ऊपर लिखी अमृतवाणी में) दण्डवत् प्रणाम करने का विधान है। प्रणाम (दण्डवत् प्रणाम) करते समय मन का अहंकार बाधक बनता है। यह सोचता है कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा हैं कि मैं जमीन पर लेटकर दण्डवत् प्रणाम कर रहा हूँ। कहीं मेरी बेईज्जती (Insult) तो नहीं हो जाएगी। उस समय याद करें कि यदि परमात्मा की भक्ति नहीं की तो पाप कर्म के कारण अधरंग हो गया तो मुँह आधा खुला रहेगा, टेढ़ा हो जाएगा, मक्खियाँ निकलेंगी और अंदर जाएंगी। पैर-हाथ लटक जाएंगे, तब यह अकड़ व शर्म कहाँ जाएगी यह शरीर पाँच तत्व का पुतला है। मृत्यु उपरान्त इसको फूँक दिया जाएगा। इसकी राख पर गधे लेटेंगे। फिर गधा-कुत्ता बनकर सदा पेट के बल ही रहेगा। इसलिए दण्डवत् प्रणाम करते समय ध्यान रखें फिर क्या बनेगी, कहाँ जाएगी यह शर्म? सूक्ष्मवेद में कहा है कि:-

लोक लाज न कीजिए, निर्भय हो रहिए।
जे मन चाहे राम को, दासा तन करिए।।

लोक लाज मर्याद जगत की, तृण ज्यूं तोड़ बगावै।
तब कोई राम भक्त गति पावै।।

इस प्रकार विचार करके दण्डवत् प्रणाम करें। मन में किसी प्रकार का संकोच न रखें, संसार की बातों पर ध्यान न दें। सतगुरु ज्ञान को आधार बनाकर भक्ति करें और अपने जीवन का कल्याण करायें।

5- ज्ञान यज्ञ:-

सद्ग्रन्थों का अध्ययन तथा तत्वदर्शी संत का सत्संग ‘ज्ञान यज्ञ‘ कहलाता है। गीता अध्याय 4 श्लोक 33 में कहा है कि हे परंतप अर्जुन! द्रव्यमय यज्ञ की अपेक्षा ‘‘ज्ञान यज्ञ’’ श्रेष्ठ है। सारे के सारे कर्म अर्थात् सर्व सम्पूर्ण कर्म ज्ञान में समाप्त हो जाते हैं। (गीता अध्याय 4 श्लोक 33)

गीता अध्याय 4 श्लोक 32 से 41 तक यही बताया है कि:-

> भावार्थ है कि:- मनमाना आचरण करके जो द्रव्यमय यज्ञ करते हैं। जैस कहीं पर मंदिर बनवा दिया। कहीं कम्बल बाँट दिए, कहीं भोजन-भण्डारा कर दिया। इस तरह से किए जाने वाले धन से धार्मिक कर्म द्रव्यमय यज्ञ अर्थात् धर्मयज्ञ कहलाते हैं। इस प्रकार परंपरागत किए जाने वाले धर्मखर्च से पहले तत्वज्ञान को जानना चाहिए। गीता अध्याय 4 श्लोक 32 से 41 तक यही बताया है कि सम्पूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) स्वयं परम अक्षर ब्रह्म ही अपनी वाणी से बोल कर बताता है। उस को तत्वदर्शी सन्त जानते हैं। उन से जानों। उस ज्ञान को जानकर साधक फिर कर्मों में नहीं बँधता। सर्व पाप नष्ट हो जाते हैं। उस तत्वज्ञान के आधार से भक्ति कार्य करने से साधक को परम गति (पूर्ण मोक्ष) प्राप्त होता है। अधिक प्रमाण इसी यज्ञ प्रकरण में ‘धर्म यज्ञ’ में पृष्ठ पर पढ़ें जो पहले लिख दिया है। यह स्पष्ट किया गया है कि देखा-देखी लोकवेद के आधार से धर्म के नाम पर खर्च करने की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ अर्थात् तत्वदर्शी सन्त से सत्संग सुनना श्रेष्ठ है। फिर गुरुदीक्षा लेकर उनके मार्गदर्शन अनुसार धर्म के नाम पर दान करना शास्त्रानुकूल साधना होने से श्रेयकर है। ज्ञान यज्ञ समझने के लिए पढ़ें पुस्तक ‘आध्यात्मिक ज्ञान गंगा’ ज्ञान यज्ञ का कुछ अंश आप जी को इस ‘भक्ति बोध’ के अनुवाद में भी पढ़ने को मिलेगा।

 (ग) ‘‘तप’’

भक्ति के लिए की जाने वाली साधना में ‘‘तप’’ की भी भूमिका है, परंतु यह तप वह नहीं है जो एक स्थान पर बैठकर हठपूर्वक किया जाता है जो शास्त्रा विरुद्ध होने से हानिकारक है। यह वह तप नहीं है जो गीता अध्याय 17 श्लोक 5-6 में कहा है कि जो शास्त्राविधि रहित मनमाना घोर तप को तपते हैं, वे शरीर के कमलों में बैठे देवताओं और मुझे क्रश (दुःखी) करने वाले हैं, उनको राक्षस स्वभाव के जान। यह तप वह तप है जो गीता अध्याय 17 श्लोक 14ए 15ए 16 में कहा गया है, उस ‘‘तप’’ को करने का विधान है। जैसे गीता अध्याय 17 श्लोक 14 में कहा है कि (देवद्विज) देवताओं जैसे अच्छे स्वभाव से विद्वानों और तत्वज्ञानी गुरु जी के सत्कार सम्बन्धी जो पवित्रता अर्थात् आत्मा शुद्ध निष्कपट रखना, नम्रता, शुद्धाचरण और अहिंसा यह शरीर से किया जाने वाला तप है। (गीता अध्याय 17 श्लोक 14) भावार्थ है कि सत्संग में आने वाले भक्तों की सेवा करना शरीर सम्बन्धी तप है। (गीता अध्याय 17 श्लोक 14) उद्वेग न करने वाला अर्थात् जोश पैदा न करने वाला सरल, प्रिय, हितकारक यथार्थ सत्संग वचन और जो प्रतिदिन किया जाने वाला स्वाध्याय का अभ्यास यह वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। (गीता अध्याय 17 श्लोक 15) भावार्थ:- सरलतापूर्वक यथार्थ ज्ञान कहना जो सर्व के हित के लिए है तथा प्रिय भी है। इसके कहने में यदि कोई उत्पीड़न भी करता है, वह भी भक्त का तप है और जो प्रतिदिन नित्य पाठ तीनों समय (सुबह, दिन तथा शाम) किया जाने वाला है, उसमें बैठकर या चलते-चलते करना यह वाणी सम्बन्धी तप कहा जाता है। (गीता अध्याय 17 श्लोक 15) गीता अध्याय 17 श्लोक 16 में कहा है मानसिक साधना करना, अपने भाव को शुद्ध करने के लिए ज्ञान का मनन-चिन्तन यह मान सम्बन्धी तप कहा जाता है। (गीता अध्याय 17 श्लोक 16)

भावार्थ: भक्ति साधना में मन का बहुत योगदान है। इसमें उत्पन्न विकार भगवत चिन्तन में बाधा करते हैं। ज्ञान का मनन करके मन को शुद्ध करना यह मन सम्बन्धी तप है। (गीता अध्याय 17 श्लोक 16)

उपरोक्त गीता अध्याय 17 श्लोक 14 से 16 का निष्कर्ष है कि सत्संग में आने वाले प्रभु के प्यारे बच्चों का सत्कार व सेवा करना शरीर का तप है। सत्य ज्ञान कहने में जो भी कठिनाई आवे, वह वाणी द्वारा किया गया तप है। मन में सांसारिक इच्छायें उत्पन्न होती हैं। उनको तत्वज्ञान के चिन्तन से मन से दूर करना। जैसे मन कार-कोठियों, विषय-विकारों की ओर आकर्षित हो तो तत्वज्ञान से विचार करके शुद्ध करना मन से किया गया तप है। शराब, तम्बाखु-माँस सेवन का त्याग करने में जो मन के साथ ज्ञान से संघर्ष करना पड़ता है, वह मन से किया गया तप है। यह तप करना शास्त्रानुकूल तप कहा जाता है। यह तप करना है।

(घ) जप

जप का अर्थ है मन्त्र का जाप करना। जो दीक्षा मन्त्र (नाम की दीक्षा) तत्वदर्शी सन्त देता है, उस का जाप करना ‘जप’ कहा जाता है। यह दो प्रकार से किया जाता है:- जाप तथा अजपा।

जाप = जो जिव्हा से उच्चारण किया जाता है, वह जाप कहा जाता है। जाप करने का ‘नाम’ शास्त्रानुकूल अर्थात् शास्त्रा प्रमाणित होना ही लाभप्रद है। शास्त्रों में कौन-से नाम जाप के कहे हैं, वे जानना अनिवार्य है। भक्ति के लिए प्रमाणित शास्त्रा तीन ही हैं:-

  1. चारों वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद)
  2. इन्हीं चारों वेदों का सारांश श्री मद्भगवत गीता
  3. सूक्ष्मवेद

1+2 = वेद (चार) और गीता में कौन से मन्त्र जाप करने का निर्देश है पहले चार वेद: यजुर्वेद अध्याय 40 मन्त्र 15 में कहा है कि ‘ओम्’ नाम का जाप कार्य करते-करते स्मरण कर, विशेष कसक के साथ स्मरण कर तथा मनुष्य जन्म का मूल कर्तव्य जानकर स्मरण कर।

श्री मद्भगवत गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में गीता ज्ञान दाता प्रभु ने बताया है कि:-

ओम् इति एकाक्षरम् ब्रह्म व्यवहारन् माम अनुस्मरण,
यः प्रयाति तजन देहम् सः याति परमाम् गतिम्।।

अनुवाद: मुझ ब्रह्म का ओम् (ऊँ) यह एक अक्षर है, उच्चारण करके स्मरण करता हुआ जो शरीर त्यागकर जाता है, वह ऊँ के जप से मिलने वाली परमगति को प्राप्त होता है।

भावार्थ: गीता के अन्दर जाप करने का केवल एक नाम ओम् (ऊँ) है। यह ब्रह्म का जाप है। ऊँ के जप से ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। यह ऊँ से होने वाली परम गति है। यही प्रमाण श्री देवी पुराण (गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्र मोटा टाईप केवल हिन्दी) से सातवें स्कंद के पृष्ठ 562-563 पर श्री देवीजी (दुर्गा जी) ने राजा हिमालय से कहा था कि मेरी पूजा सहित अन्य सब पुजाओं को त्यागकर केवल एक ओम् (ऊँ) नाम का जप कर, ब्रह्म प्राप्ति का उद्देश्य रखकर ऊँ का जप कर जिससे उस ब्रह्म को प्राप्त हो जाएगा। वह ब्रह्म दिव्याकाश में ब्रह्म लोक में रहता है। तू ब्रह्म लोक में चला जाएगा।

याद रखें पुराणों में कुछ वेद ज्ञान है और अधिक किसी ऋषि, देवी, देवता का अपना अनुभव है। पुराणों का जो ज्ञान वेद या गीता से मिलता है, वह ज्ञान व भक्ति साधना का ज्ञान सही है। जो मेल नहीं खाता, वह व्यर्थ है। उसको हमने ग्रहण नहीं करना है। उपरोक्त कथन से स्पष्ट हुआ कि ऊँ नाम के जाप से ब्रह्म लोक प्राप्ति होती है क्योंकि ओम् (ऊँ) नाम ब्रह्म का जाप मन्त्र है। श्री मद्भगवत गीता अध्याय 8 श्लोक 16 में कहा है कि ब्रह्म लोक प्रयन्त सर्व लोक पुन्रावर्ती में हैं अर्थात् ब्रह्म लोक में गए साधक भी पुनः लौटकर संसार में आते हैं, उनका भी जन्म-मृत्यु सदा बना रहता है। अध्यात्म के अन्दर मुख्य भूमिका तीन देवताओं (रजगुण श्री ब्रह्मा जी, सत्गुण श्री विष्णु जी तथा तमगुण श्री शिवजी) की है। इसके साथ-साथ श्री गणेश जी तथा श्री देवी जी की भी भूमिका है क्योंकि यह पाँचों शक्तियाँ अन्य देवताओं तथा गणों में प्रधान है। इन सर्व का स्थान मानव शरीर में बने कमल चक्रों से है। जैसे मूल कमल चक्र में गणेश जी, स्वाद चक्र में सावित्राी व ब्रह्मा जी, नाभि चक्र में लक्ष्मी-विष्णु जी, हृदय कमल में शिवजी व पार्वती जी तथा कण्ठ कमल में श्री देवी जी का वास है। इसलिए इनकी साधना भी अनिवार्य है। इनके अतिरिक्त तीन प्रभु हैं जो आध्यात्म के खम्ब हैं। 1- क्षर पुरुष:- यह 21 ब्रह्माण्डों का प्रभु है, एक ब्रह्माण्ड में पूर्वोक्त देवी व देवता अपने-अपने विभाग के प्रधान हैं। जैसे श्री ब्रह्मा जी रजोगुण विभाग के, श्री विष्णु जी सतोगुण विभाग के तथा श्री शिवजी तमोगुण विभाग के मंत्री हैं। एक ब्रह्माण्ड के 14 लोकों के अतिरिक्त तीन लोक (पृथ्वी लोक, स्वर्ग लोक तथा पाताल लोक) हैं। इन पर ही इन तीनों देवताओं का आधिपत्य है। श्री शिवजी के लोक में ही श्री गणेश जी का अलग लोक है, वहाँ पर शिवजी के गण रहते हैं। उनका प्रधान श्री गणेश जी है। श्री देवी जी 14 लोकों तथा इन तीनों लोकों पर भी स्वामीनी है। ब्रह्म ने दुर्गा जी को एक ब्रह्माण्ड की प्रधान शक्ति बनाया है। स्वयं अव्यक्त रहता है। किसी के समझ में नहीं आता। (प्रमाण गीता अध्याय 7 श्लोक 24-25) ब्रह्म की प्रभुता 21 ब्रह्माण्डों पर है। इसी को क्षर पुरुष कहा है। 2- अक्षर पुरुष:- यह 7 संख ब्रह्माण्डों का स्वामी है। इसकी हमारे अध्यात्म मार्ग में बहुत कम तथा बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है।

श्रीमद्भगवत गीता अध्याय 15 श्लोक 4 तथा अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है कि पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए अक्षर पुरुष के नाम मन्त्र का जाप करना अनिवाय है। गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान प्राप्ति के पश्चात् परमेश्वर के उस परम पद की खोज करनी चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर पुनः संसार में कभी नहीं आते। जिस परमेश्वर ने सर्व ब्रह्माण्डों की रचना की है, केवल उसी की पूजा करो। (गीता अध्याय 15 श्लोक 4)

गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने कहा है कि हे भारत! तू सर्व भाव से उस परमेश्वर की शरण में जा। उस परमेश्वर की कृपा से ही तू परम शान्ति को तथा शाश्वत् स्थान (अमर लोक) को प्राप्त होगा। हमारे आध्यात्म मार्ग में विशेषकर दो प्रभुओं का महत्व है। प्रथम तो क्षर पुरुष (ब्रह्मकाल) का क्योंकि हम इसके लोक में फँसे हैं और हमने तीसरे प्रभु पर अक्षर पुरुष के लोक में जाना है जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर पुनः संसार में कभी नहीं आते। 3- परम अक्षर ब्रह्म:- यह कुल का मालिक है। यह असंख्य ब्रह्माण्डों का प्रभु है। यह क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष का भी स्वामी है।

हम साधकों को क्षर पुरुष के लोक से निकलकर परम अक्षर पुरुष के लोक में जाने के लिए साधना करनी है। क्षर पुरुष अक्षर पुरुष तथा परम अक्षर पुरुष का प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 तथा अध्याय 8 श्लोक 3 में है। पूर्ण मोक्ष प्राप्ति के लिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी पुनः नहीं आता, शास्त्रोक्त साधना करनी होती है।

श्रीमद्भगवत गीता का ज्ञान श्री कृष्ण जी के शरीर में प्रवेश करके क्षर पुरुष (ब्रह्म) ने कहा है। गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो साधक जरा (वृद्धावस्था) तथा मरण से छुटकारा पाने के लिए प्रयत्न करते हैं अर्थात् केवल मोक्ष प्राप्ति के लिए ही साधना करते हैं, वे तत् ब्रह्म से सब कर्मों से तथा सम्पूर्ण अध्यात्म से परीचित हैं। (गीता अध्याय 7 श्लोक 29) गीता अध्याय 8 श्लोक 1 में अर्जुन ने पूछा कि ‘‘तत् ब्रह्म’’ क्या है उस का उत्तर गीता ज्ञान दाता ब्रह्म ने गीता अध्याय 8 श्लोक 3 में दिया। बताया कि वह ‘परम अक्षर ब्रह्म’ है।

गीता अध्याय 15 श्लोक 16 में क्षर पुरुष और अक्षर पुरुष दो प्रभु बताए हैं। ये दोनों तथा इनके लोकों में जितने शरीरधारी प्राणी हैं, वे सब नाशवान हैं। जीवात्मा तो किसी की नहीं मरती।

गीता अध्याय 15 श्लोक 17 में कहा है कि उत्तम पुरुष अर्थात् पुरुषोत्तम तो उपरोक्त श्लोक 18 में कहे क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष से अन्य ही है। उसी को ‘परमात्मा’ कहा गया। वहीं परमात्मा तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण-पोषण करता है, वह अविनाशी परमात्मा है। यह परम अक्षर ब्रह्म है।(गीता अध्याय 8 श्लोक 3)

अब गीता अध्याय 8 श्लोक 5 तथा 7 में गीता ज्ञान दाता ने अपनी भक्ति करने को कहा है कि मेरी भक्ति करेगा तो मुझे प्राप्त होगा। इसमें कोई शंका नहीं। अपनी साधना का नाम जाप गीता अध्याय 8 श्लोक 13 में बता ही दिया कि ‘‘मुझ ब्रह्म का केवल एक ओम् (ऊँ) नाम है।

गीता अध्याय 8 श्लोक 8ए 9ए 10 में परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करने को कहा है कि जो उस परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति करेगा, उसी को प्राप्त होगा। उस परम अक्षर ब्रह्म की भक्ति का ज्ञान तत्वदर्शी सन्त बताते हैं, उनसे सुन। (गीता अध्याय 4 श्लोक 34) गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में परम अक्षर ब्रह्म अर्थात् सच्चिदानन्द घन ब्रह्म की साधना के तीन मन्त्र ‘ओम्’ (ऊँ) तत् सत् का नाम जाप करने का निर्देश बताया है। (ऊँ तत् सत् इति निर्देशः ब्रह्मणः त्रिविध स्मृतः)

  1. ऊँ (ओम्) नाम का जाप क्षर पुरुष अर्थात् ब्रह्म का है, यह तो स्पष्ट है।
  2. ‘‘तत्’’ नाम सांकेतिक है, इसका वास्तविक मन्त्र तत्वदर्शी सन्त बताएगा। यह अक्षर पुरुष का नाम जाप करने का है।
  3. ‘सत्’ नाम भी सांकेतिक है। इसका वास्तविक नाम मन्त्र जाप भी तत्वदर्शी सन्त बताएगा। (जिसके लिए गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में कहा है।)

‘ऊँ तत् सत्’ या ‘हरि ऊँ तत् सत्‘ नाम का जाप करना व्यर्थ है। तत् तथा सत् कोई अन्य मन्त्र है। तब तीन नामों का जाप पूर्णगुरु (तत्वदर्शी सन्त) से प्राप्त करके करना होता है। इसको तीन विधि से जपा जाता है।

1- ये तो नाम जाप करने होते हैं, क्षर पुरुष, अक्षर पुरुष और परम अक्षर पुरुष की साधना में।

2- इनके अतिरिक्त अन्य शक्तियों के नाम जाप भी करने होते हैं जो मानव शरीर में बने कमल चक्रों को खोलने के लिए किए जाते हैं। जिस कारण से अन्त समय जब साधक शरीर त्यागकर परम धाम को चलता है तो सर्व प्रथम मूल कमल में जाता है। वहाँ पर श्री गणेशजी का कार्यालय है। श्री गणेश जी का एक मूल मन्त्र है। उसकी साधना की कमाई इस कार्यालय में साधक के खाते में जमा मिलेगी।

जिस कारण से उसको वहाँ पर रोका नहीं जाएगा। वह कमाई (साधना) वहीं पर छोड़कर श्री गणेश जी के गणों से छव कनम ब्मतजपपिबंजम (कोई बकाया लेन-देन नहीं है का प्रमाण) लेकर फिर श्री लक्ष्मी और विष्णु जी के नाभि कमल में साधक जाता है। इसी प्रकार फिर हृदय कमल में श्री शिव तथा पार्वती जी के कार्यालय से नाम कमाई के बदले में प्रमाण-पत्र लेकर फिर कण्ठ कमल में श्री दुर्गा जी के कार्यालय से प्रमाण पत्र लेकर साधक निर्बाध त्रिकुटि कमल पर पहुँचता है। त्रिकुटी कमल में पूर्ण परमात्मा (परम अक्षर ब्रह्म) साधक के गुरु के रुप में मिलता है। वह साधक को साथ लेकर धर्मराय के दरबार (कार्यालय) लेकर जाता है। गुरु रुप में परमेश्वर वकील की तरह कार्य करता है। सद्ग्रन्थ परमात्मा का संविधान है।

गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में गीता ज्ञान दाता ‘ब्रह्म’ ने कहा है कि:

सर्वधर्मान् परितज्य माम् एकम शरणम् व्रज।
अहम त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षयिष्यमि मा शुचः।।

भावार्थ: गीता ज्ञान दाता ने कहा कि यदि तूने यानि किसी साधक ने शास्त्राविधि अनुसार साधना तत्वदर्शी गुरु से ज्ञान दीक्षा प्राप्त करके की है और वह उस परमेश्वर की शरण में जाना चाहता है जिसके विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में कहा कि मेरे यानि ब्रह्म के नाम ऊँ की जाप कमाई मुझ में छोड़ दे, इसके प्रतिफल ‘ब्रह्मलोक’ प्राप्ति न लेकर ऊँ नाम जाप की सर्व कमाई छोड़ कर तू ‘एकम’ जिस के समान अन्य कोई परमात्मा नहीं है, अद्वितीय परमेश्वर की शरण में (व्रज) जा। तब में तुझे सर्व ऋणों (पापों) से मुक्त कर दूँगा, तू चिन्ता न कर। (गीता अध्याय 18 श्लोक 66) गुरु रुप में परमेश्वर साधक की ऊँ नाम की कमाई को धर्मराय के सामने रखकर कहता है कि श्रीमान् जी देखें वेद अर्थात् गीता अध्याय 18 श्लोक 66 में लिखा है कि ब्रह्म के ऊँ नाम की धार्मिक साधना का धन मुझमें छोड़कर उस परम अक्षर ब्रह्म की शरण में जा सकता है तो यह लिजिए ब्रह्म के ऊँ नाम जाप की साधना की पूँजी, यज्ञों की पूँजी और इस साधक का लेनदेन चुकता का प्रमाण पत्र देने की कृपा करें। तब धर्मराज उस साधक को आगे जाने का पासपोर्ट देता है। जो एक ब्रह्माण्ड में दसवें द्वार से पार कर देता है।

गीता अध्याय 17 श्लोक 23 में कहे ऊँ, तत्, सत् में से ब्रह्म के ऊँ नाम की साधना का धन तो ब्रह्म को दे दिया, अब बचे दो मन्त्र तत् सत्। अ अब ब्रह्म (क्षर पुरुष) के 21 ब्रह्माण्डों के क्षेत्र के अन्त में एक द्वार और है जो ग्यारहवां द्वार कहा जाता है। जिस ग्यारहवें द्वार को पार करके अक्षर पुरुष के 7 संख ब्रह्माण्डों के लोक (देश) में प्रवेश किया जाता है, यह अष्ट कमल दल अर्थात् आठवां कमल है। यहाँ पर अक्षर पुरुष को तत् सांकेतिक मन्त्र है, वास्तविक मन्त्र अन्य है, उसकी नाम जप की साधना को वहाँ छोड़ा जाता है। यह इसके 7 संख ब्रह्मण्डों को पार करने का टोल टैक्स है अर्थात् किराया है। यह भंवर गुफा तक जाने के रास्ते को साफ कर देगा।

फिर 12वां द्वार आता है जिसको पार करके परम अक्षर ब्रह्म के लोक में प्रवेश होता है। परमात्मा गुरु रुप में साथ रहता है। भंवर गुफा में तीसरे नाम अर्थात् ‘सत्’ का जो वास्तविक मन्त्र है, उसके जप की कमाई वहाँ जमा होती है। तब साधक सत्यलोक (शाश्वत स्थान) को प्राप्त करता है और गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहे परमेश्वर के उस परम पद को प्राप्त करता है जहाँ जाने के पश्चात् साधक लौटकर संसार में कभी नहीं आता। उसका जन्म-मरण सदा के लिए समाप्त हो जाता है। सत्यलोक में अमर शरीर अमर जीवन प्राप्त करके नए सिरे से जीवन शुरु करता है। उस अमर लोक में उसका फिर से परिवार बनता है। सदा युवा रहता है। वृद्वावस्था का कष्ट कभी नहीं होता जिसका वर्णन गीता अध्याय 7 श्लोक 29 में है कि:-

जरा मरण मोक्षाय माम् आश्रित्य यतन्ति।
ते ब्रह्म तत् विद कृष्नम् अध्यातमम् कर्मच अखिलम्।।

भावार्थ: गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि जो मेरे द्वारा दिए ज्ञान को आश्रय बनाकर तत्वदर्शी सन्त को खोज लेते हैं तो वे सर्व आध्यात्म से सब कर्मों को जानते हैं तथा वे ‘तत् ब्रह्म’ यानि परम अक्षर ब्रह्म से परीचित हो जाते हैं। इसलिए ये साधक संसार की किसी वस्तु की इच्छा रखकर साधना नहीं करते, वे केवल जरा अर्थात् वृद्वावस्था तथा मरण (मृत्यु) से छुटकारा पाने के लिए अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्ति करने के लिए ही साधना करते हैं। (भक्ति प्रयत्न करते हैं।) अ सत्यलोक (शाश्वत स्थान) में जाने के पश्चात् जीवात्मा को अमर शरीर प्राप्त होता है। उस लोक में वृद्ध नहीं होते, सदा युवा रहते हैं। जैसे पृथ्वी पर हमारा परिवार है, वैसे ही वहाँ पर भी परिवार होगा। जो पहले चले गये, उनका भी परिवार है। वहाँ पर कोई कार्य नहीं करना, सर्व पदार्थ उपलब्ध हैं। सदाबहार वृक्ष हैं, फूल खिले रहते हैं। दूधों की नदियां बहती हैं। घी के सरोवर हैं। नदियाँ भी चलती हैं। सुन्दर मकान हैं तथा सर्व सुख है। आपस में प्यार-प्रेम से रहते हैं। वहाँ के व्यक्ति (स्त्राी-पुरुष) जो भोजन खाते या पीते हैं, सर्व शरीर में ही समा जाता है। टट्टी-पेशाब नहीं करते। इसलिए वहाँ गन्दगी नहीं है। सत्यलोक में बहुत ही अच्छी सुगन्ध उठती रहती है। वह सत्यलोक स्वप्रकाशित है। वहाँ पर विशेष प्यारी-प्यारी धुन बजती रहती है। जैसे वर्तमान में मोबाईल फोन में बजती है। उसी प्रकार सत्यलोक में बिना किसी साज-बाज (ढोल-बैंड-सारंगी बिना) ही बजती है। सत्यलोक प्राप्त होने के पश्चात् साधक की पूर्ण गति अर्थात् पूर्ण मोक्ष हो जाता है। यही मानव जीवन का मूल उद्देश्य है। यह जप साधना का ज्ञान है। यह भक्ति बोध है। श्री मद्भागवत गीता अध्याय 3 श्लोक 4 में कहा है कि:-

न कर्मणाम् अनारम्भात् नैष्मकर्मयम् पुरुषःअश्नुते।
न च सन्यसनात् एवं सिद्धिम समधि गच्छति।।

भावार्थ: धार्मिक कर्मों (भक्ति की साधना) को किए बिना, कर्मयोग किए अर्थात् धार्मिक क्रियाओं को आरम्भ किए बिना साधक को (नैष्कर्म्यम्) बिना कर्म किए सब सुख प्राप्त होते हैं। उसको निष्कर्मता सिद्धि कहते हैं। जो सत्यलोक में चले जाते हैं, उनको बिना कर्म किए ही सर्व सुख प्राप्त होता है और कर्मसन्यास अर्थात् एक स्थान पर बैठकर हठ योग करना कर्म सन्यास कहा जाता है। निर्वाह के लिए किए गए कर्मों को करते-करते धार्मिक क्रियाओं को करना कर्मयोग कहलाता है। सन्यास धारण करने वालों को निष्कर्मता वाली सिद्धि प्राप्त नहीं होती। गीता अध्याय 3 श्लोक 8 में भी कर्मयोग को श्रेष्ठ बताया है। उपरोक्त भक्ति की साधना से वह निष्कर्मता मोक्ष प्राप्त होता है। वह साधना विश्व में मेरे अतिरिक्त किसी के पास नहीं है।

 -संत रामपाल जी महाराज
 सतलोक आश्रम बरवाला
 जिला-हिसार (हरियाणा)