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सतगुरु देव की जय।

बंदी छोड़ कबीर साहेब की जय।

बंदी छोड़ गरीब दास जी महाराज की जय।

स्वामी रामदेवानंद जी गुरु महाराज की जय हो।

 बंदी छोड़ सतगुरु रामपाल जी महाराज जी की जय हो।

 सर्व संतो की जय।

सर्व भक्तों की जय।

धर्मी पुरुषों की जय।

श्री काशी धाम की जय।

श्री छुड़ानी धाम की जय।

श्री करोंथा धाम की जय।

श्री बरवाला धाम की जय।

सत साहिब।

गरीब दंडवत गोविंद गुरु, बंधु अविजन सोए। पहले भये प्रणाम तिन, नमो जो आगे होए।। कबीर गुरुओं को कीजै दंडवत, कोटि-कोटि प्रणाम। कीट नहीं जानें भृंग को, गुरु कर है आप समान।।

 बच्चों!  मनुष्य जन्म परमात्मा की कृपा से आपको प्राप्त है। मनुष्य जीवन के अंदर मूल उद्देश्य केवल भक्ति करना और मोक्ष करवाना होता है। इसके लिए सर्वप्रथम गुरु की आवश्यकता होती है सर्वप्रथम गुरु की। गुरु पूर्ण हो। तत्वज्ञान प्राप्त हो। और संपूर्ण भक्ति मोक्ष मार्ग यानी सभी मंत्र सत्य हो। फिर भक्त मर्यादित रहे समर्पित रहे आसानी से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। अब जैसे धर्मदास जी का प्रसंग चल रहा है आप देख रहे हो कितनी अच्छी आत्मा परमात्मा के चाहने वाली बिल्कुल कुर्बान और जैसा उस अज्ञानी गुरु ने मार्ग दर्शन किया बिल्कुल अटूट श्रद्धा सेवक तो ऐसा ही हो। पर गुरु ऐसा ना हो। जो जीव को कर्मकांड में उलझावे।

अब इस कथा से आपको अपने आप बहुत कुछ बातें समझ में आएंगी कि आपको कैसे पूर्ण सतगुरु प्राप्त है। अध्यात्म ज्ञान प्राप्त है। संपूर्ण मूल ज्ञान जो आज तक छुपा कर रखना था। और अब भी आप नहीं समझ सके उस परमपिता की महिमा को और इस गंदे लोक के यथार्थता को तो फिर परमात्मा आपको कौन सी भाषा का प्रयोग करें ? जिसे तुम समझ सकते हो। लास्ट फिर वही होगा जैसे 600 साल पहले दाता ने आपको पटक दिया था उठा कर झटक दिया था। या तो आंखें खोल लो भूल जाओ इन बकवादो को इस सांसारिक चोचलो में कुछ नहीं रखा। गरीबदास जी कहते हैं

सर्व सोने की लंका होती, रावण से रणधीरं। एक पलक में राज विराजी, फिर जमके पड़े जंजीरं।।

इतने ठाठ - बाट थे सिद्धियां थी आकाश में चला जाता था। पुष्पक विमान ऊपर से छीन कर लाया था कुबेर से। खूब उदमस उतार रखा था। और भगत किसका था ? शिव जी का। तीन देव की जो करते भक्ति। उनकी कभी नहीं होवे मुक्ति।। और कितनी ही बकवाद भर जा इनमें जिसके कारण प्रसिद्धियां भी हो गई इन साधु संत ऋषियों की। अंत में इनके पास क-ख नहीं बचा।  यह मूल ज्ञान है यह सार ज्ञान है। इसको समझो अच्छी तरह। पढ़े लिखे हो, शिक्षित हो, एजुकेटेड हो परमात्मा ने मनुष्य जीवन इसीलिए दिया कि तुम कुछ बुद्धि भी एक्स्ट्रा रखते हो अन्य प्राणियों से। इसका सदुपयोग करो। बकवाद बहुत कर ली। बाज आना पड़ेगा अब। .

अब बच्चों! प्रसंग धर्मदास जी का चल रहा है। देखो अपना पिता अपने लिए कितना कष्ट उठा रहे हैं एक जीव को काल की दल दल से बाहर खींचने के लिए कितना कुछ उन्होंने किया। बालक की तरह पीछे-पीछे फिरे। कहां जंगल में, कहां किसी दरिया पर, कहां किसी तालाब पर कहां-कहां कष्ट वह मालिक उठाया ।

वह कहते हैं जो जन मेरी शरण  है,

ताका हूं मैं दास। गैल गैल लाग्या फिरूं, जब तक धरती आकाश।।

जैसे राजा अंबरिश था उसके भी पीछे  लग रहे थे। लेकिन हम नहीं समझते जब हमारे पास दो पैसे हो, यह चौधर हो काल की छोटी सी।  राजा था भगत भतेरा था। यज्ञ बहुत करता था वाह वाह हो रही थी। पिछले संस्कार भी अच्छे थे। वह संस्कार कब बने ? जब कभी कबीर साहिब की शरण मे था। जैसे अब कलयुग में हो तुम । अब यह जो रह जाएंगे पार हो गए सो हो गए। भक्ति अच्छी करते हैं क्योंकि यह सत साधना मिल गई एक सांस की कीमत कितनी गजब की है। इसकी बहुत वैल्यू है। पार नहीं हुए तो फिर यह ऐसे फंस जाएंगे काल के।

इनको स्वर्ग में रखेगा देवता बनावेगा वहां माचे- माचे घूमेंगे। फिर राजा पृथ्वी पर बना देगा। पृथ्वी पर आकार फिर यह पिछले पुण्यो के कारण ठाठ तो होने ही हैं। भक्ति भी करेगी यह आत्मा क्योंकि पीछे भक्ति की उमंग पड़ी हुई है इसको। तो भक्ति गलत करते जाएंगे लाभ अलग हुए दिखेंगे। यह काल का भयंकर जाल है। मालिक फिर भी अपने बच्चे के साथ रहता है। फिर भी उनको राह दिखाने की चेष्टा करता है किसी ना किसी रूप में अपनी सच्ची भक्ति फिर से बताने की चेष्टा करता है मानते हैं नहीं मानते हैं वह अलग बात है फिर राजा जनक हुआ अम्बरीष  का जीवन पूरा करके। राजा जनक का पूरा करके फिर स्वर्ग गया। स्वर्ग में जाते समय लूट लिया काल ने।

बिना विवेक भेख जो धारे, शोभ करत है शोभी।  बिना विवेक के ऐसे नाश करते हैं। वहां दया भाव दिखा दी अपने पुण्य दे दिए। स्वयं फिर नंगड होकर पृथ्वी पर आ गया। सारे पुण्य वहां खत्म कर आया। आधे, आधे ऊपर स्वर्ग में भोग लिए। और फिर पृथ्वी पर आ गए। पहले राजा था 2 जीवनो में राजा अंबरीष वाली आत्मा। अंबरीश राजा। राजा जनक सीता का पिता। और फिर  वही आत्मा बाबा नानक बनी। खुद नौकर लगा एक नवाब के यहां पर। जब यह इस स्थिति में आ गया बिल्कुल  हैंड टू माउथ हो गए तब दाता फिर मिला अपने बच्चे को। फिर राह दिखाने की चेष्टा की।

खूब वाद विवाद किया। ऐसे बोल्या आंखो देखू जब मानूं। आखों भी दिखाया, जब जाकर माना। बच्चों! ऐसे आज आपके साथ खाड़े कर रहा दाता। देख कहां से और क्या होने लग रहा है। यह भी तुम्हारे समझ में नहीं आ रही ? यह भी तुम नहीं समझ पा रहे What is this? इसका नाम है कबीर भगवान। इसको कहते हैं सक्षम समर्थ परमात्मा। बच्चों! यहां देखो मालिक ने कैसे अपने बच्चों तक संदेश पहचाने लग रहे हैं। काल ने जुल्म करने में कसर नहीं छोड़ी। पर यह भी तो उसका बाप है। अब देखो अपने बच्चों को कैसे अमृत से छिकाने लग रहे हैं। इन क्रियाओं को देखकर यह विश्वास कर लेना चाहिए की आप समर्थ की शरण में आ चुके हो।।

द्वार धनी के पड़ा रहे, धक्के धनी के खावे। सौ काल झकजोर ही, पर द्वार छोड़ नहीं जावे।।

अब तुम इतना जरूर कर दियो। और कुछ नहीं बने तो इतना रहियो मालिक की शरण से दूर मत होना। चाहे दुखी दिखो चाहे सुखी दिखो। अब के आप सतलोक में अगला कदम है बस नथिंग एल्स। दूसरी बात नहीं है। लेकिन होगा उनका जो मर्यादित रहेंगे। समर्पित रहेंगे। तन मन धन सब तेरा। यह कहने से नहीं करना होगा। कल ले जाते आज ले चलो दाता।  रखियो अपने चरण में।

तो बच्चों! फिर जब तक चाहोगे तब तक जीवन दे देगा आपको। जब तक चाहोगे। लेकिन अंत समय में एक ऐसा स्वयं ही प्रेरणा हो जाएगी आपको आप ही कहोगे की दाता ले चलो बस। बस बहुत होली। तो कहते हैं जीवे इतने जोखम नहीं, मर जब निशंक मरे। परमात्मा कहते हैं।

तो यह हमारा मरना नहीं होगा। हम तो एक मेले से में जाएंगे। शरीर छोड़ा कांचली। पक्षी उड़ा आकाश कुं, चलते करके बीट। यह तो वह है। बच्चों! प्रसंग धर्मदास जी का चल रहा है। परमात्मा ने धर्मदास जी को पूरी सृष्टि रचना फिर सुनाई। क्योंकि शुरुआत में उसने ऐसी ही सुनी थी। अपना तर्क मन में अलग रखे था। साथ में अमीनी देवी ने भी सुनी। दोनों को विश्वास हुआ।

परमात्मा से कहा कि:

जोड़ पानी में पूछो स्वामी। पानी मतलब हाथ। जोड़ पानी में पूछूं स्वामी। कहो कृपा कर अंतर्यामी।।  अहो साहब! नाम का आही। परिचय नाम कहो मो पाई।। गुरु और सतगुरु तुमको कहूं। हे प्रभु! कौन देश तुम रहूं। परमात्मा बोले ओह धर्मनी! जो पूछो मोही। सुनो सुरती धर कहूं मैं तोही।। जिंदा नाम है सुन मेरा। जिंदा भेष खोज कीहे तोरा।। हम सतगुरु के सेवक आही। सतगुरु संग हम सदा रहाई।। सत्पुरुष वह सतगुरु आही। सतलोक में वह सदा रहाई।। सकल जीव के रक्षक सोई। सतगुरु भक्ति काज जीव होई।। सतगुरु की भक्ति से जीव के सब काम ठीक होंगे। सतगुरु सत्य कबीर सो आही। गुप्त प्रकट कोई चीन्हे नांही।। सतगुरु आज जगत तन धारी। दासातन धर शब्द पुकारी।। काशी रहे परख हम पावा। सतनाम उन मोहे दृढ़रावा।।

परमात्मा अपने को छुपाकर कहते हैं परमात्मा तो सतलोक में रहता है वहां से चलकर आया हुआ है। अब वह सतगुरु सत कबीर काशी में है। वह प्रगट है। गुप्त है। प्रगट का अर्थ है कि  वह सामने बैठा है। गुप्त ऐसे हैं कि उसको कोई पहचान नहीं पा रहा।

सतगुरु आए जगत तन धारी।

उस सतगुरु ने सत्पुरुष ने पूर्ण परमात्मा ने जगत में आकर यह कबीर रूप धारण कर रखा है। और काशी रहे  परख हम पावा। वह काशी में रहते हैं हमने उनको पहचान लिया।

सतनाम उन मोहे दृढ़ावा।।

यह सच्चा नाम सच्चा ज्ञान सही विधि उसने मुझे बताई।

यमराजा  का सब छल चीन्हा। निरख परख यम सो भिन्हा।।

तीन लोक को काल सतावे। ताको ही यह सब  जग ध्यान लगावे।।

तीन लोक को यह काल परेशान कर रहा है दुर्गति कर रहा है तीन लोक की। सब प्राणियों की। और उनका यह ध्यान लगावे।

ब्रह्मदेव जाकू वेद बखाने। सोई है काल कोई मर्म न जाने।।

जिसको ब्रह्म भगवान कहते है यह देवता लोग गुरु ऋषि वो वही तो काल है।

तिन के सुत रहे त्रिदेवा। सब जग करें उनकी सेवा।। इनकी पूजा करते हैं यह उसके पुत्र है तीनो।

त्रिगुण जाल यह जग फंदाना।  जाने ना अविचल पुरुष पुराना।। जाकी यह जग भक्ति कराई। अंतकाल जीव को सोई धर खाई।।

जिसकी यह भक्ति करते हैं काल की ब्रह्म की या इनके तीनों पुत्रों की अंत समय वोही इनको खावे। सब जीव सत पुरुष के आही। यह सारे प्राणी उस सतपुरुष कबीर साहब के हैं। यम दे धोखा फांसा तांहि।। प्रथम भए असुर यमराई। बहुत कष्ट जीवो के लाई।। दूसरी काल कला पुनः धारा। धर अवतार असुर सहारा।। जीवन बहू विध कीन्ह पुकारा। रक्षा कारण बहू करें पुकारा।। जीव जाने यह धनी हमारा। दे विश्वास पुनः धर अवतारा।।

अब क्या यह बताना क्या चाहते हैं

परमात्मा - हिरण्यकशिपु उसको काल ने पैदा किया। उसने उदमस उतारे। भगत को सताया हाहाकार मच गई सारी जनता में। तो परमात्मा ने आकर उस राक्षस को मारा। और विष्णु का रूप दिखाना पड़ा क्योंकि कबीर साहब को कोई जानते नहीं थे।

बच्चों! भगत का रक्षक केवल कबीर साहब हैं। प्रहलाद भक्त था प्रह्लाद विष्णु जी का उपासक था। इस भक्ति को यहां तक लाने के लिए दाता ने आगा - पीछा कुछ नहीं देखा। नही अपनी महिमा आवश्यकता समझी। यदि वह महिमा चाहवे तो काशी में 120 वर्ष रहे एक निर्धन जुलाहा की लीला में‌ वह 1 मिनट में कुछ भी कर सकते थे। और दुनिया पीछे हो लेती। पर यह इस मार्ग  में चले नहीं। तो क्या बताते हैं की विष्णु रूप धारण कर लिया। विष्णु भी खुश हो गया। लोग कहे विष्णु जी ने रक्षा कर दी। विष्णु जी ने रक्षा कर दी। अब यह काल का जाल ऐसे अड़ा रहा। अब कबीर साहब ने इसको उसी तरीके से समझाने की चेष्टा की है।

अपना रोल निकाल दिया बीच से। कबीर साहेब समझाना चाहते हैं कि एक तरफ तो काल ने राक्षस बनाएं। फिर तुम कहते हो विष्णु ने नरसिंह रूप धारण करके और हिरण्यकशिपु को मारा इसलिए विष्णु की महिमा बन गई। अ

ब लोग विष्णु के चिपक गए इसको भगवान मानकर पूजन लग गए। हीरो हो गया यह । जैसे पिक्चरों में देखो हीरो 2-4 को पिट दे। बस वाह! वाह! यह जो है ना यह करिश्मों को देखकर चमत्कारों को देखकर इनके चिपक गए। यह सब काल का जाल है। परमात्मा ने इससे कोई लेना-देना नहीं। परमात्मा चाहते थे इन भक्तों की आस्था बनी रहे। काल चाहता है यह नास्तिक हो जावे। प्रमाण के लिए परमात्मा से जब वार्ता हुई इसने विवाद किया तकरार करी प्रथम बार आए।

आखिर में लास्ट में जब सारी मन्नत मनवा कर वचन भरवा कर ऐसे बोला कि सबको उल्टा मार्ग लगाऊंगा। गलत साधना पर दृढ़ कर दूंगा। देवता तीरथ व्रत मंदिर इनकी पूजा करवाउंगा और किसी को कोई यहां से निकलने नहीं दूं। की यह साधना करेंगे आध्यात्मिक लाभ होगा ही नहीं स्वयं ही नास्तिक हो जाएंगे। अब देख लो वर्तमान में गाम के गाम बहुत अच्छी आत्मा के लोग हैं स्त्री- पुरुष। लेकिन भगवान से दूर हो चुके है। इसलिए हो चुके हैं की इनकी साधना करते-करते भी दुर्गति हो रही है। वह साधना  ठीक नहीं है। तो यहां परमात्मा धर्मदास को वह आंखें खोल रहा है की जिनको तूम भगवान मान रहे हो यह ऐसे काल जो जाल कर रहा है। एक  तरफ तो यह कंस, कैसी, चनौर और पूतना जैसे जरासिंह जैसे बना दिए। उधर से कृष्ण बनाकर भेज दिया इनको मारने के लिए, इनको मारने के लिए।   

कृष्ण ने वह मार दिए।। कृष्ण चौधरी हो गया भगवान बन गया। अंत में कृष्ण भी मरा और नर्क में जायेगा। जैसे कर्म करें यहां भोगने पड़ेंगे। अब बच्चों! यह सारा खेल यह है P.H. D लास्ट पॉइंट है। जैसे एक राजा सेना को आदेश देता है दुश्मन से युद्ध करो। तो सैनिक का कर्तव्य बन जाता है मरूं या मिटू। और जाकर खड़ा हो जाता है। लेकर बंदूक मोर्चे पर। तो सैनिक सच्ची आत्मा से होते हैं। और वह दुश्मन के छक्के छुड़वाने के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर देते हैं। आमने-सामने मोर्चा संभाल लेते हैं। अब वहां पर कुछ इधर से मारे जाते हैं, कुछ उधर से मारे जाते हैं जैसे अपने भक्त बच्चों को सेना में जाना पड़ता है।

लड़ाई भी करनी पड़ेगी। युद्ध के मैदान में उतरना भी पड़ेगा। और आमने - सामने मोर्चा डाटना पड़ेगा। यह तो करना पड़ा। लेकिन वहां रक्षा कौन करेगा? वहां उन बच्चों की रक्षा कबीर साहेब करेंगे। इसी प्रकार काल ने राम-कृष्ण को भेज दिया इनको मारने के लिए। राम-कृष्ण का कोई ब्योत नहीं था इनको मारने का। इनके साथ खुद मालिक रहे। राम-कृष्ण सतगुरु शहजादे। भक्ति हेतु ऐसे हुए प्यादे।। राम-कृष्ण भी उस परमात्मा के बच्चे हैं। उस महाराजा सारी सृष्टि के सम्राट कबीर जी के राजकुमार हैं। शहजादे हैं। यह तुमसे ज्यादा निकट प्यारे है उसको।

क्योंकि पिछले जन्मो बहुत गजब की भक्ति की थी पर पैर फिसल गया इनका। अब काल के फंस गए।

कोटिक अवगुण बालक करही। पिता एक चित नहीं धरही।।

बाप के अंदर एक ऐसा परमात्मा ने भर रखा है प्रेरणा स्वभाव बालक चाहे करोड़ो बकवाद करले, पर पिता एक भी उसकी गलती को ज्यादा सीरियसली नहीं लेता। तो इसी स्थिति पर परमात्मा इस नियम से उन निकम्मो के साथ भी आज है। लेकिन बहुत प्यारे उनको है। क्योंकि कभी वह बहुत गजब के भक्त थे। और काल उन्ही को सेलेक्ट करता है उनके कर्म फुड़वाने के लिए। उनको उच्च पद देता है। यह प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री यह बहुत अच्छी आत्मा थी पिछले भक्त थे। तपस्वी थे। थे भगवान के बच्चे उसके लिए कर रहे थे। अब वह बैठा दिए पदों पर। अब कर्म फोड़गे। फोड़ लेंगे अब तो यह माने नहीं। फिर यह हैंड टू माउथ आ जाएंगे बाबा नानक की तरह फिर पकड़ लेगा। फिर लेगा। लेकिन काम तो बढ़ गया। समस्या तो वही की वहीं खड़ी रह गई बात निपटी कहां ये?

 बच्चों! इसको कहते हैं सारज्ञान। यह है वह मूलज्ञान।

धर्म दास मेरी लाख दुहाई।  मूल ज्ञान कहीं बाहर ना जाई।। मूल ज्ञान तब तक छिपाई। जब लग द्वादश पंथ न मिट जाई।।

अब यह ऐसा ज्ञान आज तक किसी ने निर्णायक नहीं सुनाया । तो अब कोई बकवाद करेगा तो उनको सबको पता होगा कि यह संत रामपाल जी से सुनकर अटबट मारने लग रहा है। हमारे छोटे- छोटे बच्चे भी उसको 2 मिनट में फिटे मुंह कर देंगे। तो यह पंथ खत्म हो गए अब। 

बड़ा पेड़ होता है गिर भी जाए उसकी एक - आधी जड़ कही रह जाती है धरती में लगी वह थोड़ा बहुत हरा कई दिन रह जाया करें। पर अंत में उसकी लकड़ी सुखेगी। तो आज इनकी स्थिति शुरुआत हो चुकी है। यह सारे ढह चुके हैं। मालिक के तूफान इस ज्ञान के सामने इनकी कोई औकात बची नहीं है। अब तुम ध्यान दो जिसके ऊपर यह मालिक गजब की रजा कर रहा है। इसको हल्के में मत लो तुम। ज्यादा सीरियस बनो। समर्पित रहो। औरों से अलग सुख धरती पर देगा आपको। लेकिन इस सुख में माचना नहीं।

परमात्मा को भूल मत जाना। मालिक की तरफ ज्यादा आवे। सुविधा दे दी गाड़ी दे दी। सेवा में आवे। सेवा में ही लगावे। बकवादो में कहीं नहीं जावे। तो राम राजी रहेगा। कबीर साहब आपका खुश रहेगा। तो परमात्मा यह बताना चाहते हैं-: जीव जाने यह धनी हमारा। जैसे विष्णु, कृष्ण, राम ओहो! यह भगवान थे। देख किसी ने कंस मार दिया, केंसी मार दिया, रावण मार दिया। हमें क्या हासिल हुआ उसके मारने से ? हमने तो अब यह राह पाया है अब कुछ बात बनेगी।

प्रभुता देख कीन्ह विश्वासा। अंतकाल पुन: धर करे ग्रासा।।

यह प्रभुता देखकर इनकी राम- कृष्ण और की यह बड़े हीरो थे और ऐसे कर दिया। लोगो ने इनको भगवान मान लिया। अब तक डफली  पीटने लग रहे हैं। द्वापर देख कृष्ण की रीति।

परमात्मा कहते हैं

तु कृष्ण जी का भगत है सुनले कृष्ण की नीती अनीति।। आप मानते हो कृष्ण ने गीता बोली।

पहले तो गीता में उसको भगत बनाया। धार्मिकता सिखाई। और गीता का पाठ अर्थ बतलाया। और फिर उनको कहा युद्ध कर। युद्ध कर तुझे कोई पाप नहीं लगेगा। और पीछे वह पाप लगा दिया। हिमालय में जाकर गलो । अश्वमेघ यज्ञ करो। तुमने बंधुघात किया है इसलिए पाप लगे है। और जब जिस समय महाभारत समाप्त हो लिया युद्ध। और युधिष्ठिर को राजगद्दी दे दी गई। तो बच्चों! युधिष्ठिर को भयंकर स्वप्न आने लगे  मरे हुए आदमी  दिखाई देने लगे, सिर कटे हुए आदमी चलते दिखें। खावे ना पीवे सारी रात बैठ कर काटे। द्रोपती ने देखा उसने अपने अन्य पतियों को बताया। अर्जुन को, भीम को आदि को। की ऐसी स्थिति है आपके भाई की है।  यह नहीं  सोता, नहीं आपको बताता। यह कुछ दिन का मेहमान है। तब सारे भाइयों ने खड़े होकर के उनसे प्रार्थना लगाई। की कोई बात बताओ क्या आप हमें अपने भाई नहीं समझते ? कोई कष्ट है संकट है तो हम आपके साथ हैं।

आप अकेले क्यों दुख पा रहे हो। हमें शेयर करो। कुछ दिन तो कुछ नहीं, कुछ नहीं किया। फिर आखिर में बता दी। की ऐसी स्थिति है मेरी। फिर क्या होता है जब ऐसा संकट आता है अपने गुरु से ही बात करते हैं। श्री कृष्ण जी के पास गए। श्री कृष्ण जी को सारी स्थिति  बताई कि हमारे एक भाई को ऐसे ऐसे समस्या हो गई कोई समाधान बताओ ? तब वह कृष्ण जी कहते हैं कि तुम्हारे को तुमने युद्ध में जो पाप किए, बंधुघात किये, भाई मारे, भतीजे मारे वह पाप लगा है। और इसके लिए एक अश्वमेध यज्ञ करो उसकी शर्त बता दी। अर्जुन उस समय स्तब्ध रह गया। की कृष्ण उस दिन तो कह रहा था  तुम्हे  कोई पाप नहीं लगे तू निश्चिंत होकर युद्ध कर ले। मैंने सारे मार रखे हैं। तू तो नीमत बनाना है। आज यह पाप कहां से आ गए ? विवाद करना इसलिए उचित नहीं समझा की यदि मैंने यह पॉइंट उठा दिया भाई मेरा इलाज नही करायेगा। क्योंकि उसमें करोड़ों रुपए लगने थे उस धर्म यज्ञ के अंदर। और यह बिल्कुल यह सोचेगा भाई खुश नहीं है मेरा इलाज करवाने में। यह मर जाएगा इतना धर्म -कर्म का पक्का है। तो अर्जुन ने अपने सब्र का घूंट पीया अपने दिल की झाल डाटी। और जैसा कहा वैसे ही यज्ञ  करवाई। उस यज्ञ में शर्त थी की एक पंचायन शंख अलग से रखा जाएगा कहीं आसन सा बनाकर।

साफ सुथरे स्वच्छ स्थान पर। एक अलग से उसका स्टैंड बनाकर। और सब महापुरुष देवता पृथ्वी के ऊपर के और  लोक स्वर्ग लोक के सारे बुलाओ और सब पृथ्वी के जीव ब्रह्मा, विष्णु, महेश सबको न्योता दे दिया। 56 करोड़ यादव, 12 करोड ब्राह्मण, 88,000 ऋषि, 33 करोड़ देवता और यह सारे आ गये। सबने भोजन खा लिया वह शंख नहीं बजा। यानी यज्ञ संपूर्ण हुई नही। यज्ञ पूरी नही हुई तो पाप कटे नहीं। वह दुख ऐसा का ऐसा रहेगा। इतना खर्च हो चुका और बात वही की वही। कोई ट्रीटमेंट नहीं ? श्री कृष्ण ने भी खाना खा लिया।

उस समय युधिष्ठिर ने पूछा भगवान! अब कैसे बात बनेगी ? सबने भोजन खा लिया है। तब कृष्ण ने बताया कि क्या तुमने इधर एक संत है उसका यह सुदर्शन नाम है वह एक गुरु भक्त है। उसको निमंत्रण नहीं दिया? भीम की ड्यूटी थी सेवा थी उस साइड में निमंत्रण बांटने की। भीम से पूछा गया भीम ने बताया कि मैं गया था पर वह गलत बोला। उसने कहा की तुम्हारे से तो कसाई भी अच्छा तुमने इतने व्यक्ति मार दिए। वह विधवा बहन सैनिकों की आज तक टक्कर मार कर रो रही है और तुम बैठकर मौज कर रहे हो। नर्क में पड़ोगे जाकर।

तुम्हारे अन्न को खाकर नरक में जाना है क्या मैंने? पहले मुझे ऐसी - ऐसी सौ अश्वमेघ यज्ञ का फल दो। तब मैं तुम्हारा टूक तोड़ू। कृष्ण बोला फिर आपने क्या कहा? मैं क्या कहू था जी उसने फिर। कह दिया आना तो आ नहीं तो मत आइये। तेरे बिना क्या हमारी  यज्ञ अधूरी रह जाएगी ? श्री कृष्ण जी रहे हमारे साथ। तब भगवान बोले सारी बात बिगाड़ दी। तुम चालो पांचों को रथ में बैठाकर लाया। उनकी कुटिया से एक कम से कम एक योजन यानी 12 किलोमीटर दूर रथ रोक दिया। वहां से पैदल चलकर आए नंगे पैरों। 

उस दिन क्या था सुदर्शन जी ने अपने गुरु परमात्मा खुद कबीर साहेब करुणामय नाम से प्रगट थे द्वापर में। उनके वह शिष्य थे उनको सारी बात बताई। परमात्मा को पता था, फिर आएंगे  काम तो उनका होना नहीं। तो सुदर्शन जी से बोले तू घूमने फिरने चला जा कहीं। वह फिर आयेंगे। फिर सुदर्शन जी तो चले गए भ्रमण पर परमात्मा उनका रूप बनाकर वहां बैठ गए कुटिया में। जब वह सारी टीम पहुंची कृष्ण वाली। जाते ही श्री कृष्ण ने दंडवत प्रणाम की। साथ में पांचो पांडवों ने करनी थी। फिर कहा परमात्मा ने पूछा  हे जगदीश! हे तीन लोक के मालिक! यहां कैसे आना हुआ गरीब की झोपड़ी पर ? तब श्री कृष्ण ने कहा आप जानी जान हो इन्होंने यह पांडव है यह भीम है, यह युधिष्ठिर है सारी इंट्रोडक्शन करवाई। यह आपको निमंत्रण देने आए हैं इनकी यज्ञ में प्रसाद पावो। ताकि इनका कल्याण हो। सुदर्शन जी बोले की भाई मैंने इस भाई से कही थी देख यह खड़ा मोटा सा। मेरी वह शर्त पूरी कर दो तो मैं तैयार हूं।

नहीं मैं नहीं चलू। तब श्री कृष्ण जी बोले जी आपकी वाणी है कबीर संत मिलन को चालिये, तज माया अभिमान। जो जो कदम आगे रखें, वोहे यज्ञ समान।। हे दाता! हम वहां से चलकर कहां से चले थे आप तो सारे कदम जानते हो। और अब 12 किलोमीटर तो एक योजन तो हम बिल्कुल पैदल आए हैं। यहां से वहां तक हमारे जितने कदम एक यज्ञ बताएं आपने  हे दाता! सौ आप लेखे ला दो बाकी हमारी  झोली में डाल दो।

साधु भूख भाव का, धान का भूखा ना।

तो बोला भाई चाल तो। जब पहले भीम आया डींग मारे था। जब सुदर्शन जी ने यह कहा तुमने इतने आदमी मार दिए। ऐसा जुल्म कर दिया। भीम बोला युद्ध ऐसे ही नहीं जीता जाता एक के गदा मारू था 6 मरे थे। तो परमात्मा ने उसकी फड़क निकालनी थी और कुछ परिचय देना था कि इसमें कुछ है। परमात्मा बोले सुदर्शन रूप धारी कबीर साहेब की भीम पहलवान यह मेरी माला उतार कर दिए देख यह खूंटी पर टंग रही। वह गया उतारने के लिए खींचने लग गया पहलवान वह माला नहीं उतरी। वह सुमरनी उतरी नहीं। अरे तू एक मारे था 6 मरें थे पहलवान यह छोटी सी माला नहीं तेरे से उठती ? खसियाना होकर वापस आ गया। परमात्मा ने ऐसे हाथ किया स्वयं  से उतरकर आ गई हाथ में माला। और भोंचक्के  रह गए। अचंभित हुए सारे के सारे। तब परमात्मा को लेकर यज्ञ में आए।

लंबी कहानी है विषय दूसरा चल रहा है। तब उस दाता के भोजन करने से उनका काम बना। जब वह शंख बजा। यह अलग प्रसंग कभी ठीक से जंच कर सुनाऊंगा। अब प्रसंग दूसरा चल रहा है। परमात्मा कह रहे है धर्मदास! तेरे कृष्ण की नीति कुनीति सुन ले। एक तरफ तो  कह रहा था तेरे पाप नहीं लगे। और फिर पाप बता दिए। उन पापों को धोने के लिए जो विधि बताई उससे भी बात नहीं बनी। वह भी समर्थ सक्षम हम थे वहां पर। हमने की। और बच्चों! वह पाप नहीं थे। वह पाप तो थे लेकिन वह प्रेत बाधा थी। वह जो सैनिक मरे थे विधवा रो रही थी वह सैनिक उसको तंग कर रहे थे प्रेत बने हुए। वह प्रेत बाधा भी कृष्ण तक नही ठीक हुई। बच्चों! गरीब दास जी कहते हैं

तुम कौन राम का जपते जापं। ताते कटें ना यह तीनों तापं।।

यह तीन ताप के तहत दुख था उनको। और वह पाप तो ऐसे के ऐसे रखे रह गए। ( ओये होय) अरे कोयल के बच्चों अब तो पकड़ लो अपनी मां की वाणी को क्या कहना चाहते हैं। अब भी इस काग वालो के साथ रहोगे क्या? अब क्या बताते हैं गीता पाठ के अर्थ बतालावे।

पुण्य पीछे बहुपाप लगावे।। बंधु घात दोष लगावा। पांडु के बहू काल सतावा।।

पांडवों को काल ने खूब परेशान किया। और अंत समय क्या हुआ जब दुर्वासा जी ने श्राप दे दिया की जैसे कृष्ण जी के पुत्र प्रद्युमन  और 2- 4- 5 और  बच्चे मिलकर दुर्वासा जी द्वारका की बनी में बैठे थे। तपस्या कर रहे थे। कुछ दिन के लिए कहीं-कहीं रुक जाते थे वह। पता चला की वहां पहुंचा हुआ संत सिद्ध आ रहा है।

द्वारका के बच्चे श्री कृष्ण को समर्थ मान चुके थे की इसने कंस मार दिया, केसिं राक्षस मार दिया। चानौर मार दिया। ऐसे काल्यवन मार दिया तो ऐसे सोच रहे थे कृष्ण से ऊपर धरती पर कोई है ही नहीं। उन्होंने मजाक सूझ गए वह किसी संत साधु का आदर नहीं करते थे।

इस कारण से की हमारे साथ कृष्ण है हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। तो उन्होंने शरारत सूझी की ऐसे कहते है यह दुर्वासा भूत, भविष्य, वर्तमान त्रिकाली बता दे है। तीनों काल की जानता है। चलो इसकी परीक्षा लेंगे। एक प्रद्युमन के पेट पर कढ़ाई बांध दी छोटी सी लोहे की। और लेडीज कपड़े पहना दिए गुजरिया वाले। ऐसा दिखा दिया की जैसे बच्चा पेट में गर्भ में है इसके। ऐसे पूछने गए महाराज इनके कई साल में दया करी दाता ने 12 साल हो गए विवाह को।

अब ये यह जानना चाहते हैं की  इनके लड़का होगा या लड़की? बड़े उतावले हैं। आप भूत भविष्य की सारी जानते हो। दुर्वासा जी ने देखा ध्यान लगाकर की यह तो बकवाद करने आ रहे हैं। गुस्से में होकर ऐसे बोला यादव कुल का नाश होगा इससे। ना लड़का हो, ना लड़की हो। और आंख लाल करी भाग लिए बच्चे थे। सबने आकर बताया पता चला।

यानी उस दुर्वासा के श्राप की   कृष्ण तक बात गई। कृष्ण ने समाधान बताया की इस कढाहे को घिसा कर चूर्ण बनाकर प्रभास क्षेत्र में डाल दो। जमुना में। ऐसा कर दिया गया। फिर भी श्राप ऐसा का ऐसा  रह गया। उस श्राप वश द्वारका में उदमस उतर गया अचानक बालक मर जावे। अचानक कोई और दिक्कत आ जावे। छोटी सी बात पर लठम लठा।  रोज झगड़े होने लग गए। कृष्ण जी के पास फिर गए यह कारण क्या है बताओ भगवान ? इसका समाधान बताओ ? किसी को किसी की बात नहीं सुहा रही। यह कौन सा पाप दुख दे गया नगरी का। कृष्ण जी बोला भाई तुमने यह दुर्वासा का श्राप है यह दुखी कर रहा है। इसका समाधान है तुम जाकर वहां जुमना में स्नान करो प्रभास क्षेत्र में। जहां पर वह कढ़ाई के कण डलवाए थे चूरे बना -बना कर। उसमें एक कड़ा घिसा नहीं था कढ़ाई का। पुरा नहीं घिसा थोड़ा बहुत घिसकर चमकीली सी वस्तु हो गई। वह मछली ने खाली। एक बालिया नाम का मछीयारा था और  साथ में वह शिकारी था। वह मछली पकड़ी वह आ गई उसने काट कर देखी उसमें चमकीली धातु थी। उसका अपना तीर का ऐरो बनवा लिया। आगे का हिस्सा विषाक्त करके। जहर में बुझवा कर। और जो कण थे वह कढ़ाई के बताते हैं उनके सरकंडे उग गए बड़े-बड़े। उनके तीखे पत्ते गजब के तलवार जैसे। और कृष्ण जी ने कहा सारे स्नान करो वहां जाकर। तुम्हारा यह श्राप खत्म हो जाएगा। वह बोले सब बच्चे नर कोई नहीं बचे। गर्भ को छोड़कर। छोटे-छोटे नवजात शिशु भी साथ ले गए कहीं इन पर श्राप ना रह जा। और वहां जाकर सारे लड़ने लग गए।

पाड़ पाड़ कर वह पठेरे सरकंडे एक दूसरे के मारें। तलवार का काम करना शुरू कर दिया। कट कर मर गए 56 करोड़ यादव । फिर कृष्ण जी एक पेड़ के नीचे बैठ गए। उस पारधि सारा दिन शिकारी ने बालिया कौन था? यह  बाली वाली आत्मा थी जो त्रेतायुग में श्री राम ने वृक्ष की ओट लेकर मारा था। उसका अपना बदला लेने के लिए वह बालिया नाम का झीमर बना शिकारी बना। श्री राम श्री कृष्ण बना वह आत्मा। वहां उसके पैर में तीर मार कर श्री कृष्ण मारा। उससे पहले श्री कृष्ण ने बचे हुए बताऊं  स्वयं मारे यादव जाकर। काल कर रहा है इनकी दुर्गति। मरने से पहले उसने वहां संदेशा भेज दिया था। पता था कि यह सारे मरेंगे तो पांचो पांडव वहां पहुंच गए। कृष्ण जी बस तड़पने लग रहे थे। उनको बता दिया कि भाई यहां कोई आदमी बचा नहीं है। इन लेडिज को सारी को ले जाना। यहां लोग इनकी दुर्गति करेंगे। तुम अपने वहां रखना सुरक्षित । और तुम जाकर हिमालय में चले जाओ। वहां रहो भूखे प्यासे तप करो। और वहां गल कर मर जाओ। वापस मत आइयो। तो पूछा जी कारण क्या है? हम अभी तो राज मिला।

20 - 30 साल हमने राज मुश्किल से किया है। अब आप कहते हो  राज त्याग कर वहां चले जाओ। इसका कारण क्या हो गया? क्या गलती बन गई ? की तुमने जो युद्ध में पाप किए थे वह पाप तुम्हें दुखी कर रहे हैं। वहां तप करने से समाप्त हो जाएंगे। तब अर्जुन को कहना पड़ा की हे भगवान! आप ऐसी स्थिति में हो मुझे कहना तो नहीं चाहिए पर मैं रोक भी नहीं सकता अपने आप को। पहले तो आप कह रहे थे गीता में कि ऐसे- ऐसे तेरे को पाप नहीं लगेगा। और यह पाप हमारे सिर पैर रख दिए। फिर भाई के अश्वमयज्ञ करने से खत्म हो जाएंगे वह पाप फिर भी रह गए। तब मैं बोल नहीं पाया। आज मैं रोक नहीं पाया। या तो इसका उत्तर दे दो नहीं तो मेरा जीना भी दूभर हो जाएगा शेष स्वांस।

तब उसने बताया भाई मुझे नही पता मैंने क्या तो गीता में कहा था?  और क्या कुछ तेरे को बोला था ? असली बात यह है अब मैं जो कहूँ यह कर लियो  कुछ पाप तुम्हारे वहां तपस्या से कुछ तप बन जाएगा पाप वगेरा नहीं कटें इससे। उसने यह बताई तप करने से आगे फिर थोड़ा बहुत कोई राज मिल जावेगा। इनके पास इतनी स्टोरी है ज्यादा नहीं। तो बच्चों! देखो काल का जाल उसका अंतिम संस्कार श्री कृष्ण का करके वह चले गए। और अर्जुन को अकेले को ही छोड़ गए की यह अकेला ही योद्धा है कोई खतरा नहीं।

सब लेडीज को लेकर चल पड़ा गोपियों को। रास्ते में भीलों ने पकड़ लिया वहां पीटा इस अर्जुन को। गोपियों लूट ले गए। लड़कियां उठा ले गए हरामजादे। और इसमे वह धनुष साथ ले रहा था जो महाभारत के युद्ध में जो उधमस उतारा था। वह उठा तक नहीं इससे। तब रोवे खड़ा-खड़ा। की इस कृष्ण ने तो हमारा नाश कर दिया। सारे ही  हमारे साथ धोखा किया। जब नाश करवाना था युद्ध में मनुष्य मरवाने थे आदमी जब तो ताकत दे दी अब मैं खड़ा-खड़ा पिट रहा हूँ। गीता भी यही कहती है बलवान का बल मैं हूं बुद्धिमानों की बुद्धि मैं हूं। यहां परमात्मा कबीर जी बताते हैं यह कृष्ण नहीं यह काल इनका बाप यह जुल्म करता है भाई। इनको पता ही नहीं  यह हो क्या रहा है ? धर्मदास यह बातें सुनकर चक्कर में पड़ गया। मूंह की तरफ देखे ही देखे ।

आंख भी नहीं झपकै। हे भगवान! बिल्कुल सौ की सौ सच्ची सारी बात पढ़ा करते। देख कहां धोखे में बैठे थे। साथ में आमनी बैठी दोनों एकटक सुने मालिक के यह अमृतवचन। हे परमात्मा! हम रोज सुना करते हमारे तो पत्थर पड़ गए थे अकल पर। आपके क्या गुण गावे मालिक कैसी आंख खोल दी हमारी। परमात्मा कहते हैं और सुन ले। अब क्या है हिमालय में चले गए सारे पांडव। और वहां सारे मरते गए और जाते गए। तो कहते हैं जब यह पहुंचे ऊपर तो युधिष्ठिर बाद में मरा। और तो सारे बर्फ में गल गए। बर्फ में पैर गल जाते हैं बिल्कुल  लेकिन युधिष्ठिर का अंगूठा अंगूठा गला। बाकी शरीर ज्यों का त्यों  रहा।  मर यह भी गया। जब यह ऊपर गया वह पहले जो चले गए थे मर मर कर चारों पांडव, उनकी माँ कुंती और द्रौपदी वह सारे नर्क में ठोक रखें। यह पहले स्वर्ग ले जाया गया। फिर इसको कुछ समय नर्क में डालना था क्योंकि इसने धर्मदास  झूठ बोली थी युधिष्ठिर ने। कौन सी झूठ बोली थी ?- कि अश्वत्थामा मर गया। द्रोणाचार्य गुरु का बेटा अश्वत्थामा था। 

द्रोणाचार्यर इतना शूरवीर था अगले दिन उसने युद्ध में उतरना था। और कृष्ण जी को पता था उसने बता दिया यदि यह आ गया द्रोणाचार्य तुम्हारे सामने एक को नहीं छोड़ेगा इतना धनुषधारी है। तो इसका इलाज यह है की युधिष्ठिर झूठ बोल दे और कि नहीं मानेगा यह। पहले कईयो  ने  जाकर कहा। यह कह दो की इसका बेटा अश्वत्थामा मर गया। तो यह उस पुत्र मोह में इतना पागल हो जाएगा इसपे हथियार नहीं उठेंगे। और युद्ध तो करेगा ही पर यह हार जाएगा मारा जाएगा। तो युधिष्ठिर को सबने कहा  जाकर की अश्वत्थामा मरा गया। कईयों ने कहा जाकर। दूत भेजें गए दूसरी सेना में। तो द्रोणाचार्य बोला मैं विश्वास नहीं करूं  तुम झूठ बोलते हो। अगर युधिष्ठिर कह देगा तो मैं सच्ची मान लूंगा। तो दूसरे कह वह तो मार दिया वह तो डाल दिया उठाकर, फेक दिया उठाकर हमने। तो युधिष्ठिर को तैयार किया गया की तू यह झूठ बोल। वह मना कर गया की ऐसे तो दिक्कत हो जाएगी। और मैं झूठ नहीं बोल सकता। फिर एक अश्वत्थामा हाथी का नाम था जैसे पशुओं के नाम रख लेते हैं ऐसे।

वह अश्वत्थामा हाथी मार दिया श्री कृष्ण बोला आप यह कह देना अश्वत्थामा मर गया मंदी आवाज में कह दिए पता नहीं  हाथी था या मनुष्य ? युधिष्ठिर इस बात पर राजी हो गया। क्योंकि अगले दिन नाश करना था उसने। तो मन में दोष तो आया उसके। झूठ बोल दी जाकर की आचार्य जी अश्वत्थामा हिते। संस्कृत। ऐसे  कहते द्रोणाचार्य का तो बुरा हाल हो गया चक्कर आने लग गए। की अश्वत्थामा मर गया। फिर मंदी आवाज में कह दिया नर वा कूंजर। नर था या कूंजर हाथी । पता नहीं नर था या कूंजर ? अब वह नर कूंजर कहां सुने था वह तो पागल होकर गिर गया। तो उसके कारण उसको नरक में भेजना था कुछ समय के लिए। तो युधिष्ठिर ने पूछा कि मेरे भाई कहां गए स्वर्ग में।

तो उनको बताया कि उन्होंने पाप करे थे महाभारत में। वह और भी जितने पाप कर रखे थे वह सारे के कारण नर्क में पड़े है। तो युधिष्ठिर बोला की मुझे उनके दर्शन करवाओ। मैं देखना चाहता हूं। देखा सारे हाहाकार मचाने लग रहे। तो बोला मुझे भी मेरे भाई बहनो के परिवार के साथ भेज दो। तो वह चाहते थे की एक बार इसको इसके अंदर डाला जाए तो वह इस कारण से उसको भी कहते है कुछ समय के लिए नरक को भोगना पड़ा। अब यह परमात्मा कहते हैं

बंधु घात दोष लगावा। पांडू के बहू काल सतावा।। भेग हिमालय देही गलाए। छल अनेक किन्हे यमराय।।

बच्चों! और फिर उनको पांडवों को ले नर्क में डाला। बच्चों!

स्वर्ग के धोखे नरक ही जांही। जीव अचेत यम छल चीन्हे नाहीं।।

यह भोले जीव इस काल के इस छल को, इस जाल को, षड्यंत्र को नहीं समझ पा रहे।

पांडव सबको कृष्ण को प्यारे। सो ले नरक में डारे।। वह भी सारे नर्क में डाल दिए।

मानुष जन्म बड़ेपन होई। सो मानष तन जात बिगोई।। नाम बिना नहीं छूटे काहू। बार-बार यम यह नरक ही घालू।। नरक निवारण नाम जो आही। सुरनर मुनिजन जानत कोई नाहीं।।

जो नरक से छुटकारा देने वाला असली नाम है यह तेरे देवता नहीं जानते। नहीं ऋषि जानते। नहीं ब्रह्मा, विष्णु, महेश जानते। ताते यम फिर फिर भटकावै।

नाना योनि में काल सतावे।। विरले सार शब्द पहचाने। सदगुरु मिले तो सतनाम समाने।।

इतना कुछ सुनकर धर्मदास कहता है

हे साहब! मैं तुम पग सिर धरूं। तुमसे कुछ दुविधा नहीं करहूं।। अब मोहे चिन्ह पड़ी यम बाजी। तुम ते भयो मोमिन राजी।।

अब आपके ऊपर मेरी बिल्कुल आत्मा डटगी। मेरा मन बिल्कुल खुश है आपके ऊपर। मेरे हृदय प्रीति अस आई। तुमते होई जीव मुक्ताई।।

अब मुझे विश्वास हो गया कि मेरा कल्याण आपसे होगा। मुझे लगता है

तुम ही सत कबीर हो स्वामी। कृपा करो तुम अंतर्यामी।। हे प्रभु! देवो परवाना मोही। यम तें तोड़ भजूं मैं तोही।। मोर नहीं और सो कामा। निशदिन सुमरुं सतगुरु नामा।। पीतल पत्थर देव  देउँ बहाई। इनको फेंक दूंगा उठाकर। सतगुरु भक्ति करूं चितलाई।। 

हे बंदी छोड़। परमात्मा बोले सुनो धर्मनी अब तोहे मुक्ताऊं। निश्चय यम से तोहे बचाऊं।। देवों परवाना हंस उबारु। जन्म मरण दुख बहु मिटारु।। ले परवाना जो करे प्रतीति। जिंदा कहे चल यम जीती।। अब मोहि आज्ञा देवो धर्मदासा। मैं गवन करूं सतगुरु के पासा।

अब मुझे आज्ञा दे मैं अपने गुरु जी के पास जा रहा हूं।

सतगुरु संग आए तो पाई।

फिर मैं अपने गुरु जी को लेकर आऊंगा तेरे पास।

तब परमाना तोहे मिलाई।।

उनसे तुम्हें नाम दिलवाऊंगा मैं। क्योंकि अभी धर्मदास को  पुरा पक्का करना था। धर्मदास बोले हे प्रभु!

अब तोहे जान ना देहू। नहीं आए तो मैं बहुत पछताऊ।। पछताए- पछताए बहुत दुख पाऊं। नहीं आओ तो प्राण गवाऊं।। हाथ से रत्न खोए कोई डारे। सो मूर्ख निज काम बिगाड़े।

अब मैं कैसे छोडूं आपने ? हाथ से रत्न को कैसे खो दूं ? यदि नहीं आए तो नहीं मैं खाऊं नहीं कुछ पीऊं मैं मरूंगा। आप यदि फिर नहीं आए तो। परमात्मा यह कह कर चल पड़े। क्योंकि अभी ताव और बाकी देना था। धर्मदास आमनी बिल्कुल गली में खड़े हो गए जब तक दिखते रहे आंखों में आंसू भरे रहे। एकटक देखते रहे। बच्चों! परमात्मा आपको मोक्ष दे सदा सुखी रखे। शेष फिर।

दृढ़ हो जाओ। तड़प जाओ उस घर जाने के लिए। परमात्मा आपको मोक्ष दे। सदा सुखी रखे आपको अपने घर की याद बनी रहे। काल का दुख सदा याद रहे।

सत साहिब।।


 

विशेष संदेश भाग 27: नकली गुरु से मोक्ष संभव नहीं →